सोमवार, 3 दिसंबर 2012

जी न्यूज के बहाने पत्रकारिता का अंदरखाने


आशीष कुमार

हले दो संपादकों की गिरफ्तारी के पूरे प्रकरण पर गिरफ्तारी, गिरफ्तारी से पहले और उसके बाद के घटनाक्रमों का सिलसिलेवार तरीके से जांच पड़ताल करते हैं ताकि कुछ मथकर ऊपर आ सके। दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने जी न्यूज के संपादक व बिजनेस हेड़ सुधीर चौधरी और जी बिजनेस के संपादक व बिजनेस हेड़ समीर अहलूवालिया को नवीन जिंदल प्रकरण में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया।
जिस रात दोनों को गिरफ्तार किया गया जी न्यूज के सलाहकार संपादक पुण्य प्रसून वाजपेयी ने रात दस बजे के अपने प्रोग्राम बड़ी खबर में इसे आपातकाल से जोड़ कर दिखाया। पुण्य प्रसून वाजपेयी अपनी स्टाईल में दोनों हाथों की हथेलियों को रगड़ते हुए, जंजीरों में जकड़े मीडिया शब्द के क्रोमा के आगे खड़े होकर बड़ी उर्जा व तर्कों के साथ इसे मीडिया पर सेंसरशिप व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन के रूप में दिखा रहे थे। इस दौरान उन्होंने बहुत से वर्जनों के बीच वरिष्ट पत्रकार कमर वाहिद नकबी और ब्रॉस्डकॉस्टिंग एडिटर एसोसिएशन के अध्यक्ष एनके सिंह का वर्जन भी लिया। कमर वाहिद नकबी के बयानों को अपने पक्ष में तोड़ मरोड़कर पेश किया गया।
जी न्यूज के बिजनेस सहित सभी समाचार चैनलों पर इसे आपातकाल के दौरान की हालतों से जोड़कर दिखाया गया। विभिन्न राष्ट्रीय पार्टियों के प्रवक्ता व मुख्य नेताओं के बयानों को अपने पक्ष में दिखाया गया। टीवी के प्राइम टाइम में बहसों का दौर चला। जमकर फेसबुकबाजी हुई। खांटी पत्रकारों को पत्रकारिता की समीक्षा करने का सुनहरा मौका मिला। सरकार को मीडिया के मामले आक्रमक होने का मौका मिला। मौका दिया जी न्यूज के मालिक के व्यवसायिक हितों और उसके संपादकों व चैनल के प्रति पैसे बटोरने की हवस ने, शायद उनकी नीयत में भी कुछ रहा होगा। कोई बेवजह सफेद कपड़े पहनकर कोयले की खदान में क्यों घुसेगा।
नेताओं को तो बोलने का मौका मिलना चाहिए। जब मीडिया के साथ सांत्वना दिखाने और जी न्यूज के आंसू पोछने को मौका मिला तो वह कहां चूकने वाले थे, उन्होंने भी बिना जाने-समझे इसे अधिकारों का हनन और आपातकाल बता दिया। इस पूरे प्रकरण में छोटी सी गलती और मालिक के प्रति वफादारी दिखाने के चक्कर में पत्रकारिता जगत के छात्रों के लिए आदर्श पुण्य प्रसून वाजपेयी पर भी लोगों को उंगली उठाने का मौका मिल गया।
चलिए इसकी जड़ तक जाने के लिए सुधीर चौधरी की कुंडली और नवीन मामले की भी पड़ताल कर लेते हैं। लाइव इंडिया से जी न्यूज पहुंचे सुधीर चौधरी मल रूप हरियाणा के हिसार के रहने वाले हैं। उनके व्यवहार में हरियाणवी ठसक व रिस्क लेने की प्रवृत्ति भी दिखाई देती है। पत्रकारिता जगत में उनकी कार्यशैली को लेकर पहले भी उंगली उठती रहीं हैं। नवीन जिंदल प्रकरण का मुद्दा इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के संपादकों की स्वतंत्र संस्था बीईए में उठने पर सुधीर चौधरी का जवाब था कि वह एक संपादक के साथ चैनल के बिजनेस हेड़ भी हैं, जिसके नाते वह नवीन जिंदल से 100 करोड़ का विज्ञापन मांगने गए थे। यह तो यू ट्यूब पर सबके लिए उपलब्ध वीडियो को देखकर कोई आम आदमी बता सकता है कि विज्ञापन मांगा जा रहा है या और कुछ भी हो रहा है। बचाव में तरह-तरह के तर्क देने की कोशिश की गई। कहीं कुछ मछलियां हीं पूरे तलाब को गंदा तो नहीं कर रहीं। लेकिन यह सच है कि यह मछलियां कुछ जरुर हैं लेकिन बहुत बड़ी-बड़ी हैं।

जी न्यूज के कर्मचारियों का दबी जुबान से मानते हैं कि सुधीर चौधरी के जी न्यूज में आने की भी एक कहानी है। जी न्यूज के मालिक सुभाष चंद्रा को हरियाणा में रियल एस्टेट के करोबार को फैलाने में राजनीतिक कारणों से अड़चनों का सामना करना पड़ रहा था। कहा जाता है कि जी न्यूज के संपादक एनके सिंह की हुड्डा के साथ ट्यूनिंग सही नहीं थी, जिसके कारण वह सुभाष चंद्रा की व्यवसायिक अड़चनों का दूर नहीं कर पा रहे थे। ऐसे में सुधीर चौधरी को मौका मिला। मुख्यमंत्री दीक्षित से जुगाड़ लगाकर व हरियाणा में रियल एस्टेट करोबार में आ रहीं दिक्कतों को दूर करने का भरोसा देकर सुधीर चौधरी जी न्यूज पहुंच गए। एके सिंह को जी न्यूज छोड़ना पड़ा। वह लाइव इंडिया पहुंच गए। बाद की कहानी जगजाहिर है।
एक मछली ने मीडिया पर उंगली उठाने का मौका दे दिया। वैसे यह मामला मीडिया की नैतिकता से जुड़ा हुआ था। सुधीर चौधरी प्रकरण मीडिया सेंसरशिप का न होकर एक आपराधिक मामला था। संपादकों की गिरफ्तारी पर मीडिया की त्वरित कार्रवाई और आपातकाल से तुलना करने के कारण उसने खुद अपने पैरों पर कुल्हाडी चलाई। सच तो यह है कि मीडिया के नियामन से जुड़ी संस्थाएं मीडियाकर्मियों या संस्थाओं के आपराधिक मामलों को नहीं देख सकतीं या देखती हैं। यदि कोई मीडिया संस्था या मीडियाकर्मी अपराध करेगा तो उसको पुलिस और न्यायपालिका ही डील करेगी। मीडिया कंटेंट और मीडियाकर्मियों के अपराधों को अलग करके देखना होगा। मीडिया के नियामक संस्थाएं कंटेंट व उसकी आचार संहिता को लेकर ही कुछ सकती हैं। मसलन, मीडिया में साफ छवि के लोग ही होने चाहिए ताकि आम आदमी का मीडिया पर विश्वास बना रहे। यदि संपादक मर्सिडिज, बीएमडब्ल्यू, फोरचूनर से चलेंगे और फाइव स्टार जीवन शैली अपनाएंगे तो उसका खर्च वहन करने के लिए ऐन केन प्रकारेण तो करना पड़ेगा जो तलाब गंदा करने का कारक भी बन सकता है।  

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