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गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

नदियां जोड़ो, पर क्यों


नदी जोड़ो परियोजना के लिए ऐसे किसी भी प्रोजेक्ट की तुलना में कहीं ज्यादा जमीन की जरूरत होगी। तब क्या सुप्रीम कोर्ट यह मान लेगा कि उन इलाकों के किसानों के लिए जमीन का दर्जा मां के बजाय किसी और चीज का है? इन कानूनी और भावनात्मक पहलुओं को एक तरफ रख दें तो नदी जोड़ो परियोजना में सबसे बड़ी अड़चन पर्यावरण की ओर से पैदा होने वाली है।
एनडीए के शासनकाल में प्रस्तावित 'नदियां जोड़ो' परियोजना को कुछ ज्यादा ही गंभीरता से लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने न केवल मौजूदा सरकार को इसे अमल में उतारने का निर्देश दिया है, बल्कि अपनी तरफ से इस पर नजर रखने के लिए एक कमेटी भी गठित कर दी है। सरकार की भी बलिहारी है कि इसका कड़ा प्रतिवाद करना उसे जरूरी नहीं लगा। जिस समय इस परियोजना का प्रस्ताव आया था, हर तरफ इसकी काफी वाहवाही हुई थी। कागज पर इसका सम्मोहन आज भी कम नहीं हुआ है। लेकिन इसके दूसरे पहलुओं पर नजर डालने से स्पष्ट हो जाएगा कि यह जब तक कागजों पर रहे, तभी तक अच्छी है, क्योंकि इसके जमीन पर आते ही कई तरह की आफतें खड़ी हो जाएंगी। इस परियोजना में तो तीस से ज्यादा नदियों को जोड़ने की बात है।

पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और राजस्थान के बीच सतलुज-यमुना लिंक नहर की हैसियत इसके सामने कुछ भी नहीं है। इसके बावजूद पंजाब अपने हिस्से का एक लीटर पानी भी कहीं और जाने देने को राजी नहीं है और उसे इसके लिए बाध्य करने का कोई तरीका आज तक नहीं खोजा जा सका है। कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच ब्रिटिश काल से ही कायम कावेरी जल विवाद इतना पेचीदा हो चुका है कि मुल्लापेरियार बांध की ऊंचाई बढ़ाने या इसे नए सिरे से बनवाने के प्रस्ताव तक को दोनों राज्यों की सरकारें अपने-अपने अस्तित्व के लिए चुनौती मान रही हैं। ऐसे में नदी जोड़ो परियोजना कितने राज्यों के बीच किस-किस तरह के विवादों का विषय बनेगी और इसका नतीजा देश के लिए कैसा होगा, यह कोई भी सोच सकता है।

दूसरा पहलू इस परियोजना के लिए जमीनों के अधिग्रहण का है। नोएडा एक्सटेंशन के मामले में आए सुप्रीम कोर्ट के निर्देश में यह भावनात्मक वक्तव्य भी शामिल था कि जमीन किसानों की मां है। फिलहाल देश का कोई कोना ऐसा नहीं है जहां सड़क, रेल, बिजलीघर, खान, उद्योग या आवासीय कॉलोनियां बनाने के लिए किए गए भूमि अधिग्रहण के खिलाफ उग्र आंदोलन न चल रहे हों। नदी जोड़ो परियोजना के लिए ऐसे किसी भी प्रोजेक्ट की तुलना में कहीं ज्यादा जमीन की जरूरत होगी। तब क्या सुप्रीम कोर्ट यह मान लेगा कि उन इलाकों के किसानों के लिए जमीन का दर्जा मां के बजाय किसी और चीज का है?

नदियों को खत्म करने की पूरी तैयारीइन कानूनी और भावनात्मक पहलुओं को एक तरफ रख दें तो नदी जोड़ो परियोजना में सबसे बड़ी अड़चन पर्यावरण की ओर से पैदा होने वाली है। नदियां अपना स्वाभाविक ढाल पकड़ती हैं और उनके पानी की दिशा अगर नहरों के जरिये मोड़ दी जाती है तो कुछ साल बाद वे जमीन को दलदली और खारा बना कर अपना बदला निकालती हैं। हरित क्रांति के दौरान नहरों का मजा ले चुके कुछ राज्य फिलहाल इसकी सजा भुगत रहे हैं। ऐसे में कागज पर मोहक सिंचाई योजनाएं बनाने और उन पर अमल के लिए अदालती निर्देश का इंतजार करने से बेहतर यही होगा कि सरकारें बारिश का पानी जमा करने और ग्राउंड वाटर रीचार्ज जैसे उपायों पर अपना ध्यान केंद्रित करें।

मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

गंगा एक कारपोरेट एजेंडा



गंगा की अविरलता-निर्मलता विश्व बैंक के धन से नहीं, जन-जन की धुन से आएगी। गंगा संरक्षण की नीति, कानून बनाने तथा उन्हें अमली जामा पहनाने से आएगी। जानते हुए भी क्यों हमारी सरकारें ऐसा नहीं कर रहीं। ऐसा न करने को लेकर राज्य व केंद्र की सरकारों में गजब की सहमति है। क्यों? पनबिजली परियोजनाओं में जांघिया-बनियान बनाने से लेकर साइकिल बनाने वालों तक का पैसा लगा है। क्योंकि गंगा, अब राजनैतिक नहीं, एक कार्पोरेट एजेंडा है।
बिस्मिल्लाह खां ने कहा, ‘गंगा और संगीत एक-दूसरे के पूरक हैं।’ है कोई, जो गंगा का उसका बिसरा संगीत लौटा दे? है कोई, जो गंगोत्री ग्लेशियर का खो गया गौमुखा स्वरूप वापस ले आए? गंगा के मायके में उसका अल्हड़पन, मैदान में उसका यौवन और ससुराल में उसकी गरिमा देखना कौन नहीं चाहता? कौन नहीं चाहता कि मृत्यु पूर्व दो बूंद पीने की लालसा वाला प्रवाह लौट आए? गंगा फिर से सुरसरि बन जाए? मैं उस देश का वासी हूं,जिस देश में गंगा बहती है’- इस गीत को गाने का गौरव भला कौन हिंदुस्तानी नहीं चाहेगा? लेकिन यह हो नहीं सकता। जिस तरह बिस्मिल्लाह की शहनाई लौटाने की गारंटी कोई नहीं दे सकता, गंगा की अविरलता और निर्मलता की गारंटी देना भी अब किसी सरकार के वश की बात नहीं है। इसलिए नहीं कि यह नामुमकिन है; इसलिए कि अब पानी एक ग्लोबल सर्विस इंडस्ट्री है और भारतीय जलनीति कहती है-वाटर इज कमोडिटी। जल वस्तु है तो फिर गंगा मां कैसे हो सकती है? गंगा रही होगी कभी स्वर्ग में ले जाने वाली धारा, साझी संस्कृति, अस्मिता और समृद्धि की प्रतीक, भारतीय पानी- पर्यावरण की नियंता, मां वगैरह। ये शब्द अब पुराने पड़ चुके। गंगा, अब सिर्फ बिजली पैदा करने और पानी सेवा उद्योग का कच्चा माल है। मैला ढोने वाली मालगाड़ी है। कॉमन कमोडिटी मात्र! 

हम पानी के वैश्विक कारोबारियों के चंगुल में


जो दुनिया चलाते हैं, उन्हें पानी से ज्यादा पानी की सेवा देने में रुचि है। पानी की सेवा में सबसे बड़ी मेवा है। सेवा दो, मेवा कमाओ। इसी कमाई के बूते तो वे दुनिया की प्रथम सौ कंपनियों में स्थान रखती हैं। आरडब्ल्यूई ग्रुप, स्वेज, विवन्डी, एनरॉन आदि। विवन्डी विश्व में पानी की सबसे बड़ी सेवादाता है। स्वेज 120 देशों की सेवा करती है तो भला भारत को कैसे छोड़ दे? लेकिन जब तक भारत में गंगा जैसा सर्वश्रेष्ठ प्रवाह घटेगा नहीं, गुणवत्ता मरेगी नहीं, आप शुद्ध पानी की सेवा के लिए किसी को क्यों आमंत्रित करेंगे? सो प्रवाह घटाना है, गुणवत्ता मारनी है। फिर सेवा लेने के लिए पैसा न हो तो कर्ज देने के लिए वे हैं न; विश्व बैंक, यूरोपियन कमीशन और एडीबी। शर्तों में बांधने डब्ल्यूटीओ और गैट्स। उनका अनुमान नहीं, बिजनेस टारगेट है कि 2015 तक दुनिया जल और उसकी स्वच्छता के लिए 180 बिलियन डॉलर खर्च करे। 2025 तक हर तीन में से दो आदमी स्वच्छ जल की कमी महसूस करे। 2050 तक दुनिया की 70 प्रतिशत आबादी पानी का संकट झेले। 

यह तभी होगा जब भूजल गिरे। इसके लिए गांवों को कस्बा, कस्बों को शहर और शहरों को महानगर बनाओ। बंद पाइप और बंद बोतल पानी की खपत बढ़ाओ। सिर्फ जल संचयन! जल संचयन! चिल्लाओ। करो मत। जरूरत पड़े तो ट्यूबवेल, बोरवेल और समर्सिबल से धकाधक पानी खींचते जाओ। फिर पानी की कमी होने लगे तो जलनियंत्रक प्राधिकरण बनाओ। हमें बुलाओ। पीपीपी चलाओ। बूट अपनाओ। पानी की कीमतें बढ़ाओ। याद रखो! पानी खींचने वाली कोक, पेप्सी और व्हिस्की पीने के लिए है। पानी लड़ने और मरने के लिए। एक दिन भूजल खाली हो ही जाएगा और आप लड़ने भी लगोगे।

भारत के 70 फीसद भूजल भंडार खाली


1990 के 230 लाख की तुलना में आज भारत में 630 लाख कस्बे हैं। भारत में आपके 70 प्रतिशत भूजल भंडार खाली हो चुके हैं और आप पानी के लिए लड़ने भी लगे हो और पानी की बीमारियों से बीमार होकर मरने भी। स्वच्छ पानी के बाजार का जो लक्ष्य हमने 2015 के लिए रखा था, आपने तो उसे 2012 में ही हासिल करा दिया। अब भारत की नदियों को मरना चाहिए। नदियां मरेंगी, तभी धरती सूखेगी, तभी खेती मरेगी। लोग मलीन बस्तियों को पलायन करेंगे। खाद्य सुरक्षा घटेगी। कीमतें बढ़ेंगी। खाद्य सुरक्षा कानून बनाना पड़ेगा। खाद्य आयात बढ़ेगा। जीडीपी का ढोल फूटेगा। साथ ही तुम्हारा भी। तुम हमें सिक्योरिटी मनी दे देना। हम तुम्हें फूड, वाटर.. जो-जो कहोगे, सब की सिक्योरिटी दे देंगे। इसके लिए नदी-जोड़ करो। नदियों से जलापूर्ति बढ़ाओ। बिजली बनाने के नाम पर पानी रोको। नदियों के किनारे एक्सप्रेस-वे बनाओ। 

इंडस्ट्रीज को पानी की कमी का आंकड़ा दिखाओ। नदियों में अधिक पानी का फर्जी आंकड़ा दिखाकर उनके किनारे-किनारे इंडस्ट्रीयल कॉरीडोर बनाओ। टाउनशिप बनाओ। उनका कचरा नदियों में बहाओ। ‘दो बूंद जिंदगी की’ से आगे बढ़कर यूनीसेफ, विश्व स्वास्थ्य संगठन की राय को और बड़ा बाजार दिलाओ। एक दिन तुम असल में अपाहिज हो जाओगे। आबादी खुद ब खुद घट जाएगी। न गरीब रहेगा, न गरीबी। तुम भी हमारी तरह विकसित कहलाओगे। आज भारत में यही सब हो रहा है। यदि इसके पीछे कोई इशारा न होता, तो क्या गांव धंसते रहते, धाराएं सूखती रहतीं, विस्फोटों से पहाड़ हिलते रहते, जीवों का पर्यावास छिनता रहता और सरकारें पनबिजली परियोजनाओं को मंजूरी देती रहतीं? भूकंप में विनाश का आंकलन की बिना पर इंदिराजी द्वारा रोके जाने और सरकारी समिति द्वारा रद्द कर दिए जाने के बावजूद टिहरी परियोजना को आखिर मंजूरी क्यों दे दी गई? 

