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रविवार, 22 अप्रैल 2012

पृथ्वी दिवस 22 अप्रैल पर विशेष

Earth day, 22 April

ग्लोबल वार्मिंग आज पूरी दुनिया के लिए एक गंभीर चुनौती बन गई है। सबसे अजीब बात यह है कि जो विकसित देश इस समस्या के लिए अधिक जिम्मेदार हैं वहीं विकासशील व अन्य देशों पर इस बात के लिए दबाव बना रहे हैं कि वो ऐसा विकास न करें जिससे धरती का तापमान बढ़े। हालांकि वो खुद अपनी बात पर अमल नहीं करते लेकिन दूसरों देशों को शिक्षा देते हैं। बहरहाल बात चाहे जो हो विभिन्न देशों के आपसी विवाद में नुकसान केवल हमारी पृथ्वी का ही है।
पृथ्वी पर कल-कल बहती नदियां, माटी की सोंधी महक, विशाल महासागर, ऊंचे-ऊंचे पर्वत, तपते रेगिस्तान सभी जीवन के असंख्य रूपों को अपने में समाए हुए हैं। वास्तव में अन्य ग्रहों की अपेक्षा पृथ्वी पर उपस्थित जीवन इसकी अनोखी संरचना, सूर्य से दूरी एवं अन्य भौतिक कारणों के कारण संभव हो पाया है। इसलिए हमें पृथ्वी पर मौजूद जीवन के विभिन्न रूपों का सम्मान और सुरक्षा करनी चाहिए। परंतु पिछले कुछ दहाईयों के दौरान मानवीय गतिविधियों एवं औद्योगिक क्रांति के कारण पृथ्वी का अस्तित्व संकट में पड़ता जा रहा है। दिशाहीन विकास के चलते इंसानों ने प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया है। परिणामस्वरूप आज हवा, पानी और मिट्टी अत्यधिक प्रदूषित हो चुके हैं। इस प्रदूषण के कारण कहीं लाइलाज गंभीर बीमारियां फैल रही हैं तो कहीं फसलों की पैदावार प्रभावित हो रही है। कोयला, पेट्रोल, केरोसिन जैसे जीवाश्म ईंधनों के दहन से वातावरण में ऐसी गैसों की मात्रा बढ़ रही है जिससे पृथ्वी के औसत तापमान में इजाफा हो रहा है यानी ग्लोबल वार्मिंग की समस्या उत्पन्न होती जा रही है। जो अन्य जीवों के साथ-साथ मानव के अस्तित्व के लिए भी खतरा उत्पन्न कर रहा है।

इसकी महत्ता को समझते हुए प्रत्येक वर्ष 22 अप्रैल को विश्व पृथ्वी दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसकी शुरूआत सर्वप्रथम 1970 में संयुक्त राज्य अमेरिका से किया गया था। तभी से स्वच्छ पर्यावरण के लिए जागरूकता बढ़ाने के लिए पूरे विश्व में प्रतिवर्ष पृथ्वी दिवस मनाया जाने लगा है। असल में विश्व पृथ्वी दिवस ऐसा अवसर है जब हम पृथ्वी को जीवनदायी बनाए रखने का संकल्प ले सकते हैं। इस साल पृथ्वी दिवस की 42वीं वर्षगांठ की वैश्विक थीम ‘मोबलाइज द अर्थ’ यानी पृथ्वी प्रदत्त संसाधनों का उपयोग करना एवं संकटों से उसकी रक्षा करना है। सूरज से पृथ्वी की दूरी करीब 14 करोड़ 96 लाख किलोमीटर है। यह दूरी ही पृथ्वी ग्रह को पूरे सौर मंडल में विशिष्ट स्थान देती है। इसी दूरी के कारण यहां पानी से भरे महासागर बने, ऊंचे पहाड़ बने, रेगिस्तान, पठार और सूरज की लगातार मिलती ऊर्जा और पृथ्वी के गर्भ में मौजूद ताप से यहां जीवन के विभिन्न रूप संभव हुए हैं।

