बुधवार, 3 जनवरी 2018
गुरुवार, 28 दिसंबर 2017
JAAT HISTORY अनपढ़ जाट पढ़ा जैसा, पढ़ा जाट खुदा जैसा
लेखक - आशीष कुमार |
अनपढ़ जाट पढ़ा
जैसा, पढ़ा जाट खुदा जैसा”
यह घटना सन् 1270-1280 के बीच की है । दिल्ली में बादशाह बलबन का
राज्य था । उसके दरबार में एक अमीर दरबारी था ।जिसके तीन बेटे थे । उसके पास
उन्नीस घोड़े भी थे । मरने से पहले वह वसीयत
लिख गया था कि इन घोड़ों का आधा हिस्सा... बड़े बेटे को, चौथाई हिस्सा मंझले को और पांचवां हिस्सा सबसे
छोटे बेटे को बांट दिया जाये । बेटे उन 19 घोड़ों का इस तरह बंटवारा कर ही नहीं पाये और बादशाह के दरबार में इस समस्या
को सुलझाने के लिए अपील की । बादशाह ने अपने सब दरबारियों से सलाह ली पर उनमें से
कोई भी इसे हल नहीं कर सका ।
उस समय प्रसिद्ध
कवि अमीर खुसरो बादशाह का दरबारी कवि था । उसने जाटों की भाषा को समझाने के लिए एक
पुस्तक भी बादशाह के कहने पर लिखी थी जिसका नाम “खलिक बारी” था । खुसरो ने
कहा कि मैंने जाटों के इलाक़े में खूब घूम कर देखा है और पंचायती फैसले भी सुने
हैं और सर्वखाप पंचायत का कोई पंच ही इसको हल कर सकता है । नवाब के लोगों ने
इन्कार किया कि यह फैसला तो हो ही नहीं सकता..! परन्तु कवि अमीर खुसरो के कहने पर
बादशाह बलबन ने सर्वखाप पंचायत में अपने एक खास आदमी को चिट्ठी देकर सौरम गांव
(जिला मुजफ्फरनगर) भेजा (इसी गांव में शुरू से सर्वखाप पंचायत का मुख्यालय चला आ
रहा है और आज भी मौजूद है) ।
चिट्ठी पाकर
पंचायत ने प्रधान पंच चौधरी रामसहाय को दिल्ली भेजने का फैसला किया। चौधरी साहब
अपने घोड़े पर सवार होकर बादशाह के दरबार में दिल्ली पहुंच गये और बादशाह ने अपने
सारे दरबारी बाहर के मैदान में इकट्ठे कर लिये । वहीं पर 19 घोड़ों को भी लाइन में बंधवा दिया । चौधरी रामसहाय ने अपना
परिचय देकर कहना शुरू किया - “शायद इतना तो
आपको पता ही होगा कि हमारे यहां राजा और प्रजा का सम्बंध बाप-बेटे का होता है और
प्रजा की सम्पत्ति पर राजा का भी हक होता है । इस नाते मैं जो अपना घोड़ा साथ लाया
हूं, उस पर भी राजा का हक बनता
है । इसलिये मैं यह अपना घोड़ा आपको भेंट करता हूं और इन 19 घोड़ों के साथ मिला देना चाहता हूं, इसके बाद मैं बंटवारे के बारे में अपना फैसला सुनाऊंगा ।”
बादशाह बलबन ने इसकी इजाजत दे दी और चौधरी साहब
ने अपना घोड़ा उन 19 घोड़ों वाली
कतार के आखिर में बांध दिया, इस तरह कुल बीस
घोड़े हो गये । अब चौधरी ने उन घोड़ों का बंटवारा इस तरह कर दिया-
- आधा हिस्सा (20
¸ 2 = 10) यानि दस घोड़े उस अमीर के
बड़े बेटे को दे दिये ।
- चौथाई हिस्सा (20
¸ 4 = 5) यानि पांच घोडे मंझले
बेटे को दे दिये ।
- पांचवां हिस्सा (20
¸ 5 = 4) यानि चार घोडे छोटे बेटे
को दे दिये ।
इस प्रकार उन्नीस
