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रविवार, 22 अप्रैल 2012

पृथ्वी दिवस 22 अप्रैल पर विशेष

Earth day, 22 April

ग्लोबल वार्मिंग आज पूरी दुनिया के लिए एक गंभीर चुनौती बन गई है। सबसे अजीब बात यह है कि जो विकसित देश इस समस्या के लिए अधिक जिम्मेदार हैं वहीं विकासशील व अन्य देशों पर इस बात के लिए दबाव बना रहे हैं कि वो ऐसा विकास न करें जिससे धरती का तापमान बढ़े। हालांकि वो खुद अपनी बात पर अमल नहीं करते लेकिन दूसरों देशों को शिक्षा देते हैं। बहरहाल बात चाहे जो हो विभिन्न देशों के आपसी विवाद में नुकसान केवल हमारी पृथ्वी का ही है।
पृथ्वी पर कल-कल बहती नदियां, माटी की सोंधी महक, विशाल महासागर, ऊंचे-ऊंचे पर्वत, तपते रेगिस्तान सभी जीवन के असंख्य रूपों को अपने में समाए हुए हैं। वास्तव में अन्य ग्रहों की अपेक्षा पृथ्वी पर उपस्थित जीवन इसकी अनोखी संरचना, सूर्य से दूरी एवं अन्य भौतिक कारणों के कारण संभव हो पाया है। इसलिए हमें पृथ्वी पर मौजूद जीवन के विभिन्न रूपों का सम्मान और सुरक्षा करनी चाहिए। परंतु पिछले कुछ दहाईयों के दौरान मानवीय गतिविधियों एवं औद्योगिक क्रांति के कारण पृथ्वी का अस्तित्व संकट में पड़ता जा रहा है। दिशाहीन विकास के चलते इंसानों ने प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया है। परिणामस्वरूप आज हवा, पानी और मिट्टी अत्यधिक प्रदूषित हो चुके हैं। इस प्रदूषण के कारण कहीं लाइलाज गंभीर बीमारियां फैल रही हैं तो कहीं फसलों की पैदावार प्रभावित हो रही है। कोयला, पेट्रोल, केरोसिन जैसे जीवाश्म ईंधनों के दहन से वातावरण में ऐसी गैसों की मात्रा बढ़ रही है जिससे पृथ्वी के औसत तापमान में इजाफा हो रहा है यानी ग्लोबल वार्मिंग की समस्या उत्पन्न होती जा रही है। जो अन्य जीवों के साथ-साथ मानव के अस्तित्व के लिए भी खतरा उत्पन्न कर रहा है।

इसकी महत्ता को समझते हुए प्रत्येक वर्ष 22 अप्रैल को विश्व पृथ्वी दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसकी शुरूआत सर्वप्रथम 1970 में संयुक्त राज्य अमेरिका से किया गया था। तभी से स्वच्छ पर्यावरण के लिए जागरूकता बढ़ाने के लिए पूरे विश्व में प्रतिवर्ष पृथ्वी दिवस मनाया जाने लगा है। असल में विश्व पृथ्वी दिवस ऐसा अवसर है जब हम पृथ्वी को जीवनदायी बनाए रखने का संकल्प ले सकते हैं। इस साल पृथ्वी दिवस की 42वीं वर्षगांठ की वैश्विक थीम ‘मोबलाइज द अर्थ’ यानी पृथ्वी प्रदत्त संसाधनों का उपयोग करना एवं संकटों से उसकी रक्षा करना है। सूरज से पृथ्वी की दूरी करीब 14 करोड़ 96 लाख किलोमीटर है। यह दूरी ही पृथ्वी ग्रह को पूरे सौर मंडल में विशिष्ट स्थान देती है। इसी दूरी के कारण यहां पानी से भरे महासागर बने, ऊंचे पहाड़ बने, रेगिस्तान, पठार और सूरज की लगातार मिलती ऊर्जा और पृथ्वी के गर्भ में मौजूद ताप से यहां जीवन के विभिन्न रूप संभव हुए हैं।

पेड़-पौधे और अन्य वनस्पतियां, पशु-पक्षी तथा इंसान रूपी जीव-जंतु, यहां तक कि सूक्ष्मजीव आदि भी यहां जीवन के लिए अति आवश्यक हैं इन सब में ऊर्जा का स्रोत सूर्य की ऊष्मा ही है। कैसा अजब संयोग है कि सूर्य से यह दूरी मिलने के साथ-साथ पृथ्वी एक कोण पर झुकी हुई है, जिस कारण अलग-अलग ऋतुएं, मौसम, जलवायु यहां बने और जीवन में विविधता पैदा हुई। इस ग्रह पर प्रकृति को जीवन जुटाने में लाखों वर्ष लगे। धरती पर कई जटिल प्रणालियां पूरे सामंजस्य से लगातार कार्य करती रहती हैं, जिस कारण जीवन हर रंग-रूप में फल-फूल रहा है। पृथ्वी पर मौजूद जीवनदायी पानी के कारण ही यह ग्रह अंतरिक्ष से नीला दिखाई देता है। सूर्य और पृथ्वी के आपसी मेलजोल से ही इसके आसपास, हवाओं और विभिन्न गैसों का आवरण बना यानी वायुमंडल का निर्माण हुआ। इसी वायुमंडल की चादर ने सूर्य की हानिकारक किरणें जो जीवन को नुकसान पहुंचा सकती हैं, उन्हें पृथ्वी पर पहुंचने से रोके रखा है।

