अभी एक सदी पहले तक बुंदेलखंड के इन तालाबों की देखभाल का काम पारंपरिक
रूप से ढीमर समाज के लोग करते थे। वे तालाब को साफ रखते, उसकी नहर, बांध,
जल आवक को सहेजते - ऐवज में तालाब की मछली, सिंघाड़े और समाज से मिलने वाली
दक्षिणा पर उनका हक होता। इसी तरह प्रत्येक इलाके में तालाबों को सहेजने
का जिम्मा समाज के एक वर्ग ने उठा रखा था और उसकी रोजी-रोटी की व्यवस्था
वही समाज करता था, जो तालाब के जल का इस्तेमाल करता था।
अब तो देश के
32 फीसदी हिस्से को पानी की किल्लत के लिए गर्मी के मौसम का इंतजार भी नहीं
करना पड़ता है- बारहों महीने, तीसों दिन यहां जेठ ही रहता है। सरकार संसद
में बता चुकी है कि देश की 11 फीसदी आबादी साफ पीने के पानी से महरूम है।
दूसरी तरफ यदि कुछ दशक पहले पलट कर देखें तो आज पानी के लिए हाय-हाय कर रहे
इलाके अपने स्थानीय स्रोतों की मदद से ही खेत और गले दोनों के लिए भरपूर
पानी जुटाते थे। एक दौर आया कि अंधाधुंध नलकूप रोपे जाने लगे, जब तक संभलते
तब तक भूगर्भ का कोटा साफ हो चुका था। समाज को एक बार फिर बीती बात बन
चुके जल-स्रोतों की ओर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है - तालाब, कुंए,
बावड़ी। लेकिन एक बार फिर पीढ़ियों का अंतर सामने खड़ा है, पारंपरिक
तालाबों की देखभाल करने वाले लोग किसी और काम में लग गए और अब तालाब सहेजने
की तकनीक नदारद हो गई है। तभी तो सन् 2001 से अभी तक तालाबों से गाद
निकालने के नाम पर सरकार ने आठ सौ करोड़ से ज्यादा फूंक दिए और नतीजा रहा ‘ढाक के तीन पात!’ तालाबों की जल-ग्रहण क्षमता भले ही ना बढ़ी कुछ लोगों का बैंक बैलेंस जरूर बढ़ गया।
देश की 58 पुरानी झीलों को पानीदार बनाने के लिए सन् 2001 में केंद्र सरकार
के पर्यावरण और वन मंत्रालय ने राष्ट्रीय झील संरक्षण योजना शुरू की थी।
इसके तहत कुल 883.3 करोड़ रुपए का प्रावधान था। इसके तहत मध्यप्रदेश की
सागर झील, रीवा का रानी तालाब और शिवपुरी झील, कर्नाटक के 14 तालाबों,
नैनीताल की दो झीलों सहित 58 तालाबों की गाद सफाई के लिए पैसा बांटा गया।
इसमें राजस्थान के पुष्कर का कुंड और धरती पर जन्नत कही जाने वाली श्रीनगर
की डल झील भी थी। झील सफाई का पैसा पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर राज्यों को
भी गया। इन सभी तालाबों से गाद निकली कि नहीं? पता नहीं; लेकिन इसमें पानी
पहले से भी कम आ रहा है। केंद्रीय जल आयोग ने जब खर्च पैसे की पड़ताल की तो
ये तथ्य सामने आए। कई जगह तो गाद निकाली ही नहीं और उसकी ढुलाई का खर्चा
दिखा दिया। कुछ जगह गाद निकाल कर किनारों पर ही छोड़ दी, जो कि अगली बारिश
में ही फिर से तालाब में गिर गई।
असल में तालाब की सफाई का काम आज के अंग्रेजी इंजीनियरों के बस की बात नहीं
है। छतरपुर जिले के अंधियारा तालाब की कहानी गौर करें- कोई 15 साल पहले
वहां सूखा राहत के तहत तालाब गहराई का काम लगाया गया। इंजीनियर साहब ने
तालाब के बीचों-बीच खूब गहरी खुदाई करवा दी। जब इंद्र देवता मेहरबान हुए तो
तालाब एक रात में लबालब हो गया, लेकिन यह क्या? अगली सुबह ही उसकी तली दिख
रही थी। असल में हुआ यूं कि बगैर सोचे-समझे की गई खुदाई में तालाब की वह
झिर टूट गई, जिसका संबंध सीधे इलाके के ग्रेनाईट भू संरचना से था। पानी आया
