नदियां लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
नदियां लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

कानून से होता अन्याय



राजस्थान में वन अधिकार कानून की मनमानी व्याख्या कर अधिकारियों द्वारा आदिवासियों को भूमिहीन बनाने का सिलसिला निरंतर जारी है। विगत दिनों जयपुर में हुई जनसुनवाई में सरकारी अधिकारियों तक ने इस विसंगति को स्वीकार किया है। देखना है कि क्या भविष्य में स्थितियों में सुधार होगा

देश में आदिवासियों में उमड़ते असंतोष पर हाल के समय में चिंता तो बहुत व्यक्त की गई है, पर इस असंतोष के सबसे बड़े कारण को दूर करने के असरदार उपाय अभी तक नहीं उठाए गए हैं। इस असंतोष का प्रमुख कारण है आदिवासियों की जमीन का उनसे निरंतर छिनते जाना। यह एक ऐतिहासिक प्रक्रिया रही है, जो आज तक न केवल जारी है अपितु समय के साथ और भी जोर पकड़ रही है। आदिवासी वन भूमि हकदारी कानून 2006 के अंतर्गत ऐतिहासिक अन्याय दूर करने का प्रयास किया गया है, परंतु इस कानून का क्रियान्वयन भी ठीक तरह से नहीं हुआ। बहुत से सही दावे खारिज कर दिए गए व इस बारे में आदिवासियों या परंपरागत वनवासियों को निर्णय की सूचना तक नहीं दी गई। आदिवासियों के भूमि-अधिकारों के हनन पर ऐसे अनेक महत्वपूर्ण तथ्य 21 मार्च को राजस्थान की राजधानी जयपुर में आयोजित एक जन-सुनवाई में सामने आए। इस जन-सुनवाई का आयोजन राजस्थान आदिवासी अधिकार संगठन व जंगल जमीन जन आंदोलन ने किया था। अनेक भुक्तभोगी आदिवासियों व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बहुत से उदाहरण देते हुए यह स्पष्ट किया कि कानूनी प्रावधानों का उल्लंघन करते हुए आदिवासियों की जमीन बड़े पैमाने पर कैसे छिनी व वे अनेक स्थानों पर अपने ही घर में कैसे बेघर बनाए गए।

उदयपुर व सिरोही जिले में बने एक राजमार्ग में 1816 खातेदारों की जमीनें गई, जिनमें से 1473 आदिवासी हैं। इनमें से अनेक को आश्चर्यजनक हद तक कम मुआवजा दिया गया। लगभग 320 आदिवासी परिवारों को 1000 रुपए से कम मुआवजा मिला व 668 परिवारों को 5000 रुपए से कम मुआवजा मिला। रताराम गरासिया जैसे व्यक्तियों ने बहुत कम मुआवजा लेने से इंकार किया तो उन्हें अब तक मुआवजा ही नहीं मिला। माही व कदना जैसे अनेक बांधों से विस्थापित हुए हजारों परिवार आज तक दर-दर भटक रहे हैं। उनकी क्षति पूर्ति बहुत ही कम की गई। उन्हें 1000 रुपए प्रति बीघे से भी कम का मुआवजा दिया गया तथा ऐसे स्थानों पर बसने को मजबूर किया गया जहां खेती व आवास की स्थिति कानूनी तौर पर पूरी तरह सुरक्षित नहीं थी। वन-अधिकार कानून बनने पर उनके मामलों पर विशेष सहानुभूति से विचार करना जरूरी था लेकिन उन्हें आज तक न्याय नहीं मिला है। ऐसे अनेक परिवारों को ऐसी जगह बसने को कहा गया जहां पहले से आदिवासी रह रहे थे। इस तरह आदिवासियों में आपसी झगड़े की स्थिति उत्पन्न कर दी गई।

शहरीकरण के साथ विभिन्न शहरों के आस-पास की मंहगी होती आदिवासियों की जमीन पर भू-माफिया अपना कब्जा जमा रहे हैं। प्रतापगढ़ जैसे अनेक शहरों में आस-पास के अनेक किलोमीटर के इलाकों में यह प्रवृत्ति देखी जा सकती है। उद्योगों व बिजलीघरों के नाम पर भी आदिवासियों से जमीनें बहुत सस्ते में ली गई हैं। इसमें से जिस जमीन पर उद्योग नहीं लगे वह भी आदिवासियों को लौटाई तक नहीं गई। प्रायः विभिन्न परियोजनाओं के लिए जितनी जमीन की जरूरत होती है, उससे ज्यादा जमीन ले ली जाती है। बढ़ते खनन से भी आदिवासी बुरी तरह प्रभावित हैं। कई मामले ऐसे भी हैं, जहां सरकारी जरूरत बता कर जमीन ली गई पर बाद में इसे निजी कंपनी को बेच दिया गया।

यह एक क्रूर विडंबना है कि कानून में आदिवासियों के भूमि-अधिकारों की रक्षा की व्यवस्था के बावजूद आदिवासियों के हाथों से निरंतर भूमि छिनती जाए। यदि अनुसूचित जनजातीय क्षेत्रों के लिए बने वर्ष 1996 के विशेष पंचायत कानून (जिसे संक्षेप में पेसा कानून कहा जाता है) का ठीक से क्रियान्वयन होता तो इससे भी आदिवासी भूमि अधिकारों को बचाने में मदद मिल सकती थी। पर इस कानून का पालन राजस्थान सहित किसी भी राज्य में नहीं हो रहा है। इस कानून के नियम राज्य में बहुत देरी से वर्ष 2011 में तैयार किए गए व ये नियम भी कानून की मूल भावना के अनुरूप नहीं हैं।


जिस कानून से लोगों को बहुत उम्मीदें थीं, उससे यदि किसी की क्षति होती है व उसकी भूमि पहले से कम होती है तो इससे असंतोष और फैलेगा। कार्यकर्ताओं व गांववासियों के साथ जन-सुनवाई में मौजूद अधिकारियों ने भी कहा कि इस कानून के क्रियान्वयन में तुरंत सुधार होने चाहिए इसके साथ आदिवासियों की भूमि की रक्षा के लिए अन्य असरदार कदम उठाए जाने की जरूरत पर भी सहमति बनी।

