रविवार, 24 अप्रैल 2011

जल संरक्षण के लिए धन से ज्‍यादा धुन की जरूरत





बारहमासी हो चुकी जल की समस्‍या गर्मियों में चरम पर होती है। शहरों के गरीब और मध्‍यमवर्गीय तबके में बूंद-बूंद के लिए हाहाकर मचा रहता है। बिडंबना तो यह है कि इस विकराल समस्‍या को गंभीरता से नहीं लिया जाता हैं। सरकारों के  साथ आम जन में भी जल संरक्षण के प्रति संजीदगी  दिखाई नहीं देती है। शायद लोगों को लगता है कि उनके प्रयास से कुछ नहीं होने वाला है।जमीन पर लगातार क्रंकीट की चादर बिछाई जा रही है, जिसके कारण भूमि में पानी के रिसाव पर पहरा लग लग गया है। प्रकृति के अत्‍यधिक दोहन से धरती का गर्भ सूखता ही जा रहा है।
बारिश से पहले पाल बांधने वाला समाज आज बांधों के भंवर में फंस गया है। यहीं कारण हैं कि सूखे को झेलने वाला राजस्‍थान का बाड़मेर बाढ़ के थपेड़ों को सहने को मजबूर है। बिहार को तारने वाले यह बांध अब उसको की डूबाने लगे हैं। अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में आने वाली इन प्राकतिक समस्‍याओं का इलाज है। पहले सामुदियक जल प्रबंधन के तहत लोग बारशि की बूदों को सहजने के लिए अपने घर की छत के जल को नीचे एक कुंड में साफ-सुथरे तरीके से एकत्र करते थे।बरसात का पानी खेत की फसल की जरुरत को पूरा करने के साथ अन्‍य क्षेत्रों के जल के साथ पास के तालाब में इकट़ठा होता था। बाद में इस जल से खेती और घरेलू जल की जरुरतें पूरी की जाती थी रेगिस्‍तानी भूमि में करीब पांच छह फूट नीचे चूने की परत बरसाती पानी को रोके रहती थी बाद में इसका उपयोग पीने व अन्‍य कामों के लिए किया जाता था इस तरह सूखे की मार में यह पाल-ताल समाज को बचाकर रखते थे। अब हम इस तरह सामुदायिक जल प्रबंधन को भूलकर राज्‍य या भारत सरकार के बनाए बांधों की ओर देखने लगे हैं। ये बांध जहां नदियों को बांधकर उनकी हत्‍या करते हैं वहीं, दूसरी ओर बाढ़ लाकर कहर बरपाते हैं।
बांध बनने से सामान्‍य बर्षों में जनता को लाभ मिलता हैलेकिन, बाढ़ आने पर पानी बांध को तोड़कर एकाएक फैलता है। कभी-कभी इसका प्रकोप इतना भयंकर होता है कि चंद घंटों में दस-बारह फूट तक बढ़ जाता है और जनजीवन को तबाह करके रख देता है। बांध बनने से सिल्‍ट फैलने की बजाए बांधों के बीच जमा हो जाती हैइससे बांध का क्षेत्र ऊपर उठ जाता है जब बांध टूटता है तो यह पानी वैसे ही तेजी से फैलता है जैसे मिट़टी का घड़ा फूटने पर बांधों से पानी के निकास के रास्‍ते अवरूद्ध हो जाते हैं। दो नदियों पर बनाए बांधों के बीच पचास से सौ किलोमीटर का एरिया कटोरानुमा हो जाता है। बांध टूटने पर पानी इस कटोरेनुमा क्षेत्र में एकट़ठा हो और इसका निकलना मुश्किल हो जाता है इससे बाढ़ का प्रकोप शांत होने में काफी समय लगता है।
इन समस्‍याओं के चलते बांध बनने से परेशानियां बढ़ी हैं। जाहिर है कि बांध बनाने की वर्तमान पद्धति कारगर नहीं है।सामुदायिक जल प्रबंधन होने से पाल-ताल  बनने बंद हो गए हैं, जिससे हमें साल बाढ़ विभिषका से दो-चार होना पड़ रहा है।
सरकार को चाहिए कि अंधाधुंध बांध बनाने की वर्तमान नीति पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए। पहले विकल्‍प में नदियों के पर्यावरणीय प्रवाह को बररार रखा जाना चाहिए दूसरा विकल्‍प उंचे और स्‍थायी बांध बनाने की वर्तमान नीति का है  तीसरा विकल्‍प प्रकृतिप्रस्‍त बाढ़ के साथ जीने के लिए लोगों  को सुविधा मुहैया कराने का है इसमें फ्लड रूफिंग के लिए ऊंचे सुरक्षित स्‍थानों का निर्माण, सुरक्षित संचार एवं पीने के पानी की इत्‍यादि की व्‍यवस्‍था शामिल है,‍ जिससे बाढ़ के साथ जीवित रह सके। धरती के ऊपर बड़े बांधों से अति गतिशील बाढ़ का प्रकोप बढ़ने लगा है। इसे रोकने के लिए जल का अविरल प्रवाह को बनाए रखना होगा। इस काम से ही जल के सभी भंड़ारों को भरा रखा जा सकता है चूंकि, बाढ़ और सूखा एक ही सिक्‍के के दो पहलू हैं।इसलिए इन दानों के समाधान जल का सामुदायिक जल प्रबंधन ताल-पाल और झाल से ही संभव है।

