मंगलवार, 15 सितंबर 2015

टीवी दर्शन







कहानी -


राजेन्द्र सिंह पेशे से तो डॉक्टर हैं लेकिन टेलीविजन के बड़े शौकीन हैं। शाम को क्लीनिक से आऩे के तुरंत बाद रिमोट लेकर टीवी के सामने अड़ जाते हैं। पहले ताश की पत्तों की तरह सभी चैनलों का फेंटा लगाते हैं और उसके बाद किसी एक चैनल पर जाकर रूक जाते हैं जहां महिलाएं षड़यंत्र रच रही हों। टीवी पर चल रहे महिलाओं के झगड़ों को वह बड़े चाव से देखते हैं।
नाटकों के चक्कर में वे अक्सर क्लीनिक से आकर कपड़े व जूता उतारना भी भूल जाते हैं। टीवी पर पहले आधा-एक घंटे की शिफ्ट लगाते हैं उसके बाद ही टीवी को बिना छोड़े ही जूते उतारने और कपड़े बदलने का कार्यक्रम हो पाता है। तेजी से भागकर बाथरूम में मुंह-हाथ धो आते हैं और टीवी पर आंखें गढ़ाए हुए ही खाना लाने के लिए तेज आवाज में हुकुम दे देते हैं। घर की कोई महिला नाक-मुंह सिकोड़ते हुए टीवी के सामने से उठकर खाना ले आती है। भोजन का समापन भी टीवी के आगे ही होता है। उठना न पड़े इसलिए हाथ भी कटोरी में धो लिए जाते हैं। हाथ पोछने के लिए तौलिया भी वहीं आ जाता है। 
एकता कपूर व उन्हीं जैसे अन्यों द्वारा रचित सारे नाटकों में उन्हें आधुनिक महिला क्रांति की आवाज दिखाई देती है। उन्हें टीवी के घरेलू झगड़ों में महिला अधिकारबोध और अस्तित्व मुखरता मालूम पड़ती है। वह कहते हैं  कि इक्कीसवीं सदी नारी सदी है। लेकिन बाहर जो भी हालात हों लेकिन उनके इस नजरिए का लाभ घर की सभी महिलाओं को मिल रहा है, जिसके साहरे बेरोकटोक दिन में छह से सात घंटे विचित्र नाटकों को देखते हुए टीवी के सामने गुजार देती हैं। नैतिक समर्थन के साथ बाकी दिन उनपर चर्चा में गुजर जाता है।
घर में एक ही टीवी होने और डॉ. राजेन्द्र सिंह की खास पसंद व नजरिए के कारण अन्य पुरुष दर्शकों को परेशानी का सामना करना पड़ता है। वह न तो समाचार सुन सकते हैं और न ही क्रिकेट मैच देख सकते हैं। इस कारण राजेन्द्र सिंह का लड़का भी खासा परेशान रहता है। कभी समाचार या खेल का चैनल लगाने को कहा जाता है तो राजेन्द्र सिंह की लड़कियों की मुखमुद्रा एकदम बदल जाती है, जैसे किसी से उनके अधिकारक्षेत्र में अनिभिज्ञतापूर्वक सेंध लगाने की कोशिश की हो। यदि किसी ने दुबारा से चैनल बदले के लिए कह दिया तो उसकी तो खैर नही, कर्कशता से भरी हुई दो-तीन बातें सुननी ही पड़ेंगी।
एकदिन मौका देखकर मैंने राजेन्द्र सिंह से पूछा, कोई काम की चीज क्यों नहीं देखते हो, तमाम अच्छे चैनल मौजूद हैं... समाचार.. आस्था कुछ चलाओ।’’
क्या देखें.. सब पर वही बकवास आती है... तमाम बाबा अपनी दुकान चला रहे हैं… पूरे दिन पालथी मारे टीवी  पर बैठे रहते हैं… सभी अपने को आत्मज्ञानी बता रहे हैं... आत्मज्ञान को बतासों की तरह बांट रहे हैं ... कोई आत्मज्ञानी नहीं है... गुरु-घंटाल सब मजे ले रहे हैं... आत्मज्ञानी होते तो टीवी पर प्रचार करने की क्या जरूरत होती ...... सालाना करोड़ों का टर्नओवर है इनका.... सब ठग हैं।''  डॉक्टर साहब ने बस यूंहेिं  मेरे एक छोटे से सवाल के जवाब में टीवी के बाबाओं पर हमला ही बोल डाला। प्रश्नवाचक मुखमुद्रा लिए उन्होंने मेरी ओर देखा, लेकिन मैंने न मुख से न मुद्रा से कोई प्रतिक्रिया दी।
