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बारिश से पहले पाल बांधने वाला समाज आज बांधों के भंवर में फंस गया है। यहीं कारण हैं कि सूखे को झेलने वाला राजस्थान का बाड़मेर बाढ़ के थपेड़ों को सहने को मजबूर है। बिहार को तारने वाले यह बांध अब उसको की डूबाने लगे हैं। अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में आने वाली इन प्राकतिक समस्याओं का इलाज है। पहले सामुदियक जल प्रबंधन के तहत लोग बारशि की बूदों को सहजने के लिए अपने घर की छत के जल को नीचे एक कुंड में साफ-सुथरे तरीके से एकत्र करते थे।बरसात का पानी खेत की फसल की जरुरत को पूरा करने के साथ अन्य क्षेत्रों के जल के साथ पास के तालाब में इकट़ठा होता था। बाद में इस जल से खेती और घरेलू जल की जरुरतें पूरी की जाती थी ।रेगिस्तानी भूमि में करीब पांच छह फूट नीचे चूने की परत बरसाती पानी को रोके रहती थी। बाद में इसका उपयोग पीने व अन्य कामों के लिए किया जाता था। इस तरह सूखे की मार में यह पाल-ताल समाज को बचाकर रखते थे। अब हम इस तरह सामुदायिक जल प्रबंधन को भूलकर राज्य या भारत सरकार के बनाए बांधों की ओर देखने लगे हैं। ये बांध जहां नदियों को बांधकर उनकी हत्या करते हैं । वहीं, दूसरी ओर बाढ़ लाकर कहर बरपाते हैं।
बांध बनने से सामान्य बर्षों में जनता को लाभ मिलता है।लेकिन, बाढ़ आने पर पानी बांध को तोड़कर एकाएक फैलता है। कभी-कभी इसका प्रकोप इतना भयंकर होता है कि चंद घंटों में दस-बारह फूट तक बढ़ जाता है और जनजीवन को तबाह करके रख देता है। बांध बनने से सिल्ट फैलने की बजाए बांधों के बीच जमा हो जाती है।इससे बांध का क्षेत्र ऊपर उठ जाता है। जब बांध टूटता है तो यह पानी वैसे ही तेजी से फैलता है जैसे मिट़टी का घड़ा फूटने पर बांधों से पानी के निकास के रास्ते अवरूद्ध हो जाते हैं। दो नदियों पर बनाए बांधों के बीच पचास से सौ किलोमीटर का एरिया कटोरानुमा हो जाता है। बांध टूटने पर पानी इस कटोरेनुमा क्षेत्र में एकट़ठा हो और इसका निकलना मुश्किल हो जाता है। इससे बाढ़ का प्रकोप शांत होने में काफी समय लगता है।
इन समस्याओं के चलते बांध बनने से परेशानियां बढ़ी हैं। जाहिर है कि बांध बनाने की वर्तमान पद्धति कारगर नहीं है।सामुदायिक जल प्रबंधन होने से पाल-ताल बनने बंद हो गए हैं, जिससे हमें साल बाढ़ विभिषका से दो-चार होना पड़ रहा है।
सरकार को चाहिए कि अंधाधुंध बांध बनाने की वर्तमान नीति पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए। पहले विकल्प में नदियों के पर्यावरणीय प्रवाह को बररार रखा जाना चाहिए । दूसरा विकल्प उंचे और स्थायी बांध बनाने की वर्तमान नीति का है। तीसरा विकल्प प्रकृतिप्रस्त बाढ़ के साथ जीने के लिए लोगों को सुविधा मुहैया कराने का है। इसमें फ्लड रूफिंग के लिए ऊंचे सुरक्षित स्थानों का निर्माण, सुरक्षित संचार एवं पीने के पानी की इत्यादि की व्यवस्था शामिल है, जिससे बाढ़ के साथ जीवित रह सके। धरती के ऊपर बड़े बांधों से अति गतिशील बाढ़ का प्रकोप बढ़ने लगा है। इसे रोकने के लिए जल का अविरल प्रवाह को बनाए रखना होगा। इस काम से ही जल के सभी भंड़ारों को भरा रखा जा सकता है। चूंकि, बाढ़ और सूखा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।इसलिए इन दानों के समाधान जल का सामुदायिक जल प्रबंधन ताल-पाल और झाल से ही संभव है।
