मीडिया चरित्र - लेखक आशीष कुमार |
प्रस्तुत पुस्तक पहला सवाल उस व्यवस्था पर उठाती है, जिसमें पत्रकारिता सांस
लेती है, आकार लेती है, काम करती है। एक बार देश के एक जाने माने
पत्रकार ने सवाल उठाया था कि आधुनिक मीडिया बाजार की पैदावार है और ऐसे में वह
कैसे कोई भी ऐसी ‘हरकत’ कर सकता है जो बाजार के लाभ के खिलाफ जाती हो। पर
सवाल है उस ठेले वाले का जो पूरे दिन की मेहनत के बाद अपने आपको अखबार में कहीं
खोज नहीं पाता। सवाल है उनका जिनकी चीख चैनलों की चीखपुकार के बीच घुट कर रह जाती है। सवाल उस किसान का जिसकी
आत्महत्या की खबरें भी राजनीतिक समाचारों की रेलमपेल में कहीं दब जाती हैं। सवाल
है उस जज्बे का जिसे लेकर कमोबेश हर मीडियाकर्मी इस मिशन-प्रोफेशन में आया था। यही
वो पैमाने हैं जिनसे मीडिया का मौजूदा सच तौला जा सकता है, जिसमें ‘मीडिया चरित्र’ को आंका जा सकता
है। उसके चरित्र पर लगे दागों को संवेदना के पानी से पोछा जा सकता है।
पुस्तक का दूसरा अध्याय ‘सत्ता के
गलियारों में भटकती पत्रकारिता’ उस अहम कारण की
तलाश करता नजर आता है जिसके कारण मीडिया का दामन दागदार हो गया। पत्रकारिता के
खिलाफ बरसों से एक इल्जाम चस्पा है, वह राजनीति के पीछे अतिमुग्ध है। क्यों नहीं सामाजिक मसलों को अखबारों में जगह
मिल पाती। वास्तव में इसके पीछे एक अजीब सा ऐतिहासिक कारण है। आजादी से पहले इस
देश में क्रांति का बिगुल बजाने वाले अधिकांश योद्धा कलम के सिपाही भी थे। ऐसे में
पत्रकारिता से राजनीति का साथ चोली दामन का हो गया। आजादी के बाद राजनीति इतनी
तेजी से बदली कि वह सामाजिक सरोकार खो बैठी पर पत्रकारिता अब भी उसी राजनीति को
अपना अकेला खुदा मानती आयी। आज के बिगड़े हालात की वजह शायद यही है।
तीसरा अध्याय ‘चुनावी चैपड़ में मोहरा
बना मीडिया’ इस चर्चा में नये आयाम
जोड़ता है। यह साफ करता है कि कैसे लोकतंत्र का महापर्व भ्रष्टाचार की गंगोत्री
में तबदील हो जाता है। कैसे थैलीशाह चुनाव को नियंत्रित करते हैं और मीडिया इसका
पर्दाफाश करने करने की बजाय खुद पार्टी में तबदील हो जाता है। राजनेताओं के आरोपों
प्रत्यारोपों की डेली डायरी भरते-भरते चुनावी पत्रकारिता पूरी हो जाती है और जनता
के हाथ ढाक के तीन पात भी नहीं लग पाते हैं।
अगला अध्याय उस आयातित खतरे के बारे में आगाह करता है जिसे विदेशी समाचार
एजेंसियां कहा जाता है। सवाल उठना लाजिमी है कि अभी तक तो हम अपने विकास के लिए
विदेशी निवेश का मुंह देख रहे थे। पर विदेशी समाचार एजेंसियां तो समाचार की बात
करती हैं, जिनसे विचार गढ़े जाते हैं। बात ‘विकास’ से ‘विचार’ पर कहां आ गयी। मीडिया आर्थिक विकास का मुद्दा है या विचार का। इस देश के
चिंतक दुनिया बदलने की बात अपने विचारों के जरिए करते आए हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि
किसी विदेशी रणनीति कक्ष में कहीं कुछ ऐसा घट रहा है जो हमारे ही विचार बदल देने
की साजिश रच रहा हो और मीडिया उसका मोहरा बन रहा हो।
