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सोमवार, 9 अप्रैल 2012

आखिर क्यों उफन जाती हैं नदियां

मई-जून के महीनों में जब तीन-चौथाई देश पानी के लिए त्राहि -त्राहि कर रहा था, पूर्वोत्तर राज्यों में भी बाढ़ से तबाही का दौर शुरू हो चुका था। अभी बारिश के असली महीने सावन की शुरुआत है और लगभग आधा हरियाणा, पंजाब का बड़ा हिस्सा, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार का बड़ा हिस्सा नदियों के रौद्र रूप से पानी-पानी हो गया है।


हर बार ज्यों-ज्यों मानसून अपना रंग दिखाता है, वैसे ही देश के बड़े भाग में नदियां उफन कर तबाही मचाने लगती हैं। पिछले कुछ सालों के आंकड़ें देखें तो पायेंगे कि बारिश की मात्र भले ही कम हुई है, लेकिन बाढ़ से तबाह हुए इलाके में कई गुना बढ़ोतरी हुई है। कुछ दशकों पहले जिन इलाकों को बाढ़ से मुक्त क्षेत्र माना जाता था, अब वहां की नदियां भी उफनने लगी हैं और मौसम बीतते ही, उन इलाकों में एक बार फिर पानी का संकट छा जाता है। सूखे और मरुस्थल के लिए कुख्यात राजस्थान भी नदियों के गुस्से से अछूता नहीं रह पाता है।

देश के कुल बाढ़ प्रभावित क्षेत्र का 16 फीसदी बिहार में है। यहां कोसी, गंडक, बूढ़ी गंडक, बाधमती, कमला, महानंदा, गंगा आदि नदियां तबाही लाती हैं। इन नदियों पर तटबंध बनाने का काम केन्द्र सरकार से पर्याप्त सहायता नहीं मिलने के कारण अधूरा है। यहां बाढ़ का मुख्य कारण नेपाल में हिमालय से निकलने वाली नदियां हैं। ‘बिहार का शोक’ कहे जाने वाली कोसी के ऊपरी भाग पर कोई 70 किलोमीटर लंबाई का तटबंध नेपाल में है, लेकिन इसके रखरखाव और सुरक्षा पर सालाना खर्च होने वाला कोई 20 करोड़ रुपया बिहार सरकार को झेलना पड़ता है।

हालांकि तटबंध भी बाढ़ से निबटने में सफल रहे नहीं हैं। कोसी के तटबंधों के कारण उसके तट पर बसे 400 गांव डूब में आ गए हैं। कोसी की सहयोगी कमला-बलान नदी के तटबंध का तल सिल्ट (गाद) के भराव से ऊंचा हो जाने के कारण बाढ़ की तबाही अब पहले से भी अधिक होती है। फरक्का बराज की दोषपूर्ण संरचना के कारण भागलपुर, नौगछिया, कटिहार, मुंगेर, पूर्णिया, सहरसा आदि में बाढ़ग्रस्त क्षेत्र बढ़ता जा रहा है।

बगैर सोचे समझे नदी-नालों पर बंधान बनाने के कुप्रभावों का ताजातरीन उदाहरण मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में बहने वाली छोटी नदी ‘केन’ है। केन के अचानक रौद्र हो जाने के कारणों को खोजा तो पता चला कि यह सब तो छोटे-बड़े बांधों की कारिस्तानी है। सनद रहे केन नदी, बांदा जिले में चिल्ला घाट के पास यमुना में मिलती है। केन में बारिश का पानी बढ़ता है, फिर ‘स्टाप-डेमों’ के टूटने का जल-दबाव बढ़ता है। केन क्षमता से अधिक पानी ले कर यमुना की ओर लपलपाती है। वहां का जल स्तर इतना ऊंचा होता है कि केन के प्राकृतिक मिलन स्थल का स्तर नीचे रह जाता है। रौद्र यमुना, केन की जलनिधि को पीछे धकेलती है। इसी कशमकश में नदियों की सीमाएं गांवों-सड़कों-खेतों तक पहुंच जाती हैं।

