बुधवार, 12 फ़रवरी 2014

जाटों का इतिहास



जाट शब्द का निर्माण संस्कृत के 'ज्ञात' शब्द से हुआ है। अथवा यों कहिये की यह 'ज्ञात' शब्द का अपभ्रंश है। लगभग १४५० वर्ष ई० पूर्व में अथवा महाभारत काल में भारत में अराजकता का व्यापक प्रभाव था। यह चर्म सीमा को लाँघ चुका था। उत्तरी भारत में साम्राज्यवादी शासकों ने प्रजा को असह्य विपदा में डाल रखा था। इस स्थिति को देखकर कृष्ण ने अग्रज बलराम की सहायता से कंस को समाप्त कर उग्रसेन को मथुरा का शासक नियुक्त किया। कृष्ण ने साम्राज्यवादी शासकों से संघर्ष करने हेतु एक संघ का निर्माण किया। उस समय यादवों के अनेक कुल थे किंतु सर्व प्रथम उन्होंने अन्धक और वृष्नी कुलों का ही संघ बनाया। संघ के सदस्य आपस में सम्बन्धी होते थे इसी कारण उस संघ का नाम 'ज्ञाति-संघ' रखा गया। [१][२] [३]
इतिहासकारों के मुताबिक महाभारत युद्ध के पश्चात् राजनैतिक संघर्ष हुआ जिसके कारण पांडवों को हस्तिनापुर तथा यादवों को द्वारिका छोड़ना पड़ा। ये लोग भारत से बाहर ईरान, अफगानिस्तान, अरब, और तुर्किस्तान देशों में फ़ैल गए। चंद्रवंशी क्षत्रिय जो यादव नाम से अधिक प्रसिद्ध थे वे ईरान से लेकर सिंध, पंजाब, सौराष्ट्र, मध्य भारत और राजस्थान में फ़ैल गए। पूर्व-उत्तर में ये लोग कश्मीर, नेपाल, बिहार तक फैले। यही नहीं मंगोल देश में भी जा पहुंचे। कहा जाता है कि पांडव साइबेरिया में पहुंचे और वहां वज्रपुर आबाद किया। यूनान वाले हरक्यूलीज की संतान मानते हैं और इस भांति अपने को कृष्ण तथा बलदेव की संतान बताते हैं। चीन के निवासी भी अपने को भारतीय आर्यों की संतान मानते हैं। इससे आर्यों को महाभारत के बाद विदेशों में जाना अवश्य पाया जाता है। ये वही लोग थे जो पीछे से शक, पल्लव, कुषाण, यूची, हूण, गूजर आदि नामों से भारत में आते समय पुकारे जाते हैं। [४]
यह 'ज्ञाति-संघ' व्यक्ति प्रधान नहीं था। इसमें शामिल होते ही किसी राजकुल का पूर्व नाम आदि सब समाप्त हो जाते थे। वह केवल ज्ञाति के नाम से ही जाना जाता था।[२] प्राचीन ग्रंथो के अध्ययन से यह बात साफ हो जाती है की परिस्थिति और भाषा के बदलते रूप के कारण 'ज्ञात' शब्द ने 'जाट' शब्द का रूप धारण कर लिया। महाभारत काल में शिक्षित लोगों की भाषा संस्कृत थी। इसी में साहित्य सर्जन होता था। कुछ समय पश्चात जब संस्कृत का स्थान प्राकृत भाषा ने ग्रहण कर लिया तब भाषा भेद के कारण 'ज्ञात' शब्द का उच्चारण 'जाट' हो गया। आज से दो हजार वर्ष पूर्व की प्राकृत भाषा की पुस्तकों में संस्कृत 'ज्ञ' का स्थान '' एवं '' का स्थान '' हुआ मिलता है। इसकी पुष्टि व्याकरण के पंडित बेचारदास जी ने भी की है। उन्होंने कई प्राचीन प्राकृत भाषा के व्याकरणों के आधार पर नविन प्राकृत व्याकरण बनाया है जिसमे नियम लिखा है कि संस्कृत 'ज्ञ' का '' प्राकृत में विकल्प से हो जाता है और इसी भांति '' के स्थान पर '' हो जाता है। [५] इसके इस तथ्य कि पुष्टि सम्राट अशोक के शिला लेखों से भी होती है जो उन्होंने २६४-२२७ इस पूर्व में धर्मव्लियों के स्तंभों पर खुदवाई थी। उसमें भी कृत के सतह पर कट और मृत के स्थान पर मत हुआ मिलाता है। अतः उपरोक्त प्रमाणों के आधार पर सिद्ध होता है कि 'जाट' शब्द संस्कृत के 'ज्ञात' शब्द का ही रूपांतर है।अतः जैसे ज्ञात शब्द संघ का बोध करता है उसी प्रकार जाट शब्द भी संघ का वाचक है। [६]