कितने आश्चर्य की बात है कि हजारों वर्षों से वायुमंडल की विभिन्न परतों में गैसों का स्तर एक ही बना हुआ है। जीवन की शुरूआत भले ही पानी में हुई परंतु इसी जीवन को बनाए रखने के लिए प्रकृति ने ऐसा पर्यावरण दिया कि हर कठिन परिस्थिति से निपटने में जीवन सक्षम हो सका है। पर्यावरण का मतलब होता है हमारे या किसी वस्तु के आसपास की परिस्थितियों या प्रभावों का जटिल मेल जिसमें वह वस्तु, व्यक्ति या जीवन स्थित है या विकसित होते हैं। इन परिस्थितियों द्वारा उनके जीवन या चरित्र में बदलाव आते हैं या तय होते हैं। पूरे विश्व में आजकल पर्यावरण शब्द का काफी उपयोग किया जा रहा है। कुछ लोग पर्यावरण का मतलब जंगल और पेड़ों तक ही सीमित रखते हैं, तो कुछ जल और वायु प्रदूषण से जुड़े पर्यावरण के पहलुओं को ही अपनाते हैं। आजकल लोग ग्लोबल वार्मिंग यानी भूमण्डलीय तापन मतलब गर्माती धरती और ओजोन के छेद तक पर्यावरण को सीमित कर देते हैं, तो कई परमाणु ऊर्जा एवं बड़े-बड़े बांधों का बहिष्कार कर सौर ऊर्जा और छोटे बांधों को अपनाने की बात कह कर अपना पर्यावरण के प्रति दायित्व पूरा समझ लेते हैं।

ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर पर्यावरण की वास्तविक परिभाषा है क्या? सर्वप्रथम तो हमें यह तय करना होगा कि हम किस वस्तु या प्राणी विशेष के पर्यावरण की व्याख्या कर रहे हैं। फिर पर्यावरण का अर्थ समझना आसान है। उदाहरण के लिए हमारे अपने पर्यावरण का अर्थ होगा, हमारे आसपास की हर वह वस्तु चाहे वह सजीव हो या निर्जीव जिसका हम पर या हमारे रहन-सहन पर या हमारे स्वास्थ्य पर एवं हमारे जीवन पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, निकट या दूर भविष्य में, कोई प्रभाव हो सकता है और साथ ही ऐसी हर वस्तु जिस पर हमारे कारण कोई प्रभाव पड़ सकता है। यानी पर्यावरण में हमारे आसपास की सभी घटनाओं जैसे मौसम, जलवायु आदि का समावेश होता है, जिन पर हमारा जीवन निर्भर करता है। यह सृजनात्मक प्रकृति जिसने हमें जीवन और जीवन के लिए आवश्यक वातावरण दिया है एक बहुत ही नाजुक संतुलन पर टिकी है। अगर हम वायुमंडल को ही लें, तो संपूर्ण वायुमंडल सबसे उपयुक्त गैसों के अनुपात से बना है जो जीवन के हर रूप, उसकी विविधता को संजोए रखने में सक्षम है।

वायुमंडल में 78.08 प्रतिशत नाइट्रोजन, 20.95 प्रतिशत ऑक्सीजन, 0.03 कार्बन डाइऑक्साइड तथा करीब 0.96 प्रतिशत अन्य गैसे हैं। गैसों का यह अनुपात सभी प्रकार के जीवों के पनपने के लिए उपयुक्त है। व्यापक तौर पर देखें तो ऑक्सीजन पृथ्वी पर उपस्थित जीवों के लिए अतिआवश्यक है। यह हमारे शरीर की कोशिकाओं को ऊर्जा प्रदान करती है। हम जो खाना खाते हैं, उसे पचाकर हमें ताकत मिलती है। यदि इसी ऑक्सीजन का अनुपात 21 प्रतिशत से ज्यादा हो जाए तो हमारे शरीर की कोशिकाओं में कई प्रकार के असंतुलन उत्पन्न हो जाएंगे जिससे बहुत सी विकृतियां आ जाएंगी। ऐसे में सारी क्रियाएं और अभिक्रियाएं गड़बड़ा जाएंगी। इसके साथ-साथ जीवन के लिए जरूरी वनस्पति तथा हाइड्रोकार्बन के अणुओं का भी नाश शुरू हो जाएगा यानी ऑक्सीजन के वर्तमान स्तर में थोड़ी-सी भी वृद्धि जीवन के लिए घातक सिद्ध हो सकती है। अब इसी ऑक्सीजन का प्रतिशत 20 से कम हो तो हमें सांस लेने में तकलीफ हो जाएगी। सारी चयापचयी गतिविधियां रुक जाएंगी और ऊर्जा न मिल पाने से जीवन का नामोनिशां मिट जाएगा।

इसी तरह 78.08 प्रतिशत नाइट्रोजन की मात्रा वायुमंडल में ऑक्सीजन के हानिकारक प्रभाव तथा जलाने की क्षमता पर सही रोक लगाने में सक्षम होती है। वायुमंडल में गैसों का यह मौजूदा स्तर, पेड़-पौधों में प्रकाश-संश्लेषण के लिए भी बिल्कुल ठीक है। प्रकृति का नाजुक संतुलन और संयोग यही है कि हर जीवन किसी न किसी रूप में जीवन की धारा के अविरल बहाव में मदद कर रहा है, जैसे वनस्पतियों के लिए आवश्यक कार्बन डाइऑक्साइड प्राणियों द्वारा छोड़ी जाती है और पौधे इस कार्बन डाइऑक्साइड को सूरज की रोशनी पानी की मौजूदगी में प्रकाश-संश्लेषण द्वारा अपने लिए ऊर्जा बनाने के काम में लाते हैं। इस दौरान कार्बन डाइऑक्साइड को अपने में समा कर ऑक्सीजन बाहर छोड़ते हैं। ऐसे ही और संतुलन एवं आपसी मेल-जोल के उदाहरण आगे दिए जाएंगे। अभी हम सृजनात्मक प्रकृति के अनूठे संयोग की बात करते हैं, जिसने जीवन के लिए जरूरी पर्यावरण संजोया।