टीवी सिस्टम पर हमला जारी रखते हुए आगे बोले अब इन समाचार चैनल वालों को ही ले लीजिए .... टीआरपी के चक्कर में पगलाए हुए रहते हैं .... हर खबर में सनसनी चाहिए ... मानवीय संवेदनाओं से इऩका कोई लेनादेना नहीं है... यदि कोई आदमी मर रहा हो तो उससे भी पूछ लेंगे, तुम्हें कैसा महसूस हो रहा है? …. ये सारे पैसे कमाने के लिए टीवी चैनल चला रहे हैं.. इन्हें समाज की इतनी ही चिंता होती तो ये शोषित-वंचितों के बारें में नहीं दिखाते....  जैसे हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और होते हैं ... ऐसे ही इन टीवी चैनलों के लिए सिद्दांत केवल बात करने की चीज है .... अमल में लाने की नहीं।‘’
लेकिन यह भी सच है कि टीवी चैनलों की वजह से ही अन्ना के आंदोलन को बड़ी सफलता मिली थी मैं डॉक्टर साहब की बात को बीच में काटते हुए बोला।
सच्चाई यह नहीं है ... अन्ना आंदोलन की सफलता के पीछे केवल मीडिया का हाथ नहीं था .... अऩ्ना के व्यक्तित्व और कर्म के प्रति ईमानदारी ने आंदोलन को खड़ा किया... अन्ना की वाणी के ओज के सामने सभी नेता पस्त थे .... जब कर्म में प्राण ही नहीं होंगे तो मीडिया क्या कर लेगा... असलियत में मीडिया घटित घटना का दिखाता है.. घटना को रचता नहीं है राजेन्द्र जी का अब बाबाओं के बाद अब टीवी समाचार चैनलों पर हमला जारी था।
मैंने फिर कहा थोड़ी ही सही लेकिन मीडिया की आंदोलन में महत्वपूर्ण रही .. मीडिया की वजह से ही आंदोलन दिल्ली के जंतर-मंतर से निकलकर देश के गांव-गांव, शहर-शहर पहुंचा था
राजेेन्द्र सिंह के चेहरे की रंगत लाल हो चुकी थी, शायद मीडिया के प्रति गुस्सा इसका कारण था या फिर मीडिया के समर्थन में मेरा बोलना।
वह आगे बोले वह और दौर था जब मीडिया आंदोलनों में भागीदारी निभाता था ... आजादी के आंदोलनों में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी... महात्मा गांधी ने खुद कई समाचार पत्रों का संपादन व संचालन किया था... उनके इंडियन ओपियन और हरिजन जैसे अखबारों ने लोगों में आजादी की लड़ाई के प्रति प्रेरणा जगाने का काम किया था... इसी उद्देश्य से रानाडे, तिलक, गोखले ने अपने अखबार निकाले थे .. अंग्रेजी हुकूमत की तमाम बंदिशों और प्रतिबंधों के बावजूद समाचार पत्र निकाले जाते थे .... उस समय पत्रकारिता एक मिशन थी, एक जुनून थी... एक राष्ट्र सेवा का काम था
अब मीडिया में क्या बदलाव आ गए हैं  मैंने जिज्ञासापूर्वक पूछा और साथ ही कहा पुरानी न देखी चीजें सभी को सुहाती हैं, हकीकत का पता तो बरत के ही चलता है
ऐसा नहीं है उन्होंने कहा मैंने अपने दौर में भी पत्रकारिता को राष्ट्रहित में काम करते देखा है... सन पीच्चतर में इंदिरा गांधी ने राजनीतिक लाभ के लिए इमजेंसी लगा दी थी.... मीडिया को सेंसर कर दिया था...उस दौर में मीडिया ने लोकतंत्र की रक्षा करने के लिए .... अभिव्यक्ति की आजादी के लिए अपनी आवाज बुलंद रखी थी, जिसके लिए हजारों पत्रकार  और लेखक खुशी-खुशी जेल गए थे... वह भी मिशन पत्रकारिता थी ... पत्रकारों के पास जुनून था, मिशन था ... उद्देश्य था।