पेड़-पौधे और अन्य वनस्पतियां, पशु-पक्षी तथा इंसान रूपी जीव-जंतु, यहां तक कि सूक्ष्मजीव आदि भी यहां जीवन के लिए अति आवश्यक हैं इन सब में ऊर्जा का स्रोत सूर्य की ऊष्मा ही है। कैसा अजब संयोग है कि सूर्य से यह दूरी मिलने के साथ-साथ पृथ्वी एक कोण पर झुकी हुई है, जिस कारण अलग-अलग ऋतुएं, मौसम, जलवायु यहां बने और जीवन में विविधता पैदा हुई। इस ग्रह पर प्रकृति को जीवन जुटाने में लाखों वर्ष लगे। धरती पर कई जटिल प्रणालियां पूरे सामंजस्य से लगातार कार्य करती रहती हैं, जिस कारण जीवन हर रंग-रूप में फल-फूल रहा है। पृथ्वी पर मौजूद जीवनदायी पानी के कारण ही यह ग्रह अंतरिक्ष से नीला दिखाई देता है। सूर्य और पृथ्वी के आपसी मेलजोल से ही इसके आसपास, हवाओं और विभिन्न गैसों का आवरण बना यानी वायुमंडल का निर्माण हुआ। इसी वायुमंडल की चादर ने सूर्य की हानिकारक किरणें जो जीवन को नुकसान पहुंचा सकती हैं, उन्हें पृथ्वी पर पहुंचने से रोके रखा है।

कितने आश्चर्य की बात है कि हजारों वर्षों से वायुमंडल की विभिन्न परतों में गैसों का स्तर एक ही बना हुआ है। जीवन की शुरूआत भले ही पानी में हुई परंतु इसी जीवन को बनाए रखने के लिए प्रकृति ने ऐसा पर्यावरण दिया कि हर कठिन परिस्थिति से निपटने में जीवन सक्षम हो सका है। पर्यावरण का मतलब होता है हमारे या किसी वस्तु के आसपास की परिस्थितियों या प्रभावों का जटिल मेल जिसमें वह वस्तु, व्यक्ति या जीवन स्थित है या विकसित होते हैं। इन परिस्थितियों द्वारा उनके जीवन या चरित्र में बदलाव आते हैं या तय होते हैं। पूरे विश्व में आजकल पर्यावरण शब्द का काफी उपयोग किया जा रहा है। कुछ लोग पर्यावरण का मतलब जंगल और पेड़ों तक ही सीमित रखते हैं, तो कुछ जल और वायु प्रदूषण से जुड़े पर्यावरण के पहलुओं को ही अपनाते हैं। आजकल लोग ग्लोबल वार्मिंग यानी भूमण्डलीय तापन मतलब गर्माती धरती और ओजोन के छेद तक पर्यावरण को सीमित कर देते हैं, तो कई परमाणु ऊर्जा एवं बड़े-बड़े बांधों का बहिष्कार कर सौर ऊर्जा और छोटे बांधों को अपनाने की बात कह कर अपना पर्यावरण के प्रति दायित्व पूरा समझ लेते हैं।

ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर पर्यावरण की वास्तविक परिभाषा है क्या? सर्वप्रथम तो हमें यह तय करना होगा कि हम किस वस्तु या प्राणी विशेष के पर्यावरण की व्याख्या कर रहे हैं। फिर पर्यावरण का अर्थ समझना आसान है। उदाहरण के लिए हमारे अपने पर्यावरण का अर्थ होगा, हमारे आसपास की हर वह वस्तु चाहे वह सजीव हो या निर्जीव जिसका हम पर या हमारे रहन-सहन पर या हमारे स्वास्थ्य पर एवं हमारे जीवन पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, निकट या दूर भविष्य में, कोई प्रभाव हो सकता है और साथ ही ऐसी हर वस्तु जिस पर हमारे कारण कोई प्रभाव पड़ सकता है। यानी पर्यावरण में हमारे आसपास की सभी घटनाओं जैसे मौसम, जलवायु आदि का समावेश होता है, जिन पर हमारा जीवन निर्भर करता है। यह सृजनात्मक प्रकृति जिसने हमें जीवन और जीवन के लिए आवश्यक वातावरण दिया है एक बहुत ही नाजुक संतुलन पर टिकी है। अगर हम वायुमंडल को ही लें, तो संपूर्ण वायुमंडल सबसे उपयुक्त गैसों के अनुपात से बना है जो जीवन के हर रूप, उसकी विविधता को संजोए रखने में सक्षम है।

