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शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2018

भारत में बिजनेस पत्रकारिता




विकसित होते भारत में आर्थिक पत्रकारिता विशेष महत्व रखती है। आर्थिकपत्रकारिता शब्द में दो शब्द हैंआर्थिक और पत्रकारिता। आर्थिक का संबंध अर्थशास्त्र से है। अर्थशास्त्र सामाजिक विज्ञान की वह शाखा है, जिसके अन्तर्गत वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन, वितरण, विनिमय और उपभोग का अध्ययन किया जाता है। 'अर्थशास्त्र' शब्द संस्कृत शब्दों धन और शास्त्र की संधि से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ है 'धन का अध्ययन'। किसी विषय के संबंध में मनुष्यों के कार्यो के क्रमबद्ध ज्ञान को उस विषय का शास्त्र कहते हैं, इसलिए अर्थशास्त्र में मनुष्यों के अर्थसंबंधी कायों का क्रमबद्ध ज्ञान होना आवश्यक है।
अर्थशास्त्र की बहुत शुरुआती परिभाषाओं में एक परिभाषा एल रोबिंस ने दी हैअर्थशास्त्र वह विज्ञान है, जो मानवीय व्यवहार का अध्ययन उन साध्यों और सीमित साधनों के रिश्ते के रुप में करता है, जिनके वैकल्पिक प्रयोग हैं। संसाधन सीमित हैं, उनके किस प्रकार के प्रयोग संभव हैं। उन संसाधनों से किस प्रकार अधिकतम आउटपुट कैस प्राप्त किया जा सकता है। इसी प्रकार के प्रश्नों का उत्तर अर्थशास्त्र के अंतर्गत ढूंढा जाता है। अर्थशास्त्र के बारे में उन विद्वानों ने भी लिखा है, जो मूलत अर्थशास्त्री नहीं थे। प्रख्यात नाटककार और व्यंग्यकार बर्नार्ड शा ने लिखा हैअर्थशास्त्र जीवन से अधिकतम पाने की कला है।
अर्थशास्त्र में उत्पादन के विभिन्न तत्वों का विस्तृत अध्ययन किया जाता है। उत्पादन के महत्वपूर्ण तत्व हैं भूमि या प्राकृतिक संसाधन, जैसेखनिज, कच्चा माल, जो उत्पादन में प्रयुक्त होते हैं। श्रम यानी वह मानवीय प्रयास जो उत्पादन में प्रयुक्त होते हैं। इनमें मार्केटिंग और तकनीकी विशेषज्ञता शामिल है। पूंजी, जिससे मशीन,फैक्टरी इत्यादि खड़ी की जाती है। कारोबारी प्रयास, जिनके चलते शेष सारे तत्व काराबोर को संभव बनाते हैं।
इस लिहाज से आर्थिक पत्रकारिता को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है कि आर्थिक या बिजनेस पत्रकारिता का अर्थ उस पत्रकारिता से है, जिसमें व्यापार, वाणिज्य जैसी तमाम आर्थिक गतिविधियों की जानकारी विभिन्न संचार माध्यमों के जरिए पाठकों, दर्शकों, श्रोताओं तक पहुंचायी जाती है। आर्थिक पत्रकारिता करने के लिए आर्थिक गतिविधियों और शब्दावलियों की जानकारी होना बहुत आवश्यक है।
