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शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2018

भारत में बिजनेस पत्रकारिता




विकसित होते भारत में आर्थिक पत्रकारिता विशेष महत्व रखती है। आर्थिकपत्रकारिता शब्द में दो शब्द हैंआर्थिक और पत्रकारिता। आर्थिक का संबंध अर्थशास्त्र से है। अर्थशास्त्र सामाजिक विज्ञान की वह शाखा है, जिसके अन्तर्गत वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन, वितरण, विनिमय और उपभोग का अध्ययन किया जाता है। 'अर्थशास्त्र' शब्द संस्कृत शब्दों धन और शास्त्र की संधि से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ है 'धन का अध्ययन'। किसी विषय के संबंध में मनुष्यों के कार्यो के क्रमबद्ध ज्ञान को उस विषय का शास्त्र कहते हैं, इसलिए अर्थशास्त्र में मनुष्यों के अर्थसंबंधी कायों का क्रमबद्ध ज्ञान होना आवश्यक है।
अर्थशास्त्र की बहुत शुरुआती परिभाषाओं में एक परिभाषा एल रोबिंस ने दी हैअर्थशास्त्र वह विज्ञान है, जो मानवीय व्यवहार का अध्ययन उन साध्यों और सीमित साधनों के रिश्ते के रुप में करता है, जिनके वैकल्पिक प्रयोग हैं। संसाधन सीमित हैं, उनके किस प्रकार के प्रयोग संभव हैं। उन संसाधनों से किस प्रकार अधिकतम आउटपुट कैस प्राप्त किया जा सकता है। इसी प्रकार के प्रश्नों का उत्तर अर्थशास्त्र के अंतर्गत ढूंढा जाता है। अर्थशास्त्र के बारे में उन विद्वानों ने भी लिखा है, जो मूलत अर्थशास्त्री नहीं थे। प्रख्यात नाटककार और व्यंग्यकार बर्नार्ड शा ने लिखा हैअर्थशास्त्र जीवन से अधिकतम पाने की कला है।
अर्थशास्त्र में उत्पादन के विभिन्न तत्वों का विस्तृत अध्ययन किया जाता है। उत्पादन के महत्वपूर्ण तत्व हैं भूमि या प्राकृतिक संसाधन, जैसेखनिज, कच्चा माल, जो उत्पादन में प्रयुक्त होते हैं। श्रम यानी वह मानवीय प्रयास जो उत्पादन में प्रयुक्त होते हैं। इनमें मार्केटिंग और तकनीकी विशेषज्ञता शामिल है। पूंजी, जिससे मशीन,फैक्टरी इत्यादि खड़ी की जाती है। कारोबारी प्रयास, जिनके चलते शेष सारे तत्व काराबोर को संभव बनाते हैं।
इस लिहाज से आर्थिक पत्रकारिता को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है कि आर्थिक या बिजनेस पत्रकारिता का अर्थ उस पत्रकारिता से है, जिसमें व्यापार, वाणिज्य जैसी तमाम आर्थिक गतिविधियों की जानकारी विभिन्न संचार माध्यमों के जरिए पाठकों, दर्शकों, श्रोताओं तक पहुंचायी जाती है। आर्थिक पत्रकारिता करने के लिए आर्थिक गतिविधियों और शब्दावलियों की जानकारी होना बहुत आवश्यक है।