पहले बताई गई गैसों की तरह कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर भी बिल्कुल उपयुक्त है। क्योंकि इस अनुपात में यह पृथ्वी की ऊष्मा को अंतरिक्ष में खो जाने से रोकती है यानी कार्बन डाइऑक्साइड जीवन के लिए उपयुक्त तापमान को बनाए रखती है। परन्तु यदि इसी कार्बन डाइऑक्साइड का प्रतिशत अधिक हो गया तो पूरे ग्रह के तापमान में भयानक बढ़ोतरी हो सकती है जो जीवन के लिए अनुकूल नहीं होगा। पृथ्वी पर मौजूद पेड़-पौधे इस कार्बन डाइऑक्साइड को निरंतर ऑक्सीजन में बदलते रहते हैं। यह मात्रा करीब 190 अरब टन ऑक्सीजन प्रतिदिन बैठती है। इसी तरह अन्य स्रोतों से पौधों के लिए आवश्यक कार्बन डाइऑक्साइड बनती रहती है। इन सभी गैसों का स्तर विभिन्न परस्पर जटिल प्रक्रियाओं के सहयोग से हमेशा स्थिर बना रहता है और जीवन सांसे लेता रहता है।

वायुमंडलीय गैसों के अलावा पृथ्वी का आकार भी जीवन के पनपने के लिए उपयुक्त है। यदि पृथ्वी का द्रव्यमान थोड़ा कम होता तो उसमें गुरुत्वाकर्षण भी अपर्याप्त रहता और इस कम खिंचावों के कारण पृथ्वी की चादर यानी पूरा वायुमंडल ही अंतरिक्ष में बिखर जाता और अगर यही द्रव्यमान कुछ ज्यादा हो जाता तो सारी गैसें पृथ्वी में ही समां जाती, जिससे जीवों की श्वसन प्रक्रिया प्रभावित होती। पृथ्वी पर अगर गुरुत्वाकर्षण ज्यादा होता तो वायुमंडल में अमोनिया और मिथेन की मात्रा अधिक होती। ये गैसें जीवन के लिए घातक हैं। ऐसे ही अगर गुरुत्व कम होता तो पृथ्वी पानी ज्यादा खो देती। पिछले 10 हजार वर्षों में असाधारण रूप से पृथ्वी पर पानी की मात्रा ज्यों की त्यों है यानी कुछ पानी बर्फ के रूप में जमा हुआ है, कुछ बादलों के रूप में तो काफी महासागरों में, फिर भी पानी की मात्रा में एक बूंद भी कमी नहीं आई है। भूमि पर बरसने वाला पानी पूरी पृथ्वी पर होने वाली वर्षा का 40 प्रतिशत होता है और हम सिर्फ 1 या 2 प्रतिशत पानी ही संरक्षित कर पाते हैं बाकी सारा पानी वापस समुद्र में बह जाता है।

हवा का तापमान और नमी के गुण भी कई कारकों से प्रभावित होते हैं। जैसे भूमि तथा सागरों का विस्तार, क्षेत्र की स्थलाकृति तथा सौर किरणों की तीव्रता में मौसम के अनुसार भिन्नता। ये सभी कारक लगातार आपसी मेल से हमारी धरती के मौसम को नया स्वरूप और विविधता प्रदान करते हैं। पृथ्वी के वायुमंडल में नाइट्रोजन और ऑक्सीजन के अलावा कई अन्य गैसें हैं जो पृथ्वी पर जीवन पनपाने लायक वातावरण बनाती हैं।
इसी तरह अगर पृथ्वी की परत ज्यादा मोटी होती तो वह वायुमंडल से ज्यादा ऑक्सीजन सोखती और जीवन फिर संकट में पड़ जाता। अगर यह परत ज्यादा पतली होती तो लगातार ज्वालामुखी फटते रहते और धरती की सतह पर भूगर्भीय गतिविधियां इतनी अधिक होतीं कि भूकम्प आदि के बीच में जीवन बचा पाना असंभव हो जाता। ऐसे ही महत्वपूर्ण और नाजुक संतुलन का उदाहरण है, वायुमंडल में ओजोन गैस का स्तर जिसे धरती की छतरी भी कहते हैं। अगर ओजोन की मात्रा वर्तमान के स्तर से ज्यादा होती तो धरती का तापमान बहुत कम होता और अगर कम हो तो धरती का तापमान बहुत ज्यादा हो जाएगा और पराबैंगनी किरणें भी धरती की सतह पर ज्यादा टकराती। हमारे द्वारा किए जा रहे पर्यावरण के नाश को समझने से पहले यह आवश्यक है कि पर्यावरण से संबंधित प्रकृति के विभिन्न पहलुओं को समझें, क्योंकि तभी हम पर्यावरणीय समस्याओं का सही हल ढूंढ पाएंगे।

