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बुधवार, 11 अप्रैल 2012

संकट में पानी


समुद तटीय इलाकों और सागरों पर पर्यावरण को विनाश करने वाली क्रियाओं के कारण महासागर भारी खतरे में है।

- महासागर एक गतिशील और जटिल व्यवस्था है जो जीवन के लिए अत्यन्त महत्तवपूर्ण है। महासागरों में मौजूद असीम सम्पदा समान रूप से वितरित नहीं है। उदाहरण के लिए, सर्वाधिक समुद्री जैव विविधता समुद्र तल पर पाई जाती है। महासागरों की उत्पादकता को निर्धारित करने वाली पर्यावरणीय परिस्थितियां समय और स्थान के अनुसार भिन्न-भिन्न हैं।

- सर्वाधिक महत्तवपूर्ण फिशिंग ग्राउंड समुद्र तट से 200 से भी कम मील क्षेत्र के भीतर महाद्वीपीय समतलों पर पाए जाते हैं। ये फिशिंग ग्राउंड भी असमान रूप से देखे गए हैं और अधिकांशत: स्थानीय हैं।

- 2004 में आधे से भी अधिक समुद्र लैंडिंग फिशिंग, समुद्र तट के 100 किमी. के भीतर पकड़ी गई है, जिसकी गहराई आमतौर पर 200 मी. है और यह विश्व के महासागरों का 7.5 फीसदी से भी कम दायरा कवर करता है।

- ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज ने महासागरों की उत्पादकता और स्थायित्व के लिए बहुत सी चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। उष्णकटिबन्धीय क्षेत्रों में उथले पानी में, तापमाप में, 3 डिग्री से 0 डिग्री तक की वृद्धि 2100 तक वार्षिक या द्विवार्षिक मूंगों का सफाया हो सकता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि 2080 तक विश्व में 80-100 फीसदी तक मूंगें खत्म हो जाएंगे।



जब वातावरण में कार्बन की मात्रा बढ़ जाती है तब कार्बन महासागरों में एकत्रित हो जाता है और एक प्राकृतिक रासायनिक प्रक्रिया के तहत उसका अम्लीकरण होने लगता है जिसका प्रभाव ठंडे पानी, मूगों और सीपियों पर पड़ता है।

- समुद्र तटों पर और जमीन में विकासात्मक क्रियाएं 2050 तक, आवासीय समुद्रतटों की क्रियाओं की अपेक्षा अधिक प्रभावित कर सकती है और पूरे समुद्र प्रदूषण के 80 फीसदी से भी अधिक खतरा पैदा कर सकती हैं।

- बढ़ता हुआ विकास, प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन सभी मृत समुद्री क्षेत्र (कम ऑक्सीजन वाले क्षेत्र) बढ़ा रहे हैं। बहुत से तो प्राथमिक फिशिंग ग्राउंड पर या उसके आसपास है, जो फिश स्टॉक को भी प्रभावित कर रहे हैं। ऐसे क्षेत्र 2013 में 149 से बढ़कर 2006 में 200 से भी अधिक हो गए हैं।

- आक्रामक प्रजातियां भी प्राथमिक फिशिंग ग्राउंड के लिए खतरा हैं। गिट्टी पोत (पानी, जो बन्दरगाहों और खाड़ी से, जहाजों द्वारा स्थिरता बनाए रखने के लिए ले जाया जाता है) भी आक्रामक प्रजातियों को लाने में महत्वपूर्ण तत्व हैं।

- महासागरों की देखभाल के लिए आंकड़ों और धन का अभाव, समुद्री पर्यावरण को और ज्यादा बदतर बना रहा है। देशों को समुद्रों पर जलवायु और गैर-जलवायुगत दवाबों को कम करने के लिए तत्काल उपाय करना चाहिए ताकि संसाधनों को बचाया जा सके। इसके लिए दुनिया भर में सामुद्रिक नीतियों में परिवर्तन की आवश्यकता है।