मनाही के बावजूद जारी क्यों हैं पनबिजली परियोजनाएं



अलकनंदा और भागीरथी पर प्रस्तावित यदि 53 बिजली परियोजनाएं बन गई तो दोनों नदियां सूख जाएंगी’-कैग की इस चेतावनी के बावजूद क्या हम परियोजनाएं रोक रहे हैं? तय मानक टरबाइन में नदी का 75 प्रतिशत पानी डालने की इजाजत देते हैं। उत्तराखंड की ऊर्जा नीति 90 प्रतिशत की इजाजत देती है। इस पर कैग की आपत्ति के बावजूद क्या ऊर्जा नीति बदली? परियोजनाओं के लिए और नदी के लिए हमें कर्ज देने वाले संगठनों के सदस्य देश अपने यहां बड़े और मंझोले बांधों को तोड़ रहे हैं और हमें बनाने के लिए कर्ज दे रहे हैं। क्यों? हमें मालूम है कि मलशोधन का वर्तमान तंत्र फेल है। फिर भी, हम उसी में पैसा क्यों लगा रहे हैं? मालूम है कि उद्योग नदियों में जहर बहा रहे हैं। फिर भी उन्हें नदियों से दूर भगाते क्यों नहीं? प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड प्रदूषण नियंत्रित करने के बजाय सिर्फ ‘प्रदूषण नियंत्रण में है’ के प्रमाणपत्र ही क्यों बांट रहे हैं? नदियों को तटबंधों में बांधने की भूल कोसी-दामोदर में हम झेल रहे हैं। फिर भी एक्सप्रेसवे नामक तटबंध क्यों बना रहे हैं? दिल्ली-मुंबई कॉरीडोर में आने वाली नदियों में अधिक पानी का गलत आंकलन आगे बढ़ा रहे हैं। क्यों? 

हमें मालूम है कि राज्यों पर जवाबदेही टालने के बजाय केंद्र को एक जिम्मेदार भूमिका निभानी होगी। गंगा की अविरलता-निर्मलता विश्व बैंक के धन से नहीं, जन-जन की धुन से आएगी। गंगा संरक्षण की नीति, कानून बनाने तथा उन्हें अमली जामा पहनाने से आएगी। जानते हुए भी क्यों हमारी सरकारें ऐसा नहीं कर रहीं। ऐसा न करने को लेकर राज्य व केंद्र की सरकारों में गजब की सहमति है। क्यों? इन सभी क्यों का जवाब एक ही है; क्योंकि गंगा में गंगा नहर और शारदा सहायक के रास्ते विश्व बैंक का निवेश है। एक्सप्रेस वे की परिकल्पना में उसका भी हाथ है। सोनिया विहार संयंत्र के माध्यम से दिल्ली वालों के पानी के बिल का पैसा स्वेज को कमाई करा रहा है। पनबिजली परियोजनाओं में जांघिया-बनियान बनाने से लेकर साइकिल बनाने वालों तक का पैसा लगा है। क्योंकि गंगा, अब राजनैतिक नहीं, एक कार्पोरेट एजेंडा है।
गंगा नदी पर बनते बांध परियोजनाएं

सोमवार, 9 अप्रैल 2012

क्या मैदानी क्या रेतीली- सभी जगह पानी की कमी

ऐसा नहीं है कि पेयजल की समस्या केवल मैदानी क्षेत्र भरावन में ही बनी हुई है। तपती धूप और निरंतर नीचे गिरता सतर गोमती नदी तलहटी में बसें गांवों भटपुर, कटका, महीठा के डालखेड़ा, लालपुर खाले, जाजपुर, बेहड़ा, नई गढ़ी इत्यादि गांवों में भी पेयजल की समस्या से लोग जुझ रहे है। गोमती नदी के किनारे बसे भटपुर गांव व सड़क के चौराहे पर भी पेयजल की गम्भीर समस्या बनी हुई है। चौराहे पर इण्डिया मार्का नल की कमी हैं दूर-दूर से लोग यहां आते हैं परन्तु पीने के पानी की किल्लत से लोग परेशान होते हैं। रामप्रकाश तिवारी, केशव दीक्षित, अनूप, जयकेश, शैलेन्द्र आदि लोग पानी की समस्या के बारे में कहते हैं कि यहां चौराहे पर व गांव में कई स्थानों पर इण्डिया मार्का नलों की आवश्यकता है यहां भी जल स्तर तेजी से गिर रहा है।

जाजूपुर, बेहड़ा के लोग सियाराम राजेश गौतम, रामअवतार, राजाराम, रामकेशन, सुशीला, कुन्ती देवी, रिंकी आदि बताते हैं कि गांवों के कुएं सूख गए हैं। छोटे नलों से भी पानी उठाना भारी पड़ रहा है। नई फसल धान आदि के लिए बेढ़ लगाने हेतु सिंचाई जल की समस्या है। सियाराम, भगीरथ, हरीराम आदि के घरों के 200 मीटर के आसपास कोई इण्डिया मार्का नल न होने के कारण दूर से पानी ढोना पड़ता है। लोगों ने बताया कि कहीं-कहीं बिल्कुल पास-पास नल लगे हैं और कहीं-कहीं एक भी इण्डिया मार्का हैण्ड पंप नहीं है। जल ही जीवन है पर पीने के पानी की किल्लत ने उनका जीवन प्रभावित कर दिया है।