पृथ्वी की सतह के ऊपर वायुमंडलीय गैसों का एक नाजुक संतुलन है और गैसों का यह संतुलन सूरज, पृथ्वी और ऋतुओं से प्रभावित होता है। वायुमंडल पृथ्वी की मौसम प्रणाली और जलवायु का एक जटिल घटक है। वायुमंडल अपनी विभिन्न परतों से गुजरती सौर किरणों में से हानिकारक ऊष्मा सोख लेता है। जो सौर किरणें धरती तक पहुंचती हैं, वे उसकी सतह से टकराकर वापस ऊपर की ओर आती हैं। इन किरणों में से आवश्यक ऊष्मा को वायुमंडल फिर अपने में समा लेता है और धरती के तापमान के जीवन के अनुकूल बनाए रखने में मदद करता है। वायुमंडल में मौजूद ऊष्मा का स्तर कई मौसमी कारकों को प्रभावित करता है, जिसमें वायु की गतिविधियां, हमारे द्वारा महसूस किया जाने वाला तापमान तथा वर्षा शामिल है। महासागरों से नमी का वाष्पन वायुमंडलीय जल-वाष्प पैदा करता है और अनुकूल परिस्थितियों में यही वायुमंडल मौजूद जल-वाष्प वर्षा, हिमपात, ओलावृष्टि तथा वर्षण के अन्य रूपों में वापस धरती की सतह पर पहुंच जाते हैं।

हवा का तापमान और नमी के गुण भी कई कारकों से प्रभावित होते हैं। जैसे भूमि तथा सागरों का विस्तार, क्षेत्र की स्थलाकृति तथा सौर किरणों की तीव्रता में मौसम के अनुसार भिन्नता। ये सभी कारक लगातार आपसी मेल से हमारी धरती के मौसम को नया स्वरूप और विविधता प्रदान करते हैं। पृथ्वी के वायुमंडल में नाइट्रोजन और ऑक्सीजन के अलावा कई अन्य गैसें हैं जो पृथ्वी पर जीवन पनपाने लायक वातावरण बनाती हैं। जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, निऑन, हीलियम, मिथेन, क्रिपटॉन, नाइट्रस ऑक्साइड, हाइड्रोजन आदि। इनमें से किसी भी गैस का असंतुलन जीवन का संतुलन बिगाड़ सकता है। हमें पृथ्वी पर मंडरा रहे खतरों को समझने की जरूरत है। पृथ्वी को इन खतरों से बचाने की सर्वाधिक जिम्मेदारी इसके सर्वश्रेष्ठ प्राणी यानि मानव के कंधों पर ही है। इसलिए हमें अपनी भूमिका समझ कर पृथ्वी को जीवनमय बनाए रखने की दिशा में कदम उठाने होंगे। ग्लोबल वार्मिंग आज पूरी दुनिया के लिए एक गंभीर चुनौती बन गई है। सबसे अजीब बात यह है कि जो विकसित देश इस समस्या के लिए अधिक जिम्मेदार हैं वहीं विकासशील व अन्य देशों पर इस बात के लिए दबाव बना रहे हैं कि वो ऐसा विकास न करें जिससे धरती का तापमान बढ़े।

हालांकि वो खुद अपनी बात पर अमल नहीं करते लेकिन दूसरों देशों को शिक्षा देते हैं। बहरहाल बात चाहे जो हो विभिन्न देशों के आपसी विवाद में नुकसान केवल हमारी पृथ्वी का ही है। इसलिए पृथ्वी को जीवनमयी बनाए रखने के लिए हम सभी को एक होना होगा। सामूहिक प्रयासों के द्वारा ही हम धारणीय विकास करते हुए पृथ्वी को बचा सकते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि हम सभी अपने-अपने स्तर पर ऐसे कार्य करें जिससे प्राकृतिक संसाधनों का अधिकतम उपयोग किया जा सके। ऊर्जा के नवीकरणीय संसाधनों जैसे पवन ऊर्जा एवं सौर ऊर्जा का उपयोग करना होगा। साथ ही पानी और ऊर्जा की बर्बादी को रोक कर ऐसे अन्य प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करना होगा क्योंकि इन्हीं संसाधनों पर हमारा और हमारी भावी पीढ़ियों का भविष्य टिका है। ऐसे में पृथ्वी दिवस को केवल एक समारोह के रूप में लेने से हम इसके वास्तविक लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकते हैं बल्कि इस अवसर पर प्रत्येक व्यक्ति को प्राकृतिक संसाधनों का समझदारी से उपयोग करना सीखना होगा तभी यह धरती भविष्य में मानव की आवश्यकताओं को पूरा करती हुई जीवन के रूपों को संवारती रहेगी।

सोमवार, 9 अप्रैल 2012

ओजोन परत


सूर्य का प्रकाश ओजोन परत से छनकर ही पृथ्वी पर पहुंचता हैं। यह खतरनाक पराबैंगनी विकिरण को पृथ्वी की सतह पर पहुंचने से रोकती है और इससे हमारे ग्रह पर जीवन सुरक्षित रहता है। ओजोन परत के क्षय के मुद्दे पर पहली बार 1976 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की प्रशासनिक परिषद (यूएनईपी) में विचार-विमर्श किया गया। ओजोन परत पर विशेषज्ञों की बैठक 1977 में आयोजित की गई। जिसके बाद ‘यूएनईपी’ और विश्व मौसम संगठन (डब्ल्यूएमओ) ने समय-समय पर ओजोन परत में होने वाले क्षय को जानने के लिए ओजोन परत समन्वय समिति (सीसीओएल) का गठन किया।