कैद हैं नदियां 
15 अगस्‍त 1947 को मिली आजादी में राष्‍टपिता महात्‍मा गांधी ने जिस आजाद भारत की परिकल्‍पना की थी उसमें प्रकृति को कैद करने की ख्‍वाहिश नहीं  थी।  गांधी के सपने में एक ऐसे भारत की परिकल्‍पना थी जो देश की प्रकृति ओर उसके साथ जीने वाले ग्रामीण को उसका स्‍वराज ओर सुराज दानों दिलाएगा। एक ऐसा भारत जहां समाज और प्रकृति को अपनी जरुरत की पूर्ति क
रने वाले उपहार के तौर पर देखेगा, न कि लालच की पूर्ति करने वाले खजाने के तौर पर। लेकिन, पिछले 64 वर्षों के आजाद भारत के सफरनामे में ऐसा नहीं हुआ। जिस देश में नदियों को कैद करने के लिए दिन- प्रतिदिन एक नई कोशिश चल रही है ऐसे में 15 अगस्‍त के दिन स्‍वतंत्रता अदायगी से ज्‍यादा कुछ नहीं है।
यादि भारत की आजादी को गौरवशाली बनाकर रखना है तो हमें अपनी नदियों के प्रवाह को शुद्ध-सदानीरा, नैसर्गिक और आजाद बनाना होगा। नदियों की आजादी का रास्‍ता नदीं तट पर फैली उसकी बाजुओं की हरियाली में छुपा है भारत की आजदी, बाघ और जानवरों की आजदी रखने वाले जंगलों बचाने और नदियों के स्‍वच्‍छंद बहाव से ही कायम रहेगी।नदियों के किनारे सघन और स्‍थानीय जैव विविधता का सम्‍मान करने वाली हरित पटि़टयों का विकास से संभव है। लेकिन, यह तभी संभव हो सकता है जब नदियों की भूमि अतिक्रमण और प्रदूषण से मुक्‍त हो नदी भूमि का हस्‍तानान्‍तरण और रूपांतरण रुके।
उत्‍तराखंड में भागीरथी पर बांध, दिल्‍ली में यमुना में खेलगांव-मेटो आदि का निर्माण, उत्‍तर प्रदेश में गंगा एक्‍सप्रेस वे नाम का तटबंध, बिहार और बंगाल में क्रमशः पहले से ही बंधी कोसी और हुगली जैसी नदियों को कैद करने का काम ही है। नदी और भूमि की मुक्ति के लिए पिछले कई वर्षों से संधर्ष जारी है लेकिन सरकारें हैं कि बिना सोचे विचारे अपनी जिदपर अड़ी हुर्इ हैं।