भरावन में 63 वर्षीय राजकिशोर त्रिपाठी जी ने बताया कि वे अभी हाल में ही अध्यापक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। 500 मीटर की परिधि तक कोई इण्डिया मार्का हैण्डपंप न होने से उन्हें सुबह 4 बजे ही उठकर पानी लाना पड़ता है। एक दिन का उनके घर परिवार व जानवरों को मिलाकर 60 बाल्टी का खर्चा है वे कहते हैं कि इस उम्र में इतना पानी ढोकर लाना बहुत ही कठिन है पर क्या करें पानी के बिना जिन्दा नहीं रहा जा सकता है। उन्होंने बताया कि पानी की चिन्ता में उन्हें ठीक से नींद भी नहीं आती है लगभग 80 परिवारों जिसमें एक हजार से ऊपर लोग रहते हैं के ब मोहल्ले में कोई इण्डिया मार्का हैण्डपंप न होने से लोग पानी के लिए तरस रहे हैं। श्री तिवारी जी ने बताया कि चुनाव के समय जब श्री रामपाल वर्मा जी उनके मुहल्ले व उनके दरवाजे वोट मांगने आए थे तो उन्होंने जोर से रामपाल वर्मा जिंदाबाद के नारे लगाए थे उन्हें वोट भी दिया हम उनके समर्थक भी हैं पर अब वे मंत्री जी हैं हम उन तक नल मांगने नहीं पहुंच पा रहे हैं मुझे नल की अति आवश्यकता है पूरे मोहल्ले के लिए विकट समस्या है उन्होंने बताया कि हमारे पीने के पानी की समस्या को दूर करने हेतु एक इण्डिया मार्का हैण्डपंप दिला दो हम आपके बहुत-बहुत जीवन भर आभारी रहेंगे

क्यों बढ़ रहा है जल-संकट


पिछले कुछ सालों में मध्य प्रदेश समेत देश भर में पानी का संकट बढ़ा है। यह समस्या प्रकृति से ज्यादा मानव-निर्मित है। वर्षा की कमी के साथ, वनों की अवैध कटाई, पुराने तालाबों पर अतिक्रमण, गाद भरने से सरोवरों की भंडारण क्षमता में कमी, पानी की फिजूलखर्ची, नदी, जलाशयों का पानी औद्योगिक इकाईयों को देने व शहरों के प्रदूषित पानी को नदियों के प्रदूषण और भूजल को बेतहाशा दोहन से समस्या बढ़ रही है। इस संकट से न केवल खेतों की सिंचाई के लिए पानी की कमी आ रही है बल्कि पीने के पानी की समस्या भी बढ़ रही है। लेकिन इससे बेखबर हम भूजल को बेतहाशा उलीचे जा रहे हैं, जिसका पुनर्भरण नहीं हो रहा है। क्योंकि अब पहले जैसी बारिश भी नहीं हो रही है और जो जंगल पानी को स्पंज की तरह सोख कर रखते थे, वो भी अब कट चुके हैं। सवाल है कि आखिर पानी गया कहां? धरती पी गई या आसमान निगल गया? पानी की सबसे बड़ी जरूरत खेती के लिए होती है। जबसे हरित क्रांति के प्यासे बीज हमारे खेतों में आए हैं, तबसे पानी का ज्यादा दोहन बढ़ा है। कहीं नहरों से तो कहीं नलकूप के माध्यम से सिंचाई की जा रही है। लेकिन पहले परंपरागत देशी बीजों से बिना सींच (सिंचाई) की विविध फसलें हुआ करती थीं। अब उनकी जगह पर केवल ज्यादा पानी वाली एकल फसलें हो रही हैं।

जैव विविधता में मिट्टी के बाद पानी एक महत्वपूर्ण संसाधन है। इसे बचाने का प्रयास सुव्यवस्थित ढंग से किया जाना चाहिए। इसके बेतहाशा दोहन और शोषण से बचा जाना चाहिए। पानी से ही समस्त प्राणी-मनुष्य, पशु-पक्षी, सूक्ष्म जीव, जीव-जंतु सभी का जीवन है। इस पानी के संकट को बारीकी से समझने के लिए हम मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले पर एक निगाह डालने की कोशिश करेंगे। यह जिला सतपुड़ा एवं विन्ध्याचल पर्वत श्रेणियों के बीच नर्मदा नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है। इसे हम भौगोलिक रूप से दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। एक है मैदानी क्षेत्र, जो नर्मदा का कछार कहलाता है। यहां तवा बांध की नहरों से अधिकांश सिंचाई होती है और दूसरा है जंगल पट्टी, जो सतपुड़ा की तलहटी में फैली हुई है। यह पूरी पट्टी असिंचित है। तवा कमांड की नहरों की सिंचाई से पहले यहां का फसलचक्र भिन्न था। पहले यहां मोटे अनाज- जैसे ज्वार, मक्का, कोदो, कुटकी, समा, बाजरा, देशी धान, देशी गेहूं, तुअर, तिवड़ा, चना, मसूर, मूंग, उड़द, तिल, रजगिरा, अलसी आदि कई तरह की फसलें लगाई जाती थीं। पिपरिया की तुअर दाल बहुत प्रसिद्ध हुआ करती थी। लेकिन तवा कमांड क्षेत्र में इन विविध फसलों की जगह सोयाबीन (खरीफ) और गेहू (रबी) की एकल खेती ने ले ली।