यदि किसी जनसंचार के विद्यार्थी को बतौर पत्रकार आर्थिक पत्रकारिता करनी है  तो आर्थिक शब्दों तकनीकी जानकारी होना बहुत जरूरी है। अर्थजगत में प्रत्येक आर्थिक गतिविधि से जुड़े शब्द का एक विशेष महत्व होता है। ऐसे शब्दों को समझे बगैर, न तो सही तरह से पत्रकारिता हो सकती है और न ही लेखक पाठकों को ठीक से समझा सकता है। आर्थिक पत्रकारिता करने से पहले आर्थिक शब्दालियों का आत्मसात करना बहुत जरूरी है। साथ ही हिन्दी में आर्थिक और बिजनेस पत्रकारिता करने के लिए यह आवश्यक है कि सही ढंग से अंगे्रजी का हिंदी में अनुवाद करना भी आना चाहिए।  क्योंकि हिन्दी  ख़बर लिखने के लिए जो भी सामग्री मिलती है, वह आम तौर पर अंगे्रजी में ही होती है,इसलिए अगर आप डेस्क के साथ-साथ रिपोर्टिंग भी कर रहे हों, तो अनुवाद से साबका आपका होगा ही। ऐसे में, अंगे्रजी जानना बेहद ज़रूरी हो जाता है। अनुवाद करते वक्त इस बात का भी ध्यान रखना पड़ेगा कि शब्दश: अनुवाद न हो और भावानुवाद को महत्व दिया जाए। जटिल शब्दों को सरल शब्दों में लिखना ही आर्थिक पत्रकारिता की सही पहचान है। हां, अनुवाद करते वक्त अगर कोई कठिन तकनीकी शब्द आ जाए, तो बेहतर यही होगा कि उस शब्द को अंगे्रजी में ही जाने दें, ताकि अर्थ का अनर्थ न हो।
अनुवाद किसी भी दृष्टि से अनुवाद न लगे। पढ़ने वाले को यह एहसास हो कि जिस ख़बर को वह पढ़ रहा है, वह मूल रूप से हिंदी में ही लिखी गई है। वैसे, अनुवाद करना भी एक कला है और यह कला नियमित अभ्यास के जरिए ही आत्मसात की जा सकती है, बशर्ते कि हर शब्द का सही अर्थ लेखक जानता और समझता हो। अनुवाद तभी सही तरह से पठनीय होता है, जब पत्रकार एक भाषा से दूसरी भाषा की आत्मा को समझे। अगर मूल पाठ को समझने में कोई दिक्कत हो, तो अर्थ का अनर्थ होने का ख़तरा सौ प्रतिशत बना रहता है।
आर्थिक पत्रकारिता करने वाले लोगों को यह समझने की कोशिश भी करनी चाहिए कि आखिर किसी खास क्षेत्र के बजट में अगर सरकार बेतहाशा वृद्धि कर रही है, तो उसकी असली वजह क्या है? यहां यह जानना और लोगों को समझाना भी जरूरी होता है, क्योंकि ऐसी ब़ढोत्तरी के लिए सरकार कुछ और तर्क देती है, लेकिन पर्दे के पीछे की सच्चाई कुछ और ही होती है।
आर्थिक पत्रकारिता करने वालों को इस बात से भी वाकिफ होना चाहिए कि भले ही एक तरफ देश में विदेशी मुद्रा भंडार और अरबपतियों की संख्या ब़ढ रही हो, लेकिन दूसरी ओर एक ब़डा वर्ग ऐसा भी है, जो दिनोंदिन और, और गरीब होता जा रहा है। समाज में चौतरफा फैल रही विषमता के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार आर्थिक गैरबराबरी ही है। दरअसल, आर्थिक असमानता की वजह से ही समाज में जीवनशैली, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास के अलावा, कई बुनियादी मोर्चों पर गैरबराबरी ब़ढ रही है। इन सभी मुद्दों पर लिखते वक्त हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि कहीं हम पूंजीपतियों की जी हुजूरी में तो नहीं लग गए हैं। दरअसल, हमें लिखते वक्त यह ध्यान भी रखना होगा कि आर्थिक गैरबराबरी की वजह से ही राज और समाज में कई तरह की विषमता फैलती है।

