सोमवार, 3 दिसंबर 2012

जी न्यूज के बहाने पत्रकारिता का अंदरखाने


आशीष कुमार

हले दो संपादकों की गिरफ्तारी के पूरे प्रकरण पर गिरफ्तारी, गिरफ्तारी से पहले और उसके बाद के घटनाक्रमों का सिलसिलेवार तरीके से जांच पड़ताल करते हैं ताकि कुछ मथकर ऊपर आ सके। दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने जी न्यूज के संपादक व बिजनेस हेड़ सुधीर चौधरी और जी बिजनेस के संपादक व बिजनेस हेड़ समीर अहलूवालिया को नवीन जिंदल प्रकरण में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया।
जिस रात दोनों को गिरफ्तार किया गया जी न्यूज के सलाहकार संपादक पुण्य प्रसून वाजपेयी ने रात दस बजे के अपने प्रोग्राम बड़ी खबर में इसे आपातकाल से जोड़ कर दिखाया। पुण्य प्रसून वाजपेयी अपनी स्टाईल में दोनों हाथों की हथेलियों को रगड़ते हुए, जंजीरों में जकड़े मीडिया शब्द के क्रोमा के आगे खड़े होकर बड़ी उर्जा व तर्कों के साथ इसे मीडिया पर सेंसरशिप व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन के रूप में दिखा रहे थे। इस दौरान उन्होंने बहुत से वर्जनों के बीच वरिष्ट पत्रकार कमर वाहिद नकबी और ब्रॉस्डकॉस्टिंग एडिटर एसोसिएशन के अध्यक्ष एनके सिंह का वर्जन भी लिया। कमर वाहिद नकबी के बयानों को अपने पक्ष में तोड़ मरोड़कर पेश किया गया।
जी न्यूज के बिजनेस सहित सभी समाचार चैनलों पर इसे आपातकाल के दौरान की हालतों से जोड़कर दिखाया गया। विभिन्न राष्ट्रीय पार्टियों के प्रवक्ता व मुख्य नेताओं के बयानों को अपने पक्ष में दिखाया गया। टीवी के प्राइम टाइम में बहसों का दौर चला। जमकर फेसबुकबाजी हुई। खांटी पत्रकारों को पत्रकारिता की समीक्षा करने का सुनहरा मौका मिला। सरकार को मीडिया के मामले आक्रमक होने का मौका मिला। मौका दिया जी न्यूज के मालिक के व्यवसायिक हितों और उसके संपादकों व चैनल के प्रति पैसे बटोरने की हवस ने, शायद उनकी नीयत में भी कुछ रहा होगा। कोई बेवजह सफेद कपड़े पहनकर कोयले की खदान में क्यों घुसेगा।
नेताओं को तो बोलने का मौका मिलना चाहिए। जब मीडिया के साथ सांत्वना दिखाने और जी न्यूज के आंसू पोछने को मौका मिला तो वह कहां चूकने वाले थे, उन्होंने भी बिना जाने-समझे इसे अधिकारों का हनन और आपातकाल बता दिया। इस पूरे प्रकरण में छोटी सी गलती और मालिक के प्रति वफादारी दिखाने के चक्कर में पत्रकारिता जगत के छात्रों के लिए आदर्श पुण्य प्रसून वाजपेयी पर भी लोगों को उंगली उठाने का मौका मिल गया।
चलिए इसकी जड़ तक जाने के लिए सुधीर चौधरी की कुंडली और नवीन मामले की भी पड़ताल कर लेते हैं। लाइव इंडिया से जी न्यूज पहुंचे सुधीर चौधरी मल रूप हरियाणा के हिसार के रहने वाले हैं। उनके व्यवहार में हरियाणवी ठसक व रिस्क लेने की प्रवृत्ति भी दिखाई देती है। पत्रकारिता जगत में उनकी कार्यशैली को लेकर पहले भी उंगली उठती रहीं हैं। नवीन जिंदल प्रकरण का मुद्दा इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के संपादकों की स्वतंत्र संस्था बीईए में उठने पर सुधीर चौधरी का जवाब था कि वह एक संपादक के साथ चैनल के बिजनेस हेड़ भी हैं, जिसके नाते वह नवीन जिंदल से 100 करोड़ का विज्ञापन मांगने गए थे। यह तो यू ट्यूब पर सबके लिए उपलब्ध वीडियो को देखकर कोई आम आदमी बता सकता है कि विज्ञापन मांगा जा रहा है या और कुछ भी हो रहा है। बचाव में तरह-तरह के तर्क देने की कोशिश की गई। कहीं कुछ मछलियां हीं पूरे तलाब को गंदा तो नहीं कर रहीं। लेकिन यह सच है कि यह मछलियां कुछ जरुर हैं लेकिन बहुत बड़ी-बड़ी हैं।