ओजोन-क्षय विषयों से निबटने के लिए अंतर्राष्ट्रीय समझौते हेतु अंतर-सरकारी बातचीत 1981 में प्रारंभ हुई और मार्च, 1985 में ओजोन परत के बचाव के लिए वियना सम्मेलन के रूप में समाप्त हुई। 1985 के वियना सम्मेलन ने इससे संबंधित अनुसंधान पर अंतर-सरकारी सहयोग, ओजोन परत के सुव्यवस्थित तरीके से निरीक्षण, सीएफसी उत्पादन की निगरानी और सूचनाओं के आदान-प्रदान जैसे मुद्दों को प्रोत्साहित किया। सम्मेलन के अनुसार मानव स्वास्थ्य और ओजोन परत में परिवर्तन करने वाली मानवीय गतिविधियों के विरूद्ध वातावरण बनाने जैसे आम उपायों को अपनाने पर देशों ने प्रतिबद्धता व्यक्त की। वियना सम्मेलन एक ढाँचागत समझौता है और इसमें नियंत्रण अथवा लक्ष्यों के लिए कानूनी बाध्यता नहीं है।

ओजोन परत को कम करने वाले विषयों पर मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल को सितम्बर, 1987 में स्वीकार किया गया। ओजोन परत के क्षय को रोकने वाले, ओजोन अनुकूल उत्पादों और जागरूकता जगाने के लिए मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल विषयों के कार्यान्वयन के महत्व का उल्लेख करते हुए ओजोन परत के संरक्षण के लिए 16 सितम्बर को अंतर्राष्ट्रीय दिवस घोषित किया गया। सभी सदस्य देशों को इस विशेष दिवस पर मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के उद्देश्यों एवं लक्ष्यों और इसके संशोधन के साथ राष्ट्रीय स्तर पर ठोस गतिविधियों को प्रोत्साहित करने के लिए आमंत्रित किया जाता है।

सरकारें जब तक प्रोटोकॉल के साथ-साथ संशोधनों की अभिपुष्टि नहीं करती तब तक इससे कानूनी रूप से नहीं बंधती हैं। दुर्भाग्य से अनेक सरकारों ने प्रोटोकॉल की अभिपुष्टि तो की है मगर संशोधन और उनके कड़े नियंत्रण उपाय लक्ष्य से पीछे हैं। ओजोन समझौतों पर आज तक 193 देशों ने हस्ताक्षर किए हैं।

1985 के अंत में दक्षिण ध्रुव (एंटार्कटिक) के ऊपर ओजोन की परत में छेद का पता चलने के बाद सरकारों ने क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी-11, 12, 113, 114 और 115) और अनेक हैलॅन्स (1211, 1301, 2402) के उत्पादन और खपत को कम करने के कड़े उपायों की आवश्यकता को पहचाना। प्रोटोकॉल इस तरह से तैयार किया गया है ताकि समय-समय पर वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी आंकलनों के आधार पर इस प्रकार की गैसों से निजात पाने के लिये इसमें संशोधन किया जा सके। इस प्रकार के आंकलनों के बाद इस प्रकार की गैसों से छुटकारा पाने की प्रक्रिया को तेज करने के लिये 1990 में लंदन, 1992 में कोपेनहेगन, 1995 में वियना, 1997 में मॉन्ट्रियल और 1999 में पेचिंग में चरणबद्ध बहिष्करण में तेजी लाने के लिए प्रोटोकॉल को समायोजित किया गया। अन्य प्रकार के नियंत्रण उपायों को शुरू करने और इस सूची में नये नियंत्रण तत्वों को जोड़ने के लिये भी इसमें संशोधन किया गया।

1990 में लंदन संशोधन के तहत अतिरिक्त क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी-13, 111, 112, 211, 212, 213, 214, 215, 216, 217) और दो विलायक (सॉल्वेंट) (कार्बन टेट्राक्लोराइट और मिथाइल क्लोरोफार्म) को शामिल किया गया जबकि 1992 में कोपेनहेगन संशोधन के तहत मिथाइल ब्रोमाइड, एचबीएफसी और एचसीएफसी को जोड़ा गया। 1997 में मॉन्ट्रियल संशोधन को अंतिम रूप दिया गया जिसके तहत मिथाइल ब्रोमाइड से निजात पाने की योजना बनायी गयी। 1999 में पेचिंग संशोधन के तहत ब्रोमोक्लोरोमिथेन के उपयोग से तुरंत छुटकारा पाने (चरणबद्ध ढंग से बाहर करने) के लिये इसे शामिल किया गया। इस संशोधन के तहत एचसीएफसी के उत्पादन पर नियंत्रण के साथ-साथ गैर-पक्षों के साथ इसके कारोबार पर लगाम लगाने की योजना भी बनाई गई।

ओजोन परतः ओजोन के अणुओं (ओ-3) में ऑक्सीजन के तीन परमाणु होते हैं। यह जहरीली गैस है और वातावरण में बहुत दुर्लभ है। प्रत्येक 10 मिलियन अणुओं में इसके सिर्फ 3 अणु पाये जाते हैं। 90 प्रतिशत ओजोन वातावरण के ऊपरी हिस्से या समताप मंडल (स्ट्राटोस्फेयर) में पाई जाती है जो पृथ्वी से 10 और 50 किलोमीटर (6 से 30 मील) ऊपर है। क्षोभमंडल (ट्रोपोस्फेयर) की तली में जमीनी स्तर पर ओजोन हानिकारक प्रदूषक है जो ऑटोमोबाइल अपकर्षण और अन्य स्रोतों से पैदा होती है।

