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बुधवार, 3 अगस्त 2022

स्वप्न मृत्यु

स्वप्न मृत्यु

वह शायद कोई तीर्थ स्थान था,
लोगों की बहुत भीड़ थी,
सभी पंडाल में बैठे हुए थे,
किसी प्रवचन कर्ता  गुरु की प्रतीक्षा में,
सभी उत्साहित नजर आ रहे थे,
मैं सबसे आगे की तरफ था,
मेरा मुख मंच से श्रद्धालुओं की और था,
मैं श्रद्धालुओं के उत्साह को तटस्थ भाव से देख रहा था, 
तभी गुरु मंच पर आता है, 
उसके सेवक मंच के नीचे खड़े हो जाते हैं, 
मैं साइड में खड़ा हुआ था, 
पूरी स्थितियों का प्रश्न वाचक भावों के साथ आकलन कर रहा था,
मेरी उस गुरु में न कोई श्रद्धा है न ही अश्रद्धा,
बस यूं ही मैं उसकी बातों को सुने जा रहा हूं, 
मैंने उसके सहायकों से पूछा, गुरु जी का क्या नाम है? तो उन्होंने कोई नाम बताया, जिसके पीछे 'असुर' लगा हुआ था,
मैं मुस्कुराया, उसके चेहरे पर बड़ी-बड़ी मूछें और दाढ़ी थी, चेहरे में गंभीर रौद्रता थी।
प्रवचन खत्म होता है, 
वह गुरु अपने साथ चलने के लिए कहता है।
मुझसे पूछता तुम्हें क्या चाहिए,
मैंने कहा कुछ नहीं,
वह जल्दी में था, शायद।
वह मुझे एक बुजुर्ग स्त्री के पास भेज देता है, 
मैं बिना मन उत्साह के उसे स्त्री के पास चला जाता हूं,
उसके सफेद वस्त्र थे, चेहरे से प्रकाश निकल रहा था,
वह मुझसे पूछती है तुम्हें क्या चाहिए?
मैंने उल्टा सवाल किया आप मुझे क्या दे सकते हो? 
उसने जवाब दिया अब इस जीवन में तुम्हारा कुछ बचा नहीं है,
तुम्हारा अच्छा, बुरा सभी पूर्ण हो चुका है
मैंने कहा मुझे उम्मीद भी नहीं है, 
फिर मैंने कहा क्या मुझे आत्मबोध हो सकता है,
मैंने उत्तर का इंतजार किए बिना, 
मैंने पूछा मुझे मृत्यु तो मिल सकती है न,
उस प्रकाशित बुजुर्ग महिला ने बिना कोई उत्तर दिए अपने अंगूठे को मेरे माथे के बीच में लगा दिया, 
मेरा पूरा शरीर कांपने लगा, लेकिन मैं निर्भिक था, कोई डर नहीं, 
मेरा पूरा शरीर प्रकाश से भर गया, और एक प्रकाश मेरे शरीर से निकलकर सूर्य के अगाध प्रकाश में मिल गया, 
मैंने अद्वितीय शांति महसूस की, 
मेरा हृदय प्रसन्नता से भरा हुआ था। मैंने अपनी मुक्ति अनुभव की। मैं मरकर मृत्यु से परे चला गया था।

ashish kumar

सोमवार, 15 नवंबर 2021

poem

मैं तन्हा बैठा हूं तेरी याद में।
हासिल करना है मुझे तेरे मुकाम को।।
मेरी यादों में समाई है तू।
उगता सूरज है तू आने वाले कल के एहसासों का।।
हर पल दिल की धड़कन, यादों के दर्द का एहसास कराती है।
भगवान ने मुझसे वादा किया है, 
आने वाले दिन, हमारे होंगे।
हम जिएंगे शान से, और राज करेंगे शान से।