वैसे शहरीकरण, वन विनाश और खनन तीन ऐसे प्रमुख कारण हैं, जो बाढ़ विभीषिका में उत्प्रेरक का कार्य कर रहे हैं। जब प्राकृतिक हरियाली उजाड़ कर कंक्रीट का जंगल सजाया जाता है तो जमीन की जल सोखने की क्षमता तो कम होती ही है, साथ ही सतही जल की बहाव क्षमता भी कई गुना बढ़ जाती है। फिर शहरीकरण के कूड़े ने समस्या को बढ़ाया है। यह कूड़ा नालों से होते हुए नदियों में पहुंचता है। फलस्वरूप नदी की जल ग्रहण क्षमता कम होती है। पंजाब और हरियाणा में बाढ़ का कारण जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में हो रहा जमीन का अनियंत्रित शहरीकरण ही है। इससे वहां भूस्खलन की घटनाएं बढ़ रही हैं और इसका मलबा भी नदियों में ही जाता है। पहाड़ों पर खनन से दोहरा नुकसान है। इससे वहां की हरियाली उजड़ती है और फिर खदानों से निकली धूल और मलबा नदी-नालों में अवरोध पैदा करता है। हिमालय से निकलने वाली नदियों के मामले में तो मामला और भी गंभीर हो जाता है।

मौजूदा हालात में बाढ़ महज एक प्राकृतिक प्रकोप नहीं, बल्कि मानवजन्य साधनों की त्रासदी है। कुछ लोग नदियों को जोड़ने में इसका निराकरण खोज रहे हैं। हकीकत में नदियों के प्राकृतिक बहाव, तरीकों, विभिन्न नदियों के ऊंचाई-स्तर में अंतर जैसे विषयों का हमारे यहां कभी निष्पक्ष अध्ययन ही नहीं किया गया। पानी को स्थानीय स्तर पर रोकना, नदियों को उथला होने से बचाना, बड़े बांध पर पाबंदी, नदियों के करीबी पहाड़ों पर खुदाई पर रोक और नदियों के प्राकृतिक मार्ग से छेड़छाड़ को रोकना कुछ ऐसे सामान्य प्रयोग हैं, जो कि बाढ़ सरीखी भीषण विभीषिका का मुंहतोड़ जवाब हो सकते हैं।

क्यों बढ़ रहा है जल-संकट


पिछले कुछ सालों में मध्य प्रदेश समेत देश भर में पानी का संकट बढ़ा है। यह समस्या प्रकृति से ज्यादा मानव-निर्मित है। वर्षा की कमी के साथ, वनों की अवैध कटाई, पुराने तालाबों पर अतिक्रमण, गाद भरने से सरोवरों की भंडारण क्षमता में कमी, पानी की फिजूलखर्ची, नदी, जलाशयों का पानी औद्योगिक इकाईयों को देने व शहरों के प्रदूषित पानी को नदियों के प्रदूषण और भूजल को बेतहाशा दोहन से समस्या बढ़ रही है। इस संकट से न केवल खेतों की सिंचाई के लिए पानी की कमी आ रही है बल्कि पीने के पानी की समस्या भी बढ़ रही है। लेकिन इससे बेखबर हम भूजल को बेतहाशा उलीचे जा रहे हैं, जिसका पुनर्भरण नहीं हो रहा है। क्योंकि अब पहले जैसी बारिश भी नहीं हो रही है और जो जंगल पानी को स्पंज की तरह सोख कर रखते थे, वो भी अब कट चुके हैं। सवाल है कि आखिर पानी गया कहां? धरती पी गई या आसमान निगल गया? पानी की सबसे बड़ी जरूरत खेती के लिए होती है। जबसे हरित क्रांति के प्यासे बीज हमारे खेतों में आए हैं, तबसे पानी का ज्यादा दोहन बढ़ा है। कहीं नहरों से तो कहीं नलकूप के माध्यम से सिंचाई की जा रही है। लेकिन पहले परंपरागत देशी बीजों से बिना सींच (सिंचाई) की विविध फसलें हुआ करती थीं। अब उनकी जगह पर केवल ज्यादा पानी वाली एकल फसलें हो रही हैं।