सोमवार, 9 अप्रैल 2012

सरस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता

आज सिंधु घाटी की सभ्यता प्राचीनतम सभ्यता जानी जाती है। नाम के कारण इसके शोध की दिशा बदल गयी। वास्तव में यह सभ्यता एक बहुत बड़ी सभ्यता का अंश है, जिसके अवशिष्ट चिन्ह उत्तर में हिमालय की तलहटी (मांडा) से लेकर नर्मदा और ताप्ती नदियों तक और उत्तर प्रदेश में कौशाम्बी से गांधार (बलूचिस्तान) तक मिले हैं। अनुमानत: यह पूरे उत्तरी भारत में थी। यदि इसे किसी नदी की सभ्यता ही कहना हो तो यह उत्तरी भारत की नदियों की सभ्यता है। इसे कुछ विद्वान उनके बीच उस समय प्रवाहित प्राचीन सरस्वती नदी की सभ्यता करते हैं। यह नदी प्राचीन काल में शिवालिक पहाड़ियों से निकल कर पूर्व में गंगा-यमुना का क्षेत्र और पश्चिम में सतलुज-सिंधु के क्षेत्र के बीच बहकर राजस्थान को सिंचित करती थी, जहाँ आज घग्घर का सूखा ताल है, और कच्छ के रन में ( जो उसी का बचा भाग कहा जाता है) सागर से मिलती थी। कालांतर में बदलती जलवायु और राजस्थान की ऊपर उठती भूमि के कारण यह सूख गयी। इसका जल यमुना ने खींच लिया।

इस सभ्यता का क्षेत्र संसार की सभी प्राचीन सभ्यताओं के क्षेत्र से अनेक गुना बड़ा और विशाल था। अन्य सभी का कार्यक्षेत्र तुलना में बहुत छोटा- सुमेर और फिर बाबुल (Babylonia) दजला (संस्कृत : दृषद्वती) और फरात नदियों के बीच की घाटी में, हित्ती सभ्यता अनातोलिया के कुछ भाग में, प्राचीन यहूदी सभ्यता पुलस्तिन् (Palestine) की छोटी घाटी के आसपास, यूनान, क्रीट तथा रोम की सभ्यताएँ उनके छोटे क्षेत्रों में, मिस्त्र की प्राचीन सभ्यता नील नदी के उत्तरी भाग में, ईरान और हखामशी सभ्यता ईरान के कुछ भागों में और मंगोल एवं चीनी सभ्यताएँ ( जो उक्त सभ्यताओं की तुलना में आधुनिक थीं) के उस समय के घेरे भी सैंधव सभ्यता (आगे इसे सारस्वत सभ्यता कहेंगे) के क्षेत्र से बहुत छोटे थे। यह भी महत्वपूर्ण है कि यदि कोई मानव सभ्यता का आदि देश होगा तो उसके अवशिष्ट चिन्ह किसी विस्तृत क्षेत्र में फैले होने की संभावना है। 

अधिकांश प्राचीन सभ्यताएँ किसी साम्राज्य के सहारे बढ़ीं। इसीलिए अनेक पुरातत्वज्ञ सभ्यता और साम्राज्य दोनों का एक साथ विचार करते हैं। पर सारस्वत सभ्यता किसी साम्राज्य के साये में नहीं पली। वह युद्घ से, शिरस्त्राण एवं कवच से अपरिचित प्रतीत होती है। जो भी अस्त्र-शस्त्र थे वे साधारण थे तथा इनके विकसित या उन्नत रूप नगरों में भी उपलब्ध न थे। यहाँ तक कि शिकार के चित्र एवं दृश्य इनके नगर-गृहों में तथा भित्तियों पर नहीं मिलते। ऎसा लगता है कि सहस्त्राब्दियों से जिन्हें किसी आक्रमण का भय न था और युद्घ से सामना न पड़ा, जिन्होंने सुदीर्घ काल तक शांति-सुख भोगा उनके बीच उपजी तथा पनपी यह सभ्यता। इसी से प्रारंभ में पुरातत्वज्ञों ने इसे 'सिंधु घाटी का रहस्यमय साम्राज्य ' की संज्ञा दी। वे साम्राज्स से विलग कर किसी सभ्यता का विचार न कर सके।