यदि किसी जनसंचार के विद्यार्थी को बतौर पत्रकार आर्थिक पत्रकारिता करनी है  तो आर्थिक शब्दों तकनीकी जानकारी होना बहुत जरूरी है। अर्थजगत में प्रत्येक आर्थिक गतिविधि से जुड़े शब्द का एक विशेष महत्व होता है। ऐसे शब्दों को समझे बगैर, न तो सही तरह से पत्रकारिता हो सकती है और न ही लेखक पाठकों को ठीक से समझा सकता है। आर्थिक पत्रकारिता करने से पहले आर्थिक शब्दालियों का आत्मसात करना बहुत जरूरी है। साथ ही हिन्दी में आर्थिक और बिजनेस पत्रकारिता करने के लिए यह आवश्यक है कि सही ढंग से अंगे्रजी का हिंदी में अनुवाद करना भी आना चाहिए।  क्योंकि हिन्दी  ख़बर लिखने के लिए जो भी सामग्री मिलती है, वह आम तौर पर अंगे्रजी में ही होती है,इसलिए अगर आप डेस्क के साथ-साथ रिपोर्टिंग भी कर रहे हों, तो अनुवाद से साबका आपका होगा ही। ऐसे में, अंगे्रजी जानना बेहद ज़रूरी हो जाता है। अनुवाद करते वक्त इस बात का भी ध्यान रखना पड़ेगा कि शब्दश: अनुवाद न हो और भावानुवाद को महत्व दिया जाए। जटिल शब्दों को सरल शब्दों में लिखना ही आर्थिक पत्रकारिता की सही पहचान है। हां, अनुवाद करते वक्त अगर कोई कठिन तकनीकी शब्द आ जाए, तो बेहतर यही होगा कि उस शब्द को अंगे्रजी में ही जाने दें, ताकि अर्थ का अनर्थ न हो।
अनुवाद किसी भी दृष्टि से अनुवाद न लगे। पढ़ने वाले को यह एहसास हो कि जिस ख़बर को वह पढ़ रहा है, वह मूल रूप से हिंदी में ही लिखी गई है। वैसे, अनुवाद करना भी एक कला है और यह कला नियमित अभ्यास के जरिए ही आत्मसात की जा सकती है, बशर्ते कि हर शब्द का सही अर्थ लेखक जानता और समझता हो। अनुवाद तभी सही तरह से पठनीय होता है, जब पत्रकार एक भाषा से दूसरी भाषा की आत्मा को समझे। अगर मूल पाठ को समझने में कोई दिक्कत हो, तो अर्थ का अनर्थ होने का ख़तरा सौ प्रतिशत बना रहता है।
आर्थिक पत्रकारिता करने वाले लोगों को यह समझने की कोशिश भी करनी चाहिए कि आखिर किसी खास क्षेत्र के बजट में अगर सरकार बेतहाशा वृद्धि कर रही है, तो उसकी असली वजह क्या है? यहां यह जानना और लोगों को समझाना भी जरूरी होता है, क्योंकि ऐसी ब़ढोत्तरी के लिए सरकार कुछ और तर्क देती है, लेकिन पर्दे के पीछे की सच्चाई कुछ और ही होती है।
आर्थिक पत्रकारिता करने वालों को इस बात से भी वाकिफ होना चाहिए कि भले ही एक तरफ देश में विदेशी मुद्रा भंडार और अरबपतियों की संख्या ब़ढ रही हो, लेकिन दूसरी ओर एक ब़डा वर्ग ऐसा भी है, जो दिनोंदिन और, और गरीब होता जा रहा है। समाज में चौतरफा फैल रही विषमता के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार आर्थिक गैरबराबरी ही है। दरअसल, आर्थिक असमानता की वजह से ही समाज में जीवनशैली, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास के अलावा, कई बुनियादी मोर्चों पर गैरबराबरी ब़ढ रही है। इन सभी मुद्दों पर लिखते वक्त हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि कहीं हम पूंजीपतियों की जी हुजूरी में तो नहीं लग गए हैं। दरअसल, हमें लिखते वक्त यह ध्यान भी रखना होगा कि आर्थिक गैरबराबरी की वजह से ही राज और समाज में कई तरह की विषमता फैलती है।