कैद हैं नदियां
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रने वाले उपहार के तौर पर देखेगा, न कि लालच की पूर्ति करने वाले खजाने के तौर पर। लेकिन, पिछले 64 वर्षों के आजाद भारत के सफरनामे में ऐसा नहीं हुआ। जिस देश में नदियों को कैद करने के लिए दिन- प्रतिदिन एक नई कोशिश चल रही है। ऐसे में 15 अगस्त के दिन स्वतंत्रता अदायगी से ज्यादा कुछ नहीं है।
यादि भारत की आजादी को गौरवशाली बनाकर रखना है तो हमें अपनी नदियों के प्रवाह को शुद्ध-सदानीरा, नैसर्गिक और आजाद बनाना होगा। नदियों की आजादी का रास्ता नदीं तट पर फैली उसकी बाजुओं की हरियाली में छुपा है। भारत की आजदी, बाघ और जानवरों की आजदी रखने वाले जंगलों बचाने और नदियों के स्वच्छंद बहाव से ही कायम रहेगी।नदियों के किनारे सघन और स्थानीय जैव विविधता का सम्मान करने वाली हरित पटि़टयों का विकास से संभव है। लेकिन, यह तभी संभव हो सकता है जब नदियों की भूमि अतिक्रमण और प्रदूषण से मुक्त हो। नदी भूमि का हस्तानान्तरण और रूपांतरण रुके।
उत्तराखंड में भागीरथी पर बांध, दिल्ली में यमुना में खेलगांव-मेटो आदि का निर्माण, उत्तर प्रदेश में गंगा एक्सप्रेस वे नाम का तटबंध, बिहार और बंगाल में क्रमशः पहले से ही बंधी कोसी और हुगली जैसी नदियों को कैद करने का काम ही है। नदी और भूमि की मुक्ति के लिए पिछले कई वर्षों से संधर्ष जारी है लेकिन सरकारें हैं कि बिना सोचे विचारे अपनी जिदपर अड़ी हुर्इ हैं।
समस्या के हल के लिए धन से ज्यादा धुन की जरूरत
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आज भी हमारे ताल-तलैये झीलों और नदीयों को सम्रद्ध रखने वाली वर्षा के सालाना औसत में बहुत कमी नहीं आई है। जल संरक्षण के नाम पर धन राशि कोई कम खर्च नहीं हुई। जल संरक्षण को लेकर अच्छे कानून और शानदार अदालती आदेशों की भी एक नहीं अनेक मिसाल हैं। वर्षा जल के संचय की तकनीक और उपयोग में अनुशासन की जीवन शैली तेा हमारे गांव का कोई गंवार भी आपको सिखा सकता है। लेकिन, ये हमारी आंखों का पानी नहीं ले जा सकते।
भारतीय संस्कृति में समाज को प्रकृति अनुकूल अनुशासित जीवनशैली हेतु निर्देशित व प्रेरित करने का दायित्व धर्मगुरूओं का था। तद्नुसार समाज पानी के काम को धर्मार्थ का आवश्यक व साझा काम मानकर किया करता था। इसके लिए महाजन धन शासक भूमि व संरक्षण प्रदान करता था। आज सभी अपने-अपने दायित्व से विमुख हो गए है। स्वंय धर्मगुरूओं के आश्रमों का कचरा नदियों में जाता हैं समाज सोच रहा है हम सरकार को वोट ओर नोट देते हैं अतः सबकुछ सरकार करेगी। सरकारें हैं कि इनमें पानी के प्रति प्रतिबद्धता कहीं दिखाई नहीं दे रही। सरकारी योजनाओं के पैसे से बेईमान अपनी तिजोरियां भर रहे हैं। वरना एक अकेले मनरेगा के कार्य ही देश के तालाबों का उद्धार कर देते।
इतिहास के झरोखे सेः जल संरक्षण के पारंपरिक तरीके आज भी उतने ही कारगर
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वह अपने गज से भी नापता है तो कम से कम उसके मन में ऐसे सवाल तो उठते कि उस दौर में कहां थी? आइआइटी? कौन थे उसके निर्देशक? कितना बजट था? कितने सिविल इंजीनियर निकलते थे? लेकिन, उसने इन सब को गए जमाने का गया-बीता काम माना और पानी के प्रश्न को नए ढ़ग से हल करने का वादा भी कियाऔर दावा भी। गांवों कस्बों की तो कौन कहे, बड़े शहरों के नलों में चाहे जब बहने वाला सन्नाटा इस वायदे और दावे पर सबसे मुखर टिप्पणी है। इस समय के समाज के दावों को इसी समय के गज से नापें तो कभी दावे छोटे पड़ते हैं तो कभी गज ही छोटा निकल आता है।