इस तरह से वायदे कई बार किए गए कि वन्य जीव संरक्षण कानून में सुधार कर इस कानून के अंतर्गत होने वाले विस्थापन को न्यूनतम किया जाएगा। पर जन-सुनवाई में कार्यकर्ताओं व गांववासियों ने बताया कि कुंभलगढ़ राष्ट्रीय पार्क जैसी परियोजनाओं के कारण आदिवासियों व अन्य गांववासियों के सामने बड़े पैमाने पर विस्थापन का खतरा मंडरा रहा है। इस राष्ट्रीय पार्क के क्षेत्र में राजसमंद, उदयपुर व पाली जिले के 128 गांव आते हैं। जहां एक ओर कई परियोजनाओं से जमीन छिन रही है, वहां भूमिहीन परिवारों में भूमि-वितरण का कार्य बहुत कमजोर है। भूमि के कागज देना भर पर्याप्त नहीं है, जरूरत तो इस बात की है कि वास्तव में भूमि पर कब्जा मिले व जिन्हें भूमि आबंटित हुई है वे वास्तव में इस भूमि को जोत सकें।

वन अधिकार कानून 2006 से आदिवासियों व अन्य परंपरागत वनवासियों को बड़ी उम्मीदें थीं पर इस जन-सुनवाई में राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों के जो आंकड़े प्रस्तुत किए गए, उससे पता चलता है कि बड़े पैमाने पर दावे खारिज हुए हैं। जो दावे स्वीकृत हुए हैं, उनमें से अधिकांश को आंशिक स्वीकृति ही मिली है। उदाहरण के लिए कोई आदिवासी चार बीघा जमीन जोत रहा था व उसे एक बीघे की स्वीकृति मिल गई तो नई कानूनी व्यवस्था के अनुसार उसे तीन बीघा जमीन छोड़ना पड़ेगा। ऐसे अनेक मामलों की पैरवी करने वाले अधिवक्ता व कार्यकर्ता रमेश नंदवाना ने बताया कि ऐसे मामले जिनमें पूरी स्वीकृति मिली है के मात्र 10 प्रतिशत ही होने की संभावना है।

इसके अतिरिक्त सामूहिक भूमि के अधिकांश दावे अस्वीकृत हुए हैं। अन्य परंपरागत वनवासियों (जो आदिवासी के रूप में स्वीकृत नहीं हैं) के अधिकांश दावों को अस्वीकृत कर दिया गया है। इतना ही नहीं, जिन परिवारों के दावे खारिज हुए हैं उन्हें सामान्यतः इसकी जानकारी भी नहीं दी जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि वे समय पर अपील भी नहीं कर पाते हैं। जिस कानून से लोगों को बहुत उम्मीदें थीं, उससे यदि किसी की क्षति होती है व उसकी भूमि पहले से कम होती है तो इससे असंतोष और फैलेगा। कार्यकर्ताओं व गांववासियों के साथ जन-सुनवाई में मौजूद अधिकारियों ने भी कहा कि इस कानून के क्रियान्वयन में तुरंत सुधार होने चाहिए 

गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

नदियां जोड़ो, पर क्यों


नदी जोड़ो परियोजना के लिए ऐसे किसी भी प्रोजेक्ट की तुलना में कहीं ज्यादा जमीन की जरूरत होगी। तब क्या सुप्रीम कोर्ट यह मान लेगा कि उन इलाकों के किसानों के लिए जमीन का दर्जा मां के बजाय किसी और चीज का है? इन कानूनी और भावनात्मक पहलुओं को एक तरफ रख दें तो नदी जोड़ो परियोजना में सबसे बड़ी अड़चन पर्यावरण की ओर से पैदा होने वाली है।
एनडीए के शासनकाल में प्रस्तावित 'नदियां जोड़ो' परियोजना को कुछ ज्यादा ही गंभीरता से लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने न केवल मौजूदा सरकार को इसे अमल में उतारने का निर्देश दिया है, बल्कि अपनी तरफ से इस पर नजर रखने के लिए एक कमेटी भी गठित कर दी है। सरकार की भी बलिहारी है कि इसका कड़ा प्रतिवाद करना उसे जरूरी नहीं लगा। जिस समय इस परियोजना का प्रस्ताव आया था, हर तरफ इसकी काफी वाहवाही हुई थी। कागज पर इसका सम्मोहन आज भी कम नहीं हुआ है। लेकिन इसके दूसरे पहलुओं पर नजर डालने से स्पष्ट हो जाएगा कि यह जब तक कागजों पर रहे, तभी तक अच्छी है, क्योंकि इसके जमीन पर आते ही कई तरह की आफतें खड़ी हो जाएंगी। इस परियोजना में तो तीस से ज्यादा नदियों को जोड़ने की बात है।

पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और राजस्थान के बीच सतलुज-यमुना लिंक नहर की हैसियत इसके सामने कुछ भी नहीं है। इसके बावजूद पंजाब अपने हिस्से का एक लीटर पानी भी कहीं और जाने देने को राजी नहीं है और उसे इसके लिए बाध्य करने का कोई तरीका आज तक नहीं खोजा जा सका है। कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच ब्रिटिश काल से ही कायम कावेरी जल विवाद इतना पेचीदा हो चुका है कि मुल्लापेरियार बांध की ऊंचाई बढ़ाने या इसे नए सिरे से बनवाने के प्रस्ताव तक को दोनों राज्यों की सरकारें अपने-अपने अस्तित्व के लिए चुनौती मान रही हैं। ऐसे में नदी जोड़ो परियोजना कितने राज्यों के बीच किस-किस तरह के विवादों का विषय बनेगी और इसका नतीजा देश के लिए कैसा होगा, यह कोई भी सोच सकता है।