वायुमंडल में 78.08 प्रतिशत नाइट्रोजन, 20.95 प्रतिशत ऑक्सीजन, 0.03 कार्बन डाइऑक्साइड तथा करीब 0.96 प्रतिशत अन्य गैसे हैं। गैसों का यह अनुपात सभी प्रकार के जीवों के पनपने के लिए उपयुक्त है। व्यापक तौर पर देखें तो ऑक्सीजन पृथ्वी पर उपस्थित जीवों के लिए अतिआवश्यक है। यह हमारे शरीर की कोशिकाओं को ऊर्जा प्रदान करती है। हम जो खाना खाते हैं, उसे पचाकर हमें ताकत मिलती है। यदि इसी ऑक्सीजन का अनुपात 21 प्रतिशत से ज्यादा हो जाए तो हमारे शरीर की कोशिकाओं में कई प्रकार के असंतुलन उत्पन्न हो जाएंगे जिससे बहुत सी विकृतियां आ जाएंगी। ऐसे में सारी क्रियाएं और अभिक्रियाएं गड़बड़ा जाएंगी। इसके साथ-साथ जीवन के लिए जरूरी वनस्पति तथा हाइड्रोकार्बन के अणुओं का भी नाश शुरू हो जाएगा यानी ऑक्सीजन के वर्तमान स्तर में थोड़ी-सी भी वृद्धि जीवन के लिए घातक सिद्ध हो सकती है। अब इसी ऑक्सीजन का प्रतिशत 20 से कम हो तो हमें सांस लेने में तकलीफ हो जाएगी। सारी चयापचयी गतिविधियां रुक जाएंगी और ऊर्जा न मिल पाने से जीवन का नामोनिशां मिट जाएगा।

इसी तरह 78.08 प्रतिशत नाइट्रोजन की मात्रा वायुमंडल में ऑक्सीजन के हानिकारक प्रभाव तथा जलाने की क्षमता पर सही रोक लगाने में सक्षम होती है। वायुमंडल में गैसों का यह मौजूदा स्तर, पेड़-पौधों में प्रकाश-संश्लेषण के लिए भी बिल्कुल ठीक है। प्रकृति का नाजुक संतुलन और संयोग यही है कि हर जीवन किसी न किसी रूप में जीवन की धारा के अविरल बहाव में मदद कर रहा है, जैसे वनस्पतियों के लिए आवश्यक कार्बन डाइऑक्साइड प्राणियों द्वारा छोड़ी जाती है और पौधे इस कार्बन डाइऑक्साइड को सूरज की रोशनी पानी की मौजूदगी में प्रकाश-संश्लेषण द्वारा अपने लिए ऊर्जा बनाने के काम में लाते हैं। इस दौरान कार्बन डाइऑक्साइड को अपने में समा कर ऑक्सीजन बाहर छोड़ते हैं। ऐसे ही और संतुलन एवं आपसी मेल-जोल के उदाहरण आगे दिए जाएंगे। अभी हम सृजनात्मक प्रकृति के अनूठे संयोग की बात करते हैं, जिसने जीवन के लिए जरूरी पर्यावरण संजोया।