 ‘’अब समाचार चैनल जनहित में आंदोलनों को खड़ा करना तो दूर, उनकी साख खराब करने में ज्यादा विश्वास रखते हैं... सभी समाचार चैनलों और अखबारों को उद्योगपति और नेता चला रहे हैं.. ऐसे में कैसे उम्मीद की जा सकती है कि मीडिया के जरिए सत्यमेव जयते होगा... इसलिए हम तो सत्यमेव जयते से ही काम चला लेते हैं  राजेन्द्र सिंह ने चेहरे पर मुस्कराहट लाते हुए बदलकर टीवी पर समाचार चैनल लगा दिया।
वहां समाचर चैनल पर एक स्पॉनसर्ड कार्यक्रम आ रहा था, जिसमें बाबा अपने समागम में एक भक्त को बता रहे थे कि आपने हरी मिर्च की चटनी कब खाई थी। लाल रंग की कमीज कब पहनी थी। कल कितने समोसे खाए थे। चार बतासे कम चढ़ाने की वजह से ही देवी की आप पर कृपा नहीं हो रही है। मंदिर में अगली बार जाए तो पीली टोपी लगा कर जाना। बाबा की हर बात के साथ हॉल जयकारों से भर जाता था। बाबा दरबार की जय।
राजेन्द्र सिहं को टीवी पर हमला बोलने के लिए रखा-रखाया एक और मुद्दा मिल गया इस बाबा को देख लीजिए... टीवी पर ही ढोंग की दुकान चला रहा है.... लाल-हरी चटनी में ही अध्यात्म के रहस्य की व्याख्या कर रहा है .... इन बाबाओं को पतंजलि कहीं से देख रहे होंगे तो खून के आंसू रो रहे होंगे ... वह सोचते होंगे, इन्होंने मेरे योग को क्या बना दिया ... वह कहते होंगे मैंने तो कहा था ... योग: अथानुशासनम् .... अनुशासन से ही योग की शुरूआत होती है, लेकिन यहां तो हरी मिर्च से ही योग की टोपी पहनायी जा रही है।‘’
राजेन्द्र जी बोले  इससे ज्यादा मुझे इन्हें देखने और मानने वालों पर तरस आता है, क्या उऩके अंदर औसत तर्क शक्ति भी नहीं है? .. सबके सब स्वार्थ में अंधे हो गए हैं ... कैसे भी मिले, कहीं से मिले, बस मिलना चाहिए.. भ्रष्टाचार के पीछे भी यही सोच जिम्मेदार है।‘’
इसमें समाचार चैनलों क्या दोष हैमैंने राजेन्द्र सिंह से कहा
क्यों दोष नहीं हैवह तेजी से बोलेसमाचार चैनल जनसंचार की संस्थाएं हैं ... समाज पर इनका गहरा प्रभाव है.. यदि यह समाचार चैनल पर दिखाए जा रहा है तो इसका मनोवैज्ञानिक रूप से दर्शकों पर ज्यादा गहरा प्रभाव होगा... यदि यही नाटकों के चैनलों पर आ रहा आता तो कम प्रभावी होता ... समाचार चैनलों के मठाधीशों को इस बारे में सोचना चाहिए ... वैसे तो वे सब समाजविज्ञानी बनते हैं, लेकिन पैसे कमाने की बात आती है तो सब चलता है... दर्शकों के सामने कूड़ा-करकट सब परोस दिया जाता है
टीवी विषय पर इतना सबकुछ सुनने के बाद मैंने राजेन्द्र सिंह से मजाकिया लहजे में कहा आप महिलाओं वाले नाटक क्यों देखते हैं, उनमें कौन सा ज्ञान टपकता है... उनमें महिलाएं हर समय लड़ाई-झगड़ा करती रहती हैं.. किसी भी एपिसोड में शांति-खुशहाली नहीं दिखाई नहीं देती.. बस मूर्खतापूर्ण षड्यंत्रबाजी... सनी लियोनी के बारे में राय दीजिए।