जी न्यूज के कर्मचारियों का दबी जुबान से मानते हैं कि सुधीर चौधरी के जी न्यूज में आने की भी एक कहानी है। जी न्यूज के मालिक सुभाष चंद्रा को हरियाणा में रियल एस्टेट के करोबार को फैलाने में राजनीतिक कारणों से अड़चनों का सामना करना पड़ रहा था। कहा जाता है कि जी न्यूज के संपादक एनके सिंह की हुड्डा के साथ ट्यूनिंग सही नहीं थी, जिसके कारण वह सुभाष चंद्रा की व्यवसायिक अड़चनों का दूर नहीं कर पा रहे थे। ऐसे में सुधीर चौधरी को मौका मिला। मुख्यमंत्री दीक्षित से जुगाड़ लगाकर व हरियाणा में रियल एस्टेट करोबार में आ रहीं दिक्कतों को दूर करने का भरोसा देकर सुधीर चौधरी जी न्यूज पहुंच गए। एके सिंह को जी न्यूज छोड़ना पड़ा। वह लाइव इंडिया पहुंच गए। बाद की कहानी जगजाहिर है।
एक मछली ने मीडिया पर उंगली उठाने का मौका दे दिया। वैसे यह मामला मीडिया की नैतिकता से जुड़ा हुआ था। सुधीर चौधरी प्रकरण मीडिया सेंसरशिप का न होकर एक आपराधिक मामला था। संपादकों की गिरफ्तारी पर मीडिया की त्वरित कार्रवाई और आपातकाल से तुलना करने के कारण उसने खुद अपने पैरों पर कुल्हाडी चलाई। सच तो यह है कि मीडिया के नियामन से जुड़ी संस्थाएं मीडियाकर्मियों या संस्थाओं के आपराधिक मामलों को नहीं देख सकतीं या देखती हैं। यदि कोई मीडिया संस्था या मीडियाकर्मी अपराध करेगा तो उसको पुलिस और न्यायपालिका ही डील करेगी। मीडिया कंटेंट और मीडियाकर्मियों के अपराधों को अलग करके देखना होगा। मीडिया के नियामक संस्थाएं कंटेंट व उसकी आचार संहिता को लेकर ही कुछ सकती हैं। मसलन, मीडिया में साफ छवि के लोग ही होने चाहिए ताकि आम आदमी का मीडिया पर विश्वास बना रहे। यदि संपादक मर्सिडिज, बीएमडब्ल्यू, फोरचूनर से चलेंगे और फाइव स्टार जीवन शैली अपनाएंगे तो उसका खर्च वहन करने के लिए ऐन केन प्रकारेण तो करना पड़ेगा जो तलाब गंदा करने का कारक भी बन सकता है।  