जबकि जंगल पट्टी में परंपरागत खेती की उतेरा (मिश्रित फसल) पद्धति प्रचलन में हैं। जिसमें 6-7 प्रकार के अनाज मिलाकर एक साथ बोये जाते हैं। यह बिर्रा (गेहूं- चना मिश्रित) का एक संशोधित रूप है। ये फसलें बिना सींच (सिंचाई) या कम पानी में होती है। यानी केवल बारिश के पानी से फसलें होती हैं। लेकिन हाल के कुछ बरसों से किसानों की एक बड़ी समस्या है बारिश न होना। कम बारिश या अनियमित बारिश होना। पानी का सीधा संबंध फसलों से है। पानी न मिले तो सारी खेती चैपट। बारिश पर निर्भर किसान कम बारिश के चलते परेशान हैं। उनकी आजीविका संकट में है और जो कम पानी वाली फसलें कोदो, कुटकी, तुअर, ज्वार आदि लगाते थे, उनकी समस्याएं बढ़ गई हैं। यह समस्याएं मौसम बदलाव से जुड़ी हुई हैं।

भूजल कई सालों में एकत्र होता है, यही हमारा सुरक्षित जल भंडार है। फिर बिना बिजली के उसे ऊपर खींचना मुश्किल है। पूर्व से आसन्न बिजली का संकट साल दर साल बढ़ते जा रहा है। बिजली कटौती के कारण किसान फसलों में पानी नहीं दे पा रहे हैं। अगर गेहूं की फसल में अंतिम पानी नहीं मिला तो फसल का कम उत्पादन होता है। यह अलहदा बात है कि कमजोर और छोटे किसान भारी पूंजी लगाकर सिंचाई की इस सुविधा से वंचित हैं। कुछ समय पहले तक हर गांव में तालाब हुआ करते थे। कुएं, बावड़ी, नदी-नालों में बहुतायत पानी था। वर्षा जल को छोटे-छोटे बंधानों में एकत्र किया जाता था। जिससे सिंचाई, घरेलू निस्तार और मवेशियों को पानी मिल जाता था। किसान पहले बैलों से चलने वाली मोट से खेतों की सिंचाई करते थे। लेकिन अब तालाबों पर कब्जा हो गया है। कुएं और बावड़ी जैसे परंपरागत पानी के स्रोत खत्म हो गए हैं।

आजादी के ठीक बाद पहली पंचवर्षीय योजना के तहत इस जिले में भी एक छोटा डोकरीखेड़ा बांध बनाया गया था। यद्यपि मछवासा नदी को इससे जोड़ दिया गया है लेकिन फिर भी यह बांध अपनी क्षमता के अनुसार पूरा नहीं भर पाता। उसमें गाद भर गई है, पुराव हो गया है। अब इससे केवल किसानों को मुश्किल से रबी की फसल के लिए दो पानी ही मिल पाते हैं। वह भी बारिश हुई तो, अन्यथा नहीं। इसके बाद 1975 में तवा बांध बना। इससे तवा कमांड में नहरों से सिंचाई से फायदा तो हुआ। एक समय मिट्टी बचाओ आंदोलन से जुड़ी रही ग्राम सेवा समिति के एक अध्ययन के अनुसार यहां की काली मिट्टी वाली जमीन जो काफी उपजाऊ थी, वो दलदल में तब्दील होती जा रही है। या उन जमीनों में लवणीयता और क्षारीयता बढ़ती जा रही है। नए-नए खरपतवारों का आगमन हुआ है जिससे कृषि लागत में और वृद्धि हुई तथा उत्पादन भी प्रभावित होने लगा।



 वर्ष 2003-04 में 3931, वर्ष 2004-05 में 3943, वर्ष 2005-06 में 3972 वर्ष 2006-07 में 4853 और वर्ष 2007-08 में 4894 नलकूपों का खनन हुआ। यह सिलसिला जारी है। विज्ञान और पर्यावरण केन्द्र व गांधी शांति प्रतिष्ठान की एक रिपोर्ट बताती है कि देश की भूमिगत जल संपदा प्रतिवर्ष होने वाली वर्षा से दस गुना ज्यादा है लेकिन सन् 70 से हर वर्ष करीब एक लाख 70 हजार ट्यूबवेल लगते जाने से कई इलाकों में जलस्तर घटता जा रहा है। ठीक इस जिले में भी यही हो रहा है। कुछ समय पहले तक गांव में कच्चे घर होते थे। घर के आगे पीछे काफी जगह होती थी। खेती-किसानी के काम में घरों में ज्यादा जगह लगती है। घर के आगे आंगन और घर के पीछे बाड़ी होती थी। बाड़ी में हरी सब्जियां लगाई जाती थीं। पेड़-पौधे लगे होते थे। इस सबसे बारिश का पानी नीचे जज्ब होता था और धरती का पेट भरता था। यानी भूजल ऊपर आता था। आज गांव में भी पक्के मकान बन गए हैं। घरों के पीछे बाड़ी भी नहीं है। 

इसलिए बारिश का पानी बेकार बह जाता है। इस कारण न तो उसे हम निस्तार के उपयोग में ला पा रहे हैं और न वह पानी धरती में समा रहा है। यानी हम धरती से पानी ले तो रहे हैं, लेकिन उसे दे नहीं रहे हैं। इस कारण भूजल का पुनर्भरण नहीं हो रहा है। नतीजतन, टाइम बम की तरह हर साल भूजल नीचे चला जा रहा है। पानी का एकमात्र स्रोत है वर्षा। जिला गजेटियर 1979 के अनुसार जिले की सामान्य वर्षा 1294.5 मि.मी. है। पर जो वर्षा होती है उसकी अवधि सीमित है। मानसून के 3-4 माह। जिसका करीब आधा प्रतिशत पानी वाष्पीकृत होकर उड़ जाता है और बाकी बचे आधे पानी में से खेतों की सिंचाई, भूजल का पुनर्भरण और नदी-नालों का पेट भरता है। अब हमें इसी पानी को सहेजना होगा। खेत का पानी खेत में और गांव का पानी गांव में रोकना होगा। बारिश का पानी तालाब या छोटे बंधानों के माध्यम से गांव में ही रोका जा सकता है।