मीडिया और युद्ध का बाजार




मीडिया युद्ध और हिंसा बेचता है, इस वाक्य को सुनकर किसी को अटपटा लग सकता है, लेकिन यह एक हकीकत है। रोजना की खबरों में इस हकीकत को कोई भी ढूंढ़ सकता है। भारतीय मीडिया का एक बड़ा तबका पाकिस्तान या चीन के साथ सरहदी तनाव के मसले पर कवरेज करते समय बेहद आक्रमकता दिखाता है। बात-बात पर वह आक्रमण की सलाह देने से भी नहीं चूकता है। सवाल यह है कि आखिर मीडिया युद्ध छेड़ने की मुहिम चलता क्यों हैं? मीडिया में प्रचलित युद्ध शब्दावलियों के पीछे कौन से कारक हैं, उनका क्या मनोविज्ञान है? क्या इसके पीछे उनके आर्थिक हित जुड़े हुए हैं?
नब्बे के दशक के शुरूआती दौर में अमेरिकी सीएनएन चैनल ने खाड़ी युद्ध दिखाकर भारतीय बाजार में दस्तक दी थी। इसकी कवरेज ने युद्ध को सीधे लोगों के बेडरूम तक पहुंचा दिया था। दर्शकों ने मशीनगनों से निकलती गोलियों की तड़तड़ाहट व बम बरसाते टैंकों को घर बैठकर टीवी सेटों पर देखा। फिल्मों में दिखायी जाने वाली काल्पनिक हिंसा और युद्ध को सीएनएन ने उन्हें पहली बार हकीकत में दिखाया था। दर्शकों के लिए यह बेहद रोमांचित करने वाला अनुभव था। इस युद्ध की ग्राउंड जीरो से रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार लोगों की नजर में असल जिंदगी के हीरो बन गए। साथ ही, इस युद्ध कवरेज ने मीडिया संस्थानों को युद्ध के जरिए पैसा कमाने की नई कारगर थ्योरी भी दी।
अमेरिका के विलियम रेंडोल्फ हर्स्ट को पीत पत्रकारिता के साथ युद्ध उन्मादी पत्रकारिता का जनक कहा जाता है। अमेरिका में पत्रकारिता के विकास में उनका बड़ा योगदान रहा। उन्होंने 19वीं सदी के अंत से लेकर 20वीं सदी के मध्य तक अमेरिका की पत्रकारिता को एक नई पहचान दी। वर्ष 1887 में उनको अपने पिता से द सेन फ्रांसिसको एग्जामिनर अखबार का करोबार विरासत में मिला था। बाद में वे सेन फ्रांसिस्को से न्यूयार्क आ गए।
न्यूयार्क शहर आने पर विलियम हर्स्ट ने जाने-माने अखबार द न्यूयार्क जनरल खरीद को लिया। लेकिन वहां वे जोसेफ पुलित्जर के अखबार द न्यूयार्क टाइम्स के साथ सर्कुलेशन की प्रतिस्पर्धा में फंस गए। सर्कुलेशन बढ़ाने के लिए उन्होंने पीत पत्रकारिता से भी गुरेज नहीं किया। वर्ष 1898 में अमेरिका व स्पेन की बीच हुए युद्ध को उन्होंने लोगों के सामने सनसनी बनाकर पेश किया। अखबार की बिक्री बढ़ाने के लिए कुछ युद्ध की घटनाओं को तो शून्य से ईजाद कर दिया, जिनका जमीनी हकीकत से कोई लेना-देना नहीं था। उन्होंने युद्ध के रोमांच और हिंसा को अखबारी करोबार के मुनाफे में बदल दिया  था। हालांकि इसके लिए उन्हें अलोचनाओं का भी समाना करना पड़ा। 

लेख मीडिया चरित्र में विस्तार के साथ प्रकाशित है। इसे पढ़ने के लिए 

अमेजन पर मीडिया चरित्र 

हिन्दी बुक पर ऑनलाइन मीडिया चरित्र 

सोमवार, 1 मई 2017

ASHISH KUMAR

-:समर्पण:-
प्रेम कब प्रतिभा के पंखों को उगा देता है
पता ही नहीं चलता।
यह कृति
समर्पित है करुणा की मूर्ति
मेरी दादी स्व. श्रीमती गुलाब कौर के चरणों में
जिनका स्नेह
इस सृजन की शक्ति बना।

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MEDIA CHARITRA- ASHISH KUMAR, मीडिया चरित्र - आशीष कुमार