दूसरा पहलू इस परियोजना के लिए जमीनों के अधिग्रहण का है। नोएडा एक्सटेंशन के मामले में आए सुप्रीम कोर्ट के निर्देश में यह भावनात्मक वक्तव्य भी शामिल था कि जमीन किसानों की मां है। फिलहाल देश का कोई कोना ऐसा नहीं है जहां सड़क, रेल, बिजलीघर, खान, उद्योग या आवासीय कॉलोनियां बनाने के लिए किए गए भूमि अधिग्रहण के खिलाफ उग्र आंदोलन न चल रहे हों। नदी जोड़ो परियोजना के लिए ऐसे किसी भी प्रोजेक्ट की तुलना में कहीं ज्यादा जमीन की जरूरत होगी। तब क्या सुप्रीम कोर्ट यह मान लेगा कि उन इलाकों के किसानों के लिए जमीन का दर्जा मां के बजाय किसी और चीज का है?

नदियों को खत्म करने की पूरी तैयारीइन कानूनी और भावनात्मक पहलुओं को एक तरफ रख दें तो नदी जोड़ो परियोजना में सबसे बड़ी अड़चन पर्यावरण की ओर से पैदा होने वाली है। नदियां अपना स्वाभाविक ढाल पकड़ती हैं और उनके पानी की दिशा अगर नहरों के जरिये मोड़ दी जाती है तो कुछ साल बाद वे जमीन को दलदली और खारा बना कर अपना बदला निकालती हैं। हरित क्रांति के दौरान नहरों का मजा ले चुके कुछ राज्य फिलहाल इसकी सजा भुगत रहे हैं। ऐसे में कागज पर मोहक सिंचाई योजनाएं बनाने और उन पर अमल के लिए अदालती निर्देश का इंतजार करने से बेहतर यही होगा कि सरकारें बारिश का पानी जमा करने और ग्राउंड वाटर रीचार्ज जैसे उपायों पर अपना ध्यान केंद्रित करें।

बुधवार, 11 अप्रैल 2012

संकट में पानी


समुद तटीय इलाकों और सागरों पर पर्यावरण को विनाश करने वाली क्रियाओं के कारण महासागर भारी खतरे में है।

- महासागर एक गतिशील और जटिल व्यवस्था है जो जीवन के लिए अत्यन्त महत्तवपूर्ण है। महासागरों में मौजूद असीम सम्पदा समान रूप से वितरित नहीं है। उदाहरण के लिए, सर्वाधिक समुद्री जैव विविधता समुद्र तल पर पाई जाती है। महासागरों की उत्पादकता को निर्धारित करने वाली पर्यावरणीय परिस्थितियां समय और स्थान के अनुसार भिन्न-भिन्न हैं।

- सर्वाधिक महत्तवपूर्ण फिशिंग ग्राउंड समुद्र तट से 200 से भी कम मील क्षेत्र के भीतर महाद्वीपीय समतलों पर पाए जाते हैं। ये फिशिंग ग्राउंड भी असमान रूप से देखे गए हैं और अधिकांशत: स्थानीय हैं।

- 2004 में आधे से भी अधिक समुद्र लैंडिंग फिशिंग, समुद्र तट के 100 किमी. के भीतर पकड़ी गई है, जिसकी गहराई आमतौर पर 200 मी. है और यह विश्व के महासागरों का 7.5 फीसदी से भी कम दायरा कवर करता है।

- ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज ने महासागरों की उत्पादकता और स्थायित्व के लिए बहुत सी चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। उष्णकटिबन्धीय क्षेत्रों में उथले पानी में, तापमाप में, 3 डिग्री से 0 डिग्री तक की वृद्धि 2100 तक वार्षिक या द्विवार्षिक मूंगों का सफाया हो सकता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि 2080 तक विश्व में 80-100 फीसदी तक मूंगें खत्म हो जाएंगे।



जब वातावरण में कार्बन की मात्रा बढ़ जाती है तब कार्बन महासागरों में एकत्रित हो जाता है और एक प्राकृतिक रासायनिक प्रक्रिया के तहत उसका अम्लीकरण होने लगता है जिसका प्रभाव ठंडे पानी, मूगों और सीपियों पर पड़ता है।

- समुद्र तटों पर और जमीन में विकासात्मक क्रियाएं 2050 तक, आवासीय समुद्रतटों की क्रियाओं की अपेक्षा अधिक प्रभावित कर सकती है और पूरे समुद्र प्रदूषण के 80 फीसदी से भी अधिक खतरा पैदा कर सकती हैं।

- बढ़ता हुआ विकास, प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन सभी मृत समुद्री क्षेत्र (कम ऑक्सीजन वाले क्षेत्र) बढ़ा रहे हैं। बहुत से तो प्राथमिक फिशिंग ग्राउंड पर या उसके आसपास है, जो फिश स्टॉक को भी प्रभावित कर रहे हैं। ऐसे क्षेत्र 2013 में 149 से बढ़कर 2006 में 200 से भी अधिक हो गए हैं।

- आक्रामक प्रजातियां भी प्राथमिक फिशिंग ग्राउंड के लिए खतरा हैं। गिट्टी पोत (पानी, जो बन्दरगाहों और खाड़ी से, जहाजों द्वारा स्थिरता बनाए रखने के लिए ले जाया जाता है) भी आक्रामक प्रजातियों को लाने में महत्वपूर्ण तत्व हैं।

- महासागरों की देखभाल के लिए आंकड़ों और धन का अभाव, समुद्री पर्यावरण को और ज्यादा बदतर बना रहा है। देशों को समुद्रों पर जलवायु और गैर-जलवायुगत दवाबों को कम करने के लिए तत्काल उपाय करना चाहिए ताकि संसाधनों को बचाया जा सके। इसके लिए दुनिया भर में सामुद्रिक नीतियों में परिवर्तन की आवश्यकता है।

मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

गंगा एक कारपोरेट एजेंडा



गंगा की अविरलता-निर्मलता विश्व बैंक के धन से नहीं, जन-जन की धुन से आएगी। गंगा संरक्षण की नीति, कानून बनाने तथा उन्हें अमली जामा पहनाने से आएगी। जानते हुए भी क्यों हमारी सरकारें ऐसा नहीं कर रहीं। ऐसा न करने को लेकर राज्य व केंद्र की सरकारों में गजब की सहमति है। क्यों? पनबिजली परियोजनाओं में जांघिया-बनियान बनाने से लेकर साइकिल बनाने वालों तक का पैसा लगा है। क्योंकि गंगा, अब राजनैतिक नहीं, एक कार्पोरेट एजेंडा है।
बिस्मिल्लाह खां ने कहा, ‘गंगा और संगीत एक-दूसरे के पूरक हैं।’ है कोई, जो गंगा का उसका बिसरा संगीत लौटा दे? है कोई, जो गंगोत्री ग्लेशियर का खो गया गौमुखा स्वरूप वापस ले आए? गंगा के मायके में उसका अल्हड़पन, मैदान में उसका यौवन और ससुराल में उसकी गरिमा देखना कौन नहीं चाहता? कौन नहीं चाहता कि मृत्यु पूर्व दो बूंद पीने की लालसा वाला प्रवाह लौट आए? गंगा फिर से सुरसरि बन जाए? मैं उस देश का वासी हूं,जिस देश में गंगा बहती है’- इस गीत को गाने का गौरव भला कौन हिंदुस्तानी नहीं चाहेगा? लेकिन यह हो नहीं सकता। जिस तरह बिस्मिल्लाह की शहनाई लौटाने की गारंटी कोई नहीं दे सकता, गंगा की अविरलता और निर्मलता की गारंटी देना भी अब किसी सरकार के वश की बात नहीं है। इसलिए नहीं कि यह नामुमकिन है; इसलिए कि अब पानी एक ग्लोबल सर्विस इंडस्ट्री है और भारतीय जलनीति कहती है-वाटर इज कमोडिटी। जल वस्तु है तो फिर गंगा मां कैसे हो सकती है? गंगा रही होगी कभी स्वर्ग में ले जाने वाली धारा, साझी संस्कृति, अस्मिता और समृद्धि की प्रतीक, भारतीय पानी- पर्यावरण की नियंता, मां वगैरह। ये शब्द अब पुराने पड़ चुके। गंगा, अब सिर्फ बिजली पैदा करने और पानी सेवा उद्योग का कच्चा माल है। मैला ढोने वाली मालगाड़ी है। कॉमन कमोडिटी मात्र! 

हम पानी के वैश्विक कारोबारियों के चंगुल में


जो दुनिया चलाते हैं, उन्हें पानी से ज्यादा पानी की सेवा देने में रुचि है। पानी की सेवा में सबसे बड़ी मेवा है। सेवा दो, मेवा कमाओ। इसी कमाई के बूते तो वे दुनिया की प्रथम सौ कंपनियों में स्थान रखती हैं। आरडब्ल्यूई ग्रुप, स्वेज, विवन्डी, एनरॉन आदि। विवन्डी विश्व में पानी की सबसे बड़ी सेवादाता है। स्वेज 120 देशों की सेवा करती है तो भला भारत को कैसे छोड़ दे? लेकिन जब तक भारत में गंगा जैसा सर्वश्रेष्ठ प्रवाह घटेगा नहीं, गुणवत्ता मरेगी नहीं, आप शुद्ध पानी की सेवा के लिए किसी को क्यों आमंत्रित करेंगे? सो प्रवाह घटाना है, गुणवत्ता मारनी है। फिर सेवा लेने के लिए पैसा न हो तो कर्ज देने के लिए वे हैं न; विश्व बैंक, यूरोपियन कमीशन और एडीबी। शर्तों में बांधने डब्ल्यूटीओ और गैट्स। उनका अनुमान नहीं, बिजनेस टारगेट है कि 2015 तक दुनिया जल और उसकी स्वच्छता के लिए 180 बिलियन डॉलर खर्च करे। 2025 तक हर तीन में से दो आदमी स्वच्छ जल की कमी महसूस करे। 2050 तक दुनिया की 70 प्रतिशत आबादी पानी का संकट झेले। 

यह तभी होगा जब भूजल गिरे। इसके लिए गांवों को कस्बा, कस्बों को शहर और शहरों को महानगर बनाओ। बंद पाइप और बंद बोतल पानी की खपत बढ़ाओ। सिर्फ जल संचयन! जल संचयन! चिल्लाओ। करो मत। जरूरत पड़े तो ट्यूबवेल, बोरवेल और समर्सिबल से धकाधक पानी खींचते जाओ। फिर पानी की कमी होने लगे तो जलनियंत्रक प्राधिकरण बनाओ। हमें बुलाओ। पीपीपी चलाओ। बूट अपनाओ। पानी की कीमतें बढ़ाओ। याद रखो! पानी खींचने वाली कोक, पेप्सी और व्हिस्की पीने के लिए है। पानी लड़ने और मरने के लिए। एक दिन भूजल खाली हो ही जाएगा और आप लड़ने भी लगोगे।

भारत के 70 फीसद भूजल भंडार खाली


1990 के 230 लाख की तुलना में आज भारत में 630 लाख कस्बे हैं। भारत में आपके 70 प्रतिशत भूजल भंडार खाली हो चुके हैं और आप पानी के लिए लड़ने भी लगे हो और पानी की बीमारियों से बीमार होकर मरने भी। स्वच्छ पानी के बाजार का जो लक्ष्य हमने 2015 के लिए रखा था, आपने तो उसे 2012 में ही हासिल करा दिया। अब भारत की नदियों को मरना चाहिए। नदियां मरेंगी, तभी धरती सूखेगी, तभी खेती मरेगी। लोग मलीन बस्तियों को पलायन करेंगे। खाद्य सुरक्षा घटेगी। कीमतें बढ़ेंगी। खाद्य सुरक्षा कानून बनाना पड़ेगा। खाद्य आयात बढ़ेगा। जीडीपी का ढोल फूटेगा। साथ ही तुम्हारा भी। तुम हमें सिक्योरिटी मनी दे देना। हम तुम्हें फूड, वाटर.. जो-जो कहोगे, सब की सिक्योरिटी दे देंगे। इसके लिए नदी-जोड़ करो। नदियों से जलापूर्ति बढ़ाओ। बिजली बनाने के नाम पर पानी रोको। नदियों के किनारे एक्सप्रेस-वे बनाओ। 

