गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

MEDIA BOOKS मीडिया चरित्र


JAAT HISTORY अनपढ़ जाट पढ़ा जैसा, पढ़ा जाट खुदा जैसा




लेखक - आशीष कुमार
अनपढ़ जाट पढ़ा जैसा, पढ़ा जाट खुदा जैसा
यह घटना सन् 1270-1280 के बीच की है । दिल्ली में बादशाह बलबन का राज्य था । उसके दरबार में एक अमीर दरबारी था ।जिसके तीन बेटे थे । उसके पास उन्नीस घोड़े भी थे । मरने से पहले वह वसीयत  लिख गया था कि इन घोड़ों का आधा हिस्सा... बड़े बेटे को, चौथाई हिस्सा मंझले को और पांचवां हिस्सा सबसे छोटे बेटे को बांट दिया जाये । बेटे उन 19 घोड़ों का इस तरह बंटवारा कर ही नहीं पाये और बादशाह के दरबार में इस समस्या को सुलझाने के लिए अपील की । बादशाह ने अपने सब दरबारियों से सलाह ली पर उनमें से कोई भी इसे हल नहीं कर सका ।
उस समय प्रसिद्ध कवि अमीर खुसरो बादशाह का दरबारी कवि था । उसने जाटों की भाषा को समझाने के लिए एक पुस्तक भी बादशाह के कहने पर लिखी थी जिसका नाम खलिक बारीथा । खुसरो ने कहा कि मैंने जाटों के इलाक़े में खूब घूम कर देखा है और पंचायती फैसले भी सुने हैं और सर्वखाप पंचायत का कोई पंच ही इसको हल कर सकता है । नवाब के लोगों ने इन्कार किया कि यह फैसला तो हो ही नहीं सकता..! परन्तु कवि अमीर खुसरो के कहने पर बादशाह बलबन ने सर्वखाप पंचायत में अपने एक खास आदमी को चिट्ठी देकर सौरम गांव (जिला मुजफ्फरनगर) भेजा (इसी गांव में शुरू से सर्वखाप पंचायत का मुख्यालय चला आ रहा है और आज भी मौजूद है) ।
चिट्ठी पाकर पंचायत ने प्रधान पंच चौधरी रामसहाय को दिल्ली भेजने का फैसला किया। चौधरी साहब अपने घोड़े पर सवार होकर बादशाह के दरबार में दिल्ली पहुंच गये और बादशाह ने अपने सारे दरबारी बाहर के मैदान में इकट्ठे कर लिये । वहीं पर 19 घोड़ों को भी लाइन में बंधवा दिया । चौधरी रामसहाय ने अपना परिचय देकर कहना शुरू किया - शायद इतना तो आपको पता ही होगा कि हमारे यहां राजा और प्रजा का सम्बंध बाप-बेटे का होता है और प्रजा की सम्पत्ति पर राजा का भी हक होता है । इस नाते मैं जो अपना घोड़ा साथ लाया हूं, उस पर भी राजा का हक बनता है । इसलिये मैं यह अपना घोड़ा आपको भेंट करता हूं और इन 19 घोड़ों के साथ मिला देना चाहता हूं, इसके बाद मैं बंटवारे के बारे में अपना फैसला सुनाऊंगा ।बादशाह बलबन ने इसकी इजाजत दे दी और चौधरी साहब ने अपना घोड़ा उन 19 घोड़ों वाली कतार के आखिर में बांध दिया, इस तरह कुल बीस घोड़े हो गये । अब चौधरी ने उन घोड़ों का बंटवारा इस तरह कर दिया-
- आधा हिस्सा (20 ¸ 2 = 10) यानि दस घोड़े उस अमीर के बड़े बेटे को दे दिये ।
- चौथाई हिस्सा (20 ¸ 4 = 5) यानि पांच घोडे मंझले बेटे को दे दिये ।
- पांचवां हिस्सा (20 ¸ 5 = 4) यानि चार घोडे छोटे बेटे को दे दिये ।
इस प्रकार उन्नीस (10 + 5 + 4 = 19) घोड़ों का बंटवारा हो गया । बीसवां घोड़ा चौधरी रामसहाय का ही था जो बच गया । बंटवारा करके चौधरी ने सबसे कहा - मेरा अपना घोड़ा तो बच ही गया है, इजाजत हो तो इसको मैं ले जाऊं ?” बादशाह ने हां कह दी और चौधरी साहब का बहुत सम्मान और तारीफ की । चौधरी रामसहाय अपना घोड़ा लेकर अपने गांव सौरम की तरफ कूच करने ही वाले थे, तभी वहां पर मौजूद कई हजार दर्शक इस पंच के फैसले से गदगद होकर नाचने लगे और कवि अमीर खुसरो ने जोर से कहा -अनपढ़ जाट पढ़ा जैसा, पढ़ा जाट खुदा जैसा। सारी भीड़ इसी पंक्ति को दोहराने लगी । तभी से यह
कहावत हरियाणा, पंजाब, राजस्थान व उत्तरप्रदेश तंथा दूसरी जगहों पर फैल गई । यहां यह बताना भी जरूरी है कि 19 घोड़ों के बंटवारे के समय विदेशी यात्री और इतिहासकार इब्न-बतूत भी वहीं दिल्ली दरबार में मौजूद था । यह वृत्तांत सर्वखाप पंचायत के अभिलेखागार में मौजूद है।
धन्यवाद।
ये है जाटों का इतिहास दोस्तों।