ओजोन की परत सूर्य से आने वाले ज्यादातर हानिकारक पराबैंगनी- बी विकिरण को अवशोषित करती है। यह घातक पराबैंगनी (यूवी- सी) विकिरण को पूरी तरह रोक देती है। इस प्रकार ओजोन का सुरक्षा कवच हमारे जीवन के लिये बहुत जरूरी है और यह हम जानते हैं। ओजोन की परत की क्षति से पराबैंगनी विकिरण अधिक मात्रा में धरती तक पहुंचता है। अधिक पराबैंगनी विकिरण का मतलब है और अधिक मैलेनुमा और नॉनमैलेनुमा त्वचा कैंसर, आँखों का मोतियाबिंद अधिक होना, पाचन तंत्र में कमजोरी, पौधों की उपज घटना, समुद्रीय पारितंत्र में क्षति और मत्स्य उत्पादन में कमी।

1970 में जब प्रोफेसर पाल क्रुटजन ने ये संकेत दिया कि उर्वरकों और सुपरसोनिक एयरक्रॉफ्ट से निकलने वाली नाइट्रोजन ऑक्साइड से ओजोन की परत को नुकसान होने की आशंका है तो इसके बारे में वैज्ञानिक चिंतित हुए। 1974 में प्रोफेसर एफ शेरवुड रॉलेंड और मारियो जे मोलिना ने यह पता लगाया कि क्लोरोफ्लोरोकार्बन वातावरण में विभाजित होकर क्लोरीन के परमाणु जारी करते हैं और वे ओजोन क्षय का कारण बनते हैं। हेलेन्स के जरिए जारी होने वाले ब्रोमीन परमाणु भी ऐसा ही बुरा प्रभाव डालते हैं। इन तीन वैज्ञानिकों ने अपने महत्वपूर्ण कार्य के लिए 1995 में रसायन विज्ञान में नोबल पुरस्कार प्राप्त किया।

1980 के दशक के प्रारंभ में जब से इसका मापन शुरू हुआ तब से दक्षिण ध्रुव के ऊपर ओजोन की परत स्थिर रूप से कमजोर हो रही है। बेहद ठंडे वातावरण और ध्रुवीय समताप मंडलीय बादलों के कारण भूमंडल के इस भाग पर समस्या और गंभीर है। ओजोन की परत में क्षय वाला भू-क्षेत्र स्थिर रूप से बढ़ रहा है। यह 1990 के दशक में 20 मिलियन वर्ग किलोमीटर से अधिक हो गया और उसके बाद यह 20 और 29 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैल गया। उत्तरी ध्रुव के ऊपर ओजोन की परत 30 प्रतिशत जबकि यूरोप और अन्य उच्च अक्षांश वाले क्षेत्रों में ओजोन की परत में क्षय की दर 5 प्रतिशत से 30 प्रतिशत के बीच है।

रसायन और उनसे छुटकारा पाने का कार्यक्रम


मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के तहत फिलहाल 96 रसायनों पर नियंत्रण लगाया गया है जिसमें शामिल हैं-

हेलो कार्बन जो क्लोरोफ्लोरोकार्बन और हेलॅन्स के रूप में उल्लेखनीय है। 1928 में क्लोरोफ्लोरो कार्बन की खोज हुई और इन्हें आश्चर्यजनक गैस माना गया, क्योंकि ये लम्बे समय तक रहती है, और विषैली नहीं होती हैं। इनसे जंग नहीं लगता (असंक्षारक) और ये अज्वलनशील होती हैं। ये परिवर्तनशील है और 1960 के दशक से रेफ्रिजरेटरों, एयरकंडीशनरों, स्प्रे केंस, विलायकों, फोम और अन्य अनुप्रयोगों में इनका उपयोग बढ़ता जा रहा है। सीएफसी-11 पचास वर्षों तक वायुमंडल में रहती है, सीएफसी-12 एक सौ दो वर्षों तक और सीएफसी-115 सत्रह सौ वर्षों तक वायुमंडल में रहती है। हेलॅन-1301 प्राथमिक रूप से आग बुझाने में उपयोग की जाती है और यह वायुमंडल में 65 साल तक रहती है।

कार्बन टेट्राक्लोराइड विलायक के रूप में उपयोग की जाती है और वायुमंडल में विघटित होने में करीब 42 वर्ष लेती है। मिथाइल क्लोरोफोर्म (1,1,1-ट्राईक्लोरोइथेन) भी विलायक के रूप में इस्तेमाल की जाती है और विघटित होने में करीब 5.4 वर्ष लेती है। हाइड्रोब्रोमोफ्लोरोकार्बन (एचबीएफसी) का अधिक इस्तेमाल नहीं किया जाता है, परंतु किसी नये इस्तेमाल से बचने के लिए इनको भी प्रोटोकॉल के तहत शामिल किया गया है।

हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन (एचसीएफसी) सीएफसी के स्थान पर प्रयुक्त करने के लिए पहले प्रमुख विस्थापक के रूप में इसका विकास किया गया था। यह क्लोरोफ्लोरोकार्बन की तुलना में बहुत कम विनाशक है। एचसीएफसी भी ओजोन की क्षय में योगदान देती है और वायुमंडल में करीब 1.4 से 19.5 वर्ष तक विद्यमान रहती है।

मिथाइल ब्रोमोइड (सीएच-3 बीआर) बहुमूल्य फसलों, कीट नियत्रंण और निर्यात के लिये प्रतीक्षित कृषि जिंसों के क्वेरेन्टाइन उपचार के लिये धूम्रक (फ्यूमिगैन्ट) के रूप में इस्तेमाल की जाती है। वायुमंडल में विघटित होने में इसे करीब 0.7 वर्ष लगते हैं।