इंडस्ट्रीज को पानी की कमी का आंकड़ा दिखाओ। नदियों में अधिक पानी का फर्जी आंकड़ा दिखाकर उनके किनारे-किनारे इंडस्ट्रीयल कॉरीडोर बनाओ। टाउनशिप बनाओ। उनका कचरा नदियों में बहाओ। ‘दो बूंद जिंदगी की’ से आगे बढ़कर यूनीसेफ, विश्व स्वास्थ्य संगठन की राय को और बड़ा बाजार दिलाओ। एक दिन तुम असल में अपाहिज हो जाओगे। आबादी खुद ब खुद घट जाएगी। न गरीब रहेगा, न गरीबी। तुम भी हमारी तरह विकसित कहलाओगे। आज भारत में यही सब हो रहा है। यदि इसके पीछे कोई इशारा न होता, तो क्या गांव धंसते रहते, धाराएं सूखती रहतीं, विस्फोटों से पहाड़ हिलते रहते, जीवों का पर्यावास छिनता रहता और सरकारें पनबिजली परियोजनाओं को मंजूरी देती रहतीं? भूकंप में विनाश का आंकलन की बिना पर इंदिराजी द्वारा रोके जाने और सरकारी समिति द्वारा रद्द कर दिए जाने के बावजूद टिहरी परियोजना को आखिर मंजूरी क्यों दे दी गई? 

मनाही के बावजूद जारी क्यों हैं पनबिजली परियोजनाएं



अलकनंदा और भागीरथी पर प्रस्तावित यदि 53 बिजली परियोजनाएं बन गई तो दोनों नदियां सूख जाएंगी’-कैग की इस चेतावनी के बावजूद क्या हम परियोजनाएं रोक रहे हैं? तय मानक टरबाइन में नदी का 75 प्रतिशत पानी डालने की इजाजत देते हैं। उत्तराखंड की ऊर्जा नीति 90 प्रतिशत की इजाजत देती है। इस पर कैग की आपत्ति के बावजूद क्या ऊर्जा नीति बदली? परियोजनाओं के लिए और नदी के लिए हमें कर्ज देने वाले संगठनों के सदस्य देश अपने यहां बड़े और मंझोले बांधों को तोड़ रहे हैं और हमें बनाने के लिए कर्ज दे रहे हैं। क्यों? हमें मालूम है कि मलशोधन का वर्तमान तंत्र फेल है। फिर भी, हम उसी में पैसा क्यों लगा रहे हैं? मालूम है कि उद्योग नदियों में जहर बहा रहे हैं। फिर भी उन्हें नदियों से दूर भगाते क्यों नहीं? प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड प्रदूषण नियंत्रित करने के बजाय सिर्फ ‘प्रदूषण नियंत्रण में है’ के प्रमाणपत्र ही क्यों बांट रहे हैं? नदियों को तटबंधों में बांधने की भूल कोसी-दामोदर में हम झेल रहे हैं। फिर भी एक्सप्रेसवे नामक तटबंध क्यों बना रहे हैं? दिल्ली-मुंबई कॉरीडोर में आने वाली नदियों में अधिक पानी का गलत आंकलन आगे बढ़ा रहे हैं। क्यों? 

हमें मालूम है कि राज्यों पर जवाबदेही टालने के बजाय केंद्र को एक जिम्मेदार भूमिका निभानी होगी। गंगा की अविरलता-निर्मलता विश्व बैंक के धन से नहीं, जन-जन की धुन से आएगी। गंगा संरक्षण की नीति, कानून बनाने तथा उन्हें अमली जामा पहनाने से आएगी। जानते हुए भी क्यों हमारी सरकारें ऐसा नहीं कर रहीं। ऐसा न करने को लेकर राज्य व केंद्र की सरकारों में गजब की सहमति है। क्यों? इन सभी क्यों का जवाब एक ही है; क्योंकि गंगा में गंगा नहर और शारदा सहायक के रास्ते विश्व बैंक का निवेश है। एक्सप्रेस वे की परिकल्पना में उसका भी हाथ है। सोनिया विहार संयंत्र के माध्यम से दिल्ली वालों के पानी के बिल का पैसा स्वेज को कमाई करा रहा है। पनबिजली परियोजनाओं में जांघिया-बनियान बनाने से लेकर साइकिल बनाने वालों तक का पैसा लगा है। क्योंकि गंगा, अब राजनैतिक नहीं, एक कार्पोरेट एजेंडा है।
गंगा नदी पर बनते बांध परियोजनाएं

सोमवार, 9 अप्रैल 2012

सरस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता

आज सिंधु घाटी की सभ्यता प्राचीनतम सभ्यता जानी जाती है। नाम के कारण इसके शोध की दिशा बदल गयी। वास्तव में यह सभ्यता एक बहुत बड़ी सभ्यता का अंश है, जिसके अवशिष्ट चिन्ह उत्तर में हिमालय की तलहटी (मांडा) से लेकर नर्मदा और ताप्ती नदियों तक और उत्तर प्रदेश में कौशाम्बी से गांधार (बलूचिस्तान) तक मिले हैं। अनुमानत: यह पूरे उत्तरी भारत में थी। यदि इसे किसी नदी की सभ्यता ही कहना हो तो यह उत्तरी भारत की नदियों की सभ्यता है। इसे कुछ विद्वान उनके बीच उस समय प्रवाहित प्राचीन सरस्वती नदी की सभ्यता करते हैं। यह नदी प्राचीन काल में शिवालिक पहाड़ियों से निकल कर पूर्व में गंगा-यमुना का क्षेत्र और पश्चिम में सतलुज-सिंधु के क्षेत्र के बीच बहकर राजस्थान को सिंचित करती थी, जहाँ आज घग्घर का सूखा ताल है, और कच्छ के रन में ( जो उसी का बचा भाग कहा जाता है) सागर से मिलती थी। कालांतर में बदलती जलवायु और राजस्थान की ऊपर उठती भूमि के कारण यह सूख गयी। इसका जल यमुना ने खींच लिया।