MEDIA BOOKS मीडिया चरित्र पुस्तक के कवर



MEDIA BOOKS दैनिक जागरण में प्रकाशित 'मीडिया चरित्र' पुस्तक की समीक्षा


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MEDIA BOOK REVIEW दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित मीडिया चरित्र पुस्तक की समीक्षा

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हिन्दी समाचार पत्र दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित 'मीडिया चरित्र' पुस्तक की समीक्षा

शनिवार, 13 मई 2017

आरक्षण क्यों और कब तक जरूरी है ....

इसे इस प्रकार सोचिए। दिल्ली में स्थित देश के प्रमुख मेडिकल संस्थान एम्स में सवर्ण डॉक्टर आरक्षण के विरूद्ध धरने पर बैठे थे। विरोध के प्रतीकात्मक स्वरूप में वे जूते पर पॉलिश कर रहे थे। अब सवाल यह है कि वे एक दिन प्रतीकात्मक रूप से जूता पॉलिश कर अपना विरोध दर्ज करा रहे, लेकिन उस जाति के लोगों का क्या जिन्होंने सैकड़ों पीढ़ियों तक सवर्ण लोगों के जूतों की पॉलिश की है और आज भी कर रहे हैं। जिनका मैला सिर पर ढोया। नालियां साफ की और आज भी कर रहे हैं। कितने ब्राह्मण ऐसे हैं, जो रोजना नगरपालिका की नाली साफ करते हैं, झाडू लगाकर सड़के साफ करते हैं। लोगों की जूतों पर पॉलिश करते हैं। शायद ही कोई मिले। आरक्षण का विरोध उन्हीं हालातों में संभव हो पाएगा। जव सवर्ण अपनी बेटी का विवाह दलित के यहां खुशी-खुशी कर देगा। जब एक ही थाली में खाना संभव हो पायगा।
एक बार मेरा तथाकथित मित्र अपने रिश्तेदार के फोन पर एक एसएमएस करके बताता है कि फलां अखबार में रिपोर्ट प्रकाशित हुई है कि भारत सरकार में सचिव स्तर पर काम करने वाले आईएएस अधिकारियों कुल संख्या में 90 प्रतिशत सवर्ण हैं तो वे जबाव में लिखते हैं वाह-वाह, शुभ-शुभ। लेकिन सार्वजनिक मंचों वे भी बड़े-बड़े माननीयों की तरह समरसता और आरक्षण के विरोध में लिखते हैं। इससे पता चलता है कि वे सामाजिक समरसता की बात केवल इसलिए करते हैं क्योंकि इससे उनकी सामंती सोच पोषित होती है।  

आरक्षण को कहीं से भी ठीक नहीं ठहराया जा सकता है लेकिन उससे पहले जाति व्यवस्था को मन, समाज से, व्यवस्था से निकलना होगा। जाति की श्रेष्ठता का कायाम रखकर आरक्षण खत्म नहीं होना चाहिए बल्कि बढ़ना चाहिए। 