पत्रकारिता के चरित्र में यह फॉरेन बॉडी उर्फ वायरस विदेश से ही आये हों ऐसा
नहीं। महान ‘स्थानीय साहस’
के साथ पेड न्यूज का धंधा भी पूरी तरह परवान पर
है। पांचवें अध्याय ‘पेड न्यूज: गंदा
है पर धंधा है’ में इस बात को उभारा गया है कि कथ्य को तमाम तरह का मायावी
आवरण उढ़ाया जा रहा है कि पाठक जान ही न पाए कि वह अखबार में खबर पढ़ रहा है या
खबर की ‘कबर’ यानी खालिस उर्दू में
कब्र। बेचने वाले सिर्फ व्यवसायी हों ऐसा भी नहीं, धर्म की दुकान लगाए कथित बाबाजी भी इस दौड़ में शामिल हैं।
विचार के विस्तार के लिए माध्यम का प्रयोग करने पर आपत्ति नहीं की जा सकती, लेकिन
माध्यम यानी मीडिया के जरिए धर्म के बजाय स्वयं को ही महिमा मंडित करने की जुगत
लड़ाना नितांत दूसरी ही बात है। छठे अध्याय ने इस समस्या को संवेदना के साथ देखा
है।
दुनिया को जब बाजार
मान लिया जाता है, तो तमाम लोग सब कुछ बेचने
में जुट जाते हैं, रिश्तों से लेकर राष्टप्रेम तक। अगला अध्याय बताता है कि ऐसे
में युद्ध भी नहीं बचता। इस देश की संस्कृति रही है कि इसने युद्ध को हमेशा अंतिम
विकल्प माना है। शांति के लिए कृष्ण ने पांच गांव की कीमत को सही ठहराया और जब
युद्ध लड़ा तो धर्म-संस्कृति की रक्षा के लिए, लेकिन आज तो युद्ध इसलिए लड़ाए जा
रहे हैं कि सैम साहिब के टैंक बिक जाएं। मीडिया भी जाने अनजाने हथियारों की एक मंडी की तरह काम करने लगता है। जहाजों से
बम फूल की तरह बरसते दिखाए जाते हैं। यह नहीं दिखाया जाता कि इस विध्वंसक हथियार
ने कितने दुश्मन मारे और कितने मासूम सपने।
पर इस दुनिया में अपना दामन देखने की फिक्र किसको है। हर पल दौड़ते भागते
मीडिया के लिए तो निहायत ‘वाहियाद’ सा काम है। अपने दामन पर नजर डालने की बजाए
मीडिया कठघरे लगाता है। घटना के घटते ही खबर के बासी होने का डर उसपर हावी हो जाता
है। इसके चलते वह वह शक की सुई ही किसी पर
नहीं घुमाता, बल्कि फरमान जारी कर देता
है। अगला अध्याय मीडिया ‘ट्रायल: खुद ही
मुद्दई खुद ही मुंसिफ’ इस मसले की गहरे से
पड़ताल करता है।
नवें अध्याय ‘किसानों के सरोकार और
मीडिया बाजार’ में मीडिया के पटल से
गायब खेती-किसानी से जुड़ी देश की 70
फीसदी आबादी के सरोकारों की बात की गई है। वर्तमान विकास में मॉडल में मीडिया का
भी नगरीकरण हो गया है। मसले की गंभीरता से लेकर संख्या तक के आधार पर किसानों की आत्महत्या संभवतया आज देश का सबसे बड़ा मसला है, पर राजनीति इस मसले पर जबानी जमाखर्च के अलावा कुछ करने नहीं दे रही। मीडिया द्वारा किसानों की उपेक्षा किसानों की अर्थियों की संख्या बढ़ा रही है। और बार गर्ल की हत्या पर बलवा मचाने वाला मीडिया अब तक इस मसले को एजेंडा नहीं बना पा रहा।
भी नगरीकरण हो गया है। मसले की गंभीरता से लेकर संख्या तक के आधार पर किसानों की आत्महत्या संभवतया आज देश का सबसे बड़ा मसला है, पर राजनीति इस मसले पर जबानी जमाखर्च के अलावा कुछ करने नहीं दे रही। मीडिया द्वारा किसानों की उपेक्षा किसानों की अर्थियों की संख्या बढ़ा रही है। और बार गर्ल की हत्या पर बलवा मचाने वाला मीडिया अब तक इस मसले को एजेंडा नहीं बना पा रहा।