एकदम महाभारत और रामायण के तालाबों को अभी छोड़ दें तो भी कहा जा सकता है कि कोई पांचवी सदी से पंद्रहवी सदी तक देश के इन कोने से उसे कोने तक तालाब बनते ही चले आए थे। कोई एक हजार वर्ष तक आबाध गति से चलती रही इस परंपरा में पंद्रहवीं सदी के बाद कुछ बाधाएं आने लगी थी। पर, उस दौर में भी यह धारा पूरी तरह से रूक नहीं पाई,सूखा नहीं पाई। समाज ने जिस काम को इतने लंबे समय तक बहुत व्यवस्थित रूप में किया था। उस काम को उथल-पुथल का वह दौर भी पूरी तरह से मिटा नहीं सका। आठहरवीं और उन्नीसवीं सदी के अंत तक भी जगह-जगह पर तालाब बन रहे थे।लेकिन, फिर बनाने वाले लोग भी धीरे-धीरे कम होते गए। गिनने वाले कुछ जरूर आ गए,पर जितना बड़ा काम था उस हिसाब से गिनने वाले बहुत ही कम थे और कमजोर भी। इसलिए ठीक गिनती भी कभी भी नहीं हो पाई।धीरे-धीरे टुकड़ों में तालाब गिने गए पर सब टुकड़ों को कुल मेल कभी बिठाया नहीं गया। लेकिन, इन टुकड़ों कीझिलमिलाहट समग्र चित्र की चमक दिखा सकती है।
राज्यों की स्थिति
उत्तर प्रदेश
- कुल जल निकाय की संख्या - 84,647
- जल निकायों से धिरा रकबा - 73,053 हेक्टेयर
- राज्य का रकबा - 240.928 लाख हेक्टेयर
- एक दशक पहले मौजूद जल निकाय - 84,647
- एक दशक पहले मौजूद सतह पर मौजूद जल की मात्रा - 12.21 मिलियन हेक्टेयर मीटर
- सतह पर उपलब्ध जल की वर्तमान मात्रा - 12.21 मिलियन हेक्टेयर मीटर
- प्रदेश में औसतन सालाना बारिश - 235.4 लाख हेक्टेयर मीटर पानी की बारिश
- सिचाई के लिए उपयोग में सतही पानी की हिस्सेदारी - 7.8 मिलियन हेक्टेयर मीटर
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सरकारी प्रयासः
- हर 52 ग्राम सभाओं के बीच कम से कम एक तालाब बनाना है या मौजूद तालाब जीणोद्धार करवाना
हिमाचल प्रदेश
- जल निकायों की संख्या - 7495
- राज्य का रकबा - 55673 वर्ग किमी
- कुल रकबे की तुलना में जल निकायों की क्षेत्रफल - 35फीसदी
- एक दशक पहले जल निकायों की संख्या - 5,779
- सतह उपलब्ध जल की वर्तमान मात्रा में कमी - 20 फीसदी
- सिचार्इ के लिए उपयोग लाए जा रहे सतह पर मौजूद पानी की हिस्सेदारी-23,507 एसीएम
- सालाना औसत बारिश - 1300 मिमी
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सरकारी प्रयासः
- वाटर मैनेजमेंटबोर्ड केतहत रेन हार्वेस्टिंग स्कीम, वन, आइपीएच तथा ग्रामीण विकास विभाग काम कर रहा है
- नई जल नीति में पनबिजली परियोजनाओं के लिए कम से कम 15 फीसदी पानी छोड़ने की अनिर्वयता का प्रावधान
झारखंड
- कुल जल निकायों की संख्या - सरकारी 15,746, निजी तालाब 85,849, कुल 1,01,595
- पूरे राज्य का रकबा - 79714 वर्ग किमी
- कुल रकबों की तुलना में जल निकायों का क्षेत्र - 5 फीसदी
- सतह उपलब्ध जल की मात्रा - 237890 लाख घन मीटर
- सतही पानी की सिंचाई में हिस्सेदारी - 17 फीसदी
- सालाना औसत बारिश - 1100 - 1200 मिमी
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सरकारी प्रयासः
- डैम व तालाबों के गहरे करने की योजना
पश्चिम बंगाल