समस्‍या के हल के लिए धन से ज्‍यादा धुन की जरूरत 
पानी मुददा है यह सच है। लेकिन, इससे भी बड़ा मुद्दा है, हमारी आंखों का पानी। क्‍योंकि, पानी चाहे धरती के ऊपर को हो या धरती के नीचे का यह सूखता तभी है जब संत, समाज और सरकार तीनों की आंखों का पानी मर जाता है। आज ऐसा ही है वरना पानी के मामले में  हम कभी गरीब नहीं रहे।
आज भी हमारे ताल-तलैये झीलों और नदीयों को सम्रद्ध रखने वाली वर्षा के सालाना औसत में बहुत कमी नहीं आई है। जल संरक्षण के नाम पर धन राशि कोई कम खर्च नहीं हुई। जल संरक्षण को लेकर अच्‍छे कानून और शानदार अदालती आदेशों की भी एक नहीं अनेक मिसाल हैं। वर्षा जल के संचय की तकनीक और उपयोग में अनुशासन की जीवन शैली तेा हमारे गांव का कोई गंवार भी आपको सिखा सकता है। लेकिन, ये हमारी आंखों का पानी नहीं ले जा सकते।
भारतीय संस्‍कृति में समाज को प्रकृति अनुकूल अनुशासित जीवनशैली हेतु निर्देशित व प्रेरित करने का दायित्‍व धर्मगुरूओं का था। तद्नुसार समाज पानी के काम को धर्मार्थ का आवश्‍यक व साझा काम मानकर किया करता था। इसके लिए महाजन धन शासक भूमि व संरक्षण प्रदान करता था। आज सभी अपने-अपने दायित्‍व से विमुख हो गए है। स्‍वंय धर्मगुरूओं के आश्रमों का कचरा नदियों  में जाता हैं समाज सोच रहा है हम सरकार को वोट ओर नोट देते हैं अतः सबकुछ सरकार करेगी। सरकारें हैं कि इनमें पानी के प्रति प्रतिबद्धता कहीं दिखाई नहीं दे रही। सरकारी योजनाओं के पैसे से बेईमान अपनी तिजोरियां भर रहे हैं। वरना एक अकेले मनरेगा के कार्य ही देश के तालाबों का उद्धार कर देते।

 इतिहास के झरोखे सेः जल संरक्षण के पारंपरिक तरीके आज भी उतने ही कारगर 
 सैकड़ों, हजारों तालाब अचानक शून्‍य से प्रकट नही हुए थे। इनके पीछे एक इकाई थी बनवाने वालों की  तो दहाई थी बनाने वालों की यह इकाई, दहाई मिलकर सैकड़ों हजार बनती थी। पिछले दो सौ बरसों में नए किस्‍म की थोड़ी सी पढ़ाई पढ़ गए समाज ने इस इकाई, दहाई, सैकड़ा, हजार को शून्‍य ही बना दिया है। इस नए समाज में इतनी उत्‍सुकता ही नई बची कि इससे पहले के दौर में इतने सारे तालाब कौन बनाता थाउसने इस तरह के काम को करने के लिए जो ढ़ाचा खड़ा किया था। आइआइटी का, सिविल इंजीनियरिंग का, उस पैमाने से, उस गंज से भी उसने पहले हो चुके इस काम को नापने की कोई कोशिश नहीं की।
वह अपने गज से भी नापता है तो कम से कम उसके मन में ऐसे सवाल तो उठते कि उस दौर में  कहां थी? आइआइटी? कौन थे उसके निर्देशक? कितना बजट था? कितने सिविल इंजीनियर निकलते थे? लेकिन, उसने इन सब को गए जमाने का गया-बीता काम माना और पानी के प्रश्‍न को नए ढ़ग से हल करने का वादा भी कियाऔर दावा भी। गांवों कस्‍बों की तो कौन कहे, बड़े शहरों के नलों में चाहे जब बहने वाला सन्‍नाटा इस वायदे और दावे पर सबसे मुखर टिप्‍पणी है इस समय के समाज के दावों को इसी समय के गज से नापें तो कभी दावे छोटे पड़ते हैं तो कभी गज ही छोटा निकल आता है।