हंसते हुए वह बोले क्या बताऊं मैं तुझे.... मुझे यह सब तो मजबूरी में देखना पड़ता है .... तेरी आंटी और ये लड़कियां मुझे और कुछ देखने ही नहीं देती हैं, इसलिए मैंने भी इन नाटकों में नारी अधिकार और नारी शक्ति के प्रतीक ढूंढ लिए हैं .... इन नाटकों में पुरुष तो केवल कहानी को चलाने का एक पात्र मात्र होता है, उसका तो पूरी कहानी में बदलते एंगिलों के साथ चेहरे के भाव परिवर्तनों को ही दिखाया जाता है... इऩ नाटको में पुरुष बेचारा है... स्त्री, स्त्री की मारी है... सब घटाघोप है।
''इतना बकवास है तो यह देखकर समय बर्बाद ही क्यों करते होडिस्कवरी, नेशनल जियोग्राफिक, एनिमल प्लेनेट, हिस्ट्री जैसे चैनल हैं, उऩ्हें देख लिया करो .. अच्छी जानकारी देते हैं।'' मैंने कुछ और नई बातें सामने आऩे की उम्मीद के साथ कहा। साथ ही मैं सोच रहा था कि राजेन्द्र सिंह मेरी इस राय पर सहमति जरूर जताएंगें। लेकिन उनका जवाब इसके विपरीत आया
डिस्कवरी, हिस्टरी चैनल वालों का भी हिडन एजेंटा रहता है.. अपने देश की सरकारों के प्रोपेगेंडा के तहत काम करते हैं.. अपने देश की टेक्नोलॉजी और साइंस को ऐसे पेश करते हैं, जैसे दूसरे देशों से वह सदियों आगे हैं ... युद्द व हथियारों के प्रचार का माध्यम बनाया जाता है ... ताकि दूसरे देश के लोगों को ... खासकर युवाओं को प्रभावित किया जा सके कि हमारा देश हथियार, तकनीक और विज्ञान में सबसे आगे है... इन चैनलों के माध्यम से शेष दुनिया पर मनोवैज्ञानिक बढ़त बनाने की कोशिश की जाती है... अपने को महान, शेष को पिछड़ा जताया जाता है ... क्या करें, इसे अपना दुर्भाग्य ही कहेंगे कि अपने देश के पास इस प्रकार की मनोवैज्ञानिक बढ़त बनाने के साधन नहीं है... सूचना युग में इनका बड़ा महत्व है .. हमारी सरकारों को इस बारे में सोचना चाहिएइसी बात के साथ राजेन्द्र सिंह के चेहरे पर पीड़ा झलक आई।
अंत में मैंने कहा कोई बात नहीं टीवी देखते रहिए, समय ही तो काटना है
हर महीने दो सौ दस रुपये का रिचार्ज करवाना पड़ता है, चाहे एक घंटे देखो या चौबीस घंटे। चाहे डिस्कवरी पर शेरों की लड़ाई देखो या महिलाओं की, ज्यादा अंतर नहीं” राजेन्द्र जी ने इसी मजाक के साथ अपनी बात समाप्त की । मैं सोचने लगा क्लीनिक से आने के बाद अगंभीर से दिखने वाले व्यक्तित्व के पीछे भावनानाएं व संवेदनशीलता भी है। राष्ट्र के प्रति एक सोच व नजरिया, लेकिन साथ ही परिवारिक माहौल व समय की कठिन परिस्थितियां, जिनके सामने अधिकांश को समझौता करना पड़ता है, जहां समझदारी और सिद्दांत भी मजबूरी में मौन बने रहते हैं।

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आशीष कुमार












मातृ वियोग

कहानी -


आकाश की उम्र उस समय करीब दस-बारह वर्ष रही होगी। वह घर के नजदीक, गांव के भीतर की ओर जाने वाले प्रमुख रास्ते के किनारे खड़े पीपल के पेड़ के नीचे अपने हमउम्र साथियों के साथ खेल रहा था। वह खेलने में इतना मगन था कि शरीर और कपड़ों पर रेत की परत चढ़ चुकी थी। खेल की धमाचौकड़ी में सभी बच्चों का यही हाल था। उसी वक्त साईकिल पर सवार हो गांव का एक व्यक्ति रास्ते पर खेलते हुए बच्चों के बीच से होकर निकला। बच्चे खेलने में मगन थे, उसे साईकिल निकालने में दिक्कत हुई।