यह कैसे होगा? यह सरल तरीका है। जैसे भी हो, जहां भी संभव हो, बारिश के पानी को वहीं रोककर कमजोर वर्ग के लोगों के खेत तक पहुंचाना चाहिए। जहां पानी गिरता है, उसे सरपट न बह जाने दें। स्पीड ब्रेकर जैसी पार बांधकर, उसकी चाल को कम करके धीमी गति से जाने दें। इसके कुछ तरीके हो सकते हैं। खेत का पानी खेत में रहे इसके लिए मेढ़बंदी की जा सकती है। गांव का पानी गांव में रहे इसके लिए तालाब और छोटे बंधान बनाए जा सकते हैं। चेकडैम बनाए जा सकते हैं। या जो टूट-फूट गए हैं उनकी मरम्मत की जा सकती है। वृक्षारोपण किया जा सकता है। शहरों में वॉटर हार्वेस्टिंग के माध्यम से पानी को एकत्र कर भूजल को ऊपर लाया जा सकता है। इसके माध्यम से कुओं व नलकूप को पुनजीर्वित किया जा सकता है। नदी-नालों में बोरी-बंधान बनाए जा सकते हैं। सूखी नदियों को गहरा किया जा सकता है। 

इसके साथ सबसे जरूरी है खेती में हमें फसलचक्र बदलना होगा। कम पानी या बिना सींच के परंपरागत देशी बीजों की खेती करनी होगी और ऐसी कई देशी बीजों को लोग भूले नहीं है, वे कुछ समय पहले तक इन्हीं बीजों से खेती कर रहे थे। देशी बीज और हल-बैल, गोबर खाद की ओर मुड़कर मिट्टी-पानी का संरक्षण करना होगा। यानी समन्वित प्रयास से ही हम पानी जैसे बहुमूल्य संसाधन का संरक्षण व संवर्धन कर सकते हैं। इस संदर्भ में हमें महात्मा गांधी की सीख याद रखनी चाहिए, उन्होंने कहा था कि प्रकृति मनुष्य की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकती है, परंतु लालच की नहीं। 

यह रिपोर्ट इंक्लूसिव मीडिया फैलोशिप के अध्ययन का हिस्सा है

जल संकट का समाधान कैसे?


बीते दिनों ऊर्जा एवं संसाधन संस्थान (टेरी) एवं जल संसाधन मंत्रालय द्वारा दिल्ली स्थित इंडिया हैबिटेट सेन्टर में आयोजित भारतीय जल गोष्ठी के उद्घाटन भाषण में उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने जल संसाधनों में व्यापक सुधार की जरूरत बतायी, उन्होंने कहा कि बढ़ती जनसंख्या और जलवायु परिवर्तन के चलते जल प्रबंधन के क्षेत्र में नई चुनौतियां सामने हैं, जिनका मुकाबला प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए। पानी की समस्या समूचे विश्व की है लेकिन हमारे यहां जिस तरह इसकी बर्बादी होती है, उसे देखते हुए यदि इस पर समय रहते अंकुश न लगाया गया तो बहुत देर हो जाएगी। वैज्ञानिकों की चेतावनी है कि 2025 तक दुनिया के दो तिहाई देशों में पानी की किल्लत हो जाएगी। एशिया में यह समस्या कहीं अधिक विकराल होगी और भारत में 2020 तक पानी की भारी किल्लत की आशंका है, जिसका अर्थव्यवस्था की रफ्तार पर असर पड़ेगा।

तिब्बत के पठार पर मौजूद हिमालयी ग्लेशियर समूचे एशिया में 1.5 अरब से अधिक लोगों को मीठा जल मुहैया कराता है। इससे नौ नदियों में पानी की आपूर्ति होती है, जिनमें गंगा और ब्राह्मपुत्र शामिल हैं। इनसे अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल और बांग्लादेश को पानी मिलता है। लेकिन जलवायु परिवर्तन व 'ब्लैक कार्बन' जैसे प्रदूषक तत्वों ने हिमालय के कई ग्लेशियरों की बर्फ की मात्रा घटा दी है। माना जा रहा है कि कुछ तो इस सदी के अंत ही तक खत्म हो जाएंगे। लेकिन उससे पहले तेजी से गलते ग्लेशियर समुद्र का जलस्तर बढ़ा देंगे, जिससे तटीय इलाकों के डूबने का खतरा होगा। पानी की उपलब्धता के मामले में राजधानी दिल्ली में ही जहां लोग एक ओर अमोनियायुक्त गंदा पानी पीने को मजबूर हैं, वहीं दूसरी ओर रोजाना पानी के पाइपों से इतना पानी बर्बाद हो रहा है जिससे 40 लाख लोगों की प्यास बुझ सकती है। पानी की बर्बादी का यह खमियाजा निकट भविष्य में भुगतना पड़ेगा।

बीते दिनों ओट्टावा में कनेडियन वाटर नेटवर्क (सीडब्लूएन) द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय बैठक में वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि ग्लोबल वार्मिंग और जनसंख्या बढ़ोतरी के चलते आने वाले 20 सालों में पानी की मांग उसकी आपूर्ति से 40 फीसद ज्यादा होगी। यानी 10 में से चार लोग पानी के लिए तरस जाएंगे। पानी की लगातार कमी के कारण कृषि, उद्योग और तमाम समुदायों पर सकंट मंडराने लगा है, इसे देखते हुए पानी के बारे में नए सिरे से सोचना बेहद आवश्यक है। अगले दो दशकों में दुनिया की एक तिहाई आबादी को अपनी मूल जरूरतों को पूरा करने के लिए जरूरी जल का सिर्फ आधा हिस्सा ही मिल पाएगा। कृषि क्षेत्र, जिस पर जल की कुल आपूर्ति का 71 फीसदी खर्च होता है, सबसे बुरी तरह प्रभावित होगा। इससे दुनियाभर के खाद्य उत्पादन पर असर पड़ जाएगा।

