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बुधवार, 13 नवंबर 2013

मेरा मुझसे मेरा सवाल है



मेरा मुझसे मेरा सवाल है
मैं कौन हूं?

क्या  मेरा  नाम  ही मैं हूं?
क्या   मेरा  ज्ञान ही मैं हूं?
क्या   मेरा   मन ही मैं हूं?
क्या   मेरा  अहं  ही मैं हूं?
क्या   मेरा चित्त ही मैं हूं?

क्या मेरी असफलताएं मैं हूं?
क्या  मेरी  सफलताएं मैं हूं?
क्या  मेरी  बदनामी  मैं हूं? 
क्या  मेरी  ख्याति   मैं हूं?
क्या   मेरी  दयालुता मैं हूं?

क्या मेरे अनुभव   ही मैं हूं?
क्या  मेरे    भाव ही मैं हूं?
क्या  मेरे  सुख   ही मैं हूं?
क्या  मेरे  दुख   ही मैं हूं?
क्या  मेरे   संबंध ही मैं हूं?


नहीं,

मैं अजर,  अमर    अविनाशी  हूं
स्व में अधिष्ठित स्व अधिशासी हूं
परम ज्ञान  ज्योति से   प्रकाशित
गूढ़ अंत:करण  में जो है विराजित  

मैं  द्रारिद्रय,  दु:ख,  भय से मुक्त
निष्पाप,  संवेदना.  तेज  से युक्त
दोष   पापादि  से हूं सदा   रिक्त
काल के आदि  स्वामी का हूं भक्त

मैं समस्त  प्रतिभा का आदि कारण हूं 
मैं   शुभ   योग  पथ का  पथिक हूं
मैं ब्रह्मा,  विष्णु, महेश द्वारा प्रचारित
मैं  आत्मा हूं, जो हर जीव में विराजित


-    आशीष कुमार


शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

अज्ञात रिश्ता



वहां एक विशाल किला था
उसकी चारदीवारी लाल रंगी थीं
किले के दरवाजे
अंदर की ओर खुलते थे   
दरवाजे के बायीं ओर थे
कीचड़ से भरे दो तालाब
जिसमें कमल खिले हुए थे    
कुछ पथ्थर बिखरे हुए
कुछ कदम चलने पर
नीचे की ओर ढलान पर 
साफ पानी से भरा हुआ
एक बड़ा सा था तालाब
जिसके बीच था एक टापू
जहां बना था एक मंदिर
लोग उधर जा रहे थे
मैं और मेरा साथी
साथी मेरा अपरिचित
चेहरा अस्पष्ट व धुंधला
वह सफेद रंग की नाव लाया
आकार में बेहद छोटी
सवाल मन में आया
दो सवार कैसे जाएं
अगले ही कुछ पल बाद
नाव में सवार होकर  
हम मंदिर में थे
मंदिर में आरती हो रही थी   
हमने आरती की
अगले ही पल
हम दूसरी नाव में थे
नाव आकार में बड़ी थी
अगला हिस्सा निकला हुआ
सवार होकर आगे बढे
धाराओं पर तेजी से बढते हुए
महल के अंदर जा पहुंचे
महल सजा हुआ था
उसकी सुंदरता अद्वितीय थी
महल को घुमकर देखने लगे
वहां समारोह चल रहा था
काफी लोग इकट्ठे थे
राजा स्वागत कर रहा था
वह इधर-उधर घुम रहा था
उसके वस्त्र राजसी थे
गले में मोतियों की माला
पैरों में चमकती जूतियां
चाल में गर्वित उत्साह
होठों पर मुस्कराहट
लेकिन चेहरा कांतिहीन
अधेड़ उम्र, कुछ झुर्रियां
एक महिला आई
वह मेरी अपरिचित थी
उम्र राजा के सामान
अधेड़, बाल पके हुए
चेहरे पर लालिमा
आत्मविश्वास व चमक
हाथ पकड़कर वह मुझे 
राजा के पास ले गई
मैं थोड़ा हतप्रभ था
लेकिन पूर्णतय निडर
मेरा परिचय कराया
अपना रिश्तेदार बताया
खुद को राजा की बहन
मैं आश्यचर्यचकित था
गहराई से सोच रहा था
लेकिन कुछ याद आया
जैसे अनुभव किया हो
बड़ा अस्पष्ट व धुंधला सा
राजा से कोई संबंध था
लेकिन, क्या संबंध था?
उसके साथ क्या रिश्ता था?
रिश्ता महसूस हो रहा था
लेकिन बेहद अस्पष्ट
रिश्ते को शब्दों में
बयां करने की कोशिश की
लेकिन असफलात मिली
अनुभव अभिव्यक्ति से परे था
राजा रिश्ते को जानता है
लेकिन वह बता नहीं रहा
वह मेरे आने से खुश है
खुशी से चेहरा खिला हुआ
जैसे लंबे अर्से बाद मिले हों
वह मुझसे बाते करने लगा
बाते करने को उत्साहित
हालचाल जानने को लालायित
मेरे लिए मेहमानों से बेफ्रिक
राजा एक चौकी पर बैठ गया
मुझे अपने नजदीक बुलाकर
मखमली आसन पर बिठा लिया
मुझे छु-छुकर सवाल किए
मैंने सहजता से जवाब दिए
मुझे राजा के प्रश्न
और अपने जवाब याद नहीं
केवल अंतिम को छोड़कर
उसने पूछा तुम मुझे
महल से बाहर घुमाने ले जाओगे
वैसे वह घुमने जाता रहता था
लेकिन मेरे साथ जाना चाहता था
मैंने खुश होकर जवाब दिया
क्यों नहीं,
मैं अपना वाहन लेकर आऊंगा
मेरे साथ चलना
उसने उत्साह के साथ
हामी भर दी
उसकी खुशी को
आंखों में देखा जा सकता था    
वह किले के अंदर बने
सुंदर घास के मैदान में
मुझे घुमाने ले गया
घुमते हुए उसकी बातें जारी थीं
तभी मेरी उम्र की
एक युवा लड़की वहां आई
मैंने उसके चेहरे की तरफ देखा
उसके बाल खुले हुए थे
वह सुंदरता की प्रतिमा थी
बातों में उत्साह था
भाव भंगिमाओं में चपलता थी
उसने राजा को रोककर
अपनी बात कही
उसमें रौब और अधिकार था
मुझे दोबारा कुछ अनुभव हुआ
पूरी तरह स्पष्ट नहीं
शायद,
वह लड़की रिश्ते में मेरी बहन थी
दोनों मैं किसी मुद्दे को लेकर
बहस होने लगी
मैं दूर होता जा रहा था
उनकी आवाजें धीमें होती जा रहीं थीं
मेरी चाल धीमे थी
मन में विचारों का प्रवाह तेज
क्या मैं जान चुका हूं?
रिश्ते की पहेली को सुलझा चुका हूं
तो फिर वह राजा कौन था?
मैं राजा को नहीं पहचानता था
मैं उससे पहली बार मिला था
वह मुझझे मिलकर क्यों खुश था?
विचारों की थकान ने
मेरे कंधे झुका दिए थे
क्या मैं राजा को घुमा पाऊंगा?
मेरी थकान के साथ
मेरा उत्साह कम हो रहा था
अब मेरी आंखे खुल चुकी थीं
पलकों के पर्दे से सब गायब
यह क्या था ?
सब सवाल गायब थे
अब बस यथार्थ बाकी था
साथ ही भ्रम की स्मृति  

-    आशीष कुमार