और झिर से बह गया। यहां जानना जरूरी है कि अभी एक सदी पहले तक बुंदेलखंड
के इन तालाबों की देखभाल का काम पारंपरिक रूप से ढीमर समाज के लोग करते थे।
वे तालाब को साफ रखते, उसकी नहर, बांध, जल आवक को सहेजते - ऐवज में तालाब
की मछली, सिंघाड़े और समाज से मिलने वाली दक्षिणा पर उनका हक होता। इसी तरह
प्रत्येक इलाके में तालाबों को सहेजने का जिम्मा समाज के एक वर्ग ने उठा
रखा था और उसकी रोजी-रोटी की व्यवस्था वही समाज करता था, जो तालाब के जल का
इस्तेमाल करता था। तालाब तो लोक की संस्कृति-सभ्यता का अभिन्न अंग हैं और
इन्हें सरकारी बाबुओं के लाल बस्ते के बदौलत नहीं छोड़ा जा सकता।
हकीकत
में तालाबों की सफाई और गहरीकरण अधिक खर्चीला काम नहीं है,ना ही इसके लिए
भारी-भरकम मशीनों की जरूरत होती है। यह सर्वविदित है कि तालाबों में भरी
गाद, सालों-साल से सड़ रही पत्तियों और अन्य अपशिष्ट पदार्थों के कारण ही
उपजी है, जो उम्दा दर्जे की खाद है। रासायनिक खादों ने किस कदर जमीन को
चौपट किया है, यह किसान जान चुके हैं और उनका रुख अब कंपोस्ट व अन्य देशी
खादों की ओर है। किसानों को यदि इस खाद रूपी कीचड़ की खुदाई का जिम्मा
सौंपा जाए तो वे वे सहर्ष राजी हो जाते हैं। उल्लेखनीय है कि राजस्थान के
झालावाड़ जिले में ‘खेतों मे पालिश करने’ के नाम से यह प्रयोग अत्यधिक सफल व
लोकप्रिय रहा है। कर्नाटक में समाज के सहयोग से ऐसे कोई 50 तालाबों का
कायाकल्प हुआ है, जिसमें गाद की ढुलाई मुफ्त हुई, यानी ढुलाई करने वाले ने
इस बेशकीमती खाद को बेच कर पैसा कमाया। इससे एक तो उनके खेतों को उर्वरक
मिलता है, साथ ही साथ तालाबों के रखरखाव से उनकी सिंचाई सुविधा भी बढ़ती
है। सिर्फ आपसी तालमेल, समझदारी और अपनी पंरपरा तालाबों के संरक्षण की दिली
भावना हो, तो ना तो तालाबों में गाद बचेगी ना ही सरकारी अमलों में घूसखोरी
की कीच होगी।
सन् 1944 में गठित ‘फेमिन इनक्वायरी कमीशन’ ने साफ निर्देश दिए थे कि आने
वाले सालों में संभावित पेयजल संकट से जूझने के लिए तालाब ही कारगर होंगे।
कमीशन की रिपोर्ट तो लाल बस्ते में कहीं दब गई। आजादी के बाद इन पुश्तैनी
तालाबों की देखरेख तो दूर, दुर्दशा जरूर नजर आने लगी। चाहे कालाहांडी हो या
फिर बुंदेलखंड या फिर तेलंगाना; देश के जल-संकट वाले सभी इलाकों की कहानी
एक ही है। इन सभी इलाकों में एक सदी पहले तक कई-कई सौ बेहतरीन तालाब होते
थे। यहां के तालाब केवल लोगों की प्यास ही नहीं बुझाते थे, यहां की
अर्थव्यवस्था का मूल आधार भी होते थे। मछली, कमल गट्टा, सिंघाड़ा, चिकनी
मिट्टी; यहां के हजारों-हजार घरों के लिए खाना उगाहते रहे हैं। तालाबों का
पानी यहां के कुओं का जल स्तर बनाए रखने में सहायक होते थे। शहरीकरण की
चपेट में लोग तालाबों को ही पी गए और अब उनके पास पीने के लिए कुछ नहीं बचा
है।
गांव या शहर के रूतबेदार लोग जमीन पर कब्जा करने के लिए बाकायदा तालाबों को
सुखाते हैं, पहले इनके बांध फोड़े जाते हैं, फिर इनमें पानी की आवक के
रास्तों को रोका जाता है- न भरेगा पानी, ना रह जाएगा तालाब। गांवों में
तालाब से खाली ही उपजाऊ जमीन लालच का कारण होती है तो शहरों में कालोनियां
बनाने वाले भूमाफिया इसे सस्ता सौदा मानते हैं। यह राजस्थान में उदयपुर से
लेकर जैसलमेर तक, हैदराबाद में हुसैनसागर, हरियाणा में दिल्ली से सटे