सोमवार, 1 मई 2017

मीडिया चरित्र media charitra - Ashish kumar

मीडिया चरित्र - लेखक आशीष कुमार 
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मीडिया चरित्र 
प्रस्तुत पुस्तक पहला सवाल उस व्यवस्था पर उठाती है, जिसमें पत्रकारिता सांस लेती है, आकार लेती है, काम करती है। एक बार देश के एक जाने माने पत्रकार ने सवाल उठाया था कि आधुनिक मीडिया बाजार की पैदावार है और ऐसे में वह कैसे कोई भी ऐसी हरकतकर सकता है जो बाजार के लाभ के खिलाफ जाती हो। पर सवाल है उस ठेले वाले का जो पूरे दिन की मेहनत के बाद अपने आपको अखबार में कहीं खोज नहीं पाता। सवाल है उनका जिनकी चीख चैनलों की चीखपुकार के बीच  घुट कर रह जाती है। सवाल उस किसान का जिसकी आत्महत्या की खबरें भी राजनीतिक समाचारों की रेलमपेल में कहीं दब जाती हैं। सवाल है उस जज्बे का जिसे लेकर कमोबेश हर मीडियाकर्मी इस मिशन-प्रोफेशन में आया था। यही वो पैमाने हैं जिनसे मीडिया का मौजूदा सच तौला जा सकता है, जिसमें मीडिया चरित्र को आंका जा सकता है। उसके चरित्र पर लगे दागों को संवेदना के पानी से पोछा जा सकता है।
पुस्तक का दूसरा अध्याय सत्ता के गलियारों में भटकती पत्रकारिताउस अहम कारण की तलाश करता नजर आता है जिसके कारण मीडिया का दामन दागदार हो गया। पत्रकारिता के खिलाफ बरसों से एक इल्जाम चस्पा है, वह राजनीति के पीछे अतिमुग्ध है। क्यों नहीं सामाजिक मसलों को अखबारों में जगह मिल पाती। वास्तव में इसके पीछे एक अजीब सा ऐतिहासिक कारण है। आजादी से पहले इस देश में क्रांति का बिगुल बजाने वाले अधिकांश योद्धा कलम के सिपाही भी थे। ऐसे में पत्रकारिता से राजनीति का साथ चोली दामन का हो गया। आजादी के बाद राजनीति इतनी तेजी से बदली कि वह सामाजिक सरोकार खो बैठी पर पत्रकारिता अब भी उसी राजनीति को अपना अकेला खुदा मानती आयी। आज के बिगड़े हालात की वजह शायद यही है।
तीसरा अध्याय चुनावी चैपड़ में मोहरा बना मीडिया इस चर्चा में नये आयाम जोड़ता है। यह साफ करता है कि कैसे लोकतंत्र का महापर्व भ्रष्टाचार की गंगोत्री में तबदील हो जाता है। कैसे थैलीशाह चुनाव को नियंत्रित करते हैं और मीडिया इसका पर्दाफाश करने करने की बजाय खुद पार्टी में तबदील हो जाता है। राजनेताओं के आरोपों प्रत्यारोपों की डेली डायरी भरते-भरते चुनावी पत्रकारिता पूरी हो जाती है और जनता के हाथ ढाक के तीन पात भी नहीं लग पाते हैं।
अगला अध्याय उस आयातित खतरे के बारे में आगाह करता है जिसे विदेशी समाचार एजेंसियां कहा जाता है। सवाल उठना लाजिमी है कि अभी तक तो हम अपने विकास के लिए विदेशी निवेश का मुंह देख रहे थे। पर विदेशी समाचार एजेंसियां तो समाचार की बात करती हैं, जिनसे विचार गढ़े जाते हैं। बात विकाससे विचारपर कहां आ गयी। मीडिया आर्थिक विकास का मुद्दा है या विचार का। इस देश के चिंतक दुनिया बदलने की बात अपने विचारों के जरिए करते आए हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी विदेशी रणनीति कक्ष में कहीं कुछ ऐसा घट रहा है जो हमारे ही विचार बदल देने की साजिश रच रहा हो और मीडिया उसका मोहरा बन रहा हो।
पत्रकारिता के चरित्र में यह फॉरेन बॉडी उर्फ वायरस विदेश से ही आये हों ऐसा नहीं। महान स्थानीय साहसके साथ पेड न्यूज का धंधा भी पूरी तरह परवान पर है। पांचवें अध्याय पेड न्यूज: गंदा है पर धंधा है में इस बात को उभारा गया है कि कथ्य को तमाम तरह का मायावी आवरण उढ़ाया जा रहा है कि पाठक जान ही न पाए कि वह अखबार में खबर पढ़ रहा है या खबर की कबर यानी खालिस उर्दू में कब्र। बेचने वाले सिर्फ व्यवसायी हों ऐसा भी नहीं, धर्म की दुकान लगाए कथित बाबाजी भी इस दौड़ में शामिल हैं। विचार के विस्तार के लिए माध्यम का प्रयोग करने पर आपत्ति नहीं की जा सकती, लेकिन माध्यम यानी मीडिया के जरिए धर्म के बजाय स्वयं को ही महिमा मंडित करने की जुगत लड़ाना नितांत दूसरी ही बात है। छठे अध्याय ने इस समस्या को संवेदना के साथ देखा है। 