ब्रोमोक्लोरोमीथेन (बीसीएम) ओजोन को क्षति पहुंचाने वाला नया तत्व है जिसे कुछ कम्पनियों ने 1998 में बाजार में उतारने की अनुमति मांगी थी। इसको इस्तेमाल से बाहर करने के लिये 1999 के संशोधन में शामिल किया गया।

भारत को चार प्रमुख रसायन-क्लोरोफ्लोरा कार्बन, सीटीसी, हेलॅन्स और हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन इस्तेमाल से बाहर करने थे जिनमें से 2003 के प्रारंभ में हेलेन्स को इस्तेमाल से बाहर किया गया। 1 अगस्त 2008 तक सीएफसी को भी इस्तेमाल से बाहर कर दिया गया है। सीटीसी का इस्तेमाल 2009 के आखिर तक बंद करने की बात थी और हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन को बाहर करने की प्रक्रिया अभी जारी है। सभी पक्ष ओजोन को क्षति पहुंचाने वाले ऐसे नये तत्वों के विपणन से बचने के उपायों पर विचार कर रहे हैं जो अब तक प्रोटोकॉल में शामिल नहीं है।

विकसित देशों में हेलॅन्स और क्लोरोफ्लोरोकार्बन, कार्बन टेट्राक्लोराइड, मिथाइल क्लोरोफार्म और हाइड्रोब्रोमोफ्लोरोकार्बन को इस्तेमाल से बाहर करने की प्रक्रिया क्रमश: 1994 और 1996 में पूरी कर ली गई है 1999 तक मिथाइलब्रोमोइड के इस्तेमाल में 25 प्रतिशत कमी की गयी। 2001 में 50 प्रतिशत और 2003 में 70 प्रतिशत कमी की गई। 2005 तक इसे इस्तेमाल से पूरी तरह बाहर कर दिया गया।

इस दौरान 2004 तक हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन के इस्तेमाल में 35 प्रतिशत कमी की गई जिसके इस्तेमाल में 2010 तक 65 प्रतिशत, 2015 तक 90 प्रतिशत और 2020 तक 99.5 प्रतिशत कमी की जानी है। 2030 तक सिर्फ रख-रखाव के उद्देश्यों में ही इसके 0.5 प्रतिशत इस्तेमाल की अनुमति होगी। 1996 तक हाइड्रोब्रोमोफ्लोरोकार्बन और बीसीएम को तुरंत इस्तेमाल से बाहर करने का कार्यक्रम बनाया गया। विकासशील देशों को इन गैसों को इस्तेमाल से बाहर करने का कार्यक्रम शुरू करने से पहले कुछ समय की छूट दी गई। इससे इस बात का पता चलता है कि विकसित देश वायुमंडल में कुल उत्सर्जन के अधिकांश के लिए उत्तरदायी है और उनके पास इनके विस्थापकों को अपनाने के लिये अधिक वित्तीय और प्रौद्योगिकी संसाधन है। विकासशील देशों का कार्यक्रम इस प्रकार था-

• 1996 तक हाइड्रोब्रोमोफ्लोरोकार्बन और बीसीएम को तुरंत इस्तेमाल से बाहर करना।
• क्लोरोफ्लोरोकार्बन, हेलेन्स और कार्बनटेट्राक्लोरोइड को 1 जुलाई 1999 तक 1995 से 97 के औसत पर लाना, 2005 तक 50 प्रतिशत कमी, 2007 तक 85 प्रतिशत कमी और 2010 तक पूरी तरह इस्तेमाल से बाहर करना।
• 2003 तक मिथाइल क्लोरोफार्म के इस्तेमाल को 1998-2000 के औसत स्तर पर लाना, 2005 तक 30 प्रतिशत कमी और 2010 तक 70 प्रतिशत कमी और 2015 तक पूरी तरह इस्तेमाल से बाहर करना।
• मिथाइलब्रोमोइड के इस्तेमाल को 2002 तक 1995 से 98 के औसत स्तर पर लाना, 2005 तक इस्तेमाल में 20 प्रतिशत कमी और 2015 तक इस्तेमाल से पूरी तरह बाहर करना।
• 2016 तक हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन को 2015 के स्तर पर और 2040 तक इस्तेमाल से बाहर करना।

इस्तेमाल से बाहर करने के कार्यक्रम में लक्षित पदार्थों के उत्पादन और खपत दोनों शामिल है। हालांकि इसके बाद भी विकसित और विकासशील देशों में लक्षित पदार्थों के आवश्यक इस्तेमाल को पूरा करने के लिए सीमित मात्रा में इनके उत्पादन की अनुमति है जिसके लिए अब तक किसी विकल्प की पहचान नहीं की गई है! 