नौकरशाही के फंदे में सपा सरकार

अखिलेश यादव व मुलायम सिंह यादव

आशीष चौधरी  
मुलायम के दिशानिर्देशों और अखिलेश के नेतृत्व में चल रही उत्तर प्रदेश करकार भी अफसरशाही के चंगुल में नजर आ रही है। इस व्यवस्था के पीछे सरकार और उसके लोगों के व्यक्तिगत स्वार्थ भी हो सकते हैं जो अफसरशाही और राजनीति के सांठगांठ से पूरे किए जाते हैं। सभी जानते है मायावती सरकार में अफसरशाही सरकार के दिशा निर्देशों पर वर्ग विशेष के लिए काम कर रही थी, जिसके कारण आम जनता ने उसे नकार दिया और सपा सरकार को मौका दिया। लेकिन सत्ता में आने के बाद सपा सरकार भी उसी ढर्रे पर चलती नजर आ रही है, जिसका खमियाजा उसे आगामी चुनावों में भुगतना पड़ सकता है।

       2014 में होने वाले लोक चुनावों के लिए अभी से बिसातसजने लगी है। वैसे तो लोकसभा चुनाव में करीब डेढ़ वर्ष का समय बाकी है लेकिन केन्द्र की राजनीति जिस तरह पल-पल करवट बदल रही रही है, उससे इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि आम चुनाव की डुगडुगी कभी भी बज सकती है। दिल्ली की गद्दी के लिए विभिन्न राज्यों से रास्ते  तलाशे जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में तो आजकल कुछ ज्यादा ही सरगमी दिखाई दे रही है। राज्य में कम से कम तीन ऐसे नेता हैं जो 2014 में प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार माने जा रहे हैं या फिर अपने आप को समझ रहे हैं। इसमें कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी का नाम सबसे ऊपर है तो सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव और बसपा सुप्रीमों मायावती राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है को अपनी उम्मीद का आधार बनाए हुए हैं।
भाजपा और कांग्रेस दिल्ली में बैठकर 2014 को लेकर रणनीति बनाने में जुटे हुए हैं। लेकिन मुलायम सिहं यादव व मायावती यूपी में ही अपनी जड़े तलाश रहे हैं। दोनों ही दलों के नेताओं द्वारा प्रदेश की जनता को अपने फेवर में करने के लिए तमाम उपायों को अजमाया जा रहा है। हकीकत में दोनों ही पार्टियों के पास जातीय कार्ड खेलने व जनता को बरगलाने के अलावा कोई खास मुद्दा नहीं है। दोनों ही पार्टियों के पास विकास के नाम पर केवल कोरी बाते होती हैं, धरातल पर कोई ठोस योजना नहीं है, न ही दोनो पार्टियों ने सत्ता में आने के बाद प्रदेश के विकास लिए कोई विशेष इच्छाशक्ति दिखाई है। दोनों ही 2014 के आम चुनाव भी उसी आधार पर लड़ने जा रहे हैं जिसके कारण समजावादी पार्टी को 2007 के विधान सभा चुनाव में बसपा को 2012 के विधान सभा चुनाव में शिकस्त खानी पड़ी थी।
बहुजन समाज पार्टी विधान सभा चुनाव में बुरी तरह से हारने के बाद भी आम चुनाव सर्वजन हिताय,सर्वजन सुखायको आधार बना कर लड़ेगी। वहीं, समाजवादी पार्टी 2007 की तरह तमाम तरह की लोकलुभावन योजना तैयार कर प्रदेश के खजाने को पानी की तरह बहाएगी। सपा अपने पिछले शासनकाल की तरह से इस बार भी किसानों का कर्ज माफी, कन्या विद्याधन, बेरोजगारी भत्ते जैसी तमाम योजनाओं के सहारे जीत का सपना सजोए हुए है लेकिन वह यह बात भूल गई है कि इन सब योजनाओं पर तत्कालीन सपा राज का गुंडाराज-जंगलराज भारी पड़ा था। बसपा ने सपा के गुंडाराज को खूब भुनाया। बसपा ने सपा सरकार के गुंडाराज के खिलाफ नारा बुलंद कर सत्ता पर काबिज हुई थी लेकिन बसपा सरकार का जादू उसकी सुप्रीमों द्वारा जनता के साथ संवादहीनता और नित नए भ्रष्टाचार के मामलों के खुलासे के बाद खत्म हो गया। ऐसे हालत में कांग्रेस और भाजपा दोनों ही प्रदेश में बेहतर विकल्प के रूप में खुद को पेश करने में नाकामयाब रहीं। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव जनता की नब्ज को टटोलते हुए अपने युवा बेटे को आगे कर एक नया पैतरा आजमाया। मुलायम सिंह यादव जानते थे कि प्रदेश की जनता के मन में अभी भी बरकरार है कि सपा सरकार की वापसी होने पर गुंडाराज व जंगलराज की वापसी हो सकती है ऐसे में जनता ने युवा चेहरे अखिलेश पर विश्वास दिलाया। अखिलेश यादव ने भी अपनी लगभग सभी सभाओं में बस एक ही बात दोहराई कि अबकी सपा को मौका मिला तो कानून व्यवस्था से किसी को खिलवाड़ नहीं करने दिया जाएगा। लेकिन यह विश्वास अखिलेश के सत्ता संभालते ही तार-तार होने में कुछ दिन भी नहीं लगे। महिलाओं से छेड़छाड़, बलात्कार, लूटपाट और हत्याओं की घटनाओं के अलावा भी तमाम तरह के अपराधों की बाढ़ आ गई।
प्रदेश में जगह-जगह सपा नेता और मंत्री हनक दिखाने से बाज नहीं नजर आ रहे हैं। पद के रौब की आड़ में तमाम मर्यादाओं का उल्लंघन किया जा रहा है। राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त नवरलाल गोयल ने लखनऊ में जो किया वह जगजाहिर है। उन्होंने एक हिंदी दैनिक के फोटोग्राफर को मारा पीटा और बंधक बनाया। यह अलग बात है कि मामले में हो-हल्ला होने पर उन्हें अपने मंत्री पद से हाथ धोना पड़ा। गोंडा में सीएमओ को बंधक बनाया गया। बदायूं में तेल माफियाओं ने वहां के जिला पूर्ति अधिकारी को जिंदा जलाने कीस कोशिश की । इन सारी घटनाओं से अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकार से नजदीकी रखने वाले इन असामाजिक तत्वों के हौसले कितने बुलंद हैं।
प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव  सरकार चलाने में अनुभवहीन हैं। हर राजनीतिक व प्रशासनिक मामलों में उन्हें अपने पिता से सलाह लेनी पड़ती है। इसी अनुभवहीनता का परिणाम है कि अखिलेश ने कई बचकानी घोषणोएं कीं। घोषणायों पर मीडिया और राजनीतिक वर्ग में सवाल उठाने पर उन्हें तत्काल वापस लेना पड़ा।  विधायक निधि से विधायकों का गाड़ी खरीदने की घोषणा करने का मामला भी एक था। सरकार की अनुभवहीनता का फायदा उठा कर नौकरशाही बेलगाम होकर काम कर रही है। बसपा राज में जिन नौकरशाहों के कारण मायावती की किरकिरी हुई थी, वह समाजावादी शासन में भी अपनी जड़े मजबूती के साथ जमाए हुए हैं। नेता से लेकर नौकरशाह तक एक-दूसरे की काट करने और नीचा दिखाने में जुटे हैं।
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के चारो और उनके सहयोगियों द्वारा ही मुश्किलें खड़ी की जा रही हैं। उनके एक नहीं तमाम मंत्री और खासकर पंचम तल यानि मुख्यमंत्री सचिवालय पर बैठे नौकरशाह परेशानी का कारण बने हैं। सार्वजनिक मंचों से भी उनसे अपनी योजना द्वारा बुलवाया जाता है। लोहिया दिवस पर भी लखनऊ में यही नजारा देखने को मिला। सरकार अखिलेश यादव चला है अत: कामयाबी व नाकामयाबी के लिए भी वह नैतिक रूप से जिम्मेदार हैं। मुख्यमंत्री ने कई ऐसे भ्रष्ट