एकदम महाभारत और रामायण के तालाबों को अभी छोड़ दें तो भी कहा जा सकता है कि कोई पांचवी सदी से पंद्रहवी सदी तक देश के इन कोने से उसे कोने तक तालाब बनते ही चले आए थे। कोई एक हजार वर्ष तक आबाध गति से चलती रही इस परंपरा में पंद्रहवीं सदी के बाद कुछ बाधाएं आने लगी थी। पर, उस दौर में भी यह धारा पूरी तरह से रूक नहीं पाई,सूखा नहीं पाई। समाज ने जिस काम को इतने लंबे समय तक बहुत व्‍यवस्थित रूप में किया था उस काम को उथल-पुथल का वह दौर भी पूरी तरह से मिटा नहीं सका। आठहरवीं और उन्‍नीसवीं सदी के अंत तक भी जगह-जगह पर तालाब बन रहे थे।लेकिन, फिर बनाने वाले लोग भी धीरे-धीरे कम होते गए। गिनने वाले कुछ जरूर आ गए,पर जितना बड़ा काम था उस हिसाब से गिनने वाले बहुत ही कम थे और कमजोर भी। इसलिए ठीक गिनती भी कभी भी नहीं हो पाई।धीरे-धीरे टुकड़ों में तालाब गिने गए पर सब टुकड़ों को कुल मेल कभी बिठाया नहीं गया। लेकिन, इन टुकड़ों कीझिलमिलाहट  समग्र चित्र की चमक दिखा सकती है।