इस सभ्यता का क्षेत्र संसार की सभी प्राचीन सभ्यताओं के क्षेत्र से अनेक गुना बड़ा और विशाल था। अन्य सभी का कार्यक्षेत्र तुलना में बहुत छोटा- सुमेर और फिर बाबुल (Babylonia) दजला (संस्कृत : दृषद्वती) और फरात नदियों के बीच की घाटी में, हित्ती सभ्यता अनातोलिया के कुछ भाग में, प्राचीन यहूदी सभ्यता पुलस्तिन् (Palestine) की छोटी घाटी के आसपास, यूनान, क्रीट तथा रोम की सभ्यताएँ उनके छोटे क्षेत्रों में, मिस्त्र की प्राचीन सभ्यता नील नदी के उत्तरी भाग में, ईरान और हखामशी सभ्यता ईरान के कुछ भागों में और मंगोल एवं चीनी सभ्यताएँ ( जो उक्त सभ्यताओं की तुलना में आधुनिक थीं) के उस समय के घेरे भी सैंधव सभ्यता (आगे इसे सारस्वत सभ्यता कहेंगे) के क्षेत्र से बहुत छोटे थे। यह भी महत्वपूर्ण है कि यदि कोई मानव सभ्यता का आदि देश होगा तो उसके अवशिष्ट चिन्ह किसी विस्तृत क्षेत्र में फैले होने की संभावना है। 

अधिकांश प्राचीन सभ्यताएँ किसी साम्राज्य के सहारे बढ़ीं। इसीलिए अनेक पुरातत्वज्ञ सभ्यता और साम्राज्य दोनों का एक साथ विचार करते हैं। पर सारस्वत सभ्यता किसी साम्राज्य के साये में नहीं पली। वह युद्घ से, शिरस्त्राण एवं कवच से अपरिचित प्रतीत होती है। जो भी अस्त्र-शस्त्र थे वे साधारण थे तथा इनके विकसित या उन्नत रूप नगरों में भी उपलब्ध न थे। यहाँ तक कि शिकार के चित्र एवं दृश्य इनके नगर-गृहों में तथा भित्तियों पर नहीं मिलते। ऎसा लगता है कि सहस्त्राब्दियों से जिन्हें किसी आक्रमण का भय न था और युद्घ से सामना न पड़ा, जिन्होंने सुदीर्घ काल तक शांति-सुख भोगा उनके बीच उपजी तथा पनपी यह सभ्यता। इसी से प्रारंभ में पुरातत्वज्ञों ने इसे 'सिंधु घाटी का रहस्यमय साम्राज्य ' की संज्ञा दी। वे साम्राज्स से विलग कर किसी सभ्यता का विचार न कर सके।

इतिहासज्ञ कहते हैं कि संघर्ष और युद्घ के बीच विज्ञापन का विकास होता है। उनमें होता है विनाशकारी अस्त्र-शस्त्रों का एवं बचाव के साधनों का आविष्कार; और नए साम्राज्यों का निर्माण, जिनमें नयी सभ्यताएँ बनती-बिगड़ती हैं। ऎसा ही दृश्य आज का इतिहास प्रस्तुत करता है। इसलिए कौन आश्चर्य कि जब वे इस शांतिकाल की संस्कृति के संपर्क में आए तो उसके विस्तार ने, उसकी एकरूपता ने (जिसमें न भौगोलिक दूरी और न समय की गति चोट पहुँचा सकी) और जिसे उन्होंने 'सभ्यता की धीमी प्रगति' कहा (अर्थात शीघ्र बदल या विकास के लक्षणों का अभाव), उसने उन्हें चकित कर दिया। 'मुइन-जो-दड़ो' ('मृतकों की डीह') नगर का कम-से-कम सात बार निर्माण हुआ कहते हैं, पर प्रारंभ तथा अंत के निर्माण में अंतर नहीं दिखता। इसे देखकर उन्होंने कहना प्रारंभ किया कि जैसे बाबुल की साम्राज्यवादी सभ्यता का एक क्रमिक विकास दृष्टिगोचर होता है वैसा न होने के कारण सारस्वत सभ्यता किसी सैद्घांतिक विस्फोट (ideological explosion) का सुफल था। वे भूलते हैं कि दीर्घ शांतिकाल में ही दर्शन, विज्ञान और कलाएँ विकसित होती हैं। यह भारत की प्रकृति को दृष्टि से ओझल करना है, जिसने दीर्घकालीन शांति एवं समृद्घि देखी; जहाँ की सभ्यता किसी साम्राज्य की देन नहीं, किंतु सभ्यता की देन एक सांस्कृतिक साम्राज्य था। इसी कारण आर्य और अन्य जातियों के मध्य एक काल्पनिक संघर्ष की बात गढ़नी पड़ी।

श्री बालसुब्रमण्यम, एवं श्री पीएन बालसुब्रमण्यम जी ने टिप्पणी पर कुछ प्रश्न पूछे हैं। उन्हीं के बारे में,
आज जिसे 'सिन्धु घाटी की सभ्यता' कहते हैं, वह तो सारस्वत सभ्यता के अन्त की कहानी है। सारस्वत सभ्यता इसके पूर्व की है, जो तटीय पृथ्वी को ऊँची उठने के कारण उसे पश्चिम सिन्धु नदी की ओर जाना पड़ा। किवदन्ती है कि त्रेता युग अर्थात बड़ा युग (राम का युग) पहले आया और द्वापर (कृष्ण का युग) बाद में। अर्थात अयोध्या व गंगा का मैदान पुराना है, और पश्चिम में द्वारिका जो प्राचीन काल में सिन्धु घाटी के पूर्व मुहाने के बगल में थी बाद में।