इतिहासज्ञ कहते हैं कि संघर्ष और युद्घ के बीच विज्ञापन का विकास होता है। उनमें होता है विनाशकारी अस्त्र-शस्त्रों का एवं बचाव के साधनों का आविष्कार; और नए साम्राज्यों का निर्माण, जिनमें नयी सभ्यताएँ बनती-बिगड़ती हैं। ऎसा ही दृश्य आज का इतिहास प्रस्तुत करता है। इसलिए कौन आश्चर्य कि जब वे इस शांतिकाल की संस्कृति के संपर्क में आए तो उसके विस्तार ने, उसकी एकरूपता ने (जिसमें न भौगोलिक दूरी और न समय की गति चोट पहुँचा सकी) और जिसे उन्होंने 'सभ्यता की धीमी प्रगति' कहा (अर्थात शीघ्र बदल या विकास के लक्षणों का अभाव), उसने उन्हें चकित कर दिया। 'मुइन-जो-दड़ो' ('मृतकों की डीह') नगर का कम-से-कम सात बार निर्माण हुआ कहते हैं, पर प्रारंभ तथा अंत के निर्माण में अंतर नहीं दिखता। इसे देखकर उन्होंने कहना प्रारंभ किया कि जैसे बाबुल की साम्राज्यवादी सभ्यता का एक क्रमिक विकास दृष्टिगोचर होता है वैसा न होने के कारण सारस्वत सभ्यता किसी सैद्घांतिक विस्फोट (ideological explosion) का सुफल था। वे भूलते हैं कि दीर्घ शांतिकाल में ही दर्शन, विज्ञान और कलाएँ विकसित होती हैं। यह भारत की प्रकृति को दृष्टि से ओझल करना है, जिसने दीर्घकालीन शांति एवं समृद्घि देखी; जहाँ की सभ्यता किसी साम्राज्य की देन नहीं, किंतु सभ्यता की देन एक सांस्कृतिक साम्राज्य था। इसी कारण आर्य और अन्य जातियों के मध्य एक काल्पनिक संघर्ष की बात गढ़नी पड़ी।

श्री बालसुब्रमण्यम, एवं श्री पीएन बालसुब्रमण्यम जी ने टिप्पणी पर कुछ प्रश्न पूछे हैं। उन्हीं के बारे में,
आज जिसे 'सिन्धु घाटी की सभ्यता' कहते हैं, वह तो सारस्वत सभ्यता के अन्त की कहानी है। सारस्वत सभ्यता इसके पूर्व की है, जो तटीय पृथ्वी को ऊँची उठने के कारण उसे पश्चिम सिन्धु नदी की ओर जाना पड़ा। किवदन्ती है कि त्रेता युग अर्थात बड़ा युग (राम का युग) पहले आया और द्वापर (कृष्ण का युग) बाद में। अर्थात अयोध्या व गंगा का मैदान पुराना है, और पश्चिम में द्वारिका जो प्राचीन काल में सिन्धु घाटी के पूर्व मुहाने के बगल में थी बाद में।

ऋग्वेद का युग, सिन्धु घाटी की सभ्यता से पुराना है ही पर काल निश्चित करने का केवल एक ही विश्वस्त तरीका है। वह है उस घटना के बारे में वर्णित खगोलीय जानकारी। अब इस दिशा में कार्य प्रारम्भ हुआ है। (देखें डेटिंग दि इरा आफ राम-पुष्कर भटनागर) खगोलीय घटनाएँ भी अपने काल अथवा युग में दुहराती है, इसलिए अन्य साक्ष्य से देखना पड़ेगा कि यह घटना उसके पहिले वाले युग की तो नहीं है। इसमें किवदन्तियां सहायक होती है। संम्भवतः ऋग्वेद का युग जैसा डा० राम विलास शर्मा ने लिखा, उसके पहले का हो।

'जल प्रलय' की घटना। 'ग्लेशियल एज' की बर्फ पिघलने से जल-स्तर बढ़ा। उसकी एक व्याख्या मैंने अपनी पुस्तक 'कालचक्र: सभ्यता की कहानी' के अध्याय 'सम्यता की प्रथम किरणें एवं दन्तकथाएं' में यहां दी है। सम्भवतया यह भूमध्यसागर बनने की कहानी है। ऋग्वेद में उसका वर्णन न होना कोई अनहोनी बात नहीं। हम जागलिक परिप्रेक्ष्य में घटनाओं को देखें।


जल संकट का समाधान कैसे?