गुरुवार, 18 जनवरी 2018

सपनों का सच

Devanshi sejwar


मेरे सपने मुझसे क्या कहते हैं
कभी मुझे डराते हैं,
कभी स्नेह दिलाते हैं।
बिछड़ों से मिलाते हैं,
कभी उनके लिए तड़पाते हैं।
सपनों में कभी राजा हूं,
कभी रंक हूं।
कभी उसके पास हूं,
कभी उससे दूर हूं।
उसको छूकर रोमांचित हो उठता हूं,
कभी दौड़ता कभी हांफता।
कभी दौड़ नहीं पाता,
कभी उसे पकड़ नहीं पाता हूं।
कभी डर को डरता है,
कभी उससे डर जाता हूं,
कभी उड़ता, छलांग लगता हूं।
सपनों में मेरी सफलताएं हैं,
मेरी कुंठाएं है, असफलताएं हैं।
कभी बचपन है, कभी बचपन की यादें।
कभी मेरी कलम है कभी परीक्षाएं हैं।
परीक्षाएं छूटती हैं, कलम खो जाती है।
कभी कलम चल नहीं पाती है।
उठकर सोचता हूं।
कलम और परीक्षाओं से,
काफी आगे निकल आया हूं।
ना अब बचपन है, न वो लोग हैं।
अब दौड़ है, सपनों के बोझ हैं।
मान-अपमान है, शक्ति है – असहाय हैं।
अब अहसास बदल गए हैं।
वो दौर निकल गए हैं।
सपने मुझे क्यों धोखा देते हैं।
भूत-भविष्य क्यों दिखाते हैं।
अब बस सोचते हैं,
सपनों को नकारते हैं।
क्या यही सच या सपना सच।
तो न यह सच न सपना सच है।
आओ जगकर, सच को तलाशते हैं।
सपनों से निकलकर, सत्य को पाते हैं।  


बुधवार, 13 नवंबर 2013

मेरा मुझसे मेरा सवाल है



मेरा मुझसे मेरा सवाल है
मैं कौन हूं?

क्या  मेरा  नाम  ही मैं हूं?
क्या   मेरा  ज्ञान ही मैं हूं?
क्या   मेरा   मन ही मैं हूं?
क्या   मेरा  अहं  ही मैं हूं?
क्या   मेरा चित्त ही मैं हूं?

क्या मेरी असफलताएं मैं हूं?
क्या  मेरी  सफलताएं मैं हूं?
क्या  मेरी  बदनामी  मैं हूं? 
क्या  मेरी  ख्याति   मैं हूं?
क्या   मेरी  दयालुता मैं हूं?

क्या मेरे अनुभव   ही मैं हूं?
क्या  मेरे    भाव ही मैं हूं?
क्या  मेरे  सुख   ही मैं हूं?
क्या  मेरे  दुख   ही मैं हूं?
क्या  मेरे   संबंध ही मैं हूं?


नहीं,

मैं अजर,  अमर    अविनाशी  हूं
स्व में अधिष्ठित स्व अधिशासी हूं
परम ज्ञान  ज्योति से   प्रकाशित
गूढ़ अंत:करण  में जो है विराजित  

मैं  द्रारिद्रय,  दु:ख,  भय से मुक्त
निष्पाप,  संवेदना.  तेज  से युक्त
दोष   पापादि  से हूं सदा   रिक्त
काल के आदि  स्वामी का हूं भक्त

मैं समस्त  प्रतिभा का आदि कारण हूं 
मैं   शुभ   योग  पथ का  पथिक हूं
मैं ब्रह्मा,  विष्णु, महेश द्वारा प्रचारित
मैं  आत्मा हूं, जो हर जीव में विराजित