इसी आधार पर पाणिनि ने अष्टाध्यायी व्याकरण में 'जट' धातु का प्रयोग कर 'जट झट संघाते' सूत्र बना दिया। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि जाट शब्द का निर्माण ईशा पूर्व आठवीं शदी में हो चुका था। पाणिनि रचित अष्टाध्यायी व्याकरण का अध्याय ३ पाद ३ सूत्र १९ देखें:
३। ३। १९ अकर्तरि च कारके संज्ञायां
अकर्तरि च कारके संज्ञायां से जट् धातु से संज्ञा में घ ञ् प्रत्यय होता है। जट् + घ ञ् और घ ञ प्रत्यय के घ् और ञ् की इति संज्ञा होकर लोप हो जाता है। रह जाता है अर्थार्त जट् + अ ऐसा रूप होता है। फ़िर अष्टाध्यायी के अध्याय ७ पाद २ सूत्र ११६ - ७। २। ११६ अतः उपधायाः से उपधा अर्थार्त जट में के अक्षर के के स्थान पर वृद्धि अथवा दीर्घ हो जाता है। जाट् + अ = जाट[७]
व्याकरण भाष्कर महर्षि पाणिनि के धातु पाठ में जाट व जाट शब्दों की विद्यमानता उनकी प्राचीनता का एक अकाट्य प्रमाण है। इसके बाद ईसा पूर्व पाँचवीं शदी के चन्द्र के व्याकरण में भी इस शब्द का प्रयोग हुआ है।[८]
द्वारिका के पतन के बाद जो ज्ञाति-वंशी पश्चिमी देशों में चले गए वह भाषा भेद के कारण गाथ कहलाने लगे तथा 'जाट' जेटी गेटी कहलाने लगे।[९] के नाम से उन देशों में चिन्हित हुए। मइल
जाट संघ में शामिल वंश
श्री कृष्ण के वंश का नाम भी जाट था। इस जाट संघ का समर्थन पांडव वंशीय सम्राट युधिस्ठिर तथा उनके भाइयों ने भी किया। आज की जाट जाति में पांडव वंश पंजाब के शहर गुजरांवाला में पाया जाता है। समकालीन राजवंश गांधार, यादव, सिंधु, नाग, लावा, कुशमा, बन्दर, नर्देय आदि वंश ने कृष्ण के प्रस्ताव को स्वीकार किया तथा जाट संघ में शामिल हो गए। गांधार गोत्र के जाट रघुनाथपुर जिला बदायूँ में तथा अलीगढ़ में और यादव वंश के जाट क्षत्रिय धर्मपुर जिला बदायूं में अब भी हैं। सिंधु गोत्र तो प्रसिद्ध गोत्र है। इसी के नाम पर सिंधु नदी तथा प्रान्त का नाम सिंध पड़ा। पंजाब की कलसिया रियासत इसी गोत्र की थी। नाग गोत्र के जाट खुदागंज तथा रमपुरिया ग्राम जिला बदायूं में हैं। इसी प्रकार वानर/बन्दर गोत्र जिसके हनुमान थे वे पंजाब और हरयाणा के जाटों में पाये जाते हैं। नर्देय गोत्र भी कांट जिला मुरादाबाद के जाट क्षेत्र में है। [३]
पुरातन काल में नाग क्षत्रिय समस्त भारत में शासक थे। नाग शासकों में सबसे महत्वपूर्ण और संघर्षमय इतिहास तक्षकों का और फ़िर शेषनागों का है। एक समय समस्त कश्मीर और पश्चिमी पंचनद नाग लोगों से आच्छादित था। इसमें कश्मीर के कर्कोटक और अनंत नागों का बड़ा दबदबा था। पंचनद (पंजाब) में तक्षक लोग अधिक प्रसिद्ध थे। कर्कोटक नागों का समूह विन्ध्य की और बढ़ गया और यहीं से सारे मध्य भारत में छा गया। यह स्मरणीय है कि मध्य भारत के समस्त नाग एक लंबे समय के पश्चात बौद्ध काल के अंत में पनपने वाले ब्रह्मण धर्म में दीक्षित हो गए। बाद में ये भारशिव और नए नागों के रूप में प्रकट