जैव विविधता में मिट्टी के बाद पानी एक महत्वपूर्ण संसाधन है। इसे बचाने का प्रयास सुव्यवस्थित ढंग से किया जाना चाहिए। इसके बेतहाशा दोहन और शोषण से बचा जाना चाहिए। पानी से ही समस्त प्राणी-मनुष्य, पशु-पक्षी, सूक्ष्म जीव, जीव-जंतु सभी का जीवन है। इस पानी के संकट को बारीकी से समझने के लिए हम मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले पर एक निगाह डालने की कोशिश करेंगे। यह जिला सतपुड़ा एवं विन्ध्याचल पर्वत श्रेणियों के बीच नर्मदा नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है। इसे हम भौगोलिक रूप से दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। एक है मैदानी क्षेत्र, जो नर्मदा का कछार कहलाता है। यहां तवा बांध की नहरों से अधिकांश सिंचाई होती है और दूसरा है जंगल पट्टी, जो सतपुड़ा की तलहटी में फैली हुई है। यह पूरी पट्टी असिंचित है। तवा कमांड की नहरों की सिंचाई से पहले यहां का फसलचक्र भिन्न था। पहले यहां मोटे अनाज- जैसे ज्वार, मक्का, कोदो, कुटकी, समा, बाजरा, देशी धान, देशी गेहूं, तुअर, तिवड़ा, चना, मसूर, मूंग, उड़द, तिल, रजगिरा, अलसी आदि कई तरह की फसलें लगाई जाती थीं। पिपरिया की तुअर दाल बहुत प्रसिद्ध हुआ करती थी। लेकिन तवा कमांड क्षेत्र में इन विविध फसलों की जगह सोयाबीन (खरीफ) और गेहू (रबी) की एकल खेती ने ले ली।

जबकि जंगल पट्टी में परंपरागत खेती की उतेरा (मिश्रित फसल) पद्धति प्रचलन में हैं। जिसमें 6-7 प्रकार के अनाज मिलाकर एक साथ बोये जाते हैं। यह बिर्रा (गेहूं- चना मिश्रित) का एक संशोधित रूप है। ये फसलें बिना सींच (सिंचाई) या कम पानी में होती है। यानी केवल बारिश के पानी से फसलें होती हैं। लेकिन हाल के कुछ बरसों से किसानों की एक बड़ी समस्या है बारिश न होना। कम बारिश या अनियमित बारिश होना। पानी का सीधा संबंध फसलों से है। पानी न मिले तो सारी खेती चैपट। बारिश पर निर्भर किसान कम बारिश के चलते परेशान हैं। उनकी आजीविका संकट में है और जो कम पानी वाली फसलें कोदो, कुटकी, तुअर, ज्वार आदि लगाते थे, उनकी समस्याएं बढ़ गई हैं। यह समस्याएं मौसम बदलाव से जुड़ी हुई हैं।

भूजल कई सालों में एकत्र होता है, यही हमारा सुरक्षित जल भंडार है। फिर बिना बिजली के उसे ऊपर खींचना मुश्किल है। पूर्व से आसन्न बिजली का संकट साल दर साल बढ़ते जा रहा है। बिजली कटौती के कारण किसान फसलों में पानी नहीं दे पा रहे हैं। अगर गेहूं की फसल में अंतिम पानी नहीं मिला तो फसल का कम उत्पादन होता है। यह अलहदा बात है कि कमजोर और छोटे किसान भारी पूंजी लगाकर सिंचाई की इस सुविधा से वंचित हैं। कुछ समय पहले तक हर गांव में तालाब हुआ करते थे। कुएं, बावड़ी, नदी-नालों में बहुतायत पानी था। वर्षा जल को छोटे-छोटे बंधानों में एकत्र किया जाता था। जिससे सिंचाई, घरेलू निस्तार और मवेशियों को पानी मिल जाता था। किसान पहले बैलों से चलने वाली मोट से खेतों की सिंचाई करते थे। लेकिन अब तालाबों पर कब्जा हो गया है। कुएं और बावड़ी जैसे परंपरागत पानी के स्रोत खत्म हो गए हैं।