सोमवार, 1 मई 2017

ASHISH KUMAR

-:समर्पण:-
प्रेम कब प्रतिभा के पंखों को उगा देता है
पता ही नहीं चलता।
यह कृति
समर्पित है करुणा की मूर्ति
मेरी दादी स्व. श्रीमती गुलाब कौर के चरणों में
जिनका स्नेह
इस सृजन की शक्ति बना।

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MEDIA CHARITRA- ASHISH KUMAR, मीडिया चरित्र - आशीष कुमार



मीडिया चरित्र




अध्याय  सूची
1.       कारोबारी ढांचा और पेंच में पत्रकारिता
2.       सत्ता के गलियारों में भटकती पत्रकारिता
3.       चुनावी चौपड़ में मोहरा बना मीडिया
4.       देसी मीडिया की चौपड़ में विदेशी मोहरे
5.       पेड न्यूज: गंदा है पर धंधा है
6.       मीडिया की डुगडुगी और बाबाओं का बाजार
7.       मीडिया और युद्ध का बाजार
8.       मीडिया ट्रायल: खुद ही मुद्दई, खुद ही मुंसिफ
9.       किसानों के सरोकार और मीडिया बाजार
10.   तेरे बाजार में लगती शिक्षा की बोली
11.   सास-बहू, सनी लियोनीऔर मीडिया
12.   मीडिया में दलित: अब बात हाशिये की
13.   वो क्यों गायब है
14.   हिंदी पत्रकार मीडिया के महादलित
15.   संस्कृति-साहित्य से तौबा!
16.   तकनीकी तामझाम में झोलाछाप पत्रकारिता
17.   पैसे की दुनिया में पर्यावरण की बात!
18.   सोशल मीडिया कितना सोशल


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मीडिया चरित्र media charitra - Ashish kumar