मीडिया चरित्र




अध्याय  सूची
1.       कारोबारी ढांचा और पेंच में पत्रकारिता
2.       सत्ता के गलियारों में भटकती पत्रकारिता
3.       चुनावी चौपड़ में मोहरा बना मीडिया
4.       देसी मीडिया की चौपड़ में विदेशी मोहरे
5.       पेड न्यूज: गंदा है पर धंधा है
6.       मीडिया की डुगडुगी और बाबाओं का बाजार
7.       मीडिया और युद्ध का बाजार
8.       मीडिया ट्रायल: खुद ही मुद्दई, खुद ही मुंसिफ
9.       किसानों के सरोकार और मीडिया बाजार
10.   तेरे बाजार में लगती शिक्षा की बोली
11.   सास-बहू, सनी लियोनीऔर मीडिया
12.   मीडिया में दलित: अब बात हाशिये की
13.   वो क्यों गायब है
14.   हिंदी पत्रकार मीडिया के महादलित
15.   संस्कृति-साहित्य से तौबा!
16.   तकनीकी तामझाम में झोलाछाप पत्रकारिता
17.   पैसे की दुनिया में पर्यावरण की बात!
18.   सोशल मीडिया कितना सोशल


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मीडिया चरित्र media charitra - Ashish kumar