आजादी के ठीक बाद पहली पंचवर्षीय योजना के तहत इस जिले में भी एक छोटा डोकरीखेड़ा बांध बनाया गया था। यद्यपि मछवासा नदी को इससे जोड़ दिया गया है लेकिन फिर भी यह बांध अपनी क्षमता के अनुसार पूरा नहीं भर पाता। उसमें गाद भर गई है, पुराव हो गया है। अब इससे केवल किसानों को मुश्किल से रबी की फसल के लिए दो पानी ही मिल पाते हैं। वह भी बारिश हुई तो, अन्यथा नहीं। इसके बाद 1975 में तवा बांध बना। इससे तवा कमांड में नहरों से सिंचाई से फायदा तो हुआ। एक समय मिट्टी बचाओ आंदोलन से जुड़ी रही ग्राम सेवा समिति के एक अध्ययन के अनुसार यहां की काली मिट्टी वाली जमीन जो काफी उपजाऊ थी, वो दलदल में तब्दील होती जा रही है। या उन जमीनों में लवणीयता और क्षारीयता बढ़ती जा रही है। नए-नए खरपतवारों का आगमन हुआ है जिससे कृषि लागत में और वृद्धि हुई तथा उत्पादन भी प्रभावित होने लगा।



 वर्ष 2003-04 में 3931, वर्ष 2004-05 में 3943, वर्ष 2005-06 में 3972 वर्ष 2006-07 में 4853 और वर्ष 2007-08 में 4894 नलकूपों का खनन हुआ। यह सिलसिला जारी है। विज्ञान और पर्यावरण केन्द्र व गांधी शांति प्रतिष्ठान की एक रिपोर्ट बताती है कि देश की भूमिगत जल संपदा प्रतिवर्ष होने वाली वर्षा से दस गुना ज्यादा है लेकिन सन् 70 से हर वर्ष करीब एक लाख 70 हजार ट्यूबवेल लगते जाने से कई इलाकों में जलस्तर घटता जा रहा है। ठीक इस जिले में भी यही हो रहा है। कुछ समय पहले तक गांव में कच्चे घर होते थे। घर के आगे पीछे काफी जगह होती थी। खेती-किसानी के काम में घरों में ज्यादा जगह लगती है। घर के आगे आंगन और घर के पीछे बाड़ी होती थी। बाड़ी में हरी सब्जियां लगाई जाती थीं। पेड़-पौधे लगे होते थे। इस सबसे बारिश का पानी नीचे जज्ब होता था और धरती का पेट भरता था। यानी भूजल ऊपर आता था। आज गांव में भी पक्के मकान बन गए हैं। घरों के पीछे बाड़ी भी नहीं है। 

इसलिए बारिश का पानी बेकार बह जाता है। इस कारण न तो उसे हम निस्तार के उपयोग में ला पा रहे हैं और न वह पानी धरती में समा रहा है। यानी हम धरती से पानी ले तो रहे हैं, लेकिन उसे दे नहीं रहे हैं। इस कारण भूजल का पुनर्भरण नहीं हो रहा है। नतीजतन, टाइम बम की तरह हर साल भूजल नीचे चला जा रहा है। पानी का एकमात्र स्रोत है वर्षा। जिला गजेटियर 1979 के अनुसार जिले की सामान्य वर्षा 1294.5 मि.मी. है। पर जो वर्षा होती है उसकी अवधि सीमित है। मानसून के 3-4 माह। जिसका करीब आधा प्रतिशत पानी वाष्पीकृत होकर उड़ जाता है और बाकी बचे आधे पानी में से खेतों की सिंचाई, भूजल का पुनर्भरण और नदी-नालों का पेट भरता है। अब हमें इसी पानी को सहेजना होगा। खेत का पानी खेत में और गांव का पानी गांव में रोकना होगा। बारिश का पानी तालाब या छोटे बंधानों के माध्यम से गांव में ही रोका जा सकता है।