पहले बताई गई गैसों की तरह कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर भी बिल्कुल उपयुक्त है। क्योंकि इस अनुपात में यह पृथ्वी की ऊष्मा को अंतरिक्ष में खो जाने से रोकती है यानी कार्बन डाइऑक्साइड जीवन के लिए उपयुक्त तापमान को बनाए रखती है। परन्तु यदि इसी कार्बन डाइऑक्साइड का प्रतिशत अधिक हो गया तो पूरे ग्रह के तापमान में भयानक बढ़ोतरी हो सकती है जो जीवन के लिए अनुकूल नहीं होगा। पृथ्वी पर मौजूद पेड़-पौधे इस कार्बन डाइऑक्साइड को निरंतर ऑक्सीजन में बदलते रहते हैं। यह मात्रा करीब 190 अरब टन ऑक्सीजन प्रतिदिन बैठती है। इसी तरह अन्य स्रोतों से पौधों के लिए आवश्यक कार्बन डाइऑक्साइड बनती रहती है। इन सभी गैसों का स्तर विभिन्न परस्पर जटिल प्रक्रियाओं के सहयोग से हमेशा स्थिर बना रहता है और जीवन सांसे लेता रहता है।

वायुमंडलीय गैसों के अलावा पृथ्वी का आकार भी जीवन के पनपने के लिए उपयुक्त है। यदि पृथ्वी का द्रव्यमान थोड़ा कम होता तो उसमें गुरुत्वाकर्षण भी अपर्याप्त रहता और इस कम खिंचावों के कारण पृथ्वी की चादर यानी पूरा वायुमंडल ही अंतरिक्ष में बिखर जाता और अगर यही द्रव्यमान कुछ ज्यादा हो जाता तो सारी गैसें पृथ्वी में ही समां जाती, जिससे जीवों की श्वसन प्रक्रिया प्रभावित होती। पृथ्वी पर अगर गुरुत्वाकर्षण ज्यादा होता तो वायुमंडल में अमोनिया और मिथेन की मात्रा अधिक होती। ये गैसें जीवन के लिए घातक हैं। ऐसे ही अगर गुरुत्व कम होता तो पृथ्वी पानी ज्यादा खो देती। पिछले 10 हजार वर्षों में असाधारण रूप से पृथ्वी पर पानी की मात्रा ज्यों की त्यों है यानी कुछ पानी बर्फ के रूप में जमा हुआ है, कुछ बादलों के रूप में तो काफी महासागरों में, फिर भी पानी की मात्रा में एक बूंद भी कमी नहीं आई है। भूमि पर बरसने वाला पानी पूरी पृथ्वी पर होने वाली वर्षा का 40 प्रतिशत होता है और हम सिर्फ 1 या 2 प्रतिशत पानी ही संरक्षित कर पाते हैं बाकी सारा पानी वापस समुद्र में बह जाता है।

हवा का तापमान और नमी के गुण भी कई कारकों से प्रभावित होते हैं। जैसे भूमि तथा सागरों का विस्तार, क्षेत्र की स्थलाकृति तथा सौर किरणों की तीव्रता में मौसम के अनुसार भिन्नता। ये सभी कारक लगातार आपसी मेल से हमारी धरती के मौसम को नया स्वरूप और विविधता प्रदान करते हैं। पृथ्वी के वायुमंडल में नाइट्रोजन और ऑक्सीजन के अलावा कई अन्य गैसें हैं जो पृथ्वी पर जीवन पनपाने लायक वातावरण बनाती हैं।
इसी तरह अगर पृथ्वी की परत ज्यादा मोटी होती तो वह वायुमंडल से ज्यादा ऑक्सीजन सोखती और जीवन फिर संकट में पड़ जाता। अगर यह परत ज्यादा पतली होती तो लगातार ज्वालामुखी फटते रहते और धरती की सतह पर भूगर्भीय गतिविधियां इतनी अधिक होतीं कि भूकम्प आदि के बीच में जीवन बचा पाना असंभव हो जाता। ऐसे ही महत्वपूर्ण और नाजुक संतुलन का उदाहरण है, वायुमंडल में ओजोन गैस का स्तर जिसे धरती की छतरी भी कहते हैं। अगर ओजोन की मात्रा वर्तमान के स्तर से ज्यादा होती तो धरती का तापमान बहुत कम होता और अगर कम हो तो धरती का तापमान बहुत ज्यादा हो जाएगा और पराबैंगनी किरणें भी धरती की सतह पर ज्यादा टकराती। हमारे द्वारा किए जा रहे पर्यावरण के नाश को समझने से पहले यह आवश्यक है कि पर्यावरण से संबंधित प्रकृति के विभिन्न पहलुओं को समझें, क्योंकि तभी हम पर्यावरणीय समस्याओं का सही हल ढूंढ पाएंगे।