अगले अध्याय में शिक्षा के मसले को महत्व देकर इस सच को बेनकाब किया गया है कि
पत्रकारिता का पढ़े-लिखने से रिश्ता कुछ ज्यादा ही कमजोर हो रहा है। वास्तव में
मीडिया का मॉर्डन तत्वज्ञान यह है कि एजुकेशन वह प्रोडक्ट है जो अर्थव्यवस्था की
खस्ताहाली में भी फलती-फूलती रहती है, क्योंकि इस देश में अभिभावक अपनी सारी पूंजी
का निवेश अपने बच्चों के लिए करने में जरा भी कोताही नहीं करता है। सो मीडिया का
एजेंडा यह है कि किस तरह शिक्षा का ग्लैमराइजेशन किया जाए, जिससे ‘कस्टमर’ विद्यार्थी दिव्य सुख की अनुभूति कर सकें। इस वक्त तो टॉप
टेन गानों की तरह मीडिया टॉप टेन इंस्टीट्यूट खेल खिलाने में जुटा है। मीडिया में
ज्ञान का विज्ञापन होता रहता तो भी गनीमत थी, अब तो विज्ञापन ही परम ज्ञान है। समस्या बस यह है कि
वास्तविक ज्ञान ‘टू मिनट नूडल्स’
बन नहीं पाता और बाजार से हारकर बस्ते की शरण
लेने को मजबूर हो जाता है।
‘सास बहू, सनी लिओनी और मीडिया’ नामक अध्याय के जरिए कुछ तीखे सवाल उभरते हैं। सास-बहू के
जरिए किचन पालिटिक्स की ग्लोबल मार्केंटिंग धड़ल्ले से की जा रही है, उससे भी
बढ़कर यह सच कि कैसे एक चैनल ‘बिग बास’ कार्यक्रम के जरिए एक पोर्न स्टार की जमीन तैयार करता है।
बुद्धिजीवी भट्ट साहब उनका इस्तकबाल करने चैनल में पहुंचते हैं इस टिप के साथ कि
तुमने जो भी किया उसका पछतावा मत करना। आलोचना-प्रत्यालोचना और फिर ग्लैमर का
तड़का देकर एक पोर्न स्टार का बाजार मीडिया ने कैसे तैयार किया, यह शोध का विषय है।
अगला अध्याय मीडिया में दलितों की मौजूदगी से सम्बन्धित है। इस मसले पर रॉबिन
जैफ्री सहित तमाम विशेषज्ञ विचार व्यक्त कर चुके हैं। पर समस्या जस की तस है।
वास्तव में मीडिया में दलितों का न होना मीडिया का ही नहीं लोकतंत्र का भी संकट
है। यदि एक अहम वर्ग के समाचार या विचार सामने आ ही नहीं पा रहे है तो हमारे सामने समाज की
तस्वीर कितनी अधूरी पेश हो रही है, यह विचार दिल में
चुभता है। यह अध्याय उपेक्षित वर्ग को समर्पित है तो अगला देश के उपेक्षित क्षेत्र
पूर्वोत्तर को। कितनी पीड़ाजनक होती होगी वह स्थिति, जब व्यक्ति को आप उसके नाक-नक्श के आधार पर विदेशी कह दें।
पर मीडिया पूर्वोत्तर के दर्द को कितना समझता होगा, यह पड़ताल तो इस आत्मालोचना से
की जा सकती है कि कितने मीडिया कर्मी मानचित्र में पूर्वोत्तर के हर राज्य को उसके
नाम से पहचान सकते हैं।
अगले अध्याय में लेखक ने हिन्दी पत्रकार को मीडिया का महादलित माना है,
जो बेहद कड़वा यथार्थ है। महादलितों की ही तरह
हिन्दी पत्रकारिता के बिना किसी भी राजनेता की दुकान चल नहीं सकती लेकिन जब बात
संसाधन, सम्मान या गरिमा देने की
आती है तो अंग्रेजी पत्रकारिता हिन्दी की जगह हड़प लेती है। पर सच यह भी है कि