दुनिया को जब बाजार मान लिया जाता है, तो तमाम लोग सब कुछ बेचने में जुट जाते हैं, रिश्तों से लेकर राष्टप्रेम तक। अगला अध्याय बताता है कि ऐसे में युद्ध भी नहीं बचता। इस देश की संस्कृति रही है कि इसने युद्ध को हमेशा अंतिम विकल्प माना है। शांति के लिए कृष्ण ने पांच गांव की कीमत को सही ठहराया और जब युद्ध लड़ा तो धर्म-संस्कृति की रक्षा के लिए, लेकिन आज तो युद्ध इसलिए लड़ाए जा रहे हैं कि सैम साहिब के टैंक बिक जाएं। मीडिया भी जाने अनजाने हथियारों  की एक मंडी की तरह काम करने लगता है। जहाजों से बम फूल की तरह बरसते दिखाए जाते हैं। यह नहीं दिखाया जाता कि इस विध्वंसक हथियार ने कितने दुश्मन मारे और कितने मासूम सपने।
पर इस दुनिया में अपना दामन देखने की फिक्र किसको है। हर पल दौड़ते भागते मीडिया के लिए तो निहायत वाहियादसा काम है। अपने दामन पर नजर डालने की बजाए मीडिया कठघरे लगाता है। घटना के घटते ही खबर के बासी होने का डर उसपर हावी हो जाता है।  इसके चलते वह वह शक की सुई ही किसी पर नहीं घुमाता, बल्कि फरमान जारी कर देता है। अगला अध्याय मीडिया ट्रायल: खुद ही मुद्दई खुद ही मुंसिफ इस मसले की गहरे से पड़ताल करता है।
नवें अध्याय किसानों के सरोकार और मीडिया बाजारमें मीडिया के पटल से गायब खेती-किसानी से जुड़ी  देश की 70 फीसदी आबादी के सरोकारों की बात की गई है। वर्तमान विकास में मॉडल में मीडिया का
भी नगरीकरण हो गया है। मसले की गंभीरता से लेकर संख्या तक के आधार पर किसानों की आत्महत्या संभवतया आज देश का सबसे बड़ा मसला है, पर राजनीति इस मसले पर जबानी जमाखर्च के अलावा कुछ करने नहीं दे रही। मीडिया द्वारा किसानों की उपेक्षा किसानों की अर्थियों की संख्या बढ़ा रही है। और बार गर्ल की हत्या पर बलवा मचाने वाला मीडिया अब तक इस मसले को एजेंडा नहीं बना पा रहा।
अगले अध्याय में शिक्षा के मसले को महत्व देकर इस सच को बेनकाब किया गया है कि पत्रकारिता का पढ़े-लिखने से रिश्ता कुछ ज्यादा ही कमजोर हो रहा है। वास्तव में मीडिया का मॉर्डन तत्वज्ञान यह है कि एजुकेशन वह प्रोडक्ट है जो अर्थव्यवस्था की खस्ताहाली में भी फलती-फूलती रहती है, क्योंकि इस देश में अभिभावक अपनी सारी पूंजी का निवेश अपने बच्चों के लिए करने में जरा भी कोताही नहीं करता है। सो मीडिया का एजेंडा यह है कि किस तरह शिक्षा का ग्लैमराइजेशन किया जाए, जिससे कस्टमरविद्यार्थी दिव्य सुख की अनुभूति कर सकें। इस वक्त तो टॉप टेन गानों की तरह मीडिया टॉप टेन इंस्टीट्यूट खेल खिलाने में जुटा है। मीडिया में ज्ञान का विज्ञापन होता रहता तो भी गनीमत थी, अब तो विज्ञापन ही परम ज्ञान है। समस्या बस यह है कि वास्तविक ज्ञान टू मिनट नूडल्सबन नहीं पाता और बाजार से हारकर बस्ते की शरण लेने को मजबूर हो जाता है।
सास बहू, सनी लिओनी और मीडिया नामक अध्याय के जरिए कुछ तीखे सवाल उभरते हैं। सास-बहू के जरिए किचन पालिटिक्स की ग्लोबल मार्केंटिंग धड़ल्ले से की जा रही है, उससे भी बढ़कर यह सच कि कैसे एक चैनल बिग बास कार्यक्रम के जरिए एक पोर्न स्टार की जमीन तैयार करता है। बुद्धिजीवी भट्ट साहब उनका इस्तकबाल करने चैनल में पहुंचते हैं इस टिप के साथ कि तुमने जो भी किया उसका पछतावा मत करना। आलोचना-प्रत्यालोचना और फिर ग्लैमर का तड़का देकर एक पोर्न स्टार का बाजार मीडिया ने कैसे तैयार किया, यह शोध का विषय है।