ऋग्वेद का युग, सिन्धु घाटी की सभ्यता से पुराना है ही पर काल निश्चित करने का केवल एक ही विश्वस्त तरीका है। वह है उस घटना के बारे में वर्णित खगोलीय जानकारी। अब इस दिशा में कार्य प्रारम्भ हुआ है। (देखें डेटिंग दि इरा आफ राम-पुष्कर भटनागर) खगोलीय घटनाएँ भी अपने काल अथवा युग में दुहराती है, इसलिए अन्य साक्ष्य से देखना पड़ेगा कि यह घटना उसके पहिले वाले युग की तो नहीं है। इसमें किवदन्तियां सहायक होती है। संम्भवतः ऋग्वेद का युग जैसा डा० राम विलास शर्मा ने लिखा, उसके पहले का हो।

'जल प्रलय' की घटना। 'ग्लेशियल एज' की बर्फ पिघलने से जल-स्तर बढ़ा। उसकी एक व्याख्या मैंने अपनी पुस्तक 'कालचक्र: सभ्यता की कहानी' के अध्याय 'सम्यता की प्रथम किरणें एवं दन्तकथाएं' में यहां दी है। सम्भवतया यह भूमध्यसागर बनने की कहानी है। ऋग्वेद में उसका वर्णन न होना कोई अनहोनी बात नहीं। हम जागलिक परिप्रेक्ष्य में घटनाओं को देखें।


क्या मैदानी क्या रेतीली- सभी जगह पानी की कमी

ऐसा नहीं है कि पेयजल की समस्या केवल मैदानी क्षेत्र भरावन में ही बनी हुई है। तपती धूप और निरंतर नीचे गिरता सतर गोमती नदी तलहटी में बसें गांवों भटपुर, कटका, महीठा के डालखेड़ा, लालपुर खाले, जाजपुर, बेहड़ा, नई गढ़ी इत्यादि गांवों में भी पेयजल की समस्या से लोग जुझ रहे है। गोमती नदी के किनारे बसे भटपुर गांव व सड़क के चौराहे पर भी पेयजल की गम्भीर समस्या बनी हुई है। चौराहे पर इण्डिया मार्का नल की कमी हैं दूर-दूर से लोग यहां आते हैं परन्तु पीने के पानी की किल्लत से लोग परेशान होते हैं। रामप्रकाश तिवारी, केशव दीक्षित, अनूप, जयकेश, शैलेन्द्र आदि लोग पानी की समस्या के बारे में कहते हैं कि यहां चौराहे पर व गांव में कई स्थानों पर इण्डिया मार्का नलों की आवश्यकता है यहां भी जल स्तर तेजी से गिर रहा है।

जाजूपुर, बेहड़ा के लोग सियाराम राजेश गौतम, रामअवतार, राजाराम, रामकेशन, सुशीला, कुन्ती देवी, रिंकी आदि बताते हैं कि गांवों के कुएं सूख गए हैं। छोटे नलों से भी पानी उठाना भारी पड़ रहा है। नई फसल धान आदि के लिए बेढ़ लगाने हेतु सिंचाई जल की समस्या है। सियाराम, भगीरथ, हरीराम आदि के घरों के 200 मीटर के आसपास कोई इण्डिया मार्का नल न होने के कारण दूर से पानी ढोना पड़ता है। लोगों ने बताया कि कहीं-कहीं बिल्कुल पास-पास नल लगे हैं और कहीं-कहीं एक भी इण्डिया मार्का हैण्ड पंप नहीं है। जल ही जीवन है पर पीने के पानी की किल्लत ने उनका जीवन प्रभावित कर दिया है।

भरावन में 63 वर्षीय राजकिशोर त्रिपाठी जी ने बताया कि वे अभी हाल में ही अध्यापक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। 500 मीटर की परिधि तक कोई इण्डिया मार्का हैण्डपंप न होने से उन्हें सुबह 4 बजे ही उठकर पानी लाना पड़ता है। एक दिन का उनके घर परिवार व जानवरों को मिलाकर 60 बाल्टी का खर्चा है वे कहते हैं कि इस उम्र में इतना पानी ढोकर लाना बहुत ही कठिन है पर क्या करें पानी के बिना जिन्दा नहीं रहा जा सकता है। उन्होंने बताया कि पानी की चिन्ता में उन्हें ठीक से नींद भी नहीं आती है लगभग 80 परिवारों जिसमें एक हजार से ऊपर लोग रहते हैं के ब मोहल्ले में कोई इण्डिया मार्का हैण्डपंप न होने से लोग पानी के लिए तरस रहे हैं। श्री तिवारी जी ने बताया कि चुनाव के समय जब श्री रामपाल वर्मा जी उनके मुहल्ले व उनके दरवाजे वोट मांगने आए थे तो उन्होंने जोर से रामपाल वर्मा जिंदाबाद के नारे लगाए थे उन्हें वोट भी दिया हम उनके समर्थक भी हैं पर अब वे मंत्री जी हैं हम उन तक नल मांगने नहीं पहुंच पा रहे हैं मुझे नल की अति आवश्यकता है पूरे मोहल्ले के लिए विकट समस्या है उन्होंने बताया कि हमारे पीने के पानी की समस्या को दूर करने हेतु एक इण्डिया मार्का हैण्डपंप दिला दो हम आपके बहुत-बहुत जीवन भर आभारी रहेंगे

आखिर क्यों उफन जाती हैं नदियां

मई-जून के महीनों में जब तीन-चौथाई देश पानी के लिए त्राहि -त्राहि कर रहा था, पूर्वोत्तर राज्यों में भी बाढ़ से तबाही का दौर शुरू हो चुका था। अभी बारिश के असली महीने सावन की शुरुआत है और लगभग आधा हरियाणा, पंजाब का बड़ा हिस्सा, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार का बड़ा हिस्सा नदियों के रौद्र रूप से पानी-पानी हो गया है।