बीते दिनों ऊर्जा एवं संसाधन संस्थान (टेरी) एवं जल संसाधन मंत्रालय द्वारा दिल्ली स्थित इंडिया हैबिटेट सेन्टर में आयोजित भारतीय जल गोष्ठी के उद्घाटन भाषण में उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने जल संसाधनों में व्यापक सुधार की जरूरत बतायी, उन्होंने कहा कि बढ़ती जनसंख्या और जलवायु परिवर्तन के चलते जल प्रबंधन के क्षेत्र में नई चुनौतियां सामने हैं, जिनका मुकाबला प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए। पानी की समस्या समूचे विश्व की है लेकिन हमारे यहां जिस तरह इसकी बर्बादी होती है, उसे देखते हुए यदि इस पर समय रहते अंकुश न लगाया गया तो बहुत देर हो जाएगी। वैज्ञानिकों की चेतावनी है कि 2025 तक दुनिया के दो तिहाई देशों में पानी की किल्लत हो जाएगी। एशिया में यह समस्या कहीं अधिक विकराल होगी और भारत में 2020 तक पानी की भारी किल्लत की आशंका है, जिसका अर्थव्यवस्था की रफ्तार पर असर पड़ेगा।

तिब्बत के पठार पर मौजूद हिमालयी ग्लेशियर समूचे एशिया में 1.5 अरब से अधिक लोगों को मीठा जल मुहैया कराता है। इससे नौ नदियों में पानी की आपूर्ति होती है, जिनमें गंगा और ब्राह्मपुत्र शामिल हैं। इनसे अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल और बांग्लादेश को पानी मिलता है। लेकिन जलवायु परिवर्तन व 'ब्लैक कार्बन' जैसे प्रदूषक तत्वों ने हिमालय के कई ग्लेशियरों की बर्फ की मात्रा घटा दी है। माना जा रहा है कि कुछ तो इस सदी के अंत ही तक खत्म हो जाएंगे। लेकिन उससे पहले तेजी से गलते ग्लेशियर समुद्र का जलस्तर बढ़ा देंगे, जिससे तटीय इलाकों के डूबने का खतरा होगा। पानी की उपलब्धता के मामले में राजधानी दिल्ली में ही जहां लोग एक ओर अमोनियायुक्त गंदा पानी पीने को मजबूर हैं, वहीं दूसरी ओर रोजाना पानी के पाइपों से इतना पानी बर्बाद हो रहा है जिससे 40 लाख लोगों की प्यास बुझ सकती है। पानी की बर्बादी का यह खमियाजा निकट भविष्य में भुगतना पड़ेगा।

बीते दिनों ओट्टावा में कनेडियन वाटर नेटवर्क (सीडब्लूएन) द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय बैठक में वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि ग्लोबल वार्मिंग और जनसंख्या बढ़ोतरी के चलते आने वाले 20 सालों में पानी की मांग उसकी आपूर्ति से 40 फीसद ज्यादा होगी। यानी 10 में से चार लोग पानी के लिए तरस जाएंगे। पानी की लगातार कमी के कारण कृषि, उद्योग और तमाम समुदायों पर सकंट मंडराने लगा है, इसे देखते हुए पानी के बारे में नए सिरे से सोचना बेहद आवश्यक है। अगले दो दशकों में दुनिया की एक तिहाई आबादी को अपनी मूल जरूरतों को पूरा करने के लिए जरूरी जल का सिर्फ आधा हिस्सा ही मिल पाएगा। कृषि क्षेत्र, जिस पर जल की कुल आपूर्ति का 71 फीसदी खर्च होता है, सबसे बुरी तरह प्रभावित होगा। इससे दुनियाभर के खाद्य उत्पादन पर असर पड़ जाएगा।