अगला अध्याय मीडिया में दलितों की मौजूदगी से सम्बन्धित है। इस मसले पर रॉबिन जैफ्री सहित तमाम विशेषज्ञ विचार व्यक्त कर चुके हैं। पर समस्या जस की तस है। वास्तव में मीडिया में दलितों का न होना मीडिया का ही नहीं लोकतंत्र का भी संकट है। यदि एक अहम वर्ग के समाचार या विचार सामने आ ही नहीं पा रहे है तो हमारे सामने समाज की तस्वीर कितनी अधूरी पेश हो रही है, यह विचार दिल में चुभता है। यह अध्याय उपेक्षित वर्ग को समर्पित है तो अगला देश के उपेक्षित क्षेत्र पूर्वोत्तर को। कितनी पीड़ाजनक होती होगी वह स्थिति, जब व्यक्ति को आप उसके नाक-नक्श के आधार पर विदेशी कह दें। पर मीडिया पूर्वोत्तर के दर्द को कितना समझता होगा, यह पड़ताल तो इस आत्मालोचना से की जा सकती है कि कितने मीडिया कर्मी मानचित्र में पूर्वोत्तर के हर राज्य को उसके नाम से पहचान सकते हैं।
अगले अध्याय में लेखक ने हिन्दी पत्रकार को मीडिया का महादलित माना है, जो बेहद कड़वा यथार्थ है। महादलितों की ही तरह हिन्दी पत्रकारिता के बिना किसी भी राजनेता की दुकान चल नहीं सकती लेकिन जब बात संसाधन, सम्मान या गरिमा देने की आती है तो अंग्रेजी पत्रकारिता हिन्दी की जगह हड़प लेती है। पर सच यह भी है कि महादलितों की तरह हिन्दी पत्रकारों को अपने गौरव का अहसास होने लगा है। वह अपना हक कैसे हासिल करते है, यह भविष्य के गर्भ में है।
आज अखबार या न्यूज चैनल समाचार या विचार प्रसार का माध्यम हीं नहीं बल्कि वे पूरा पैकेजहै। इस पैकेज में ब्रेकफास्ट से लेकर पत्नी को कैसे मोहित करें, तक पर मैटर परोसा जा रहा है। संस्कृति साहित्य से तौबाअध्याय स्पष्ट करता है कि कैसे इस पैकेज में संस्कृति और साहित्य का स्पेस कम होता जा रहा है? और कैसे वो अब आउट डेटेडहै। मीडिया को संभवतया यह समझना होगा कि साहित्य महज मनोरंजन नहीं है, उसके बिना आप मानव मन को कैसे जानेंगे, समाज को कैसे समझेंगे और तो और बिना इस टकसाल के नये शब्द नयी अभिव्यक्तियां कहां से पायेंगे? और अखबारों में जिस तरह संस्कृति सम्बन्धी जानकारी कम हो रही है, उस पैमाने से वह दिन दूर नहीं जब हिन्दुस्तानियों को अपनी तहजीब की जानकारी विदेशी पत्र पत्रिकाओं से मिलेगी।
तकनीकी तामझाम में झोलाछाप पत्रकारिता अध्याय एक आश्यर्च पैदा करता है। पत्रकारिता एक तरफ कला से किनारा कर रही है दूसरी तरफ वह विज्ञान से भी दूर भाग रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि पत्रकारिता ऐसा मीडियाकर पाठक-दर्शक पैदा कर रही है, जिसमें धार न हो, जज्बा न हो, वह सिर्फ उपभोक्ता हो, उपभोक्ता हो और उपभोक्ता हो। बाजारीकरण के दर्द का यह विस्तार अगले अध्याय पैसे की दुनिया में पर्यावरण की बात में भी उभरा है। दर्द की बात यह भी है कि मीडिया यह बात समझाना तो दूर खुद भी नहीं समझ पाया है कि पर्यावरण एक मुद्दा नहीं, इस धरती के जिन्दा रहने की एकमात्र गारंटी है।
आखिरी अध्याय सोशल मीडिया कितना सोशल में इस नव जनमाध्यम का इन्टलेक्चुअल ऑपरेशन करने का प्रयास किया गया है। यह बताता है कि बिना दायित्व के शक्ति का सिद्धांत किस तरह इस माध्यम को संचालित कर रहा है। पक्ष यह नहीं है कि सरकार इस माध्यम को प्रतिबंधित करे, तर्क यह है कि अगर यह माध्यम यूं ही गलत तथ्यों और दुर्भावनाओं से प्रदूषित होता रहा तो इसमें सांस लेना मुश्किल हो जाएगा। ऐसे में कुटिल राजनीति के लिए इसपर लगाम लगाना बेहद आसान हो जाएगा।
और अंत में....