तुम्हें खेलने के लिए कोई और जगह नहीं मिली .... सड़क पर ही मरोगे।’’ साईकिल सवार ने खेलते बच्चों से झुझलाकर कर कहा।
बच्चों ने उसकी डांट पर खिलखिलाकर हस दिया। बच्चों की हसी से साईकिल सवार तिलमिला उठा। उसकी नजर बच्चों के झुंड़ के बीच में खड़े आकाश पर गई। आकाश की ओर अंगुली से इशारा करते हुए, उसने कहा, तेरी मां तो घर से भाग गई  दूसरी जगह बैठ गई है... उसने दूसरा ब्याह लिया और तू यहां सड़क पर ऊधम मचा रहा है ....  थोड़ी बहुत शर्म कर ले।’’
साईकिल सवार की बात सुनकर आकाश का चेहरा लाल हो गया। वह खेलना भूल गया। बच्चों के झुंड़ के बीच से निकलकर, उसने घर की ओर दौड़ लगा दी। आंगन के बीच में चारपाई पर बैठे अपने पिता से साईकिल सवार का नाम लेते हुए, बिना सांस लिए सारी बात बता दी। सारी बात सुनने के बाद भी पिता के चेहरे के भावों में कोई बदलाव नहीं आया। पिता को देखकर आकाश ने आपा खो दिया। वह अपने पिता से कहने लगा, बाबूजी, तुम तो कह रहे थे वह अपने गांव गई है .... वह (साईकिल सवार) कह रहा था तेरी मां ने दूसरी शादी कर ली
पिता ने झुंझलाकर कहा, मैं क्या करूं यदि उसने दूसरी शादी कर ली है तो
पिता के इन संवेदनहीन शब्दों को सुनकर आकाश को सांस लेना भी भारी हो गया। वह जमीन पर गिर गया। थोड़ी देर बाद जोर-जोर से रोने लगा। बारह साल की छोटी सी उम्र में उसे लग रहा था कि जैसे किसी ने झपट्टा मारकर उसके सारे सपनों को छीन लिया हो। उसकी मां उससे बेहद प्यार करती थी। रोज रात को वह मां के हाथ का तकिया बना उसकी बगल में सोता था। 
गांव में उसेक पिता की छवि बहुत अच्छी नहीं थी। उसे लोग असामाजिक और अपनी धुन का पागल कहते थे। गांव में घटने वाली किसी भी सुख-दुख की घटना से उसे कोई लेना-देना नहीं होता था। चाहे किसी की शादी हो या तेरवीं, वह किसी के पास उठने-बैठने नहीं जाता था। वह तो केवल अपने ख्यालों और मान्यताओं को ही सही मानता था। यदि कोई गलती से उससे मजाक भी कर देता था तो वह आगबबूला हो जाता था। उसके व्यवहार को देखते हुए गांव के लोग  उससे कम ही मतलब रखना पसंद करते थे। आय का कोई नियमित श्रोत नहीं था, केवल एक एकड़ जमीन थी, जिसमें परिवार के तीन सदस्यों का खर्चा चलता था। परिवार के सदस्यों में आकाश के अलावा उसकी एक बहन और थी। वह दोनों ही पढ़ाई में तेज थे। बाप जैसा भी हो गांव के लोग दोनों ही बच्चों की बढ़ाई करते थे।
जब से उसने होश संभाला था तभी से उसने अपने पिता को अपनी मां पर जुल्म ढाते हुए देखा था। रोजाना दोनों के बीच किसी न किसी बात पर झगड़ा होता रहता था। झगड़े का अंत उसकी मां की पिटाई के साथ होता था। उसके पिता मां को बड़ी बेरहमी के साथ पीटा करते थे। हाथ में जो कुछ आ जाता था उसी से मां की पिटाई शुरू कर देते थे। कई बार मां को गंभीर चोटें आईं। उसके पिता कहते थे कि सुबह और शाम का खाना बिना नहाए नहीं बनना चाहिए। एक बार उसकी मां ने जाड़े के दिनों में शाम का खाना बिना नहाए बना दिया, इसी बात को लेकर उसके पिता ने मां को डंड़े से पीटा, उसका हाथ टूट गया। उसके पिता अपनी पत्नी को पीटना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते थे।