 राज्‍यों की स्थिति 
उत्‍तर प्रदेश 

  • कुल जल निकाय की संख्‍या - 84,647 
  • जल निकायों से धिरा रकबा - 73,053 हेक्‍टेयर 
  • राज्‍य का रकबा - 240.928 लाख हेक्‍टेयर 
  • एक दशक पहले मौजूद जल निकाय - 84,647 
  • एक दशक पहले मौजूद सतह पर मौजूद जल की मात्रा - 12.21 मिलियन हेक्‍टेयर मीटर 
  • सतह पर उपलब्‍ध जल की वर्तमान मात्रा - 12.21 मिलियन हेक्‍टेयर मीटर
  • प्रदेश में औसतन सालाना बारिश - 235.4 लाख हेक्‍टेयर मीटर पानी की बारिश 
  • सिचाई के लिए उपयोग में सतही पानी की हिस्‍सेदारी - 7.8 मिलियन हेक्‍टेयर मीटर 
सरकारी प्रयासः 
  • हर 52 ग्राम सभाओं के बीच कम से कम एक तालाब बनाना है या मौजूद तालाब जीणोद्धार करवाना
हिमाचल प्रदेश
  • जल निकायों की संख्‍या - 7495
  • राज्‍य का रकबा - 55673 वर्ग किमी
  • कुल रकबे की तुलना में जल निकायों की क्षेत्रफल - 35फीसदी
  • एक दशक पहले जल निकायों की संख्‍या - 5,779
  • सतह उपलब्‍ध जल की वर्तमान मात्रा में कमी -  20 फीसदी
  • सिचार्इ के लिए उपयोग लाए जा रहे सतह पर मौजूद पानी की हिस्‍सेदारी-23,507 एसीएम
  • सालाना औसत बारिश - 1300 मिमी
सरकारी प्रयासः 
  • वाटर मैनेजमेंटबोर्ड केतहत रेन हार्वेस्टिंग स्‍कीम, वन, आइपीएच तथा ग्रामीण विकास विभाग काम कर रहा है 
  • नई जल नीति में पनबिजली परियोजनाओं के लिए कम से कम 15 फीसदी पानी छोड़ने की अनिर्वयता का प्रावधान
झारखंड 
  • कुल जल निकायों की संख्‍या - सरकारी 15,746, निजी तालाब 85,849, कुल 1,01,595 
  • पूरे राज्‍य का रकबा - 79714 वर्ग किमी 
  • कुल रकबों की तुलना में जल निकायों का क्षेत्र - 5 फीसदी 
  • सतह उपलब्‍ध जल की मात्रा - 237890 लाख घन मीटर 
  • सतही पानी की सिंचाई में हिस्‍सेदारी - 17 फीसदी 
  • सालाना औसत बारिश - 1100 - 1200 मिमी 
सरकारी प्रयासः 
  • डैम व तालाबों के गहरे करने की योजना
 पश्चिम बंगाल 
  • जल निकायों की संख्‍या - 5.45 लाख 
  • राज्‍य का रकबा -  88752वर्ग किमी 
  • कार्यरत जल स्‍त्रोतों की संख्‍या - 2.93 लाख 
  • धरती पर उलब्‍ध जल की मात्रा - 13.29मिलियन हेक्‍टेयर मीटर 
सरकारी प्रयासः 
  • सदियों पुराने तालाब, झील, तालाब, तड़ाग और अन्‍य जल स्‍त्रोतों को जीवन करने की योजना का प्रारंभ 
  • वर्ष के जल को संरक्षित करने का कार्य 
 उत्‍तराखंड 
  • उत्‍तराखंड को एशिया का जल स्‍तंभ कहा जाता  है, उत्‍तराखंड से बारह बड़ी नदियां और कई सहायक नदियां निकलती हैंराज्‍य औसतन 1200 मिमी होती हैमानसून के दौरान नदियों का जल स्‍तर कई गुना बढ़ जाता है
  • उत्‍तराखंड में कुल 22707 जल प्राकृतिक जल स्‍त्रोत हैंयह एक वर्ष में प्राकृतिक पेय जल स्‍त्रोतों में पचास फीसदी से ज्‍यादा की गिरावट दर्ज की गई जो  कि चिंता का विषय है
सरकारी प्रयासः 
  • सतह पर मौजूद जल निकायों के संरक्षण के लिए वनीकरण 
  • रेन वाटर हार्वेस्टिंग के जरिए जल स्‍त्रोतों को रिचार्ज करने का प्रयास 
जम्‍मू कश्‍मीर 
  • जल निकायों की संख्‍या - 1248 
  • जल निकायों का रकबा - 291.07वर्ग किमी 
  • राज्‍य का रकबा - 222236 वर्ग किमी 
  • एक दशक पहले जल निकायों की संख्‍या - 38 
  •  सिचाई में प्रयोग किए जा रहे सतही की हिस्‍सेदारी - 25 फीसदी 
  • सालना औसत बारिश -998 मिमी
सरकारी प्रयासः 
  • सतह पर मौजूद जल और जल निकायों के संरक्षण के लिए फरवरी 2011 में वाटर रिसोर्सेस एक्‍ट लागू किया गया एक्‍ट के मुताबिक सरकार पनबिजली परियोजनाओं से किराया बसूलेगी पानी का किराया दोगुना करने के साथ पानी के मीटर लगाने की भी तैयारी है ताकि लोग जरूरत के मुताबिक ही पानी खर्च करें
बिहार 
  • कुल जल स्‍त्रोतों की संख्‍या - 20938 
  • राज्‍य का रकबा - 94163 वर्ग किमी 
  • कार्यरत जल स्‍त्रोतों की संख्‍या - 17683 
  • सतह पर मौजूद जल - 34053घन किमी 
सरकारी प्रयासः 
  • मौर्य काल 327-297 ई पूर्व निर्मित सिंचाई स्‍त्रोत आहर, पइन, व तालाबों को पुनजीर्विजत करने की योजना पर काम शुरू 
  • नदी जोड़ योजना पर काम जारी 
देश में सतह पर मौजूद जल की स्थिति 
  • 14 प्रमुख नदियां, 44 मझोली नदियों और छोटी-छोटी धाराओं में सालाना 1645 हजार मिलियन क्‍यूबिक मीटर (टीमएमसी) पानी बहता है 
  • हर साल 3816 टीमएमसी पानी बारिस से प्राप्‍त होता है 
  • हिमालय क्षेत्र में स्थित 1500 ग्‍लेशियरों की कुल बर्फ का आयतन करीब 1400 घन किमी 
  • जम्‍मू कश्‍मीर में डल और वुलर, आध्र प्रदेश में कोलेरू, उडीसा में चिलका, तमिलनाडु की पुलीक‍ट जैसी कई बड़ी प्राकृतिक झीलें हैं
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रविवार, 19 सितंबर 2010