मीडिया चरित्र - लेखक आशीष कुमार 
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मीडिया चरित्र 
प्रस्तुत पुस्तक पहला सवाल उस व्यवस्था पर उठाती है, जिसमें पत्रकारिता सांस लेती है, आकार लेती है, काम करती है। एक बार देश के एक जाने माने पत्रकार ने सवाल उठाया था कि आधुनिक मीडिया बाजार की पैदावार है और ऐसे में वह कैसे कोई भी ऐसी हरकतकर सकता है जो बाजार के लाभ के खिलाफ जाती हो। पर सवाल है उस ठेले वाले का जो पूरे दिन की मेहनत के बाद अपने आपको अखबार में कहीं खोज नहीं पाता। सवाल है उनका जिनकी चीख चैनलों की चीखपुकार के बीच  घुट कर रह जाती है। सवाल उस किसान का जिसकी आत्महत्या की खबरें भी राजनीतिक समाचारों की रेलमपेल में कहीं दब जाती हैं। सवाल है उस जज्बे का जिसे लेकर कमोबेश हर मीडियाकर्मी इस मिशन-प्रोफेशन में आया था। यही वो पैमाने हैं जिनसे मीडिया का मौजूदा सच तौला जा सकता है, जिसमें मीडिया चरित्र को आंका जा सकता है। उसके चरित्र पर लगे दागों को संवेदना के पानी से पोछा जा सकता है।
पुस्तक का दूसरा अध्याय सत्ता के गलियारों में भटकती पत्रकारिताउस अहम कारण की तलाश करता नजर आता है जिसके कारण मीडिया का दामन दागदार हो गया। पत्रकारिता के खिलाफ बरसों से एक इल्जाम चस्पा है, वह राजनीति के पीछे अतिमुग्ध है। क्यों नहीं सामाजिक मसलों को अखबारों में जगह मिल पाती। वास्तव में इसके पीछे एक अजीब सा ऐतिहासिक कारण है। आजादी से पहले इस देश में क्रांति का बिगुल बजाने वाले अधिकांश योद्धा कलम के सिपाही भी थे। ऐसे में पत्रकारिता से राजनीति का साथ चोली दामन का हो गया। आजादी के बाद राजनीति इतनी तेजी से बदली कि वह सामाजिक सरोकार खो बैठी पर पत्रकारिता अब भी उसी राजनीति को अपना अकेला खुदा मानती आयी। आज के बिगड़े हालात की वजह शायद यही है।
तीसरा अध्याय चुनावी चैपड़ में मोहरा बना मीडिया इस चर्चा में नये आयाम जोड़ता है। यह साफ करता है कि कैसे लोकतंत्र का महापर्व भ्रष्टाचार की गंगोत्री में तबदील हो जाता है। कैसे थैलीशाह चुनाव को नियंत्रित करते हैं और मीडिया इसका पर्दाफाश करने करने की बजाय खुद पार्टी में तबदील हो जाता है। राजनेताओं के आरोपों प्रत्यारोपों की डेली डायरी भरते-भरते चुनावी पत्रकारिता पूरी हो जाती है और जनता के हाथ ढाक के तीन पात भी नहीं लग पाते हैं।
अगला अध्याय उस आयातित खतरे के बारे में आगाह करता है जिसे विदेशी समाचार एजेंसियां कहा जाता है। सवाल उठना लाजिमी है कि अभी तक तो हम अपने विकास के लिए विदेशी निवेश का मुंह देख रहे थे। पर विदेशी समाचार एजेंसियां तो समाचार की बात करती हैं, जिनसे विचार गढ़े जाते हैं। बात विकाससे विचारपर कहां आ गयी। मीडिया आर्थिक विकास का मुद्दा है या विचार का। इस देश के चिंतक दुनिया बदलने की बात अपने विचारों के जरिए करते आए हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी विदेशी रणनीति कक्ष में कहीं कुछ ऐसा घट रहा है जो हमारे ही विचार बदल देने की साजिश रच रहा हो और मीडिया उसका मोहरा बन रहा हो।
पत्रकारिता के चरित्र में यह फॉरेन बॉडी उर्फ वायरस विदेश से ही आये हों ऐसा नहीं। महान स्थानीय साहसके साथ पेड न्यूज का धंधा भी पूरी तरह परवान पर है। पांचवें अध्याय पेड न्यूज: गंदा है पर धंधा है में इस बात को उभारा गया है कि कथ्य को तमाम तरह का मायावी आवरण उढ़ाया जा रहा है कि पाठक जान ही न पाए कि वह अखबार में खबर पढ़ रहा है या खबर की कबर यानी खालिस उर्दू में कब्र। बेचने वाले सिर्फ व्यवसायी हों ऐसा भी नहीं, धर्म की दुकान लगाए कथित बाबाजी भी इस दौड़ में शामिल हैं। विचार के विस्तार के लिए माध्यम का प्रयोग करने पर आपत्ति नहीं की जा सकती, लेकिन माध्यम यानी मीडिया के जरिए धर्म के बजाय स्वयं को ही महिमा मंडित करने की जुगत लड़ाना नितांत दूसरी ही बात है। छठे अध्याय ने इस समस्या को संवेदना के साथ देखा है। 