यदि पिटती मां को बचाने वह और उसकी बहन बीच में आ जाते थे तो उनकी भी पिटाई हो जाती थी। कभी-कभी दादी की भी मां को पिटवाने में भूमिका रहती थी, वह अपने बेटे से बहू की कोई न कोई बुराई करती रहती थी। मां को पिटते देखकर शायद दादी को भी संतुष्टि मिलती थी। पिता के इन सब कारनामों के बावजूद उसकी मां अपने पति का सम्मान ही करती थी। यदि कोई पड़ोसी उसके पति के बारे में बुरा-भला कहता तो वह कहती, यह हमारे पति-पत्नी के बीच का मामला है, उन्हें बीच में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है।
पति के जुल्मों से परेशान होकर उसकी मां करीब एक साल पहले अपने मायके, भाईयों के पास चली गई थी। मां के छह भाई थे। माता-पिता पहले ही खत्म हो चुके थे। इससे पहले भी मां के भाई अपनी बहन पर हो रहे जुल्मों की खबर सुनकर कई बार गांव आए थे। गांव में इसी मसले को लेकर कई बार पंचायतें भी हुईं थी, लेकिन उसके पिता पर कोई फर्क नहीं पड़ा। सवर्ण जाति से ताल्लुक रखने के कारण उसके पिता पंचों की बात को अनसुनी कर, उल्टे अपने सालों का अधिकारपूर्ण तरीके से अपमान कर देते थे। गांव के सभी लोग समझा-बुझाकर हार चुके थे।
आकाश का बचपन इन सभी घटनाओं का मूकदर्शक रहा था। पति को छोड़कर पीहर जाने के तीन-चार साल बाद हारकर भाइयों ने मां की शादी कहीं और करा दी। इसी के साथ उसके पिता और मां के बीच का पंद्रह साल पुराना पति-पत्नी का रिश्ता खत्म हो गया।
आकाश गाजियाबाद के एक इंजीनियरिंग कॉलेज के हॉस्टल की छत पर अकेला बैठा अपने अतीत की इन्हीं सारी बातों को सोच रहा था, उसने तीन वर्ष पूर्व बीटेक में एडिशमन लिया था। उसके पिता ने आधे एकड़ जमीन को बेचकर उसका एडमिशन इंजीनियरिंग में कराया था। आज वह बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर अपना जैसे-तैसे खर्च चला पाता है। अब उसकी उम्र करीब इक्कीस वर्ष हो चुकी है। उसे पता चला है कि मां की दूसरी शादी के बाद उसके एक बेटा और दो बेटी भी हैं।
आकाश को यह भी कचोटता है कि उसे और उसकी बहन को छोड़ने के दस-ग्यारह सालों के बीच में मां ने उनसे कभी भी संपर्क करने की कोशिश नहीं की। वह सोचता है, मेरा पिता जैसा भी रहा हो.... क्या मां को दूसरी शादी करनी चाहिए  थी?.... क्या मां को मेरे बड़े होने का इंतजार नहीं करना चाहिए था? ….. क्या मां के भाइयों में यानि मेरे मामाओं में इतनी शक्ति नहीं थी कि वह कुछ वर्ष मेरी मां को अपने पास रख सकें और उसका खर्चा उठा सकें। आकाश सोचता है, यदि मां ने दूसरी शादी न की होती तो वह आज पिता को दरकिनार कर अपनी मां को वापस अपने पास बुला लाता .... पिता द्वारा मां को दिए गए कष्टों को वह जरूर दूर करता .... मां के हरे गए सम्मान और अधिकार को वह दुबारा वापिस दिलाता.... ।
इऩ्हीं बातों को सोचते-सोचते आकाश की आंखें भर आईं। उसे अहसास है कि उसका यह पूरा जीवन मातृ वियोग में ही गुजरेगा। आकाश इन सब घटनाओं के पीछे के कारणों को भाग्य में तलाशने की कोशिश करता है, लेकिन समाधान दिखाई नहीं देता। बाकि बचा है तो केवल मातृ वियोग।