ANANT KSHITIJ |
केले के
सुखे पत्तों से मधुर संगीत निकल रहा था
जैसा आप
चाहते हो वे उन्हीं धुन और शब्दों के साथ
हाथ लगाते
ही बज उठते थे
कला और
रचनात्मकता का एक नया रूप था
मन में
विचार आया यह तो नई और अभिनव विधा है
उस मनोहरम
स्थान के एक कोने पर
सुखे हुए
तने के साथ वृक्ष खडा हुआ था
उसकी जडों
और तनों के सहारे ही उस
कला और
रचनात्मकता की धनी जगह
से बहार
निकला जा सकता था
उस से परे
हरी घास से भरा एक मैदान था
जो क्षितिज
में दूर अनन्त तक फैला हुआ था
छत कंटीले
तरों से घिरी हुई थी
वहां देशों
का विभाजन था,
जमीनों
का बंटबारा था
हर समय
पहरा था
वहां की
जिम्मेदारी संभाले व्यक्ति ने चुनौती दी
आप कभी
यहां के कला और संगीत की
मनोरमता
को पार करके बाहर नहीं जा सकते हो
मन ही मन
संकल्प उठा
सुखे पत्तों
से निकलते संगीत और कला से
मन उबने
लगा
बाहर निकलने
के रास्ते तलाशने लगा
एक दिन
मौका देखकर सुखे तने पर चढकर
उसकी जटाओं
के सहारे घास के मैदान में उतरकर
संकल्प
के साथ भाग निकले
पहरेदारी
में तैनात व्यक्ति ने
आवाज देकर
रोकने की कोशिश की
कानों में
आवाज आते ही
और तेजी
से कदमों को चलाया
कला और
संगीत के पास दोबारा नहीं जाना था
उस आभासी
मनोरमता से निकलकर
मन कुछ
और देखना चाहता था
दौडते-दौडते
मन में विचार आया
वह पहरेदार
मेरा पीछा क्यों नहीं कर रहा है
ऐसा लगा
मानो वह निश्चित है कि
मैं कितना भी दोडूं वहां से बाहर
नहीं निकल
सकता हूं
थोडी देर
दौडने के बाद
घास के
मैदान का अंत दिखाई दिया
वह उंची
दीवारों से घिरा हुआ था
लेकिन उसके
बीच
बहुत ऊंचा
लकडी का दरवाजा लगा हुआ था
जो दूसरी
और से लोहे की सांकलों से बंद था
पहरेदार
क्यों निश्चिंत था
अब पता चला
साथ ही
पता चला
घास का
क्षितिज अनन्त नहीं है,
यह केवल
आभासी था
मन में
घबराहट हुई
साथ ही
संकल्प और मजबूत हुआ
जब भागे
हैं तो पार करके की रहेंगे
लकडी के
दवराजों के ऊंचे-ऊंचे दो पल्लों को
संकल्प
की दृढता के साथ
तेजी से
बाहर-भीतर खिंचना शुरू किया
लेकिन यह
क्या बिना अधिक प्रयास के
वह लकडी
का दरवाजा खुल गया
दरवाजा
खुलते ही मन में
प्रसन्नता
की लहर दौड गई
साथ ही
विचार आया
पहरेदार
की निश्चिंतता गलत थी
इन्हीं
विचारों के साथ जैसे ही
खुशी के
साथ सिर ऊपर उठाया
देखा वहां
प्रकाश ही प्रकाश है
लेकिन पहले
की तरह वहां भी एक दीवार थी
उसी आकार
का लकडी का दरवाजा लगा हुआ था
फिर घबराहट
हुई
फिर विचार
आया शायद पहरेदार ही सही था
लेकिन प्रयास
पूर्ण ईमानदारी के साथ जारी थे
लेकिन इधर-उधर
देखने पर
पता चला
यह तो दीवार को छोटा सा टुकडा है
जिसके दोनों
किनारे पूरी तरह से खुले हुए है
तेजी से
दौडकर किनारे पर पहुंच गए
किनारे
से झांककर देखा
आगे मुक्ति
का क्षितिज था
आत्मा खुशी
से भर उठी
आज द्वैतता
का अंत हुआ
एक बार
फिर विचार आया
मैं सही
था,
मेरे संकल्प
सही थे
मेरी धारणा
ठीक थी,
मेरे प्रयास
ठीक थे
मेरा मार्ग
ठीक था
क्योंकि
आज सत्य मेरे सामने था
सबकुछ साफ
दिखाई दे रहा था
सामने अब
कोई बाधा नहीं थी
मैं अपने
लक्ष्य पर खडा था
लेकिन वह
पहरेदार गलत साबित हुआ
मैं उसकी
आभासी बेडियों से मुक्त हो चुका था
उसकी निश्चिंतता
गलत साबित हुई
इन्हीं
विचारों के साथ
मैं मुक्ति क्षितिज को जीने लगा
वहां सुख
का अनंत था
सुबह जैसी
ताजगी थी
वर्फ को
छुकर बहती हवा जैसी शीतलता थी
भोर मे
छाई स्वर्णिम कांति थी
ज्ञान का
अथाह सगार था
मेरे हाथों
में ढेरों उपहार थे
अब मैं
अपने गांव पहुंच चुका था
- आशीष कुमार
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