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गुरुवार, 18 जनवरी 2018

सपनों का सच

Devanshi sejwar


मेरे सपने मुझसे क्या कहते हैं
कभी मुझे डराते हैं,
कभी स्नेह दिलाते हैं।
बिछड़ों से मिलाते हैं,
कभी उनके लिए तड़पाते हैं।
सपनों में कभी राजा हूं,
कभी रंक हूं।
कभी उसके पास हूं,
कभी उससे दूर हूं।
उसको छूकर रोमांचित हो उठता हूं,
कभी दौड़ता कभी हांफता।
कभी दौड़ नहीं पाता,
कभी उसे पकड़ नहीं पाता हूं।
कभी डर को डरता है,
कभी उससे डर जाता हूं,
कभी उड़ता, छलांग लगता हूं।
सपनों में मेरी सफलताएं हैं,
मेरी कुंठाएं है, असफलताएं हैं।
कभी बचपन है, कभी बचपन की यादें।
कभी मेरी कलम है कभी परीक्षाएं हैं।
परीक्षाएं छूटती हैं, कलम खो जाती है।
कभी कलम चल नहीं पाती है।
उठकर सोचता हूं।
कलम और परीक्षाओं से,
काफी आगे निकल आया हूं।
ना अब बचपन है, न वो लोग हैं।
अब दौड़ है, सपनों के बोझ हैं।
मान-अपमान है, शक्ति है – असहाय हैं।
अब अहसास बदल गए हैं।
वो दौर निकल गए हैं।
सपने मुझे क्यों धोखा देते हैं।
भूत-भविष्य क्यों दिखाते हैं।
अब बस सोचते हैं,
सपनों को नकारते हैं।
क्या यही सच या सपना सच।
तो न यह सच न सपना सच है।
आओ जगकर, सच को तलाशते हैं।
सपनों से निकलकर, सत्य को पाते हैं।