यह कैसे होगा? यह सरल तरीका है। जैसे भी हो, जहां भी संभव हो, बारिश के पानी को वहीं रोककर कमजोर वर्ग के लोगों के खेत तक पहुंचाना चाहिए। जहां पानी गिरता है, उसे सरपट न बह जाने दें। स्पीड ब्रेकर जैसी पार बांधकर, उसकी चाल को कम करके धीमी गति से जाने दें। इसके कुछ तरीके हो सकते हैं। खेत का पानी खेत में रहे इसके लिए मेढ़बंदी की जा सकती है। गांव का पानी गांव में रहे इसके लिए तालाब और छोटे बंधान बनाए जा सकते हैं। चेकडैम बनाए जा सकते हैं। या जो टूट-फूट गए हैं उनकी मरम्मत की जा सकती है। वृक्षारोपण किया जा सकता है। शहरों में वॉटर हार्वेस्टिंग के माध्यम से पानी को एकत्र कर भूजल को ऊपर लाया जा सकता है। इसके माध्यम से कुओं व नलकूप को पुनजीर्वित किया जा सकता है। नदी-नालों में बोरी-बंधान बनाए जा सकते हैं। सूखी नदियों को गहरा किया जा सकता है। 

इसके साथ सबसे जरूरी है खेती में हमें फसलचक्र बदलना होगा। कम पानी या बिना सींच के परंपरागत देशी बीजों की खेती करनी होगी और ऐसी कई देशी बीजों को लोग भूले नहीं है, वे कुछ समय पहले तक इन्हीं बीजों से खेती कर रहे थे। देशी बीज और हल-बैल, गोबर खाद की ओर मुड़कर मिट्टी-पानी का संरक्षण करना होगा। यानी समन्वित प्रयास से ही हम पानी जैसे बहुमूल्य संसाधन का संरक्षण व संवर्धन कर सकते हैं। इस संदर्भ में हमें महात्मा गांधी की सीख याद रखनी चाहिए, उन्होंने कहा था कि प्रकृति मनुष्य की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकती है, परंतु लालच की नहीं। 

यह रिपोर्ट इंक्लूसिव मीडिया फैलोशिप के अध्ययन का हिस्सा है

जल संकट का समाधान कैसे?


बीते दिनों ऊर्जा एवं संसाधन संस्थान (टेरी) एवं जल संसाधन मंत्रालय द्वारा दिल्ली स्थित इंडिया हैबिटेट सेन्टर में आयोजित भारतीय जल गोष्ठी के उद्घाटन भाषण में उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने जल संसाधनों में व्यापक सुधार की जरूरत बतायी, उन्होंने कहा कि बढ़ती जनसंख्या और जलवायु परिवर्तन के चलते जल प्रबंधन के क्षेत्र में नई चुनौतियां सामने हैं, जिनका मुकाबला प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए। पानी की समस्या समूचे विश्व की है लेकिन हमारे यहां जिस तरह इसकी बर्बादी होती है, उसे देखते हुए यदि इस पर समय रहते अंकुश न लगाया गया तो बहुत देर हो जाएगी। वैज्ञानिकों की चेतावनी है कि 2025 तक दुनिया के दो तिहाई देशों में पानी की किल्लत हो जाएगी। एशिया में यह समस्या कहीं अधिक विकराल होगी और भारत में 2020 तक पानी की भारी किल्लत की आशंका है, जिसका अर्थव्यवस्था की रफ्तार पर असर पड़ेगा।