ऐसे में हाल ही में घोषित राष्ट्रीय जल अभियान की सफलता की उम्मीद करना बेमानी है। यह तभी संभव है जब हर व्यक्ति पानी का महत्व समझे। इस दिशा में कार्यरत मंत्रालयों और विभागों को एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराने के बजाय समन्वित तरीके से समस्या के समाधान हेतु प्रयास करने चाहिए। यदि हम कुछ संसाधनों को समय रहते विकसित करने में कामयाब हो जाएं तो काफी मात्रा में पानी की बचत हो सकती है। उदाहरण के तौर पर यदि औद्योगिक संयंत्रों में अतिरिक्त प्रयास कर लिए जायें तो तकरीबन बीस से पच्चीस फीसद तक पानी की बर्बादी रोकी जा सकती है। बाहरी देशों में फैक्ट्रियों से निकलने वाले गंदे पानी का खेती में इस्तेमाल किया जाता है लेकिन विडम्बना यह है कि हमारे यहां औद्योगिक क्षेत्रों में ही सबसे ज्यादा पानी की बर्बादी होती है। जरूरत है इस पर प्राथमिकता के आधार पर ध्यान दिया जाये और एक व्यापक नीति बनाई जाये जिससे उचित प्रबंधन के जरिए पानी की बर्बादी पर अंकुश लग सके।

courtesy 
purpose education

नदियों का बढ़ता निरादर


इसे अपनी संस्कृति की विशेषता कहें या परंपरा, हमारे यहां मेले नदियों के तट पर, उनके संगम पर या धर्म स्थानों पर लगते हैं और जहां तक कुंभ का सवाल है, वह तो नदियों के तट पर ही लगते हैं। आस्था के वशीभूत लाखों-करोड़ों लोग आकर उन नदियों में स्नान कर पुण्य अर्जित कर खुद को धन्य समझते हैं, लेकिन विडंबना यह है कि वे उस नदी के जीवन के बारे में कभी भी नहीं सोचते। देश की नदियों के बारे में केंद्रीय प्रदूषण नियत्रंण बोर्ड ने जो पिछले दिनों खुलासा किया है, वह उन संस्कारवान, आस्थावान और संस्कृति के प्रतिनिधि उन भारतीयों के लिए शर्म की बात है, जो नदियों को मां मानते हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अपने अध्ययन में कहा है कि देशभर के 900 से अधिक शहरों और कस्बों का 70 फीसदी गंदा पानी पेयजल की प्रमुख स्रोत नदियों में बिना शोधन के ही छोड़ दिया जाता है।

वर्ष 2008 तक के उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक, ये शहर और कस्बे 38,254 एमएलडी (मिलियन लीटर प्रतिदिन) गंदा पानी छोड़ते हैं, जबकि ऎसे पानी के शोधन की क्षमता महज 11,787 एमएलडी ही है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का कथन बिलकुल सही है। नदियों को प्रदूषित करने में दिनों दिन बढ़ते उद्योगों ने भी प्रमुख भूमिका निभाई है। इसमें दो राय नहीं है कि देश के सामने आज नदियों के अस्तित्व का संकट मुंह बाए खड़ा है। कारण आज देश की 70 फीसदी नदियां प्रदूषित हैं और मरने के कगार पर हैं। इनमें गुजरात की अमलाखेड़ी, साबरमती और खारी, हरियाणा की मारकंडा, उत्तर प्रदेश की काली और हिंडन, आंध्र की मुंसी, दिल्ली में यमुना और महाराष्ट्र की भीमा नदियां सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं। यह उस देश में हो रहा है, जहां आदिकाल से नदियां मानव के लिए जीवनदायिनी रही हैं। 