हुए। इन्हीं लोगों के वंशज खैरागढ़, ग्वालियर आदि के नरेश थे। ये अब राजपूत और मराठे कहलाने लगे। तक्षक लोगों का समूह तीन चौथाई भाग से भी ज्यादा जाट संघ में सामिल हो गए थे। वे आज टोकस और तक्षक जाटों के रूप में जाने जाते हैं। शेष नाग वंश पूर्ण रूप से जाट संघ में सामिल हो गया जो आज शेषमा कहलाते हैं। वासुकि नाग भी मारवाड़ में पहुंचे। इनके अतिरिक्त नागों के कई वंश मारवाड़ में विद्यमान हैं। जो सब जाट जाति में सामिल हैं।[१०]
जाट संघ से अन्य संगठनों की उत्पति
जाट संघ में भारत वर्ष के अधिकाधिक क्षत्रिय शामिल हो गए थे। जाट का अर्थ भी यही है कि जिस जाति में बहुत सी ताकतें एकजाई हों यानि शामिल हों, एक चित हों, ऐसे ही समूह को जाट कहते हैं। जाट संघ के पश्चात् अन्य अलग-अलग संगठन बने। जैसे अहीर, गूजर, मराठा तथा राजपूत। ये सभी इसी प्रकार के संघ थे जैसा जाट संघ था। ।[११]
जाट जनसंख्या
वर्ष १९३१ के बाद भारत में जाति आधारित जनगणना नहीं की गयी है, परन्तु जाट इतिहासकार कानूनगो के अनुसार वर्ष १९२५ में जाट जनसंख्या ९० लाख थी जो वर्त्तमान में करीब ३ करोड़ है तथा धर्मवार विवरण इसप्रकार है:[१२]


प्राचीन समुदाय
इसका उल्लेख महाभारत के शल्यपर्व में किया गया है कि जब ब्रह्माजी ने स्वामी कार्तिकेय को समस्त प्राणियों का सेनापति नियुक्त किया गया तब अभिषेक के समय उपस्तित यौद्धावों में एक जट नामक सम्पूर्ण सेनाध्यक्षों
अर्थात:-जाट जाति का इतिहास अत्यन्त आश्चर्यमय है। इस इतिहास में विप्र जाति का गर्व खर्च होता है इस कारण इसे प्रकाश नहीं किया। हम इस इतिहास को यथार्थ रूप से वर्णन करते हैं।
शिव और जाट
जाट इतिहासकार जाट की उत्पति शिव की जटा से मानते हैं. ठाकुर देशराज [१३] लिखते हैं कि जाटों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक मनोरंजक कथा कही जाती है. महादेवजी के श्वसुर राजा दक्ष ने यज्ञ रचा और अन्य प्रायः सभी देवताओं को तो यज्ञ में बुलाया पर न तो महादेवजी को ही बुलाया और न ही अपनी पुत्री सती को ही निमंत्रित किया. पिता का यज्ञ समझ कर सती बिना बुलाए ही पहुँच गयी, किंतु जब उसने वहां देखा कि न तो उनके पति का भाग ही निकाला गया है और न उसका ही सत्कार किया गया इसलिए उसने वहीं प्राणांत कर दिए. महादेवजी को जब यह समाचार मिला, तो उन्होंने दक्ष और उसके सलाहकारों को दंड देने के लिए अपनी जटा से 'वीरभद्र' नामक गण उत्पन्न किया. वीरभद्र ने अपने अन्य साथी गणों के साथ आकर दक्ष का सर काट लिया और उसके साथियों को भी पूरा दंड दिया. यह केवल किंवदंती ही नहीं बल्कि संस्कृत श्लोकों में इसकी पूरी रचना की गयी है जो देवसंहिता के नाम से जानी जाती है. इसमें लिखा है कि विष्णु ने आकर शिवाजी को प्रसन्न करके उनके वरदान से दक्ष को जीवित किया और दक्ष और शिवाजी में समझोता कराने के बाद शिवाजी से प्रार्थना की कि महाराज आप अपने मतानुयाई 'जाटों' का यज्ञोपवीत संस्कार क्यों नहीं करवा लेते? ताकि हमारे भक्त वैष्णव और आपके भक्तों में कोई झगड़ा न रहे. लेकिन शिवाजी ने विष्णु की इस प्रार्थना पर यह उत्तर दिया कि मेरे अनुयाई भी प्रधान हैं.