महादलितों की तरह हिन्दी पत्रकारों को अपने गौरव का अहसास होने लगा है। वह अपना हक
कैसे हासिल करते है, यह भविष्य के
गर्भ में है।
आज अखबार या न्यूज चैनल समाचार या विचार प्रसार का माध्यम हीं नहीं बल्कि वे
पूरा ‘पैकेज’ है। इस पैकेज में ब्रेकफास्ट से लेकर पत्नी को
कैसे मोहित करें, तक पर मैटर परोसा
जा रहा है। ‘संस्कृति साहित्य
से तौबा’ अध्याय स्पष्ट करता है कि
कैसे इस पैकेज में संस्कृति और साहित्य का स्पेस कम होता जा रहा है? और कैसे वो अब ‘आउट डेटेड’ है। मीडिया को
संभवतया यह समझना होगा कि साहित्य महज मनोरंजन नहीं है, उसके बिना आप मानव मन को कैसे जानेंगे, समाज को कैसे समझेंगे और तो और बिना इस टकसाल
के नये शब्द नयी अभिव्यक्तियां कहां से पायेंगे? और अखबारों में जिस तरह संस्कृति सम्बन्धी जानकारी कम हो
रही है, उस पैमाने से वह दिन दूर
नहीं जब हिन्दुस्तानियों को अपनी तहजीब की जानकारी विदेशी पत्र पत्रिकाओं से
मिलेगी।
‘तकनीकी तामझाम
में झोलाछाप पत्रकारिता’ अध्याय एक
आश्यर्च पैदा करता है। पत्रकारिता एक तरफ कला से किनारा कर रही है दूसरी तरफ वह
विज्ञान से भी दूर भाग रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि पत्रकारिता ऐसा मीडियाकर
पाठक-दर्शक पैदा कर रही है, जिसमें धार न हो,
जज्बा न हो, वह सिर्फ उपभोक्ता हो, उपभोक्ता हो और उपभोक्ता हो। बाजारीकरण के दर्द का यह
विस्तार अगले अध्याय ‘पैसे की दुनिया
में पर्यावरण की बात’ में भी उभरा है। दर्द की
बात यह भी है कि मीडिया यह बात समझाना तो दूर खुद भी नहीं समझ पाया है कि पर्यावरण
एक मुद्दा नहीं, इस धरती के
जिन्दा रहने की एकमात्र गारंटी है।
आखिरी अध्याय सोशल मीडिया कितना सोशल में इस नव जनमाध्यम का इन्टलेक्चुअल ऑपरेशन
करने का प्रयास किया गया है। यह बताता है कि बिना दायित्व के शक्ति का सिद्धांत
किस तरह इस माध्यम को संचालित कर रहा है। पक्ष यह नहीं है कि सरकार इस माध्यम को
प्रतिबंधित करे, तर्क यह है कि
अगर यह माध्यम यूं ही गलत तथ्यों और
दुर्भावनाओं से प्रदूषित होता रहा तो इसमें सांस लेना मुश्किल हो जाएगा। ऐसे में
कुटिल राजनीति के लिए इसपर लगाम लगाना बेहद आसान हो जाएगा।
और अंत में....
पुस्तक में अठारह अध्याय हैं और महाभारत का युद्ध भी अठारह दिन लड़ा गया था।
वह युद्ध जिसमें तीखे वाणों की वर्षा बाहर ही नहीं हो रही थी, हर पात्र के भीतर भी एक युद्ध लड़ा जा रहा था।
मानिए या न मानिए, मीडिया का दुनिया
का द्वंद भी एक महाभारत से कम नहीं। महाभारत के किसी भी मानवीय चरित्र को स्याह या
सफेद नहीं कहा जा सकता था। आज पत्रकारिता के मूल्यों की शुभ्र आभा और कमजोरियों की
कालिख भी कुछ ऐसी ही घुलमिल गयी है, जिसमे में संपादक से लेकर संवादसूत्र तक का आचरण ‘सलेटी’ ही कहा जा सकता
है। अब इस स्लेट पर व्यवस्था परिवर्तन के अक्षर किस हद तक उभर पाते है? सवाल बस यही है।
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