प्रोटोकॉल के बिना, वर्ष 2050 तक ओजोन का अवक्षय उत्तरी गोलार्ध के मध्य अक्षांश में कम से कम 50% और दक्षिणी मध्य अक्षांश में 70% बढ़ जाएगा जो मौजूदा स्तर से 10 गुणा अधिक बुरा होगा। इसका परिणाम उत्तरी मध्य अक्षांश में धरती पर दुगुनी तथा दक्षिण में चौगुनी अल्ट्रावायलेट-बी (पराबैंगनी) विकिरण के रूप में दिखाई देगा। वायुमंडल में ओजोन के अवक्षय के लिए जिम्मेदार रसायनों की मात्रा पांच गुना अधिक होगी। इसके निहितार्थ और भी डरावने यानी नॉन-मैलेनोमा कैंसर के 19 मिलियन अधिक मामले, मैलेनोमा कैंसर के 1.5 मिलियन मामले और आंख के मोतियाबिंद के 130 मिलियन अधिक मामलों के रूप में सामने आएंगे।

विश्व समुदाय ने ओजोन के अवक्षय, जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता और अंतर्राष्ट्रीय पानी जैसी चुनौतियों से निपटने में विकासशील देशों की मदद करने के लिए वैश्विक पर्यावरण सुविधा (जीईएफ) की स्थापना की थी। जीईएफ परिवर्तनशील अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों में ओजोन के अवक्षय के लिए जिम्मेदार पदार्थों को इस्तेमाल से बाहर करने की परियोजनाओं और क्रियाकलापों को बढ़ावा देती है! जीईएफ ने इन परियोजनाओं और कार्यकलापों के अंतर्गत 1996 और 2000 के बीच निम्नलिखित 17 देशों की सहायता के लिए 160 मिलियन डालर से अधिक की मंजूरी दी है।

अज़रबैजान, बेलारूस, बुलगारिया, चैक गणराज्य, इस्टोनिया, हंगरी, कज़ाख्स्तान, लातविया, लिथुआनिया, पोलैण्ड, रूसी संघ, स्लोवाकिया, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, यूक्रेन और उज्बेकिस्तान। जीईएफ ने हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन और मिथाइल ब्रोमाइड को इस्तेमाल से बाहर करने में इन देशों की मदद करने के लिए 60 मिलियन डालर का अतिरिक्त कोष चिह्नित किया है।

वैज्ञानिकों ने अनुमान व्यक्त किया है कि अगले पांच वर्षों के दौरान ओजोन क्षय अपने सबसे बुरे स्तर पर पहुंच जाएगा और फिर धीरे-धीरे इसमें विपरीत रूझान आना शुरू होगा एवं करीब 2050 तक ओजोन परत सामान्य स्तर पर आ जाएगी। यह अनुमान इस आधार पर व्यक्त किया गया है कि माँट्रियल प्रोटोकोल को पूरी तरह लागू किया जाएगा। ओजोन परत फिलहाल बेहद संवेदनशील अवस्था में है। क्लोरोफ्लोरोकार्बन उत्सर्जन में कमी के बावजूद, समतापमंडलीय सांद्रण अब भी बढ़ रहा है (तथापि निचले वायुमंडल में वे कम हो रहे हैं) क्योंकि लम्बे समय तक बने रहने वाले क्लोरोफ्लोरोकार्बन का जो उत्सर्जन हो चुका है वह समताप मंडल में अब भी बढ़ना जारी है। कुछ निश्चित क्लोरोफ्लोरोकार्बन (जैसे सीएफसी-11 और सीएफसी-113), कार्बन टेट्राक्लोराइड और मिथाइल क्लोरोफार्म की प्रचुरता घट रही है। ज्यादातर हैलॅन्स की प्रचुरता में वृद्धि जारी है। वस्तुतः हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन और हाइड्रोफ्लोरोकार्बन बढ़ रहे हैं, क्योंकि वे क्लोरोफ्लोरोकार्बन (जो इस्तेमाल से बाहर किए जा रहे हैं) के विकल्पों के रूप में इस्तेमाल किए जा रहे हैं। ओजोन सुरक्षा की सफलता संभव हुई है क्योंकि विज्ञान और उद्योग ओजोन का क्षय करने वाले रसायनों के विकल्पों को विकसित करने और उनका व्यावसायीकरण करने में सफल रहे हैं।

सितंबर माह की 16 तारीख को सारी दुनिया में 21वां विश्व ओजोन दिवस मनाया गया। वर्ष 2008 का विषय ‘माँट्रियल प्रोटोकॉल - वैश्विक लाभों के लिए अंतर्राष्ट्रीय साझेदारी’ है। राष्ट्रों के बीच ओजोन परत को सुरक्षित रखने की आवश्यकता पर विचार-विमर्श किया गया। माँट्रियल प्रोटोकोल अनेक सबक उपलब्ध कराता है जो पर्यावरण से जुड़े अन्य वैश्विक मुद्दों को हल करने के लिए इस्तेमाल किए जाएंगेः

• एहतियाती मार्ग का पालन करना क्योंकि सम्पूर्ण वैज्ञानिक प्रमाण का इंतजार करने से उस हद तक कार्य करने में देरी हो सकती है जहां नुकसान उस स्तर पर पहुंच जाएगा जिसे पूरा करना संभव नहीं होगा।
• उद्योगों को निरंतर विश्वसनीय संकेत देना (अर्थात कानूनन बाध्य चरणबद्ध बहिष्करण कार्यक्रम को अपनाने के जरिए) ताकि उनको नई और कम खर्च वाली प्रौद्योगिकी के रूप में विकल्प का विकास करने के लिए छूट मिले।
• यह सुनिश्चित करना कि परिष्कृत वैज्ञानिक समझ को जल्दी से जल्दी संधि के प्रावधानों के बारे में फैसला लेने में शामिल किया जा सके।
• विकासशील और विकसित देशों की सामान्य मगर विशिष्ट जिम्मेदारी को पहचान कर सामूहिक भागीदारी को प्रोत्साहित करना और विकासशील देशों को जरूरी वित्तीय और प्रौद्योगिकीय सहायता सुनिश्चित करना।
• नियंत्रण उपाय विज्ञान, अर्थशास्त्र और प्रौद्योगिकी के एकीकृत आकलन पर आधारित होने चाहिए।