नौकरशाहों को मलाईदार पदों पर बैठा दिया है जिनकी जगह जेल न सही तो कम से कम उन्हें जिम्मदार पदों से दूर रखा जाना चाहिए। यह तो वही बता सकते हैं कि यह सब किसी कहने पर या स्वयं कर रहे हैं, उनके या पार्टी के क्या स्वार्थ निहित हैं। जबकि ऐसे नौकरशाहों की मलाईदार पदों पर नियुक्ति से हाईकोर्ट भी खुश नहीं है। हाईकोर्ट आईएएस अधिकारी राकेश बहादुर और संजीव शरण की तैनाती पर आपत्ति जताई। कहा तो यहां तक जा रहा है कि पार्टी के कद्दावार नेता के दबाव के कारण अखिलेश यादव अपनी पसंद का मुख्य सचिव तक नहीं नियुक्त कर पाए।
अखिलेश ने 1984 बैच के आईएएस अधिकारी संजय अग्रवाल को अपना प्रमुख सचिव बनाए जाने की घोषणा भी कर दी थी, लेकिन कुछ घंटों के भीतर ही उन्हें अपना आदेश बदलना पड़ गया। उनकी जगह 1980 बैच के आईएएस अधिकारी राकेश गर्ग ने ले ली जो आज तक अपने पद पर विराजमान हैं। कहा जाता है कि संजय अग्रवाल की अनदेखी सीएम को पंचम तल पर तैनात एक आईएएस सचिव स्तर अधिकारी के कारण करनी पड़ी थी जो पिछली मुलायम सरकार में भी काफी ताकतवर जानी जाती थीं। कई नौकरशाह और पुलिस अधिकारी तो सरकारी अधिकारी कम नेता ज्यादा लगते हैं।
प्रदेश में जो अपराध की घटनाएं बढ़ रही हैं उसके पीछे अधिकारियों की नेता वाली मानसिकता भी कम जिम्मेदार नहीं है। नेताओं के सहारे राजनीति करने में माहिर कई बड़े अधिकारियों ने किसी न किसी बड़ें नेता को अपना आका बना रखा है। इसके जरिए नेताजी को अपनी नेतागिरि चमकाने में आसानी रहती है वहीं अधिकरी को निर्भय के साथ भ्रष्टाचार को अंजाम देने का रास्ता साफ हो जाता है। सपा राज में एक इंस्पेक्टर की भी इतनी हैसियत रखता है कि वह एसपी तक से भिड़ने का साहस कर बैठता है। हापुड़ में यह नजारा पिछले दिनों देखने को मिला। हापुड़ के एसपी ने एक पुलिस निरीक्षक को इस बात कि लिए फटकार लगाई कि वह अपने इलाके में अपराध नियंत्रित नहीं कर पा रहा है, इस पर निरीक्षक उनके भिड़ गया और जब एसपी ने उसे सस्पेंड कर दिया तो उसने अपने आकाओं के माध्यम से ऐसा दबाव बनाया कि एसपी साहब हो 12 घंटे के भीतर उसकी बहाली करनी पड़ी। समाजवादी पार्टी की मजबूत पकड़ वाले इलाकों आगरा, एटा, इटावा, मैनपुरी के पुलिस अधीक्षक इस बात की मिसाल हैं। उन पर अक्सर ही समाजवादी पार्टी के लिए काम करने का आरोप लगता रहता है। मायावती सरकार में कई पुलिस अधीक्षक और जिलाधिकारियों पर पार्टी का एजेंट बनने का आरोप लगा था। प्रदेश विधान चुनाव के दौरान चुनाव आयोग ने भी ऐसे आधिकारी ब्लैक लिस्ट जारी कर कड़ी आपत्ति दर्ज कराई थी। जिसमें मेरठ समेत कई जिलों के पुलिस उप महानिरीक्षक व जिलाधिकारी शामिल थे। इन सारी वजहों से आम लोगों में सरकार नुमाइंदों पर वर्ग विशेष के लिए काम करने का ठप्पा लगा था। सपा सरकार भी उसी मार्ग पर चल रही। इसे अखिलेश की अनुभवहीनता ही कहा जाएगा कि प्रशासन को लेकर उठ तमाम गंभीर सवालों के बावजूद कोई कारगर पहल होती नजर नहीं आ रही है। यदि सब कुछ ऐसा ही चलता रहा तो प्रशासनिक स्तर हो रही इन खामियों के कारण 2014 के आम चुनावों में भारी खमियाजा उठना पड़ सकता है। इन्हीं कारणों से मुलायम सिंह यादव के तीसरे मोर्चे की संभावनाओं और केन्द्र राजनीति में धाक जमाने के सपने पर भी तुषारपात हो सकता है। 