उनकी देवी की तरह पूजा की जाती है और उन्हें यथासंभव शुद्ध रखने की मान्यता व परंपरा है। समाज में इनके प्रति सदैव सम्मान का भाव रहा है। एक संस्कारवान भारतीय के मन-मानस में नदी मां के समान है। उस स्थिति में मां से स्नेह पाने की आशा और देना संतान का परम कर्तव्य हो जाता है। फिर नदी मात्र एक जलस्त्रोत नहीं, वह तो आस्था की केंद्र भी है। विश्व की महान संस्कृतियों-सभ्यताओं का जन्म भी न केवल नदियों के किनारे हुआ, बल्कि वे वहां पनपी भी हैं। 

वेदकाल के हमारे ऋषियों ने पर्यावरण संतुलन के सूत्रों के दृष्टिगत नदियों, पहाड़ों, जंगलों व पशु-पक्षियों सहित पूरे संसार की और देखने की सहअस्तित्व की विशिष्ट अवधारणा को विकसित किया है। उन्होंने पाषाण में भी जीवन देखने का जो मंत्र दिया, उसके कारण देश में प्रकृति को समझने व उससे व्यवहार करने की परंपराएं जन्मीं। यह भी सच है कि कुछेक दशक पहले तक उनका पालन भी हुआ, लेकिन पिछले 40-50 बरसों में अनियंत्रित विकास और औद्योगीकरण के कारण प्रकृति के तरल स्नेह को संसाधन के रूप में देखा जाने लगा, श्रद्धा-भावना का लोप हुआ और उपभोग की वृत्ति बढ़ती चली गई। चूंकि नदी से जंगल, पहाड़, किनारे, वन्य जीव, पक्षी और जन जीवन गहरे तक जुड़े हैं, इसलिए जब नदी पर संकट आया, तब उससे जुड़े सभी सजीव-निर्जीव प्रभावित हुए बिना न रहे और उनके अस्तित्व पर संकट मंडराने लगा। असल में जैसे-जैसे सभ्यता का विस्तार हुआ, प्रदूषण ने नदियों के अस्तित्व को ही संकट में डाल दिया। 

लिहाजा, कहीं नदियां गर्मी का मौसम आते-आते दम तोड़ देती हैं, कहीं सूख जाती हैं, कहीं वह नाले का रूप धारण कर लेती हैं और यदि कहीं उनमें जल रहता भी है तो वह इतनी प्रदूषित हैं कि वह पीने लायक भी नहीं रहता है। देखा जाए तो प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने में भी हमने कोताही नहीं बरती। वह चाहे नदी जल हो या भूजल, जंगल हो या पहाड़, सभी का दोहन करने में कीर्तिमान बनाया है। हमने दोहन तो भरपूर किया, उनसे लिया तो बेहिसाब, लेकिन यह भूल गए कि कुछ वापस देने का दायित्व हमारा भी है। नदियों से लेते समय यह भूल गए कि यदि जिस दिन इन्होंने देना बंद कर दिया, उस दिन क्या होगा? आज देश की सभी नदियां वह चाहे गंगा, यमुना, नर्मदा, ताप्ती हो, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी हो, ब्रह्मपुत्र, सतलुज, रावी, व्यास, झेलम या चिनाब हो या फिर कोई अन्य या इनकी सहायक नदियां। ये हैं तो पुण्य सलिला, लेकिन इनमें से एक भी ऎसी नहीं है, जो प्रदूषित न हो। 