मीडिया चरित्र - लेखक आशीष कुमार 
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मीडिया चरित्र 
प्रस्तुत पुस्तक पहला सवाल उस व्यवस्था पर उठाती है, जिसमें पत्रकारिता सांस लेती है, आकार लेती है, काम करती है। एक बार देश के एक जाने माने पत्रकार ने सवाल उठाया था कि आधुनिक मीडिया बाजार की पैदावार है और ऐसे में वह कैसे कोई भी ऐसी हरकतकर सकता है जो बाजार के लाभ के खिलाफ जाती हो। पर सवाल है उस ठेले वाले का जो पूरे दिन की मेहनत के बाद अपने आपको अखबार में कहीं खोज नहीं पाता। सवाल है उनका जिनकी चीख चैनलों की चीखपुकार के बीच  घुट कर रह जाती है। सवाल उस किसान का जिसकी आत्महत्या की खबरें भी राजनीतिक समाचारों की रेलमपेल में कहीं दब जाती हैं। सवाल है उस जज्बे का जिसे लेकर कमोबेश हर मीडियाकर्मी इस मिशन-प्रोफेशन में आया था। यही वो पैमाने हैं जिनसे मीडिया का मौजूदा सच तौला जा सकता है, जिसमें मीडिया चरित्र को आंका जा सकता है। उसके चरित्र पर लगे दागों को संवेदना के पानी से पोछा जा सकता है।
पुस्तक का दूसरा अध्याय सत्ता के गलियारों में भटकती पत्रकारिताउस अहम कारण की तलाश करता नजर आता है जिसके कारण मीडिया का दामन दागदार हो गया। पत्रकारिता के खिलाफ बरसों से एक इल्जाम चस्पा है, वह राजनीति के पीछे अतिमुग्ध है। क्यों नहीं सामाजिक मसलों को अखबारों में जगह मिल पाती। वास्तव में इसके पीछे एक अजीब सा ऐतिहासिक कारण है। आजादी से पहले इस देश में क्रांति का बिगुल बजाने वाले अधिकांश योद्धा कलम के सिपाही भी थे। ऐसे में पत्रकारिता से राजनीति का साथ चोली दामन का हो गया। आजादी के बाद राजनीति इतनी तेजी से बदली कि वह सामाजिक सरोकार खो बैठी पर पत्रकारिता अब भी उसी राजनीति को अपना अकेला खुदा मानती आयी। आज के बिगड़े हालात की वजह शायद यही है।
तीसरा अध्याय चुनावी चैपड़ में मोहरा बना मीडिया इस चर्चा में नये आयाम जोड़ता है। यह साफ करता है कि कैसे लोकतंत्र का महापर्व भ्रष्टाचार की गंगोत्री में तबदील हो जाता है। कैसे थैलीशाह चुनाव को नियंत्रित करते हैं और मीडिया इसका पर्दाफाश करने करने की बजाय खुद पार्टी में तबदील हो जाता है। राजनेताओं के आरोपों प्रत्यारोपों की डेली डायरी भरते-भरते चुनावी पत्रकारिता पूरी हो जाती है और जनता के हाथ ढाक के तीन पात भी नहीं लग पाते हैं।
अगला अध्याय उस आयातित खतरे के बारे में आगाह करता है जिसे विदेशी समाचार एजेंसियां कहा जाता है। सवाल उठना लाजिमी है कि अभी तक तो हम अपने विकास के लिए विदेशी निवेश का मुंह देख रहे थे। पर विदेशी समाचार एजेंसियां तो समाचार की बात करती हैं, जिनसे विचार गढ़े जाते हैं। बात विकाससे विचारपर कहां आ गयी। मीडिया आर्थिक विकास का मुद्दा है या विचार का। इस देश के चिंतक दुनिया बदलने की बात अपने विचारों के जरिए करते आए हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी विदेशी रणनीति कक्ष में कहीं कुछ ऐसा घट रहा है जो हमारे ही विचार बदल देने की साजिश रच रहा हो और मीडिया उसका मोहरा बन रहा हो।
पत्रकारिता के चरित्र में यह फॉरेन बॉडी उर्फ वायरस विदेश से ही आये हों ऐसा नहीं। महान स्थानीय साहसके साथ पेड न्यूज का धंधा भी पूरी तरह परवान पर है। पांचवें अध्याय पेड न्यूज: गंदा है पर धंधा है में इस बात को उभारा गया है कि कथ्य को तमाम तरह का मायावी आवरण उढ़ाया जा रहा है कि पाठक जान ही न पाए कि वह अखबार में खबर पढ़ रहा है या खबर की कबर यानी खालिस उर्दू में कब्र। बेचने वाले सिर्फ व्यवसायी हों ऐसा भी नहीं, धर्म की दुकान लगाए कथित बाबाजी भी इस दौड़ में शामिल हैं। विचार के विस्तार के लिए माध्यम का प्रयोग करने पर आपत्ति नहीं की जा सकती, लेकिन माध्यम यानी मीडिया के जरिए धर्म के बजाय स्वयं को ही महिमा मंडित करने की जुगत लड़ाना नितांत दूसरी ही बात है। छठे अध्याय ने इस समस्या को संवेदना के साथ देखा है। 