दुनिया को जब बाजार मान लिया जाता है, तो तमाम लोग सब कुछ बेचने में जुट जाते हैं, रिश्तों से लेकर राष्टप्रेम तक। अगला अध्याय बताता है कि ऐसे में युद्ध भी नहीं बचता। इस देश की संस्कृति रही है कि इसने युद्ध को हमेशा अंतिम विकल्प माना है। शांति के लिए कृष्ण ने पांच गांव की कीमत को सही ठहराया और जब युद्ध लड़ा तो धर्म-संस्कृति की रक्षा के लिए, लेकिन आज तो युद्ध इसलिए लड़ाए जा रहे हैं कि सैम साहिब के टैंक बिक जाएं। मीडिया भी जाने अनजाने हथियारों  की एक मंडी की तरह काम करने लगता है। जहाजों से बम फूल की तरह बरसते दिखाए जाते हैं। यह नहीं दिखाया जाता कि इस विध्वंसक हथियार ने कितने दुश्मन मारे और कितने मासूम सपने।
पर इस दुनिया में अपना दामन देखने की फिक्र किसको है। हर पल दौड़ते भागते मीडिया के लिए तो निहायत वाहियादसा काम है। अपने दामन पर नजर डालने की बजाए मीडिया कठघरे लगाता है। घटना के घटते ही खबर के बासी होने का डर उसपर हावी हो जाता है।  इसके चलते वह वह शक की सुई ही किसी पर नहीं घुमाता, बल्कि फरमान जारी कर देता है। अगला अध्याय मीडिया ट्रायल: खुद ही मुद्दई खुद ही मुंसिफ इस मसले की गहरे से पड़ताल करता है।
नवें अध्याय किसानों के सरोकार और मीडिया बाजारमें मीडिया के पटल से गायब खेती-किसानी से जुड़ी  देश की 70 फीसदी आबादी के सरोकारों की बात की गई है। वर्तमान विकास में मॉडल में मीडिया का
भी नगरीकरण हो गया है। मसले की गंभीरता से लेकर संख्या तक के आधार पर किसानों की आत्महत्या संभवतया आज देश का सबसे बड़ा मसला है, पर राजनीति इस मसले पर जबानी जमाखर्च के अलावा कुछ करने नहीं दे रही। मीडिया द्वारा किसानों की उपेक्षा किसानों की अर्थियों की संख्या बढ़ा रही है। और बार गर्ल की हत्या पर बलवा मचाने वाला मीडिया अब तक इस मसले को एजेंडा नहीं बना पा रहा।
अगले अध्याय में शिक्षा के मसले को महत्व देकर इस सच को बेनकाब किया गया है कि पत्रकारिता का पढ़े-लिखने से रिश्ता कुछ ज्यादा ही कमजोर हो रहा है। वास्तव में मीडिया का मॉर्डन तत्वज्ञान यह है कि एजुकेशन वह प्रोडक्ट है जो अर्थव्यवस्था की खस्ताहाली में भी फलती-फूलती रहती है, क्योंकि इस देश में अभिभावक अपनी सारी पूंजी का निवेश अपने बच्चों के लिए करने में जरा भी कोताही नहीं करता है। सो मीडिया का एजेंडा यह है कि किस तरह शिक्षा का ग्लैमराइजेशन किया जाए, जिससे कस्टमरविद्यार्थी दिव्य सुख की अनुभूति कर सकें। इस वक्त तो टॉप टेन गानों की तरह मीडिया टॉप टेन इंस्टीट्यूट खेल खिलाने में जुटा है। मीडिया में ज्ञान का विज्ञापन होता रहता तो भी गनीमत थी, अब तो विज्ञापन ही परम ज्ञान है। समस्या बस यह है कि वास्तविक ज्ञान टू मिनट नूडल्सबन नहीं पाता और बाजार से हारकर बस्ते की शरण लेने को मजबूर हो जाता है।
सास बहू, सनी लिओनी और मीडिया नामक अध्याय के जरिए कुछ तीखे सवाल उभरते हैं। सास-बहू के जरिए किचन पालिटिक्स की ग्लोबल मार्केंटिंग धड़ल्ले से की जा रही है, उससे भी बढ़कर यह सच कि कैसे एक चैनल बिग बास कार्यक्रम के जरिए एक पोर्न स्टार की जमीन तैयार करता है। बुद्धिजीवी भट्ट साहब उनका इस्तकबाल करने चैनल में पहुंचते हैं इस टिप के साथ कि तुमने जो भी किया उसका पछतावा मत करना। आलोचना-प्रत्यालोचना और फिर ग्लैमर का तड़का देकर एक पोर्न स्टार का बाजार मीडिया ने कैसे तैयार किया, यह शोध का विषय है।