केंद्र से लेकर किचिन पोलिटिक्स में भी अयोध्या और कश्मीर का मुद्दा

भारत के लिए आगामी सप्ताह बड़ा ही चुनौतीपूर्ण रहने वाला है सबसे बड़ी बात अयोध्या मसले पर २४ सितम्बर को इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ का बहुप्रतिक्षित निर्णय आने वाला है वही दूसरी और कश्मीर में अलगाववाद अलाव को हवा देने के मकसद से हुर्रियत कांफ्रेस के नेता सैयद अली रज़ा गिलानी ने २१ सितम्बर को सेना के कैम्पों के सामने धरना देने का ऐलान कर दिया है इन सभी पहलुओं कोदेखते हुए आगे आने वाले कुछ दिन केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के लिए बड़े चुनोतिपूर्ण रहने वाले हैं



सबसे पहले कश्मीर मसले पर चर्चा करते हैं हुर्रियत कांफ्रेस के सैयद अली रज़ा गिलानी अपने आपको कश्मीर के मामले में सत्याग्रही साबित करना चाहते हैं बेशक कश्मीर मसले पर रज़ा गिलानी साहब के नापाक इरादे साफ़ नज़र आते हैं वो कहीं न कहीं पडोसी मुल्को के लिए मोहरे का काम रहे हैं वो शायद भूल गए है कश्मीर की तो बात दूर यहाँ की एक इंच ज़मीन को भी भारत से अलग नहीं किया जा सकता है वे अलगाववाद के कभी पूरा न होने वाले अपने मकसद को पूरा करने के लिए कश्मीरी युवायों को बरगला रहे हैं उन्हें हिंसा के लिए उकसा रहे हैं सबसे बड़ा सवाल यह है की वो वास्तव में आज़ादी के किस रूप को चाहते हैं? क्या कश्मीर आज आजाद नहीं हैं ? शायद उन्होंने आज़ादी की गलत परिभाषा को अपने ज़ेहन में बैठा लिया है

उनके समझने के लिए प्रधानमंत्री वी पी सिंह का लाल किले की प्राचीर से दिया गया बयान ही काफी है जिसमे उन्होंने कहा था यदि आज़ादी की बात की जाये तो उसे इतनी दी जाएगी जैसे ज़मीन से लेकर आसमान, लेकिन यदि कोई आज़ादी का गलत मतलब निकालता है तो वह आज़ादी को भूल जाए उनके बयान से साफ़ है भारत जब आज के मुकाबले सैन्य व आर्थिक रूप से शक्तिशाली नहीं था तब कश्मीर को भारत से अलग करने में न पाकिस्तान और न अलगवादी कामयाब हो सके तो अब जब भारत विश्व की महाशक्तियो में शामिल है वे ऐसा सोचकर अपना समय और उर्जा दोनों बर्बाद कर रहे हैं

वही पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती कश्मीर में जारी हिंसा और अशांति के लिए नेशनल कांफ्रेस की सरकार को ज़िम्मेदार मान रही हैं उनका कहना है उमर अब्दुल्ला कश्मीर को चलाने में पूरी तरह नाक़ामयाब रहे हैं वे बेशक युवा हैं लेकिन महलों की चारदीवारी में रहकर आम युवा को नहीं समझा जा सकता है जो आज हिंसा पर उतारू है यह बात उन्होंने एक जाने माने अख़बार को दिए इंटरव्यू मेंकही लेकिन यदि महबूबा जी से भी पूछा जाये कि कश्मीर कि अमन शांति के लिए वो क्या विशेष प्रयास कर रही है? इसका उत्तर तो उनको ही पता होगा लेकिन आम जनता को उनका कोई खास प्रयास दिखाई नहीं देता है वैसे कश्मीर मसले से नज़दीक से रूबरू होने के लिए राजनैतिक लोगों का एक प्रतिनिधिमंडल कश्मीर जा रहा है देखते हैं वहां के लोग उनको कैसे लेते है, वैसे सकारात्मक परिणाम आने की उम्मीद कि जानी चाहिए