ऐसे में हाल ही में घोषित राष्ट्रीय जल अभियान की सफलता की उम्मीद करना बेमानी है। यह तभी संभव है जब हर व्यक्ति पानी का महत्व समझे। इस दिशा में कार्यरत मंत्रालयों और विभागों को एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराने के बजाय समन्वित तरीके से समस्या के समाधान हेतु प्रयास करने चाहिए। यदि हम कुछ संसाधनों को समय रहते विकसित करने में कामयाब हो जाएं तो काफी मात्रा में पानी की बचत हो सकती है। उदाहरण के तौर पर यदि औद्योगिक संयंत्रों में अतिरिक्त प्रयास कर लिए जायें तो तकरीबन बीस से पच्चीस फीसद तक पानी की बर्बादी रोकी जा सकती है। बाहरी देशों में फैक्ट्रियों से निकलने वाले गंदे पानी का खेती में इस्तेमाल किया जाता है लेकिन विडम्बना यह है कि हमारे यहां औद्योगिक क्षेत्रों में ही सबसे ज्यादा पानी की बर्बादी होती है। जरूरत है इस पर प्राथमिकता के आधार पर ध्यान दिया जाये और एक व्यापक नीति बनाई जाये जिससे उचित प्रबंधन के जरिए पानी की बर्बादी पर अंकुश लग सके।

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नदियों का बढ़ता निरादर


इसे अपनी संस्कृति की विशेषता कहें या परंपरा, हमारे यहां मेले नदियों के तट पर, उनके संगम पर या धर्म स्थानों पर लगते हैं और जहां तक कुंभ का सवाल है, वह तो नदियों के तट पर ही लगते हैं। आस्था के वशीभूत लाखों-करोड़ों लोग आकर उन नदियों में स्नान कर पुण्य अर्जित कर खुद को धन्य समझते हैं, लेकिन विडंबना यह है कि वे उस नदी के जीवन के बारे में कभी भी नहीं सोचते। देश की नदियों के बारे में केंद्रीय प्रदूषण नियत्रंण बोर्ड ने जो पिछले दिनों खुलासा किया है, वह उन संस्कारवान, आस्थावान और संस्कृति के प्रतिनिधि उन भारतीयों के लिए शर्म की बात है, जो नदियों को मां मानते हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अपने अध्ययन में कहा है कि देशभर के 900 से अधिक शहरों और कस्बों का 70 फीसदी गंदा पानी पेयजल की प्रमुख स्रोत नदियों में बिना शोधन के ही छोड़ दिया जाता है।

वर्ष 2008 तक के उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक, ये शहर और कस्बे 38,254 एमएलडी (मिलियन लीटर प्रतिदिन) गंदा पानी छोड़ते हैं, जबकि ऎसे पानी के शोधन की क्षमता महज 11,787 एमएलडी ही है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का कथन बिलकुल सही है। नदियों को प्रदूषित करने में दिनों दिन बढ़ते उद्योगों ने भी प्रमुख भूमिका निभाई है। इसमें दो राय नहीं है कि देश के सामने आज नदियों के अस्तित्व का संकट मुंह बाए खड़ा है। कारण आज देश की 70 फीसदी नदियां प्रदूषित हैं और मरने के कगार पर हैं। इनमें गुजरात की अमलाखेड़ी, साबरमती और खारी, हरियाणा की मारकंडा, उत्तर प्रदेश की काली और हिंडन, आंध्र की मुंसी, दिल्ली में यमुना और महाराष्ट्र की भीमा नदियां सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं। यह उस देश में हो रहा है, जहां आदिकाल से नदियां मानव के लिए जीवनदायिनी रही हैं। 

उनकी देवी की तरह पूजा की जाती है और उन्हें यथासंभव शुद्ध रखने की मान्यता व परंपरा है। समाज में इनके प्रति सदैव सम्मान का भाव रहा है। एक संस्कारवान भारतीय के मन-मानस में नदी मां के समान है। उस स्थिति में मां से स्नेह पाने की आशा और देना संतान का परम कर्तव्य हो जाता है। फिर नदी मात्र एक जलस्त्रोत नहीं, वह तो आस्था की केंद्र भी है। विश्व की महान संस्कृतियों-सभ्यताओं का जन्म भी न केवल नदियों के किनारे हुआ, बल्कि वे वहां पनपी भी हैं। 

वेदकाल के हमारे ऋषियों ने पर्यावरण संतुलन के सूत्रों के दृष्टिगत नदियों, पहाड़ों, जंगलों व पशु-पक्षियों सहित पूरे संसार की और देखने की सहअस्तित्व की विशिष्ट अवधारणा को विकसित किया है। उन्होंने पाषाण में भी जीवन देखने का जो मंत्र दिया, उसके कारण देश में प्रकृति को समझने व उससे व्यवहार करने की परंपराएं जन्मीं। यह भी सच है कि कुछेक दशक पहले तक उनका पालन भी हुआ, लेकिन पिछले 40-50 बरसों में अनियंत्रित विकास और औद्योगीकरण के कारण प्रकृति के तरल स्नेह को संसाधन के रूप में देखा जाने लगा, श्रद्धा-भावना का लोप हुआ और उपभोग की वृत्ति बढ़ती चली गई। चूंकि नदी से जंगल, पहाड़, किनारे, वन्य जीव, पक्षी और जन जीवन गहरे तक जुड़े हैं, इसलिए जब नदी पर संकट आया, तब उससे जुड़े सभी सजीव-निर्जीव प्रभावित हुए बिना न रहे और उनके अस्तित्व पर संकट मंडराने लगा। असल में जैसे-जैसे सभ्यता का विस्तार हुआ, प्रदूषण ने नदियों के अस्तित्व को ही संकट में डाल दिया। 