पृथ्वी की सतह के ऊपर वायुमंडलीय गैसों का एक नाजुक संतुलन है और गैसों का यह संतुलन सूरज, पृथ्वी और ऋतुओं से प्रभावित होता है। वायुमंडल पृथ्वी की मौसम प्रणाली और जलवायु का एक जटिल घटक है। वायुमंडल अपनी विभिन्न परतों से गुजरती सौर किरणों में से हानिकारक ऊष्मा सोख लेता है। जो सौर किरणें धरती तक पहुंचती हैं, वे उसकी सतह से टकराकर वापस ऊपर की ओर आती हैं। इन किरणों में से आवश्यक ऊष्मा को वायुमंडल फिर अपने में समा लेता है और धरती के तापमान के जीवन के अनुकूल बनाए रखने में मदद करता है। वायुमंडल में मौजूद ऊष्मा का स्तर कई मौसमी कारकों को प्रभावित करता है, जिसमें वायु की गतिविधियां, हमारे द्वारा महसूस किया जाने वाला तापमान तथा वर्षा शामिल है। महासागरों से नमी का वाष्पन वायुमंडलीय जल-वाष्प पैदा करता है और अनुकूल परिस्थितियों में यही वायुमंडल मौजूद जल-वाष्प वर्षा, हिमपात, ओलावृष्टि तथा वर्षण के अन्य रूपों में वापस धरती की सतह पर पहुंच जाते हैं।

हवा का तापमान और नमी के गुण भी कई कारकों से प्रभावित होते हैं। जैसे भूमि तथा सागरों का विस्तार, क्षेत्र की स्थलाकृति तथा सौर किरणों की तीव्रता में मौसम के अनुसार भिन्नता। ये सभी कारक लगातार आपसी मेल से हमारी धरती के मौसम को नया स्वरूप और विविधता प्रदान करते हैं। पृथ्वी के वायुमंडल में नाइट्रोजन और ऑक्सीजन के अलावा कई अन्य गैसें हैं जो पृथ्वी पर जीवन पनपाने लायक वातावरण बनाती हैं। जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, निऑन, हीलियम, मिथेन, क्रिपटॉन, नाइट्रस ऑक्साइड, हाइड्रोजन आदि। इनमें से किसी भी गैस का असंतुलन जीवन का संतुलन बिगाड़ सकता है। हमें पृथ्वी पर मंडरा रहे खतरों को समझने की जरूरत है। पृथ्वी को इन खतरों से बचाने की सर्वाधिक जिम्मेदारी इसके सर्वश्रेष्ठ प्राणी यानि मानव के कंधों पर ही है। इसलिए हमें अपनी भूमिका समझ कर पृथ्वी को जीवनमय बनाए रखने की दिशा में कदम उठाने होंगे। ग्लोबल वार्मिंग आज पूरी दुनिया के लिए एक गंभीर चुनौती बन गई है। सबसे अजीब बात यह है कि जो विकसित देश इस समस्या के लिए अधिक जिम्मेदार हैं वहीं विकासशील व अन्य देशों पर इस बात के लिए दबाव बना रहे हैं कि वो ऐसा विकास न करें जिससे धरती का तापमान बढ़े।