चलो अयोध्या मसले पर थोडा और गंभीरता से चर्चा करते हैं .................................... '

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

भारत के कश्मीर को अमन चाहिए


भारत का कश्मीर अलगाववाद और हिंसा की आग में झुलस रहा है | युवा हिंसा पर उतारू हैं| सार्वजनिक संपंती को नुकसान पहुंचाकर आन्दोलनकारी अपना आक्रोश जाहिर कर रहे हैं| अनेक युवा और सेना के जवान इस बेबुनियाद आन्दोलन की चपेट में आकर अपनी जान गवा चुके हैं | बहुतों के घर उजड़ चुके हैं, बहुत सी माँओं ने अपने बेटों को खो दिया है और बहुतों ने अपने पति को | लोगों में दहशत का माहौल बना हुआ है उनमें अविश्वास घर कर गया है | अब वहां के अधिकांश लोग कश्मीर मे किसी भी कीमत पर अमन चाहते हैं , वे अब इस रोज रोज की हिंसा से अजीज़ आ चुके हैं, वो शांति से जीना चाहते हैं उनकी रोजी रोटी, कामकाज हिंसा के कारण ठप पड़ चुके हैं उनके लिए सब कुछ अनिश्चित सा हो गया है | लेकिन कुछ सत्ता को चाहने वाले या पाकिस्तान के इशारों पर काम करनेवाले ये कभी चाहते ही नहीं कि वहां सामान्य जीवन बहाल हो| इस हिंसा को भड़काने में पाकिस्तान के नापाक मंसूबों से इंकार नहीं किया जा सकता है, कहीं ना कहीं अलगाववादी पाकिस्तान से प्रेरित नज़र आते हैं |

` कश्मीर के युवा चीफ मिनिस्टर उमर अब्दुल्ला साहब इस अलगाववादी हिंसा को रोकने में पूरी तरह नाकामयाब रहे हैं| ध्यान देने
वाली बात यह है - उमर अब्दुल्ला भी कश्मीर के युवा हैं और आन्दोलनकारी भी कश्मीर के युवा| कोंग्रेस के राष्ट्रीय सचिव राहुल गाँधी भी इसी बात को ध्यान में रखकर कश्मीर मामले में उमर अब्दुल्ला को समय और समर्थन देने की बात कह रहे हैं कि युवा ही युवायो को ज्यादा अच्छे से समझ सकता है | लेकिन उमर अब्दुल्लाह की शांति अपील को कश्मीरी युवायों ने एक सिरे से खारिज कर दिया है वो कहीं न कहीं समझते हैं कि वो हममे से सामान्य नहीं हैवे राजपरिवार से संबंध रखते हैं| उन युवायों का सोचना है वे हमारी समस्यों से सही से वाफिक नहीं हैं।यदि वास्तव में उमर अब्दुल्ला कश्मीर में सुशासन और शांति चाहते है तो उनको युवायों की मानसिकता को समझना होगा उनके साथ बेहतर संवाद स्थापित करना होगा, उनको उनके बीच जाना होगा|

