Narendra Modi Vs Rahul Gandhi |
आशीष कुमार।
आरएसएस के कर्मठ कार्यकर्ताओं की टीम से निकले नरेंद्र मोदी राजनीति के माहिर
खिलाड़ी हैं। वह राजनीति के अखाडे में विरोधियों को चित करना अच्छी तरह से जानते
हैं। उनके शब्दों मे जीवन का संघर्ष और स्वयं द्वारा अनुभव की गई आम लोगों की
पीड़ा साफ झलकती है। मोदी देश के संबंध में बड़ा सोचते हैं और पूरा करने के लिए
इच्छाशक्ति का भी प्रदर्शन करते हैं वहीं राहुल गांधी अनुभवहीन व भ्रमित दिखाई
देते हैं। राहुल गांधी संघर्षों से सदैव दूर रहे हैं। उन्होंने राजकुमारों जैसा
काल्पनिक जीवन जीया है। उनके प्राणहीन भाषणों से साफ दिखाई भी देता है। यही कारण है कि वह अभी तक देश के लोगों पर अपनी
छाप छोड़ने में नाकामयाब रहे हैं और भविष्य में उम्मीद भी
दिखाई नहीं देती है।
राहुल गांधी कभी भी सीधे मीडिया से मुखातिब नहीं होते हैं। मीडिया के
बड़े-बड़े धुरंधर उनका वन-टू-वन इंटरव्यू लेने में आज तक कामयाब नहीं हो पाए हैं।
बड़े मुद्दों पर जब देश राहुल से उनके विचार जानना चाहता है तो उन हालतों में भी
उन्होंने अपने को देश के लोगों से अलग रखा। उत्तराखंड जैसी प्राकृतिक आपदाओं के
संदर्भ में उन्होंने पीडित परिवारों के लिए सहानुभूति से भरे दो शब्द भी नहीं कहे।
कारण स्पष्ट माना जा सकता है कि राहुल गांधी को अपनी योग्यता पर विश्वास नहीं है।
उन्हें लगता है कि कहीं उनके किसी बयान पर बबंडर न खड़ा हो जाए।
कांग्रेस की परंपरा में भारतीय लोकतंत्र अप्रत्यक्ष राजशाही है। राहुल गांधी
इसी परंपरा के तहत देश के प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। यदि देश में प्रधानमंत्री
चुनने की प्रत्यक्ष प्रणाली लागू होती तो वह देश के शायद ही इस जन्म में
प्रधानमंत्री बन पाते। मनमोहन सिंह की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। इसे
विडंबना ही माना जाएगा।
चलते-चलते ..........
इस समय देश में राजनीति का
एक नया चेहरा व चरित्र देखने को मिल रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की
ओर से पीएम पद के पूर्ण संभावित उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के चुनाव प्रचार समिति का
अध्यक्ष नियुक्त होने के बाद से तथाकथित सेक्युलरवादी मुखर हो उठे हैं। बोट बैंक
की राजनीति में अपना अस्तित्व तलाशने वालों के हाथ मानो कोई जादुई मुद्दा हाथ लग
गया हो। मुकाबले की वर्तमान तस्वीर में बीजेपी बनाम अन्य दिखाई दे रहा है। ऐसे
हालतों में वोटों के धुव्रीकरण के डर से अल्पसंख्यककों के रहनुमाओं के भी होश
फाख्ता हैं। वह अच्छी तरह जानते हैं कि यदि धार्मिक धुव्रीकरण हुआ तो उनके जातीय
समीकरणों का खेल रठमठ हो जाएगा। तुष्टीकरण की राजनीति करने वाले न घर के रहेंगे न
घाट के। यही कारण है कि बदले हालतों में किसी को 21 साल बाद .अयोध्या में कारसेवकों
की हत्या पर पछातवा हो रहा है और कोई अपने को हिंदु साबित करने के लिए अपने घर में
दसियों मंदिर होने व नियमित पूजा-पाठ करने के सबूत पेश कर रहा है।
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