पुस्तक में अठारह अध्याय हैं और महाभारत का युद्ध भी अठारह दिन लड़ा गया था। वह युद्ध जिसमें तीखे वाणों की वर्षा बाहर ही नहीं हो रही थी, हर पात्र के भीतर भी एक युद्ध लड़ा जा रहा था। मानिए या न मानिए, मीडिया का दुनिया का द्वंद भी एक महाभारत से कम नहीं। महाभारत के किसी भी मानवीय चरित्र को स्याह या सफेद नहीं कहा जा सकता था। आज पत्रकारिता के मूल्यों की शुभ्र आभा और कमजोरियों की कालिख भी कुछ ऐसी ही घुलमिल गयी है, जिसमे में संपादक से लेकर संवादसूत्र तक का आचरण सलेटीही कहा जा सकता है। अब इस स्लेट पर व्यवस्था परिवर्तन के अक्षर किस हद तक उभर पाते है? सवाल बस यही है।  

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अऩ्य 




शनिवार, 13 दिसंबर 2014

Qualitative and quantitative analysis in mass media




INTRODUCTION
In this assignment I will explain the advantages and disadvantages of qualitative and quantitative research and give relative examples relating them to the mass media.
Quantitative Research is research that is collected and data that is absolute, for example numerical data and it is usually displayed in graphs and tallies, so that it can be compeered in as unbiased and quick way, therefore one advantage of quantitative research is that the research is unable to be bias and it is very easy and quick to read, so it is very good to use for presentations.
Advantages of Quantitative research is that the results are easily analyzed and easy to compare against other data; this comes useful when magazine company wants to know how much more popular or unpopular a competing magazine is, because the research is statistically reliable it gives the company a good indication of whose selling the most issues. For example a magazine such as ‘India Today’ will want to know how well their competitors are doing such as ‘Outlook’.
Qualitative research is research that requires a more in-depth response, it allows you to ask personal question and collect more data on people, this is best used in T.V shows when they get the personal response from viewers, It allows them to find out about how some people feel about a certain story line and weather they think it will be appropriate, for example, Eastenders regularly like to know whose watching their program and what they think about it and the current story line.
 Qualitative of research is easily accessible, this is useful for companies who need to access the information easily and quickly, this works out well for the film industries when they ask people coming out of the cinema weather they thought the film was any good.
DISCOURSE ON QUANTITATIVE VS QUALITATIVE IN MASS MEDIA
Debates on qualitative versus quantitative research have reached their peak and today qualitative research is accepted as a normal set of approaches among others. Media research has long been dominated by quantitative methods and contributed much to their development in the whole field of social sciences. Today, sociology, education and also, in part, communication science make wide use of qualitative methods. In general, it is not always clear what is meant by qualitative research. Often it is associated with data gathering by ethnography and open interviewing as opposed to standardized surveys. It is important to note that qualitative methodology consists of data collection and data analysis. There has been much development in general methodology, strongly connected to epistemological considerations on how it is possible to perceive reality. Methods of data collection are also very developed; most difficulties are connected to rules for qualitative data analysis.
QUALITATIVE RESEARCH
Qualitative Research is primarily exploratory research.  It is used to gain an understanding of underlying reasons, opinions, and motivations. It provides insights into the problem or helps to develop ideas or hypotheses for potential quantitative research. Qualitative Research is also used to uncover trends in thought and opinions, and dive deeper into the problem. Qualitative data collection methods vary using unstructured or semi-structured techniques. Some common methods include focus groups (group discussions), individual interviews, and participation/observations. The sample size is typically small, and respondents are selected to fulfill a given quota.
The qualitative tradition in mass communication research may have been relatively slow in developing its contributions to the field in the form of journals, conferences, textbooks, and handbooks, at least compared to mainstream quantitative work. This has been due, in part, to factors of social history, as already noted: the dominant social construction of reality for a long time has remained quantitative, not least among the sociopolitical agents and institutions that confer legitimacy and funding on science, thus creating a structural bias against qualitative studies