(10 + 5 + 4 = 19) घोड़ों का
बंटवारा हो गया । बीसवां घोड़ा चौधरी रामसहाय का ही था जो बच गया । बंटवारा करके
चौधरी ने सबसे कहा - “मेरा अपना घोड़ा
तो बच ही गया है, इजाजत हो तो इसको
मैं ले जाऊं ?” बादशाह ने हां कह
दी और चौधरी साहब का बहुत सम्मान और तारीफ की । चौधरी रामसहाय अपना घोड़ा लेकर
अपने गांव सौरम की तरफ कूच करने ही वाले थे, तभी वहां पर मौजूद कई हजार दर्शक इस पंच के फैसले से गदगद
होकर नाचने लगे और कवि अमीर खुसरो ने जोर से कहा -“अनपढ़ जाट पढ़ा जैसा, पढ़ा जाट खुदा जैसा”। सारी भीड़ इसी पंक्ति को दोहराने लगी । तभी से यह
कहावत हरियाणा,
पंजाब, राजस्थान व उत्तरप्रदेश तंथा दूसरी जगहों पर फैल गई । यहां यह बताना भी जरूरी
है कि 19 घोड़ों के बंटवारे के
समय विदेशी यात्री और इतिहासकार इब्न-बतूत भी वहीं दिल्ली दरबार में मौजूद था । यह
वृत्तांत सर्वखाप पंचायत के अभिलेखागार में मौजूद है।
धन्यवाद।
ये है जाटों का
इतिहास दोस्तों।
शनिवार, 13 मई 2017
आरक्षण क्यों और कब तक जरूरी है ....
इसे इस प्रकार सोचिए।
दिल्ली में स्थित देश के प्रमुख मेडिकल संस्थान एम्स में सवर्ण डॉक्टर आरक्षण के
विरूद्ध धरने पर बैठे थे। विरोध के प्रतीकात्मक स्वरूप में वे जूते पर पॉलिश कर
रहे थे। अब सवाल यह है कि वे एक दिन प्रतीकात्मक रूप से जूता पॉलिश कर अपना विरोध
दर्ज करा रहे, लेकिन उस जाति के लोगों का क्या जिन्होंने सैकड़ों पीढ़ियों तक
सवर्ण लोगों के जूतों की पॉलिश की है और आज भी कर रहे हैं। जिनका मैला सिर पर
ढोया। नालियां साफ की और आज भी कर रहे हैं। कितने ब्राह्मण ऐसे हैं, जो रोजना
नगरपालिका की नाली साफ करते हैं, झाडू लगाकर सड़के साफ करते हैं। लोगों की जूतों
पर पॉलिश करते हैं। शायद ही कोई मिले। आरक्षण का विरोध उन्हीं हालातों में संभव हो
पाएगा। जव सवर्ण अपनी बेटी का विवाह दलित के यहां खुशी-खुशी कर देगा। जब एक ही
थाली में खाना संभव हो पायगा।
एक बार मेरा तथाकथित मित्र
अपने रिश्तेदार के फोन पर एक एसएमएस करके बताता है कि फलां अखबार में रिपोर्ट
प्रकाशित हुई है कि भारत सरकार में सचिव स्तर पर काम करने वाले आईएएस अधिकारियों
कुल संख्या में 90 प्रतिशत सवर्ण हैं तो वे जबाव में लिखते हैं वाह-वाह, शुभ-शुभ।
लेकिन सार्वजनिक मंचों वे भी बड़े-बड़े माननीयों की तरह समरसता और आरक्षण के विरोध
में लिखते हैं। इससे पता चलता है कि वे सामाजिक समरसता की बात केवल इसलिए करते हैं
क्योंकि इससे उनकी सामंती सोच पोषित होती है।
आरक्षण को कहीं से भी ठीक
नहीं ठहराया जा सकता है लेकिन उससे पहले जाति व्यवस्था को मन, समाज से, व्यवस्था
से निकलना होगा। जाति की श्रेष्ठता का कायाम रखकर आरक्षण खत्म नहीं होना चाहिए
बल्कि बढ़ना चाहिए।
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