` कश्मीर में स्थाई शांति स्थापित करने के लिए केंद्र सरकार की सत्तारुद पार्टी , विपक्ष , राज्य सरकार, सेना , प्रशासन, मीडिया , साहितकार, कलकर सभी को मिलजुलकर काम करना होगा ताकि असंतुष्ट युवायों को सही दिशा में लाया जा सके उन्हें विश्वास दिलाना होगा की आपका विकास अखंड भारत मेंही संभव है | सत्ता और विपक्ष को इस संवेदनशील मुद्दे पर राजनीति करने के वजाए एक प्रभावी हल खोजना चाहिए | यदि ईमानदारी से देखा जाये तो किसी राष्ट्रीय नेता ने हिंसा के
दौरान वहां का दौरा नहीं किया वहां जाकर नजदीकी संवाद करने की, उनका वास्तविक हाल जाने की कोशिश नहीं कीगयी | महबूबा मुफ्ती ने बुधवार को सर्वदलिये बैठक में कहा की -"इस देश में लालू प्रसाद , मुलायम सिंह , आडवाणी जैसे तमाम नेता है जो जनता से व्यापक संपर्क रखते हैं लेकिन इन तीनो में इन तीन महीनो के दौरान कश्मीर नहीं गया"| उनका कहना था -"उनको जाना चाहिए था यदि कोई मर भी जाता तो क्या फर्क पड़ता? यह तो कहा जायेगा की जनता के मकसद के लिए जान दे दी" लेकिन असरदार भूमिका निभाने के लिए राजनीतिको को करना होगा | उन्हें समझदारी और संवेदनशीलता से काम लेना होगा| मीडिया, साहित्कार, कलाकारइन सभी को अपनी भूमिका बडानी होगी| ये सभी लोग महज़ अभी लेख लिख रहे हैं या गोष्ठियों में जारहे हैं इन सभी को अपनी भूमिका बढानी चाहिए और देश की अखंडता और राष्ट्रिता के लिए जोखिम उठाना चाहिए

` कश्मीर मसले पर लोगो की भावनायों को भड़काने वाले साहित्कारों और मीडिया से जुड़े लोगों पर भी सरकार को लगाम कसनी होगी| इ बारे में डोगरी साहित्य की जानी मानी लेखिका पदमा सचदेवाअपने एक लेख में लिखती हैं " गुलाम अहमद मज्हूर साहब कश्मीर के जाने मानइ कवि हुए हैं | उन्होंने कश्मीरी कविता को नयी शैली दी | लेकिन वो लिखते थे की -`हिंदुस्तान मैं तुम पर अपनीजान कुर्बान करता हूँ पर यह देह कश्मीर के साथ है` यह बात खलने वाली है| हैरानी की बात है किउस समय शेइख अब्दुल्ला साहब , बक्सी साहब और अनेक जाने माने
राजनेता"| फिर भी किसी ने उनको नहीं रोका | उनसे पूछा जाना चाहिए वो ऐसा क्यों लिख रहे हैं? स्थितयां बिगाड़ने में इस तरहकि भावनायों का भी योगदान है | इस प्रकार की भावनायों को फ़ैलाने वालों पर रोक लगनी चाहिए तभी कश्मीर में अमन कायम हो सकता है |

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

गरीबी का दंश कब तक ?

भारत में गरीबी को एक बड़ी और गंभीर समस्या के रूप में देखा जा सकता है| आर्थिक असमानता समाज में गहरी खाई बना रही है | समाज का एक छोटा तबका मालामाल और एक बड़ा वर्ग गरीबी का दंश झेलता हुआ| चंद अमीरों के हिस्से में सारी सुविधाए और आगे बरने के सारे मौके लेकिन गरीब ज़रूरी सुविधायों से भी महरूम|

सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

कुम्भ मेला

Kumbha Mela
The largest religious gathering in the world! According to astrologers, the 'Kumbh Fair' takes place when the planet Jupiter enters Aquarius and the Sun enters Aries.

Kumbha (Kumbha means pot) Mela (means fair) is a sacred Hindu pilgrimage that takes place at the following four locations of India:
Prayag, Allahabad (in the state of Uttar Pradesh) at the confluence of three holy
rivers - Ganga (Ganges), Yamuna and Saraswati
Haridwar (in the state of Uttar Pradesh) where the river Ganga enters the plains from Himalayas
Ujjain (in Madhya Pradesh), on the banks of shipra river, and
Nasik (in Maharashtra) on the banks of Godavari river.

The pilgrimage occurs four times every twelve years, once at each of the four locations. Each twelve-year cycle includes the Maha (great) Kumbha Mela at Prayag, attended by millions of people, making it the largest pilgrimage gathering around the world.