Three types of Qualitative methods
TABLE 6.1
COMPARISON OF QUALITATIVE METHODS
METHOD
STUDY FOCUS
ANALYTIC FOCUS
DISCIPLINES
Ethnography
culture/cultural group
describe a culture/cultural group
Cultural Anthropology
Grounded Theory
cultural groups
generate theory about a basic social process
Sociology/ Symbolic Interaction/ Criminology
Phenomenology
individual experience
discern the essence of the lived experience
Philosophy/ Psychology/ Sociology



Approach of Qualitative Research
n  Qualitative research – different assumptions/ approach than quantitative research
n  Emphasis on seeing the world from the eyes of the participants
n  Strive to make sense of phenomena in terms of the meanings people bring to them
n  Holistic emphasis – studying the person, group, culture in the natural setting

Step in quantitative research

Quantitative (Linear)
↓ Define a Research Problem/Question
Review the Literature
Formulate Hypothesis or Refine Question
Make Operational Definitions
Design or Select Instruments for Data
Obtain Ethical Approval
Collect Data
Analyze Data
Interpret Findings – Refer to Literature Again
Determine Implications – Draw Conclusions

Core Activities in Qualitative Research
                      Qualitative approaches on:
    1. Literature review
    2. Explicating researcher’s beliefs
    3. Role of participants: subject or informant?
    4. Selection of participants
    5. Setting for data collection
    6. Approach to data analysis
    7. Saturation

Data Collection Methods in Qualitative Studies in mass media
n  Three data collection strategies introduced:
1.      Participant observation
2.      In-depth interviews
3.      Focus group interviews
n  Qualitative researchers may combine more than one method

Methods of Evaluating Qualitative Research in mass media
n  Developing standards of quality Lincoln and Guba’s classic work shed light on how to assess truth in a qualitative report
n  Offered four alternate tests of quality that reflect the assumptions of the qualitative paradigm:
·         Credibility
·         Dependability
·         Transferability
·         Confirmability 
Advantages and Limitations
n  Focus on the whole of the human experience and the meanings ascribed to them by participants
n  They provide the researcher with deep insights that would not be possible using quantitative methods
n  The major strength of qualitative work is the validity of the data it produces
n  Participants true reality is likely to be reflected
n  Major limitation is its perceived lack of objectivity and generalizability
n  Researchers become the research tools and may lack objectivity
QUANTITATIVE RESEARCH

Quantitative Research is used to quantify the problem by way of generating numerical data or data that can be transformed into useable statistics. It is used to quantify attitudes, opinions, behaviors, and other defined variables – and generalize results from a larger sample population. Quantitative Research uses measurable data to formulate facts and uncover patterns in research. Quantitative data collection methods are much more structured than Qualitative data collection methods. Quantitative data collection methods include various forms of surveys – online surveys, paper surveys, mobile surveys and kiosk surveys, face-to-face interviews, telephone interviews, longitudinal studies, website interceptors, online polls, and systematic observations.