हालांकि वो खुद अपनी बात पर अमल नहीं करते लेकिन दूसरों देशों को शिक्षा देते हैं। बहरहाल बात चाहे जो हो विभिन्न देशों के आपसी विवाद में नुकसान केवल हमारी पृथ्वी का ही है। इसलिए पृथ्वी को जीवनमयी बनाए रखने के लिए हम सभी को एक होना होगा। सामूहिक प्रयासों के द्वारा ही हम धारणीय विकास करते हुए पृथ्वी को बचा सकते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि हम सभी अपने-अपने स्तर पर ऐसे कार्य करें जिससे प्राकृतिक संसाधनों का अधिकतम उपयोग किया जा सके। ऊर्जा के नवीकरणीय संसाधनों जैसे पवन ऊर्जा एवं सौर ऊर्जा का उपयोग करना होगा। साथ ही पानी और ऊर्जा की बर्बादी को रोक कर ऐसे अन्य प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करना होगा क्योंकि इन्हीं संसाधनों पर हमारा और हमारी भावी पीढ़ियों का भविष्य टिका है। ऐसे में पृथ्वी दिवस को केवल एक समारोह के रूप में लेने से हम इसके वास्तविक लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकते हैं बल्कि इस अवसर पर प्रत्येक व्यक्ति को प्राकृतिक संसाधनों का समझदारी से उपयोग करना सीखना होगा तभी यह धरती भविष्य में मानव की आवश्यकताओं को पूरा करती हुई जीवन के रूपों को संवारती रहेगी।

मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

गंगा एक कारपोरेट एजेंडा



गंगा की अविरलता-निर्मलता विश्व बैंक के धन से नहीं, जन-जन की धुन से आएगी। गंगा संरक्षण की नीति, कानून बनाने तथा उन्हें अमली जामा पहनाने से आएगी। जानते हुए भी क्यों हमारी सरकारें ऐसा नहीं कर रहीं। ऐसा न करने को लेकर राज्य व केंद्र की सरकारों में गजब की सहमति है। क्यों? पनबिजली परियोजनाओं में जांघिया-बनियान बनाने से लेकर साइकिल बनाने वालों तक का पैसा लगा है। क्योंकि गंगा, अब राजनैतिक नहीं, एक कार्पोरेट एजेंडा है।
बिस्मिल्लाह खां ने कहा, ‘गंगा और संगीत एक-दूसरे के पूरक हैं।’ है कोई, जो गंगा का उसका बिसरा संगीत लौटा दे? है कोई, जो गंगोत्री ग्लेशियर का खो गया गौमुखा स्वरूप वापस ले आए? गंगा के मायके में उसका अल्हड़पन, मैदान में उसका यौवन और ससुराल में उसकी गरिमा देखना कौन नहीं चाहता? कौन नहीं चाहता कि मृत्यु पूर्व दो बूंद पीने की लालसा वाला प्रवाह लौट आए? गंगा फिर से सुरसरि बन जाए? मैं उस देश का वासी हूं,जिस देश में गंगा बहती है’- इस गीत को गाने का गौरव भला कौन हिंदुस्तानी नहीं चाहेगा? लेकिन यह हो नहीं सकता। जिस तरह बिस्मिल्लाह की शहनाई लौटाने की गारंटी कोई नहीं दे सकता, गंगा की अविरलता और निर्मलता की गारंटी देना भी अब किसी सरकार के वश की बात नहीं है। इसलिए नहीं कि यह नामुमकिन है; इसलिए कि अब पानी एक ग्लोबल सर्विस इंडस्ट्री है और भारतीय जलनीति कहती है-वाटर इज कमोडिटी। जल वस्तु है तो फिर गंगा मां कैसे हो सकती है? गंगा रही होगी कभी स्वर्ग में ले जाने वाली धारा, साझी संस्कृति, अस्मिता और समृद्धि की प्रतीक, भारतीय पानी- पर्यावरण की नियंता, मां वगैरह। ये शब्द अब पुराने पड़ चुके। गंगा, अब सिर्फ बिजली पैदा करने और पानी सेवा उद्योग का कच्चा माल है। मैला ढोने वाली मालगाड़ी है। कॉमन कमोडिटी मात्र! 