दुनिया को जब बाजार मान लिया जाता है, तो तमाम लोग सब कुछ बेचने में जुट जाते हैं, रिश्तों से लेकर राष्टप्रेम तक। अगला अध्याय बताता है कि ऐसे में युद्ध भी नहीं बचता। इस देश की संस्कृति रही है कि इसने युद्ध को हमेशा अंतिम विकल्प माना है। शांति के लिए कृष्ण ने पांच गांव की कीमत को सही ठहराया और जब युद्ध लड़ा तो धर्म-संस्कृति की रक्षा के लिए, लेकिन आज तो युद्ध इसलिए लड़ाए जा रहे हैं कि सैम साहिब के टैंक बिक जाएं। मीडिया भी जाने अनजाने हथियारों  की एक मंडी की तरह काम करने लगता है। जहाजों से बम फूल की तरह बरसते दिखाए जाते हैं। यह नहीं दिखाया जाता कि इस विध्वंसक हथियार ने कितने दुश्मन मारे और कितने मासूम सपने।
पर इस दुनिया में अपना दामन देखने की फिक्र किसको है। हर पल दौड़ते भागते मीडिया के लिए तो निहायत वाहियादसा काम है। अपने दामन पर नजर डालने की बजाए मीडिया कठघरे लगाता है। घटना के घटते ही खबर के बासी होने का डर उसपर हावी हो जाता है।  इसके चलते वह वह शक की सुई ही किसी पर नहीं घुमाता, बल्कि फरमान जारी कर देता है। अगला अध्याय मीडिया ट्रायल: खुद ही मुद्दई खुद ही मुंसिफ इस मसले की गहरे से पड़ताल करता है।
नवें अध्याय किसानों के सरोकार और मीडिया बाजारमें मीडिया के पटल से गायब खेती-किसानी से जुड़ी  देश की 70 फीसदी आबादी के सरोकारों की बात की गई है। वर्तमान विकास में मॉडल में मीडिया का
भी नगरीकरण हो गया है। मसले की गंभीरता से लेकर संख्या तक के आधार पर किसानों की आत्महत्या संभवतया आज देश का सबसे बड़ा मसला है, पर राजनीति इस मसले पर जबानी जमाखर्च के अलावा कुछ करने नहीं दे रही। मीडिया द्वारा किसानों की उपेक्षा किसानों की अर्थियों की संख्या बढ़ा रही है। और बार गर्ल की हत्या पर बलवा मचाने वाला मीडिया अब तक इस मसले को एजेंडा नहीं बना पा रहा।
अगले अध्याय में शिक्षा के मसले को महत्व देकर इस सच को बेनकाब किया गया है कि पत्रकारिता का पढ़े-लिखने से रिश्ता कुछ ज्यादा ही कमजोर हो रहा है। वास्तव में मीडिया का मॉर्डन तत्वज्ञान यह है कि एजुकेशन वह प्रोडक्ट है जो अर्थव्यवस्था की खस्ताहाली में भी फलती-फूलती रहती है, क्योंकि इस देश में अभिभावक अपनी सारी पूंजी का निवेश अपने बच्चों के लिए करने में जरा भी कोताही नहीं करता है। सो मीडिया का एजेंडा यह है कि किस तरह शिक्षा का ग्लैमराइजेशन किया जाए, जिससे कस्टमरविद्यार्थी दिव्य सुख की अनुभूति कर सकें। इस वक्त तो टॉप टेन गानों की तरह मीडिया टॉप टेन इंस्टीट्यूट खेल खिलाने में जुटा है। मीडिया में ज्ञान का विज्ञापन होता रहता तो भी गनीमत थी, अब तो विज्ञापन ही परम ज्ञान है। समस्या बस यह है कि वास्तविक ज्ञान टू मिनट नूडल्सबन नहीं पाता और बाजार से हारकर बस्ते की शरण लेने को मजबूर हो जाता है।
सास बहू, सनी लिओनी और मीडिया नामक अध्याय के जरिए कुछ तीखे सवाल उभरते हैं। सास-बहू के जरिए किचन पालिटिक्स की ग्लोबल मार्केंटिंग धड़ल्ले से की जा रही है, उससे भी बढ़कर यह सच कि कैसे एक चैनल बिग बास कार्यक्रम के जरिए एक पोर्न स्टार की जमीन तैयार करता है। बुद्धिजीवी भट्ट साहब उनका इस्तकबाल करने चैनल में पहुंचते हैं इस टिप के साथ कि तुमने जो भी किया उसका पछतावा मत करना। आलोचना-प्रत्यालोचना और फिर ग्लैमर का तड़का देकर एक पोर्न स्टार का बाजार मीडिया ने कैसे तैयार किया, यह शोध का विषय है।