देवसंहिता के कुछ श्लोक जो जाटों के सम्बन्ध में प्रकाश डालते हैं वे निम्न प्रकार हैं-
पार्वत्युवाचः
भगवन सर्व भूतेश सर्व धर्म विदाम्बरः
कृपया कथ्यतां नाथ जाटानां जन्म कर्मजम् ।।१२।।
अर्थ- हे भगवन! हे भूतेश! हे सर्व धर्म विशारदों में श्रेष्ठ! हे स्वामिन! आप कृपा करके मेरे तईं जाट जाति का जन्म एवं कर्म कथन कीजिये ।।१२।।
का च माता पिता ह्वेषां का जाति बद किकुलं ।
कस्तिन काले शुभे जाता प्रश्नानेतान बद प्रभो ।।१३।।
अर्थ- हे शंकरजी ! इनकी माता कौन है, पिता कौन है, जाति कौन है, किस काल में इनका जन्म हुआ है ? ।।१३।।
श्री महादेव उवाच:
श्रृणु देवि जगद्वन्दे सत्यं सत्यं वदामिते ।
जटानां जन्मकर्माणि यन्न पूर्व प्रकाशितं ।।१४।।
अर्थ- महादेवजी पार्वती का अभिप्राय जानकर बोले कि जगन्माता भगवती ! जाट जाति का जन्म कर्म मैं तुम्हारी ताईं सत्य-सत्य कथन करता हूँ कि जो आज पर्यंत किसी ने न श्रवण किया है और न कथन किया है ।।१४।।
महाबला महावीर्या, महासत्य पराक्रमाः ।
सर्वाग्रे क्षत्रिया जट्‌टा देवकल्‍पा दृढ़-व्रता: || १५ ||
अर्थ- शिवजी बोले कि जाट महाबली हैं, महा वीर्यवान और बड़े पराक्रमी हैं क्षत्रिय प्रभृति क्षितिपालों के पूर्व काल में यह जाति ही पृथ्वी पर राजे-महाराजे रहीं । जाट जाति देव-जाति से श्रेष्ठ है, और दृढ़-प्रतिज्ञा वाले हैं || १५ ||
श्रृष्टेरादौ महामाये वीर भद्रस्य शक्तित: ।
कन्यानां दक्षस्य गर्भे जाता जट्टा महेश्वरी || १६ ||
अर्थ- शंकरजी बोले हे भगवती ! सृष्टि के आदि में वीरभद्रजी की योगमाया के प्रभाव से उत्पन्न जो पुरूष उनके द्वारा और ब्रह्मपुत्र दक्ष महाराज की कन्या गणी से जाट जाति उत्पन्न होती भई, सो आगे स्पष्ट होवेगा || १६ ||
गर्व खर्चोत्र विग्राणां देवानां च महेश्वरी ।
विचित्रं विस्‍मयं सत्‍वं पौराण कै साङ्गीपितं || १७ ||
अर्थ- शंकरजी बोले हे देवि ! जाट जाति की उत्पत्ति का जो इतिहास है सो अत्यन्त आश्चर्यमय है । इस इतिहास में विप्र जाति एवं देव जाति का गर्व खर्च होता है । इस कारण इतिहास वर्णनकर्ता कविगणों ने जाट जाति के इतिहास को प्रकाश नहीं किया है || १७ ||
संदर्भ
  1. Shanti Parva Mahabharata Book XII Chapter ८२
  2. ठाकुर गंगासिंह: "जाट शब्द का उदय कब और कैसे", जाट-वीर स्मारिका, ग्वालियर, १९९२, पृ। ६
  3. किशोरी लाल फौजदार: "महाभारत कालीन जाट वंश", जाट समाज, आगरा, जुलाई १९९५, पृ ७
  4. ठाकुर देशराज:जाट इतिहास, दिल्ली, पृष्ठ ३०
  5. प्राकृत व्याकरण द्वारा बेचारदास, पृ। ४१
  6. ठाकुर गंगासिंह: "जाट शब्द का उदय कब और कैसे", जाट-वीर स्मारिका, ग्वालियर, १९९२, पृ। ७
  7. http://wwwjatlandcom/forums/showthreadphp?p=१७०८५९#post१७०८५९
  8. ठाकुर गंगासिंह: "जाट शब्द का उदय कब और कैसे", जाट-वीर स्मारिका, ग्वालियर, १९९२, पृ। ७
  9. जाट इतिहास ठाकुर देशराज पृ ९६
  10. किशोरी लाल फौजदार: "महाभारत कालीन जाट वंश", जाट समाज, आगरा, जुलाई १९९५, पृ ८
  11. किशोरी लाल फौजदार: "महाभारत कालीन जाट वंश", जाट समाज, आगरा, जुलाई १९९५, पृ ८
  12. Kalika Ranjan Qanungo: History of the Jats, Delhi २००३. Edited and annotated by Dr Vir Singh
  13. ठाकुर देशराज: जाट इतिहास , महाराजा सूरजमल स्मारक शिक्षा संस्थान , दिल्ली, १९३४, पेज ८७-८८.