हम पानी के वैश्विक कारोबारियों के चंगुल में


जो दुनिया चलाते हैं, उन्हें पानी से ज्यादा पानी की सेवा देने में रुचि है। पानी की सेवा में सबसे बड़ी मेवा है। सेवा दो, मेवा कमाओ। इसी कमाई के बूते तो वे दुनिया की प्रथम सौ कंपनियों में स्थान रखती हैं। आरडब्ल्यूई ग्रुप, स्वेज, विवन्डी, एनरॉन आदि। विवन्डी विश्व में पानी की सबसे बड़ी सेवादाता है। स्वेज 120 देशों की सेवा करती है तो भला भारत को कैसे छोड़ दे? लेकिन जब तक भारत में गंगा जैसा सर्वश्रेष्ठ प्रवाह घटेगा नहीं, गुणवत्ता मरेगी नहीं, आप शुद्ध पानी की सेवा के लिए किसी को क्यों आमंत्रित करेंगे? सो प्रवाह घटाना है, गुणवत्ता मारनी है। फिर सेवा लेने के लिए पैसा न हो तो कर्ज देने के लिए वे हैं न; विश्व बैंक, यूरोपियन कमीशन और एडीबी। शर्तों में बांधने डब्ल्यूटीओ और गैट्स। उनका अनुमान नहीं, बिजनेस टारगेट है कि 2015 तक दुनिया जल और उसकी स्वच्छता के लिए 180 बिलियन डॉलर खर्च करे। 2025 तक हर तीन में से दो आदमी स्वच्छ जल की कमी महसूस करे। 2050 तक दुनिया की 70 प्रतिशत आबादी पानी का संकट झेले। 

यह तभी होगा जब भूजल गिरे। इसके लिए गांवों को कस्बा, कस्बों को शहर और शहरों को महानगर बनाओ। बंद पाइप और बंद बोतल पानी की खपत बढ़ाओ। सिर्फ जल संचयन! जल संचयन! चिल्लाओ। करो मत। जरूरत पड़े तो ट्यूबवेल, बोरवेल और समर्सिबल से धकाधक पानी खींचते जाओ। फिर पानी की कमी होने लगे तो जलनियंत्रक प्राधिकरण बनाओ। हमें बुलाओ। पीपीपी चलाओ। बूट अपनाओ। पानी की कीमतें बढ़ाओ। याद रखो! पानी खींचने वाली कोक, पेप्सी और व्हिस्की पीने के लिए है। पानी लड़ने और मरने के लिए। एक दिन भूजल खाली हो ही जाएगा और आप लड़ने भी लगोगे।

भारत के 70 फीसद भूजल भंडार खाली


1990 के 230 लाख की तुलना में आज भारत में 630 लाख कस्बे हैं। भारत में आपके 70 प्रतिशत भूजल भंडार खाली हो चुके हैं और आप पानी के लिए लड़ने भी लगे हो और पानी की बीमारियों से बीमार होकर मरने भी। स्वच्छ पानी के बाजार का जो लक्ष्य हमने 2015 के लिए रखा था, आपने तो उसे 2012 में ही हासिल करा दिया। अब भारत की नदियों को मरना चाहिए। नदियां मरेंगी, तभी धरती सूखेगी, तभी खेती मरेगी। लोग मलीन बस्तियों को पलायन करेंगे। खाद्य सुरक्षा घटेगी। कीमतें बढ़ेंगी। खाद्य सुरक्षा कानून बनाना पड़ेगा। खाद्य आयात बढ़ेगा। जीडीपी का ढोल फूटेगा। साथ ही तुम्हारा भी। तुम हमें सिक्योरिटी मनी दे देना। हम तुम्हें फूड, वाटर.. जो-जो कहोगे, सब की सिक्योरिटी दे देंगे। इसके लिए नदी-जोड़ करो। नदियों से जलापूर्ति बढ़ाओ। बिजली बनाने के नाम पर पानी रोको। नदियों के किनारे एक्सप्रेस-वे बनाओ। 