अगला अध्याय मीडिया में दलितों की मौजूदगी से सम्बन्धित है। इस मसले पर रॉबिन जैफ्री सहित तमाम विशेषज्ञ विचार व्यक्त कर चुके हैं। पर समस्या जस की तस है। वास्तव में मीडिया में दलितों का न होना मीडिया का ही नहीं लोकतंत्र का भी संकट है। यदि एक अहम वर्ग के समाचार या विचार सामने आ ही नहीं पा रहे है तो हमारे सामने समाज की तस्वीर कितनी अधूरी पेश हो रही है, यह विचार दिल में चुभता है। यह अध्याय उपेक्षित वर्ग को समर्पित है तो अगला देश के उपेक्षित क्षेत्र पूर्वोत्तर को। कितनी पीड़ाजनक होती होगी वह स्थिति, जब व्यक्ति को आप उसके नाक-नक्श के आधार पर विदेशी कह दें। पर मीडिया पूर्वोत्तर के दर्द को कितना समझता होगा, यह पड़ताल तो इस आत्मालोचना से की जा सकती है कि कितने मीडिया कर्मी मानचित्र में पूर्वोत्तर के हर राज्य को उसके नाम से पहचान सकते हैं।
अगले अध्याय में लेखक ने हिन्दी पत्रकार को मीडिया का महादलित माना है, जो बेहद कड़वा यथार्थ है। महादलितों की ही तरह हिन्दी पत्रकारिता के बिना किसी भी राजनेता की दुकान चल नहीं सकती लेकिन जब बात संसाधन, सम्मान या गरिमा देने की आती है तो अंग्रेजी पत्रकारिता हिन्दी की जगह हड़प लेती है। पर सच यह भी है कि महादलितों की तरह हिन्दी पत्रकारों को अपने गौरव का अहसास होने लगा है। वह अपना हक कैसे हासिल करते है, यह भविष्य के गर्भ में है।
आज अखबार या न्यूज चैनल समाचार या विचार प्रसार का माध्यम हीं नहीं बल्कि वे पूरा पैकेजहै। इस पैकेज में ब्रेकफास्ट से लेकर पत्नी को कैसे मोहित करें, तक पर मैटर परोसा जा रहा है। संस्कृति साहित्य से तौबाअध्याय स्पष्ट करता है कि कैसे इस पैकेज में संस्कृति और साहित्य का स्पेस कम होता जा रहा है? और कैसे वो अब आउट डेटेडहै। मीडिया को संभवतया यह समझना होगा कि साहित्य महज मनोरंजन नहीं है, उसके बिना आप मानव मन को कैसे जानेंगे, समाज को कैसे समझेंगे और तो और बिना इस टकसाल के नये शब्द नयी अभिव्यक्तियां कहां से पायेंगे? और अखबारों में जिस तरह संस्कृति सम्बन्धी जानकारी कम हो रही है, उस पैमाने से वह दिन दूर नहीं जब हिन्दुस्तानियों को अपनी तहजीब की जानकारी विदेशी पत्र पत्रिकाओं से मिलेगी।
तकनीकी तामझाम में झोलाछाप पत्रकारिता अध्याय एक आश्यर्च पैदा करता है। पत्रकारिता एक तरफ कला से किनारा कर रही है दूसरी तरफ वह विज्ञान से भी दूर भाग रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि पत्रकारिता ऐसा मीडियाकर पाठक-दर्शक पैदा कर रही है, जिसमें धार न हो, जज्बा न हो, वह सिर्फ उपभोक्ता हो, उपभोक्ता हो और उपभोक्ता हो। बाजारीकरण के दर्द का यह विस्तार अगले अध्याय पैसे की दुनिया में पर्यावरण की बात में भी उभरा है। दर्द की बात यह भी है कि मीडिया यह बात समझाना तो दूर खुद भी नहीं समझ पाया है कि पर्यावरण एक मुद्दा नहीं, इस धरती के जिन्दा रहने की एकमात्र गारंटी है।
आखिरी अध्याय सोशल मीडिया कितना सोशल में इस नव जनमाध्यम का इन्टलेक्चुअल ऑपरेशन करने का प्रयास किया गया है। यह बताता है कि बिना दायित्व के शक्ति का सिद्धांत किस तरह इस माध्यम को संचालित कर रहा है। पक्ष यह नहीं है कि सरकार इस माध्यम को प्रतिबंधित करे, तर्क यह है कि अगर यह माध्यम यूं ही गलत तथ्यों और दुर्भावनाओं से प्रदूषित होता रहा तो इसमें सांस लेना मुश्किल हो जाएगा। ऐसे में कुटिल राजनीति के लिए इसपर लगाम लगाना बेहद आसान हो जाएगा।
और अंत में....

पुस्तक में अठारह अध्याय हैं और महाभारत का युद्ध भी अठारह दिन लड़ा गया था। वह युद्ध जिसमें तीखे वाणों की वर्षा बाहर ही नहीं हो रही थी, हर पात्र के भीतर भी एक युद्ध लड़ा जा रहा था। मानिए या न मानिए, मीडिया का दुनिया का द्वंद भी एक महाभारत से कम नहीं। महाभारत के किसी भी मानवीय चरित्र को स्याह या सफेद नहीं कहा जा सकता था। आज पत्रकारिता के मूल्यों की शुभ्र आभा और कमजोरियों की कालिख भी कुछ ऐसी ही घुलमिल गयी है, जिसमे में संपादक से लेकर संवादसूत्र तक का आचरण सलेटीही कहा जा सकता है। अब इस स्लेट पर व्यवस्था परिवर्तन के अक्षर किस हद तक उभर पाते है? सवाल बस यही है।  

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