असल में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का खामियाजा सबसे ज्यादा नदियों को ही भुगतना पड़ा है। सर्वाधिक पूज्य धार्मिक नदियों गंगा-यमुना को लें, उनको हमने इस सीमा तक प्रदूषित कर डाला है कि दोनों को प्रदूषण मुक्त करने के लिए अब तक करीब 15 अरब रूपये खर्च किए जा चुके हैं, फिर भी उनकी हालत 20 साल पहले से ज्यादा बदतर है। मोक्षदायिनी राष्ट्रीय नदी गंगा को मानवीय स्वार्थ ने इतना प्रदूषित कर डाला है कि कन्नौज, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी और पटना सहित कई एक जगहों पर गंगाजल आचमन लायक भी नहीं रहा है। यदि धार्मिक भावना के वशीभूत उसमें डुबकी लगा ली तो त्वचा रोग के शिकार हुए बिना नहीं रहेंगे।कानपुर से आगे का जल पित्ताशय के कैंसर और आंत्रशोध जैसी भयंकर बीमारियों का सबब बन गया है। यही नहीं, कभी खराब न होने वाला गंगाजल का खास लक्षण-गुण भी अब खत्म होता जा रहा है। गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के प्रो. बी.डी. जोशी के निर्देशन में हुए शोध से यह प्रमाणित हो गया है। 

दिल्ली के 56 फीसदी लोगों की जीवनदायिनी, उनकी प्यास बुझाने वाली यमुना आज खुद अपने ही जीवन के लिए जूझ रही है। जिन्हें वह जीवन दे रही है, अपनी गंदगी, मलमूत्र, उद्योगों का कचरा, तमाम जहरीला रसायन व धार्मिक अनुष्ठान के कचरे का तोहफा देकर वही उसका जीवन लेने पर तुले हैं। असल में अपने 1376 किमी लंबे रास्ते में मिलने वाली कुल गंदगी का अकेले दो फीसदी यानी 22 किमी के रास्ते में मिलने वाली 79 फीसदी दिल्ली की गंदगी ही यमुना को जहरीला बनाने के लिए काफी है। यमुना की सफाई को लेकर भी कई परियोजनाएं बन चुकी हैं और यमुना को टेम्स बनाने का नारा भी लगाया जा रहा है, लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात रहे हैं। देश की प्रदूषित हो चुकी नदियों को साफ करने का अभियान पिछले लगभग 20 साल से चल रहा है। 

इसकी शुरूआत राजीव गांधी की पहल पर गंगा सफाई अभियान से हुई थी। अरबों रूपये खर्च हो चुके हैं, लेकिन असलियत है कि अब भी शहरों और कस्बों का 70 फीसदी गंदा पानी बिना शोधित किए हुए ही इन नदियों में गिराया जा रहा है। नर्मदा को लें, अमरकंटक से शुरू होकर विंध्य और सतपुड़ा की पहाडियों से गुजरकर अरब सागर में मिलने तक कुल 1,289 किलोमीटर की यात्रा में इसका अथाह दोहन हुआ है। 1980 के बाद शुरू हुई इसकी बदहाली के गंभीर परिणाम सामने आए। यही दुर्दशा बैतूल जिले के मुलताई से निकलकर सूरत तक जाने वाली और आखिर में अरब सागर में मिलने वाली सूर्य पुत्री ताप्ती की हुई, जो आज दम तोड़ने के कगार पर है। तमसा नदी बहुत पहले विलुप्त हो गई थी। बेतवा की कई सहायक नदियों की छोटी-बड़ी जल धाराएं भी सूख गई हैं। 

आज नदियां मलमूत्र विसर्जन का माध्यम बनकर रह गई हैं। ग्लोबल वार्मिग का खतरा बढ़ रहा है और नदी क्षेत्र पर अतिक्रमण बढ़ता जा रहा है और जल संकट और गहराएगा ही। ऎसी स्थिति में हमारे नीति-नियंता नदियों के पुनर्जीवन की उचित रणनीति क्यों नहीं बना सके, जल के बड़े पैमाने पर दोहन के बावजूद उसके रिचार्ज की व्यवस्था क्यों नहीं कर सके, वर्षा के पानी को बेकार बह जाने देने से क्यों नहीं रोक पाए और अतिवृष्टि के बावजूद जल संकट क्यों बना रहता है, यह समझ से परे है। वैज्ञानिक बार-बार चेतावनी दे रहे हैं कि यदि जल संकट दूर करने के शीघ्र ठोस कदम नहीं उठाए गए तो बहुत देर हो जाएगी और मानव अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।