अगला अध्याय मीडिया में दलितों की मौजूदगी से सम्बन्धित है। इस मसले पर रॉबिन जैफ्री सहित तमाम विशेषज्ञ विचार व्यक्त कर चुके हैं। पर समस्या जस की तस है। वास्तव में मीडिया में दलितों का न होना मीडिया का ही नहीं लोकतंत्र का भी संकट है। यदि एक अहम वर्ग के समाचार या विचार सामने आ ही नहीं पा रहे है तो हमारे सामने समाज की तस्वीर कितनी अधूरी पेश हो रही है, यह विचार दिल में चुभता है। यह अध्याय उपेक्षित वर्ग को समर्पित है तो अगला देश के उपेक्षित क्षेत्र पूर्वोत्तर को। कितनी पीड़ाजनक होती होगी वह स्थिति, जब व्यक्ति को आप उसके नाक-नक्श के आधार पर विदेशी कह दें। पर मीडिया पूर्वोत्तर के दर्द को कितना समझता होगा, यह पड़ताल तो इस आत्मालोचना से की जा सकती है कि कितने मीडिया कर्मी मानचित्र में पूर्वोत्तर के हर राज्य को उसके नाम से पहचान सकते हैं।
अगले अध्याय में लेखक ने हिन्दी पत्रकार को मीडिया का महादलित माना है, जो बेहद कड़वा यथार्थ है। महादलितों की ही तरह हिन्दी पत्रकारिता के बिना किसी भी राजनेता की दुकान चल नहीं सकती लेकिन जब बात संसाधन, सम्मान या गरिमा देने की आती है तो अंग्रेजी पत्रकारिता हिन्दी की जगह हड़प लेती है। पर सच यह भी है कि महादलितों की तरह हिन्दी पत्रकारों को अपने गौरव का अहसास होने लगा है। वह अपना हक कैसे हासिल करते है, यह भविष्य के गर्भ में है।
आज अखबार या न्यूज चैनल समाचार या विचार प्रसार का माध्यम हीं नहीं बल्कि वे पूरा पैकेजहै। इस पैकेज में ब्रेकफास्ट से लेकर पत्नी को कैसे मोहित करें, तक पर मैटर परोसा जा रहा है। संस्कृति साहित्य से तौबाअध्याय स्पष्ट करता है कि कैसे इस पैकेज में संस्कृति और साहित्य का स्पेस कम होता जा रहा है? और कैसे वो अब आउट डेटेडहै। मीडिया को संभवतया यह समझना होगा कि साहित्य महज मनोरंजन नहीं है, उसके बिना आप मानव मन को कैसे जानेंगे, समाज को कैसे समझेंगे और तो और बिना इस टकसाल के नये शब्द नयी अभिव्यक्तियां कहां से पायेंगे? और अखबारों में जिस तरह संस्कृति सम्बन्धी जानकारी कम हो रही है, उस पैमाने से वह दिन दूर नहीं जब हिन्दुस्तानियों को अपनी तहजीब की जानकारी विदेशी पत्र पत्रिकाओं से मिलेगी।
तकनीकी तामझाम में झोलाछाप पत्रकारिता अध्याय एक आश्यर्च पैदा करता है। पत्रकारिता एक तरफ कला से किनारा कर रही है दूसरी तरफ वह विज्ञान से भी दूर भाग रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि पत्रकारिता ऐसा मीडियाकर पाठक-दर्शक पैदा कर रही है, जिसमें धार न हो, जज्बा न हो, वह सिर्फ उपभोक्ता हो, उपभोक्ता हो और उपभोक्ता हो। बाजारीकरण के दर्द का यह विस्तार अगले अध्याय पैसे की दुनिया में पर्यावरण की बात में भी उभरा है। दर्द की बात यह भी है कि मीडिया यह बात समझाना तो दूर खुद भी नहीं समझ पाया है कि पर्यावरण एक मुद्दा नहीं, इस धरती के जिन्दा रहने की एकमात्र गारंटी है।
आखिरी अध्याय सोशल मीडिया कितना सोशल में इस नव जनमाध्यम का इन्टलेक्चुअल ऑपरेशन करने का प्रयास किया गया है। यह बताता है कि बिना दायित्व के शक्ति का सिद्धांत किस तरह इस माध्यम को संचालित कर रहा है। पक्ष यह नहीं है कि सरकार इस माध्यम को प्रतिबंधित करे, तर्क यह है कि अगर यह माध्यम यूं ही गलत तथ्यों और दुर्भावनाओं से प्रदूषित होता रहा तो इसमें सांस लेना मुश्किल हो जाएगा। ऐसे में कुटिल राजनीति के लिए इसपर लगाम लगाना बेहद आसान हो जाएगा।
और अंत में....

पुस्तक में अठारह अध्याय हैं और महाभारत का युद्ध भी अठारह दिन लड़ा गया था। वह युद्ध जिसमें तीखे वाणों की वर्षा बाहर ही नहीं हो रही थी, हर पात्र के भीतर भी एक युद्ध लड़ा जा रहा था। मानिए या न मानिए, मीडिया का दुनिया का द्वंद भी एक महाभारत से कम नहीं। महाभारत के किसी भी मानवीय चरित्र को स्याह या सफेद नहीं कहा जा सकता था। आज पत्रकारिता के मूल्यों की शुभ्र आभा और कमजोरियों की कालिख भी कुछ ऐसी ही घुलमिल गयी है, जिसमे में संपादक से लेकर संवादसूत्र तक का आचरण सलेटीही कहा जा सकता है। अब इस स्लेट पर व्यवस्था परिवर्तन के अक्षर किस हद तक उभर पाते है? सवाल बस यही है।  

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ashish kumar