तिब्बत के पठार पर मौजूद हिमालयी ग्लेशियर समूचे एशिया में 1.5 अरब से अधिक लोगों को मीठा जल मुहैया कराता है। इससे नौ नदियों में पानी की आपूर्ति होती है, जिनमें गंगा और ब्राह्मपुत्र शामिल हैं। इनसे अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल और बांग्लादेश को पानी मिलता है। लेकिन जलवायु परिवर्तन व 'ब्लैक कार्बन' जैसे प्रदूषक तत्वों ने हिमालय के कई ग्लेशियरों की बर्फ की मात्रा घटा दी है। माना जा रहा है कि कुछ तो इस सदी के अंत ही तक खत्म हो जाएंगे। लेकिन उससे पहले तेजी से गलते ग्लेशियर समुद्र का जलस्तर बढ़ा देंगे, जिससे तटीय इलाकों के डूबने का खतरा होगा। पानी की उपलब्धता के मामले में राजधानी दिल्ली में ही जहां लोग एक ओर अमोनियायुक्त गंदा पानी पीने को मजबूर हैं, वहीं दूसरी ओर रोजाना पानी के पाइपों से इतना पानी बर्बाद हो रहा है जिससे 40 लाख लोगों की प्यास बुझ सकती है। पानी की बर्बादी का यह खमियाजा निकट भविष्य में भुगतना पड़ेगा।

बीते दिनों ओट्टावा में कनेडियन वाटर नेटवर्क (सीडब्लूएन) द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय बैठक में वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि ग्लोबल वार्मिंग और जनसंख्या बढ़ोतरी के चलते आने वाले 20 सालों में पानी की मांग उसकी आपूर्ति से 40 फीसद ज्यादा होगी। यानी 10 में से चार लोग पानी के लिए तरस जाएंगे। पानी की लगातार कमी के कारण कृषि, उद्योग और तमाम समुदायों पर सकंट मंडराने लगा है, इसे देखते हुए पानी के बारे में नए सिरे से सोचना बेहद आवश्यक है। अगले दो दशकों में दुनिया की एक तिहाई आबादी को अपनी मूल जरूरतों को पूरा करने के लिए जरूरी जल का सिर्फ आधा हिस्सा ही मिल पाएगा। कृषि क्षेत्र, जिस पर जल की कुल आपूर्ति का 71 फीसदी खर्च होता है, सबसे बुरी तरह प्रभावित होगा। इससे दुनियाभर के खाद्य उत्पादन पर असर पड़ जाएगा।

ऐसे में हाल ही में घोषित राष्ट्रीय जल अभियान की सफलता की उम्मीद करना बेमानी है। यह तभी संभव है जब हर व्यक्ति पानी का महत्व समझे। इस दिशा में कार्यरत मंत्रालयों और विभागों को एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराने के बजाय समन्वित तरीके से समस्या के समाधान हेतु प्रयास करने चाहिए। यदि हम कुछ संसाधनों को समय रहते विकसित करने में कामयाब हो जाएं तो काफी मात्रा में पानी की बचत हो सकती है। उदाहरण के तौर पर यदि औद्योगिक संयंत्रों में अतिरिक्त प्रयास कर लिए जायें तो तकरीबन बीस से पच्चीस फीसद तक पानी की बर्बादी रोकी जा सकती है। बाहरी देशों में फैक्ट्रियों से निकलने वाले गंदे पानी का खेती में इस्तेमाल किया जाता है लेकिन विडम्बना यह है कि हमारे यहां औद्योगिक क्षेत्रों में ही सबसे ज्यादा पानी की बर्बादी होती है। जरूरत है इस पर प्राथमिकता के आधार पर ध्यान दिया जाये और एक व्यापक नीति बनाई जाये जिससे उचित प्रबंधन के जरिए पानी की बर्बादी पर अंकुश लग सके।

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