इंडिया टाइम्स पत्रिका के नवंबर अंक में प्रकाशित 

आशीष कुमार
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रविवार, 4 नवंबर 2012

धर्म नहीं ...... टैक्स बचाने की दुकान


देश भर में चल रहीं तमाम धार्मिक संस्थाओं का टैक्स बचाने की दुकान कहा जाए तो कोई गलत नहीं होगा। देश में ऐसी सैकड़ों धार्मिक संस्थाएं चल रहीं हैं, जिनके मठाधीश अपने संस्था से जुड़े लोगों की संख्या करोडों में बताते हैं। वैसे देश की जनसंख्या को देखते हुए यह गणितीय रुप बेशक गलत हो सकता है, लेकिन मठाधीशों द्वारा अपनी संस्था के सदस्यों की संख्या बढाकर दिखाने के पीछे कारण अपने चेलों की संख्या व जन बल दिखाना होता है।
हां तो बात चल रही थी टैक्स बचाने की दुकान की। यह सच है, करीब-करीब सभी बडी धार्मिक संस्थाओं को टैक्स कानून की धारा 80 जी के तहत व अन्य उप प्रावधानों सहित दान देने वाले को टैक्स में छूट मिलती है। इसके तहत यदि कोई व्यक्ति इन संस्थाओं को दान देता है तो दान दी गई रकम को कुल आय में से माइनस कर दिया जाता है।
मान लीजिए गायत्री सेवा नाम की संस्था को एक व्यक्ति एक्स एक लाख रूपये दान देता है। तो उस संस्था के चमचे उसे 10 लाख रुपये की रसीद काट कर देते है। माना यदि उस व्यक्ति की वार्षिक आय 12 लाख रुपये है। यदि वह सरकार को ईमानदारी से टैक्स देता है तो उसे 12 लाख की रकम पर 4 लाख 80 हजार का टैक्स देना पडेगा। यदि ऐसे हालातों में एक्स नाम का व्यक्ति कौआ धार्मिक बन जाता है और इस प्रकार के भक्त की आस में बैठी गायत्री सेवा नामक संस्था की भी बांछे खिल जाती हैं। एक लाख दान देकर वह 10 लाख की रसीद प्राप्त कर लेता है, जिसे नियामानुसार 12 लाख में से माइनस कर दिया जाएगा। तो शेष राशि 2 लाख बचती है। बचे 2 लाख रुपये जिस पर भारत सरकार के नियमानुसार कोई टैक्स नहीं देना होगा।
तो इस एक्स कौआ भक्त और गायत्री सेवा संस्थान दोनों ने मिलकर देश को 4 लाख 80 हजार का चूना लगाया। इस धंधे में एक्स को 3 लाख 80 हजार की बचत हुई साथ मठाधीश का प्रिय़ भक्त बन गया। वहीं, गायत्री सेवा संस्थान को मात्र रसीद काटने के ही 1 लाख रुपये मिल गए। दोनों की मौजा ही मौजा। ऐसे में मठाधीश साहब अपना लग्जीरियसपना मेंटेन कर रहे और उनके संस्था में अमीर भक्तों की संख्या तथाकथित धार्मिक लाभ व धन लाभ को देखते हुए दिन-दुनी रात-चौकनी गति से बढ रही है।
 नोट – दिए गए लेख व्यक्ति एक्स व गायत्री सेवा संस्थान दोनों ही काल्पनिक हैं बाकि सब तथ्य सत्य व बातें यथार्थ हैं। 