सुल्तानपुर लेक या फिर उ.प्र. के चरखारी व झांसी हो या फिर तमिलनाडु की
पुलिकट झील; सभी जगह एक ही कहानी है। हां, पात्र अलग-अलग हो सकते हैं। सभी
जगह पारंपरिक जल-प्रबंधन के नष्ट होने का खामियाजा भुगतने और अपने किए या
फिर अपनी निष्क्रियता पर पछतावा करने वाले लोग एक समान ही हैं। कर्नाटक के
बीजापुर जिले की की बीस लाख आबादी को पानी की त्राहि-त्राहि के लिए गर्मी
का इंतजार नहीं करना पड़ता है। कहने को इलाके में चप्पे-चप्पे पर जल भंडारण
के अनगिनत संसाधन मौजूद हैं, लेकिन हकीकत में बारिश का पानी यहां टिकता ही
नहीं हैं। लोग रीते नलों को कोसते हैं, जबकि उनकी किस्मत को आदिलशाही जल
प्रबंधन के बेमिसाल उपकरणों की उपेक्षा का दंश लगा हुआ है। समाज और सरकार
पारंपरिक जल-स्रोतों कुओं, बावड़ियों और तालाबों में गाद होने की बातें
करते हैं, जबकि हकीकत में गाद तो उन्हीं के माथे पर है। सदा नीरा रहने वाली
बावड़ी-कुओं को बोरवेल और कचरे ने पाट दिया तो तालाबों को कंक्रीट का जंगल
निगल गया।
पानी के लिए बलिदान
लक्खी
बंजारा अपने कबीले का मुखिया था। उसका घुमंतू कबीला सारे देश में घूम-घूम
कर गुड़ व नमक का व्यापार करता था। यह दल अधिकांश सागर में भी ठहरता था। उन
दिनों भी वहां पानी की किल्लत थी। उनके मवेशी अक्सर मर जाते थे। इससे
निजात पाने के लिए लक्खी ने एक तालाब खोदने का ठेका 100 मजदूरों को दे
दिया। दो साल तक लगातार खुदाई हुई पर एक बूंद पानी नहीं निकला। तब लक्खी ने
वरुण देवता का कठिन तप किया। देवता प्रसन्न हुए और उसके सपने में आए।
देवता ने लक्खी को कहा कि यदि वह अपने इकलौते बहु-बेटे को तालाब में
समर्पित कर दे तो पानी आ सकता है।
लक्खी ने यह सपना अपने परिवार व मित्रों को बताया। समाज के कल्याण के लिए उसने अपने बहु-बेटे को बलिदान करने की ठान ली। कबीले वालों ने विरोध भी किया, पर बेटा मिट्ठू और बहु सुखिया ने जल समाधि लेने का प्रण कर लिया। तालाब के बीचों-बीच एक हिंडोला डाला गया। मिट्ठू और सुखिया उसमें बैठे। जैसे ही हिंडोला झुलाना शुरू हुआ, तालाब में पानी आने लगा। दोनों वहीं डूब गए पर अपने पीछे पानी की विशाल लहरें छोड़ गए। आज भी बंजारे इस तालाब का पानी नहीं पीते हैं।
लक्खी ने यह सपना अपने परिवार व मित्रों को बताया। समाज के कल्याण के लिए उसने अपने बहु-बेटे को बलिदान करने की ठान ली। कबीले वालों ने विरोध भी किया, पर बेटा मिट्ठू और बहु सुखिया ने जल समाधि लेने का प्रण कर लिया। तालाब के बीचों-बीच एक हिंडोला डाला गया। मिट्ठू और सुखिया उसमें बैठे। जैसे ही हिंडोला झुलाना शुरू हुआ, तालाब में पानी आने लगा। दोनों वहीं डूब गए पर अपने पीछे पानी की विशाल लहरें छोड़ गए। आज भी बंजारे इस तालाब का पानी नहीं पीते हैं।
शायद इस कहानी पर यकीन ना हो, पर मध्यप्रदेश के सागर के उपलब्ध सभी पुराने
दस्तावेज ‘सागर’ की यही कहानी कहते हैं। कोई पांच सौ साल पहले यह तालाब
1200 एकड़ से बड़ा हुआ करता था। साल-दर-साल यह सिमटता जा रहा है। भारत के
अलग-अलग राज्यों में पुराने तालाबों के निर्माण की लगभग ऐसी ही मिलती-जुलती
कहानियां प्रचलित हैं। लब्बोलुवाब यह है कि इन जल-कुंडों को तैयार करने के
लिए हमारे पुरखों ने अपना बहुत-कुछ न्योछावर किया था, जिसे आधुनिकता की
आंधी निगल गई है।