- जल निकायों की संख्या - 5.45 लाख
- राज्य का रकबा - 88752वर्ग किमी
- कार्यरत जल स्त्रोतों की संख्या - 2.93 लाख
- धरती पर उलब्ध जल की मात्रा - 13.29मिलियन हेक्टेयर मीटर
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सरकारी प्रयासः
- सदियों पुराने तालाब, झील, तालाब, तड़ाग और अन्य जल स्त्रोतों को जीवन करने की योजना का प्रारंभ
- वर्ष के जल को संरक्षित करने का कार्य
उत्तराखंड
- उत्तराखंड को एशिया का जल स्तंभ कहा जाता है, उत्तराखंड से बारह बड़ी नदियां और कई सहायक नदियां निकलती हैं।राज्य औसतन 1200 मिमी होती है।मानसून के दौरान नदियों का जल स्तर कई गुना बढ़ जाता है।
- उत्तराखंड में कुल 22707 जल प्राकृतिक जल स्त्रोत हैं।यह एक वर्ष में प्राकृतिक पेय जल स्त्रोतों में पचास फीसदी से ज्यादा की गिरावट दर्ज की गई जो कि चिंता का विषय है।
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiH3FczISLeF-OzzF1dQJ7Uv2EmjhZGPekwf7cYSHO_7PJEMd_UT7Gx9S6xSMrDnEBnRep5JOmjsxB3amR-dUIv7yLM0_Qw3fB6Djd266ZDdXvcwVc4_YusrXaNmpr0jp7Rhu0homqFUKdx/s320/uttaranchal-india-maps.gif)
सरकारी प्रयासः
- सतह पर मौजूद जल निकायों के संरक्षण के लिए वनीकरण
- रेन वाटर हार्वेस्टिंग के जरिए जल स्त्रोतों को रिचार्ज करने का प्रयास
जम्मू कश्मीर
- जल निकायों की संख्या - 1248
- जल निकायों का रकबा - 291.07वर्ग किमी
- राज्य का रकबा - 222236 वर्ग किमी
- एक दशक पहले जल निकायों की संख्या - 38
- सिचाई में प्रयोग किए जा रहे सतही की हिस्सेदारी - 25 फीसदी
- सालना औसत बारिश -998 मिमी
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सरकारी प्रयासः
- सतह पर मौजूद जल और जल निकायों के संरक्षण के लिए फरवरी 2011 में वाटर रिसोर्सेस एक्ट लागू किया गया। एक्ट के मुताबिक सरकार पनबिजली परियोजनाओं से किराया बसूलेगी। पानी का किराया दोगुना करने के साथ पानी के मीटर लगाने की भी तैयारी है ताकि लोग जरूरत के मुताबिक ही पानी खर्च करें।
बिहार
- कुल जल स्त्रोतों की संख्या - 20938
- राज्य का रकबा - 94163 वर्ग किमी
- कार्यरत जल स्त्रोतों की संख्या - 17683
- सतह पर मौजूद जल - 34053घन किमी
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgngO41yPEc8yidBlGkNE0-6R39xO7ZdE4iUjsFM2nt6sPV-SRPlUgQbgycanscpnlxy9OP1kHXr8Eam9LrSkyVC860vVGJ_St8YKzIt2QEi-QFshN3KDMCI2Vh7xwAfM3_gPyvsiqNQosv/s320/bihar.jpg)
सरकारी प्रयासः
- मौर्य काल 327-297 ई पूर्व निर्मित सिंचाई स्त्रोत आहर, पइन, व तालाबों को पुनजीर्विजत करने की योजना पर काम शुरू
- नदी जोड़ योजना पर काम जारी
देश में सतह पर मौजूद जल की स्थिति
- 14 प्रमुख नदियां, 44 मझोली नदियों और छोटी-छोटी धाराओं में सालाना 1645 हजार मिलियन क्यूबिक मीटर (टीमएमसी) पानी बहता है
- हर साल 3816 टीमएमसी पानी बारिस से प्राप्त होता है
- हिमालय क्षेत्र में स्थित 1500 ग्लेशियरों की कुल बर्फ का आयतन करीब 1400 घन किमी
- जम्मू कश्मीर में डल और वुलर, आध्र प्रदेश में कोलेरू, उडीसा में चिलका, तमिलनाडु की पुलीकट जैसी कई बड़ी प्राकृतिक झीलें हैं
पर्यावरण संरक्षण पर विशेष वीडियो, जरूर देखें
1 टिप्पणी:
very good article Aashish ji. i praise your article
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