आशीष कुमार 

गुरुवार, 1 नवंबर 2012

भाषा के साथ आत्मगौरव का सवाल


भाषा के साथ हमारा आत्मगौरव जुड़ा होता है। वह हमारे स्वाभिमान का प्रतीक होती है। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अक्सर देखा जाता है कि जर्मनी, फ्रांस, स्पेन और इटली के नेता संवाददाता सम्मेलन में पत्रकारों द्वारा अंग्रेजी में सवाल पूछे जाने के बावजूद अपनी भाषा में जवाब देते हैं। अभी हाल का ही वाकया है एक अंतरराष्ट्रीय मंच पर जर्मन की चांसलर से किसी पत्रकार ने अंग्रेजी में सवाल पूछा तो उन्होंने उसका जवाब जर्मन में दिया। जर्मनी की तरह स्पेन, फ्रांस, इटली  जैसे गैर अंग्रेजी भाषी देशों के नेताओं में निज भाषा में जवाब देने की मानसिकता के पीछे कहीं न कहीं उनका राष्ट्रीयवादी अहं छिपा रहता है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह कि इस मानसिकता को बनाने में मीडिया की भी अहम भूमिका रही है। चौकाने वाला तथ्य यह कि जर्मनी में कोई भी पापुलर नियमित समाचार पत्र अंग्रेजी में प्रकाशित नहीं होता है। टीवी चैनलों की भी यही हाल है।  सरकारी चैनल डॉयचे वेले के अंग्रेजी चैनल देश के हवाई अड्डों और फाइव स्टार होटलों में आपको शायद देखने में मिल जाएंगें, पर जर्मन केबल पर ऐसी सेवा उपलब्ध नहीं है।
स्पेन में १५५ दैनिक अखबार निकलते हैं। लेकिन इनमें से अंग्रेजी का एक भी अखबार नहीं, जो आम लोगों के बीच पापुलर हो। अलपाइस, अलमुंडो और एबीसी जैसे स्पेनी भाषा में प्रकाशित होने वाले प्रमुख समाचार पत्र हैं।  इनके वर्चस्व को तोड़ना किसी भी मल्टीनेशनल मीडिया कंपनी के बस की बात नहीं है। जर्मनी में करीब ३७० प्रमुख समाचार पत्र प्रकाशित होते हैं, लेकिन इनमें से एक भी अखबार अंग्रेजी में नहीं है। फ्रैंकफर्ट आल्गेमाइने का अंग्रेजी पुलआउट कभी-कभार फ्रैंकफर्ट के पाठकों का नसीब हो जाता है, लेकिन दी वेल्ट, फ्रैंकफर्ट रूंडशाऊ, दी त्साइड, बिल्ड जैसे अखबारों का पुलआउट है लेकिन सभी जर्मन भाषा में प्रकाशित होते हैं। देयर स्पीलगेल जैसी मैगजीन अपने विशेष टारगेट ग्रुप को ध्यान में रखकर साल-दो-साल में कोई विशेषांक अंग्रेजी में अलग से निकाल देती है। लेकिन जर्मन भाषा की  प्रमुख पत्रिक स्टर्न और फोकस का अंग्रेजी विशेषांक शायद ही किसी ने देखा हो।
भारत में भाषाई मीडिया में काम करना भले ही ग्लैमरस नहीं माना जाता हो लेकिन जर्मनी, फ्रांस, इटली, स्पेन, पौलेंड, तुर्की में इसे गौरव का प्रतीक माना जाता है। भारत में इसके पीछे सरकारी नीतिगत कारणों, अंग्रेजीदां मानसिकता, सैलरी सहित कई कारणों को गिनाया जा सकता है। लेकिन सत्यता यह कि इन सब के पीछे निज भाषा में आत्महीनता महसूस करना ही प्रमुख कारण है। जर्मन, फ्रांसीसी या स्पेन भाषा में काम करने वाले पत्रकार अपने देश में काम करने वाले अंग्रेजी या अन्य भाषाई पत्रकारों के मुकाबले २५ फीसदी तक सैलरी अधिक पाते हैं। सरकार व मंत्रालयों में भी उसका रूतबा अन्यों