लिहाजा, कहीं नदियां गर्मी का मौसम आते-आते दम तोड़ देती हैं, कहीं सूख जाती हैं, कहीं वह नाले का रूप धारण कर लेती हैं और यदि कहीं उनमें जल रहता भी है तो वह इतनी प्रदूषित हैं कि वह पीने लायक भी नहीं रहता है। देखा जाए तो प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने में भी हमने कोताही नहीं बरती। वह चाहे नदी जल हो या भूजल, जंगल हो या पहाड़, सभी का दोहन करने में कीर्तिमान बनाया है। हमने दोहन तो भरपूर किया, उनसे लिया तो बेहिसाब, लेकिन यह भूल गए कि कुछ वापस देने का दायित्व हमारा भी है। नदियों से लेते समय यह भूल गए कि यदि जिस दिन इन्होंने देना बंद कर दिया, उस दिन क्या होगा? आज देश की सभी नदियां वह चाहे गंगा, यमुना, नर्मदा, ताप्ती हो, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी हो, ब्रह्मपुत्र, सतलुज, रावी, व्यास, झेलम या चिनाब हो या फिर कोई अन्य या इनकी सहायक नदियां। ये हैं तो पुण्य सलिला, लेकिन इनमें से एक भी ऎसी नहीं है, जो प्रदूषित न हो। 

असल में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का खामियाजा सबसे ज्यादा नदियों को ही भुगतना पड़ा है। सर्वाधिक पूज्य धार्मिक नदियों गंगा-यमुना को लें, उनको हमने इस सीमा तक प्रदूषित कर डाला है कि दोनों को प्रदूषण मुक्त करने के लिए अब तक करीब 15 अरब रूपये खर्च किए जा चुके हैं, फिर भी उनकी हालत 20 साल पहले से ज्यादा बदतर है। मोक्षदायिनी राष्ट्रीय नदी गंगा को मानवीय स्वार्थ ने इतना प्रदूषित कर डाला है कि कन्नौज, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी और पटना सहित कई एक जगहों पर गंगाजल आचमन लायक भी नहीं रहा है। यदि धार्मिक भावना के वशीभूत उसमें डुबकी लगा ली तो त्वचा रोग के शिकार हुए बिना नहीं रहेंगे।कानपुर से आगे का जल पित्ताशय के कैंसर और आंत्रशोध जैसी भयंकर बीमारियों का सबब बन गया है। यही नहीं, कभी खराब न होने वाला गंगाजल का खास लक्षण-गुण भी अब खत्म होता जा रहा है। गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के प्रो. बी.डी. जोशी के निर्देशन में हुए शोध से यह प्रमाणित हो गया है। 

दिल्ली के 56 फीसदी लोगों की जीवनदायिनी, उनकी प्यास बुझाने वाली यमुना आज खुद अपने ही जीवन के लिए जूझ रही है। जिन्हें वह जीवन दे रही है, अपनी गंदगी, मलमूत्र, उद्योगों का कचरा, तमाम जहरीला रसायन व धार्मिक अनुष्ठान के कचरे का तोहफा देकर वही उसका जीवन लेने पर तुले हैं। असल में अपने 1376 किमी लंबे रास्ते में मिलने वाली कुल गंदगी का अकेले दो फीसदी यानी 22 किमी के रास्ते में मिलने वाली 79 फीसदी दिल्ली की गंदगी ही यमुना को जहरीला बनाने के लिए काफी है। यमुना की सफाई को लेकर भी कई परियोजनाएं बन चुकी हैं और यमुना को टेम्स बनाने का नारा भी लगाया जा रहा है, लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात रहे हैं। देश की प्रदूषित हो चुकी नदियों को साफ करने का अभियान पिछले लगभग 20 साल से चल रहा है। 

इसकी शुरूआत राजीव गांधी की पहल पर गंगा सफाई अभियान से हुई थी। अरबों रूपये खर्च हो चुके हैं, लेकिन असलियत है कि अब भी शहरों और कस्बों का 70 फीसदी गंदा पानी बिना शोधित किए हुए ही इन नदियों में गिराया जा रहा है। नर्मदा को लें, अमरकंटक से शुरू होकर विंध्य और सतपुड़ा की पहाडियों से गुजरकर अरब सागर में मिलने तक कुल 1,289 किलोमीटर की यात्रा में इसका अथाह दोहन हुआ है। 1980 के बाद शुरू हुई इसकी बदहाली के गंभीर परिणाम सामने आए। यही दुर्दशा बैतूल जिले के मुलताई से निकलकर सूरत तक जाने वाली और आखिर में अरब सागर में मिलने वाली सूर्य पुत्री ताप्ती की हुई, जो आज दम तोड़ने के कगार पर है। तमसा नदी बहुत पहले विलुप्त हो गई थी। बेतवा की कई सहायक नदियों की छोटी-बड़ी जल धाराएं भी सूख गई हैं। 

आज नदियां मलमूत्र विसर्जन का माध्यम बनकर रह गई हैं। ग्लोबल वार्मिग का खतरा बढ़ रहा है और नदी क्षेत्र पर अतिक्रमण बढ़ता जा रहा है और जल संकट और गहराएगा ही। ऎसी स्थिति में हमारे नीति-नियंता नदियों के पुनर्जीवन की उचित रणनीति क्यों नहीं बना सके, जल के बड़े पैमाने पर दोहन के बावजूद उसके रिचार्ज की व्यवस्था क्यों नहीं कर सके, वर्षा के पानी को बेकार बह जाने देने से क्यों नहीं रोक पाए और अतिवृष्टि के बावजूद जल संकट क्यों बना रहता है, यह समझ से परे है। वैज्ञानिक बार-बार चेतावनी दे रहे हैं कि यदि जल संकट दूर करने के शीघ्र ठोस कदम नहीं उठाए गए तो बहुत देर हो जाएगी और मानव अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।