हर बार ज्यों-ज्यों मानसून अपना रंग दिखाता है, वैसे ही देश के बड़े भाग में नदियां उफन कर तबाही मचाने लगती हैं। पिछले कुछ सालों के आंकड़ें देखें तो पायेंगे कि बारिश की मात्र भले ही कम हुई है, लेकिन बाढ़ से तबाह हुए इलाके में कई गुना बढ़ोतरी हुई है। कुछ दशकों पहले जिन इलाकों को बाढ़ से मुक्त क्षेत्र माना जाता था, अब वहां की नदियां भी उफनने लगी हैं और मौसम बीतते ही, उन इलाकों में एक बार फिर पानी का संकट छा जाता है। सूखे और मरुस्थल के लिए कुख्यात राजस्थान भी नदियों के गुस्से से अछूता नहीं रह पाता है।

देश के कुल बाढ़ प्रभावित क्षेत्र का 16 फीसदी बिहार में है। यहां कोसी, गंडक, बूढ़ी गंडक, बाधमती, कमला, महानंदा, गंगा आदि नदियां तबाही लाती हैं। इन नदियों पर तटबंध बनाने का काम केन्द्र सरकार से पर्याप्त सहायता नहीं मिलने के कारण अधूरा है। यहां बाढ़ का मुख्य कारण नेपाल में हिमालय से निकलने वाली नदियां हैं। ‘बिहार का शोक’ कहे जाने वाली कोसी के ऊपरी भाग पर कोई 70 किलोमीटर लंबाई का तटबंध नेपाल में है, लेकिन इसके रखरखाव और सुरक्षा पर सालाना खर्च होने वाला कोई 20 करोड़ रुपया बिहार सरकार को झेलना पड़ता है।

हालांकि तटबंध भी बाढ़ से निबटने में सफल रहे नहीं हैं। कोसी के तटबंधों के कारण उसके तट पर बसे 400 गांव डूब में आ गए हैं। कोसी की सहयोगी कमला-बलान नदी के तटबंध का तल सिल्ट (गाद) के भराव से ऊंचा हो जाने के कारण बाढ़ की तबाही अब पहले से भी अधिक होती है। फरक्का बराज की दोषपूर्ण संरचना के कारण भागलपुर, नौगछिया, कटिहार, मुंगेर, पूर्णिया, सहरसा आदि में बाढ़ग्रस्त क्षेत्र बढ़ता जा रहा है।

बगैर सोचे समझे नदी-नालों पर बंधान बनाने के कुप्रभावों का ताजातरीन उदाहरण मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में बहने वाली छोटी नदी ‘केन’ है। केन के अचानक रौद्र हो जाने के कारणों को खोजा तो पता चला कि यह सब तो छोटे-बड़े बांधों की कारिस्तानी है। सनद रहे केन नदी, बांदा जिले में चिल्ला घाट के पास यमुना में मिलती है। केन में बारिश का पानी बढ़ता है, फिर ‘स्टाप-डेमों’ के टूटने का जल-दबाव बढ़ता है। केन क्षमता से अधिक पानी ले कर यमुना की ओर लपलपाती है। वहां का जल स्तर इतना ऊंचा होता है कि केन के प्राकृतिक मिलन स्थल का स्तर नीचे रह जाता है। रौद्र यमुना, केन की जलनिधि को पीछे धकेलती है। इसी कशमकश में नदियों की सीमाएं गांवों-सड़कों-खेतों तक पहुंच जाती हैं।

वैसे शहरीकरण, वन विनाश और खनन तीन ऐसे प्रमुख कारण हैं, जो बाढ़ विभीषिका में उत्प्रेरक का कार्य कर रहे हैं। जब प्राकृतिक हरियाली उजाड़ कर कंक्रीट का जंगल सजाया जाता है तो जमीन की जल सोखने की क्षमता तो कम होती ही है, साथ ही सतही जल की बहाव क्षमता भी कई गुना बढ़ जाती है। फिर शहरीकरण के कूड़े ने समस्या को बढ़ाया है। यह कूड़ा नालों से होते हुए नदियों में पहुंचता है। फलस्वरूप नदी की जल ग्रहण क्षमता कम होती है। पंजाब और हरियाणा में बाढ़ का कारण जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में हो रहा जमीन का अनियंत्रित शहरीकरण ही है। इससे वहां भूस्खलन की घटनाएं बढ़ रही हैं और इसका मलबा भी नदियों में ही जाता है। पहाड़ों पर खनन से दोहरा नुकसान है। इससे वहां की हरियाली उजड़ती है और फिर खदानों से निकली धूल और मलबा नदी-नालों में अवरोध पैदा करता है। हिमालय से निकलने वाली नदियों के मामले में तो मामला और भी गंभीर हो जाता है।

मौजूदा हालात में बाढ़ महज एक प्राकृतिक प्रकोप नहीं, बल्कि मानवजन्य साधनों की त्रासदी है। कुछ लोग नदियों को जोड़ने में इसका निराकरण खोज रहे हैं। हकीकत में नदियों के प्राकृतिक बहाव, तरीकों, विभिन्न नदियों के ऊंचाई-स्तर में अंतर जैसे विषयों का हमारे यहां कभी निष्पक्ष अध्ययन ही नहीं किया गया। पानी को स्थानीय स्तर पर रोकना, नदियों को उथला होने से बचाना, बड़े बांध पर पाबंदी, नदियों के करीबी पहाड़ों पर खुदाई पर रोक और नदियों के प्राकृतिक मार्ग से छेड़छाड़ को रोकना कुछ ऐसे सामान्य प्रयोग हैं, जो कि बाढ़ सरीखी भीषण विभीषिका का मुंहतोड़ जवाब हो सकते हैं।