से कहीं अधिक होता है। लेकिन भारत का भाषाई पत्रकार जिसकी अंग्रेजी में अच्छी पकड़ नहीं है सरकार के बडे़ महकमों की रिपोर्टिंग के बारे में सोच भी नहीं सकता है रूतबे की तो बात दूर। इन देशों में लाखों लोग बेरोजगार हैं लेकिन सरकार व सर्वेक्षण करने वाली संस्थाएं मानने को तैयार नहीं कि अंग्रेजी न जानने के कारण ऐसा हो रहा है। इन देशों के 90  प्रतिशत नागिरकों को इस बात का मलाल नहीं है कि वह अंग्रेजी के मामले में कोरे हैं। कुछ वर्ष पूर्व का मामला है फ्रांस के ल-पोहर नामक साप्ताहिक ने जब अपना अंग्रेजी संस्करण निकाला तो यह पूरे देश के लिए बड़ी खबर बन गया। यह पत्रिका फ्रांस के इटली शहर से प्रकाशित होती है, जहां 15 हजार ब्रिटिश मूल के नागरिक रहते हैं। फ्रांस के छह राष्ट्रीय टीवी चैनलों में से तीन फ्रांस-2, फ्रांस-3 और फ्रांस-5 सरकारी हैं। टीएफ-1 और एम-6 तथा मूवी चैनल कनाल प्राइवेट हैं, जिन पर विशुद्ध फ्रांसीसी भाषा के कार्यक्रम दिखाएं जाते हैं। फ्रांस में सर्वाधिक बिकने वाले अखबारों में  लमोंदे, ल फिगारो, लिबरेशन, परिसिअन, रेड्स, कुरियर इंटरनेशनल फ्रांसीसी भाषा के अखबार हैं। बिजनेस अखबारों में ल ट्रिब्यून, लेस इकोस और इंवेस्टिर का नाम शामिल हैं। 
यूरोप में देशी मीडिया इंडस्ट्री को देखकर चौकना लाजमी है कि दुनिया अंग्रेजी के सहारे नहीं चल रही है। इन देशों में बाजार में जो ब्रांडेड सामान मौजूद है उन पर भी देशी भाषा का जोर चलता है। सामान के रैपरों और पैकेजिंग पर शायद ही आपको अंग्रेजी भाषा देखने को मिले। इटली, पोलैंड, पुर्तगाल से लेकर तुर्की तक वहां का लोगों का भाषाई पत्रकारिता को जबरदस्त समर्थन है। यह उनके लिए गौरव व प्रतिष्ठा का विषय है। लेकिन जब हम इस मामले मे अपने देश की ओर नजर दौड़ाते हैं सबुछ उल्टा नजर आता है। अपनी भाषा बोलना आत्मग्लानि का विषय हो सकता है। 
भारत में अंग्रेजी को ही सब कुछ मान लिया गया है। इसे सरकार से लेकर स्कूलों तक रोजगार देने वाली भाषा के रूप में प्रचारित किया जा रहा। सार्वजनिक रूप से यदि आप अपनी भाषा को टूटी- फूटी बोलते हैं और अंग्रेजी को फर्राटेदार तो इसे आपके व्यक्तित्व की महानता के रूप में स्वीकार किया जाएगा। इन सबके पीछे बच्चों के अभिभावक से लेकर देश नीति निर्माताओं तक सभी जिम्मेदार है। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है सिविल सर्विसेज में अंग्रेजी का अनिवार्य कर देना। इस मानसिकता में सुधार लाने की जरूरत है, जिसके लिए नीति निर्माताओं, मीडिया, समाज सभी को मिलकर प्रयास करने होंगे।

                                                                 आशीष कुमार
                                                                 पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग
                                                                 देवसंस्कृति विश्वविद्यालय, शांतिकुंज, हरिद्वार(यूके)