इंडस्ट्रीज को पानी की कमी का आंकड़ा दिखाओ। नदियों में अधिक पानी का फर्जी आंकड़ा दिखाकर उनके किनारे-किनारे इंडस्ट्रीयल कॉरीडोर बनाओ। टाउनशिप बनाओ। उनका कचरा नदियों में बहाओ। ‘दो बूंद जिंदगी की’ से आगे बढ़कर यूनीसेफ, विश्व स्वास्थ्य संगठन की राय को और बड़ा बाजार दिलाओ। एक दिन तुम असल में अपाहिज हो जाओगे। आबादी खुद ब खुद घट जाएगी। न गरीब रहेगा, न गरीबी। तुम भी हमारी तरह विकसित कहलाओगे। आज भारत में यही सब हो रहा है। यदि इसके पीछे कोई इशारा न होता, तो क्या गांव धंसते रहते, धाराएं सूखती रहतीं, विस्फोटों से पहाड़ हिलते रहते, जीवों का पर्यावास छिनता रहता और सरकारें पनबिजली परियोजनाओं को मंजूरी देती रहतीं? भूकंप में विनाश का आंकलन की बिना पर इंदिराजी द्वारा रोके जाने और सरकारी समिति द्वारा रद्द कर दिए जाने के बावजूद टिहरी परियोजना को आखिर मंजूरी क्यों दे दी गई? 

मनाही के बावजूद जारी क्यों हैं पनबिजली परियोजनाएं



अलकनंदा और भागीरथी पर प्रस्तावित यदि 53 बिजली परियोजनाएं बन गई तो दोनों नदियां सूख जाएंगी’-कैग की इस चेतावनी के बावजूद क्या हम परियोजनाएं रोक रहे हैं? तय मानक टरबाइन में नदी का 75 प्रतिशत पानी डालने की इजाजत देते हैं। उत्तराखंड की ऊर्जा नीति 90 प्रतिशत की इजाजत देती है। इस पर कैग की आपत्ति के बावजूद क्या ऊर्जा नीति बदली? परियोजनाओं के लिए और नदी के लिए हमें कर्ज देने वाले संगठनों के सदस्य देश अपने यहां बड़े और मंझोले बांधों को तोड़ रहे हैं और हमें बनाने के लिए कर्ज दे रहे हैं। क्यों? हमें मालूम है कि मलशोधन का वर्तमान तंत्र फेल है। फिर भी, हम उसी में पैसा क्यों लगा रहे हैं? मालूम है कि उद्योग नदियों में जहर बहा रहे हैं। फिर भी उन्हें नदियों से दूर भगाते क्यों नहीं? प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड प्रदूषण नियंत्रित करने के बजाय सिर्फ ‘प्रदूषण नियंत्रण में है’ के प्रमाणपत्र ही क्यों बांट रहे हैं? नदियों को तटबंधों में बांधने की भूल कोसी-दामोदर में हम झेल रहे हैं। फिर भी एक्सप्रेसवे नामक तटबंध क्यों बना रहे हैं? दिल्ली-मुंबई कॉरीडोर में आने वाली नदियों में अधिक पानी का गलत आंकलन आगे बढ़ा रहे हैं। क्यों? 

हमें मालूम है कि राज्यों पर जवाबदेही टालने के बजाय केंद्र को एक जिम्मेदार भूमिका निभानी होगी। गंगा की अविरलता-निर्मलता विश्व बैंक के धन से नहीं, जन-जन की धुन से आएगी। गंगा संरक्षण की नीति, कानून बनाने तथा उन्हें अमली जामा पहनाने से आएगी। जानते हुए भी क्यों हमारी सरकारें ऐसा नहीं कर रहीं। ऐसा न करने को लेकर राज्य व केंद्र की सरकारों में गजब की सहमति है। क्यों? इन सभी क्यों का जवाब एक ही है; क्योंकि गंगा में गंगा नहर और शारदा सहायक के रास्ते विश्व बैंक का निवेश है। एक्सप्रेस वे की परिकल्पना में उसका भी हाथ है। सोनिया विहार संयंत्र के माध्यम से दिल्ली वालों के पानी के बिल का पैसा स्वेज को कमाई करा रहा है। पनबिजली परियोजनाओं में जांघिया-बनियान बनाने से लेकर साइकिल बनाने वालों तक का पैसा लगा है। क्योंकि गंगा, अब राजनैतिक नहीं, एक कार्पोरेट एजेंडा है।
गंगा नदी पर बनते बांध परियोजनाएं