इसे इस प्रकार सोचिए।
दिल्ली में स्थित देश के प्रमुख मेडिकल संस्थान एम्स में सवर्ण डॉक्टर आरक्षण के
विरूद्ध धरने पर बैठे थे। विरोध के प्रतीकात्मक स्वरूप में वे जूते पर पॉलिश कर
रहे थे। अब सवाल यह है कि वे एक दिन प्रतीकात्मक रूप से जूता पॉलिश कर अपना विरोध
दर्ज करा रहे, लेकिन उस जाति के लोगों का क्या जिन्होंने सैकड़ों पीढ़ियों तक
सवर्ण लोगों के जूतों की पॉलिश की है और आज भी कर रहे हैं। जिनका मैला सिर पर
ढोया। नालियां साफ की और आज भी कर रहे हैं। कितने ब्राह्मण ऐसे हैं, जो रोजना
नगरपालिका की नाली साफ करते हैं, झाडू लगाकर सड़के साफ करते हैं। लोगों की जूतों
पर पॉलिश करते हैं। शायद ही कोई मिले। आरक्षण का विरोध उन्हीं हालातों में संभव हो
पाएगा। जव सवर्ण अपनी बेटी का विवाह दलित के यहां खुशी-खुशी कर देगा। जब एक ही
थाली में खाना संभव हो पायगा।
एक बार मेरा तथाकथित मित्र
अपने रिश्तेदार के फोन पर एक एसएमएस करके बताता है कि फलां अखबार में रिपोर्ट
प्रकाशित हुई है कि भारत सरकार में सचिव स्तर पर काम करने वाले आईएएस अधिकारियों
कुल संख्या में 90 प्रतिशत सवर्ण हैं तो वे जबाव में लिखते हैं वाह-वाह, शुभ-शुभ।
लेकिन सार्वजनिक मंचों वे भी बड़े-बड़े माननीयों की तरह समरसता और आरक्षण के विरोध
में लिखते हैं। इससे पता चलता है कि वे सामाजिक समरसता की बात केवल इसलिए करते हैं
क्योंकि इससे उनकी सामंती सोच पोषित होती है।
आरक्षण को कहीं से भी ठीक
नहीं ठहराया जा सकता है लेकिन उससे पहले जाति व्यवस्था को मन, समाज से, व्यवस्था
से निकलना होगा। जाति की श्रेष्ठता का कायाम रखकर आरक्षण खत्म नहीं होना चाहिए
बल्कि बढ़ना चाहिए।