Burns & Grove (1987)
“... a formal, objective, systematic process in which numerical data are utilized to obtain information about the world" and "a research method which is used to describe and test relationships and to examine cause-and-effect relationships".
Types
n  Experimental
n  Survey
n  Meta-Analysis
n  Quantitative Case Study
n  Applied Behavior Analysis
n  Longitudinal
Approach of Quantitative Research
n  Empirical Verification through observation or experimentation
n  Ruling out simple explanations prior to adopting complex ones
n  Cause-Effect
n  Probability of response
n  Replication of response

Step in quantitative research




Pros of Quantitative Research

n  Clear interpretations
n  Make sense of and organize perceptions
n  Careful scrutiny (logical, sequential, controlled)
n  Reduce researcher bias
n  Results may be understood by individuals in other disciplines

Cons of Quantitative Research
However the information collected in a Quantitative method doesn’t give you additional information for example the emotions, motives, feelings and opinions of the subject are not taken into account.
Another disadvantage may be that the data would need regularly updating so this could lead into spending more money, for example a T.V show would need to do test each week to find out the amount of ratings they have and compeer them with previous data collected to see if the popularity of the programme is increasing or decreasing, and depending on the ratings they receive would play a major part in determining the out-come of the show.

n  Can not assist in understanding issues in which basic variables have not been identified or clarified
n  Only  1 or 2 questions can be studied at a time, rather than the whole of an event or experience
n  Complex issues (emotional response, personal values, etc.) can not always be reduced to numbers

Example of Quantitative research in mass media
If a research project used a survey to assess the impact of English  language mass media on how NRI  immigrants in the New Delhi area adapt to their new environment. In addition to mass media use, the survey also took into account cultural preferences, language fluency, and demographics as possible predictors of cultural adaptation NRI immigrants in a large and multicultural metropolitan area of the India . Hypotheses were tested by using bivariate correlations to determine the relationships between the independent (language, media use, demographics) and dependent (cultural adaptation) variables. In addition, a discussion of intercultural communication and some characteristics of the Non Residential Indian community are provided.

CONCLUSION
Qualitative research, one of the two primary approaches to the conduct of social science research, is a superior means for conducting meaningful research mass media.  The numerous advantages of qualitative methods provide a depth of understanding of mass media system and processing that far exceeds that offered by detached, statistical analyses.  Because of the differences in the data, how data is collected and analyzed, and what the data and analyses are able to tell us about our subjects of study, the knowledge gained through qualitative investigations is more informative, richer and offers enhanced understandings compared to that which can be obtained via quantitative research.
The superiority of qualitative research arises from the core differences in what qualitative and quantitative research are, and what they are able to contribute to bodies of knowledge vents, people, interactions, settings/cultures and experience.  As one leading proponent of qualitative methods has explained, “Quality refers to the what, how, when, and where of a thing – its essence and ambience.  Qualitative research thus refers to the meanings, concepts, definitions, characteristics, metaphors, symbols, and descriptions of things.” (Berg, 2007, p. 3).  Notice that what is missing from this definition is the “amount” or quantity of whatever it is that is being studied.  The number, or numerical descriptions of things and their relationships is not The focus of qualitative research, that is the focus of the “other” form of social science research: 
quantitative methods. Quantitative research is typically considered to be the more “scientific” approach to doing social science.  The focus is on using specific definitions and carefully operationalizing what particular concepts and variables mean.   Qualitative research methods provide more emphasis on interpretation and providing consumers with complete views, looking at contexts, environmental immersions and a depth of understanding of concepts So, why should social scientists use qualitative methods?  What is the benefit of such an approach to the study ofmass media?  In simple terms, qualitative methods are about gaining true understandings of the social aspects of how crime occurs and how the agents, structures and processes of responding to crime operate in c ulturall y-grounded contexts.  Qualitative methods provide a depth of understanding of issues that is not possible through the use of quantitative, statistically-based investigations.  Qualitative methods are the approach that Centralizes and places primary value on complete understandings, and how people (the social aspect of our discipline) understand, experience and operate within milieus that are dynamic, and social in their foundation and structure.







REFERENCES