-    आशीष कुमार


सोमवार, 30 सितंबर 2013

अनंत क्षितिज

ANANT KSHITIJ
केले के सुखे पत्तों से मधुर संगीत निकल रहा था
जैसा आप चाहते हो वे उन्हीं धुन और शब्दों के साथ
हाथ लगाते ही बज उठते थे
कला और रचनात्मकता का एक नया रूप था
मन में विचार आया यह तो नई और अभिनव विधा है
उस मनोहरम स्थान के एक कोने पर
सुखे हुए तने के साथ वृक्ष खडा हुआ था
उसकी जडों और तनों के सहारे ही उस
कला और रचनात्मकता की धनी जगह
से बहार निकला जा सकता था
उस से परे हरी घास से भरा एक मैदान था
जो क्षितिज में दूर अनन्त तक फैला हुआ था
छत कंटीले तरों से घिरी हुई थी
वहां देशों का विभाजन था,
जमीनों का बंटबारा था
हर समय पहरा था
वहां की जिम्मेदारी संभाले व्यक्ति ने चुनौती दी
आप कभी यहां के कला और संगीत की
मनोरमता को पार करके बाहर नहीं जा सकते हो
मन ही मन संकल्प उठा
सुखे पत्तों से निकलते संगीत और कला से
मन उबने लगा
बाहर निकलने के रास्ते तलाशने लगा
एक दिन मौका देखकर सुखे तने पर चढकर
उसकी जटाओं के सहारे घास के मैदान में उतरकर
संकल्प के साथ भाग निकले
पहरेदारी में तैनात व्यक्ति ने
आवाज देकर रोकने की कोशिश की
कानों में आवाज आते ही
और तेजी से कदमों को चलाया
कला और संगीत के पास दोबारा नहीं जाना था
उस आभासी मनोरमता से निकलकर
मन कुछ और देखना चाहता था
दौडते-दौडते  मन में विचार आया 
वह पहरेदार मेरा पीछा क्यों नहीं कर रहा है
ऐसा लगा मानो वह निश्चित है कि
 मैं कितना भी दोडूं वहां से बाहर
नहीं निकल सकता हूं
थोडी देर दौडने के बाद
घास के मैदान का अंत दिखाई दिया
वह उंची दीवारों से घिरा हुआ था
लेकिन उसके बीच
बहुत ऊंचा लकडी का दरवाजा लगा हुआ था
जो दूसरी और से लोहे की सांकलों से बंद था
पहरेदार क्यों निश्चिंत था
 अब पता चला
साथ ही पता चला
घास का क्षितिज अनन्त नहीं है,
यह केवल आभासी था
मन में घबराहट हुई
साथ ही संकल्प और मजबूत हुआ
जब भागे हैं तो पार करके की रहेंगे
लकडी के दवराजों के ऊंचे-ऊंचे  दो पल्लों को
संकल्प की दृढता के साथ
तेजी से बाहर-भीतर खिंचना शुरू किया
लेकिन यह क्या बिना अधिक प्रयास के
वह लकडी का दरवाजा खुल गया
दरवाजा खुलते ही मन में
प्रसन्नता की लहर दौड गई
साथ ही विचार आया
पहरेदार की निश्चिंतता गलत थी
इन्हीं विचारों के साथ जैसे ही
खुशी के साथ सिर ऊपर उठाया
देखा वहां प्रकाश ही प्रकाश है
लेकिन पहले की तरह वहां भी एक दीवार थी
उसी आकार का लकडी का दरवाजा लगा हुआ था
फिर घबराहट हुई
फिर विचार आया शायद पहरेदार ही सही था
लेकिन प्रयास पूर्ण ईमानदारी के साथ जारी थे
लेकिन इधर-उधर देखने पर
पता चला यह तो दीवार को छोटा सा टुकडा है
जिसके दोनों किनारे पूरी तरह से खुले हुए है
तेजी से दौडकर किनारे पर पहुंच गए
किनारे से झांककर देखा
आगे मुक्ति का क्षितिज था
आत्मा खुशी से भर उठी
आज द्वैतता का अंत हुआ
एक बार फिर विचार आया
मैं सही था,
मेरे संकल्प सही थे
मेरी धारणा ठीक थी,
मेरे प्रयास ठीक थे
मेरा मार्ग ठीक था
क्योंकि आज सत्य मेरे सामने था
सबकुछ साफ दिखाई दे रहा था  
सामने अब कोई बाधा नहीं थी
मैं अपने लक्ष्य पर खडा था
लेकिन वह पहरेदार गलत साबित हुआ
मैं उसकी आभासी बेडियों से मुक्त हो चुका था
उसकी निश्चिंतता गलत साबित हुई
इन्हीं विचारों के साथ
 मैं मुक्ति क्षितिज को जीने लगा
वहां सुख का अनंत था
सुबह जैसी ताजगी थी
वर्फ को छुकर बहती हवा जैसी शीतलता थी
भोर मे छाई स्वर्णिम कांति थी 
ज्ञान का अथाह सगार था
मेरे हाथों में ढेरों उपहार थे
अब मैं अपने गांव पहुंच चुका था

 - आशीष कुमार