रविवार, 22 अप्रैल 2012

पृथ्वी दिवस 22 अप्रैल पर विशेष

Earth day, 22 April

ग्लोबल वार्मिंग आज पूरी दुनिया के लिए एक गंभीर चुनौती बन गई है। सबसे अजीब बात यह है कि जो विकसित देश इस समस्या के लिए अधिक जिम्मेदार हैं वहीं विकासशील व अन्य देशों पर इस बात के लिए दबाव बना रहे हैं कि वो ऐसा विकास न करें जिससे धरती का तापमान बढ़े। हालांकि वो खुद अपनी बात पर अमल नहीं करते लेकिन दूसरों देशों को शिक्षा देते हैं। बहरहाल बात चाहे जो हो विभिन्न देशों के आपसी विवाद में नुकसान केवल हमारी पृथ्वी का ही है।
पृथ्वी पर कल-कल बहती नदियां, माटी की सोंधी महक, विशाल महासागर, ऊंचे-ऊंचे पर्वत, तपते रेगिस्तान सभी जीवन के असंख्य रूपों को अपने में समाए हुए हैं। वास्तव में अन्य ग्रहों की अपेक्षा पृथ्वी पर उपस्थित जीवन इसकी अनोखी संरचना, सूर्य से दूरी एवं अन्य भौतिक कारणों के कारण संभव हो पाया है। इसलिए हमें पृथ्वी पर मौजूद जीवन के विभिन्न रूपों का सम्मान और सुरक्षा करनी चाहिए। परंतु पिछले कुछ दहाईयों के दौरान मानवीय गतिविधियों एवं औद्योगिक क्रांति के कारण पृथ्वी का अस्तित्व संकट में पड़ता जा रहा है। दिशाहीन विकास के चलते इंसानों ने प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया है। परिणामस्वरूप आज हवा, पानी और मिट्टी अत्यधिक प्रदूषित हो चुके हैं। इस प्रदूषण के कारण कहीं लाइलाज गंभीर बीमारियां फैल रही हैं तो कहीं फसलों की पैदावार प्रभावित हो रही है। कोयला, पेट्रोल, केरोसिन जैसे जीवाश्म ईंधनों के दहन से वातावरण में ऐसी गैसों की मात्रा बढ़ रही है जिससे पृथ्वी के औसत तापमान में इजाफा हो रहा है यानी ग्लोबल वार्मिंग की समस्या उत्पन्न होती जा रही है। जो अन्य जीवों के साथ-साथ मानव के अस्तित्व के लिए भी खतरा उत्पन्न कर रहा है।

इसकी महत्ता को समझते हुए प्रत्येक वर्ष 22 अप्रैल को विश्व पृथ्वी दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसकी शुरूआत सर्वप्रथम 1970 में संयुक्त राज्य अमेरिका से किया गया था। तभी से स्वच्छ पर्यावरण के लिए जागरूकता बढ़ाने के लिए पूरे विश्व में प्रतिवर्ष पृथ्वी दिवस मनाया जाने लगा है। असल में विश्व पृथ्वी दिवस ऐसा अवसर है जब हम पृथ्वी को जीवनदायी बनाए रखने का संकल्प ले सकते हैं। इस साल पृथ्वी दिवस की 42वीं वर्षगांठ की वैश्विक थीम ‘मोबलाइज द अर्थ’ यानी पृथ्वी प्रदत्त संसाधनों का उपयोग करना एवं संकटों से उसकी रक्षा करना है। सूरज से पृथ्वी की दूरी करीब 14 करोड़ 96 लाख किलोमीटर है। यह दूरी ही पृथ्वी ग्रह को पूरे सौर मंडल में विशिष्ट स्थान देती है। इसी दूरी के कारण यहां पानी से भरे महासागर बने, ऊंचे पहाड़ बने, रेगिस्तान, पठार और सूरज की लगातार मिलती ऊर्जा और पृथ्वी के गर्भ में मौजूद ताप से यहां जीवन के विभिन्न रूप संभव हुए हैं।

पेड़-पौधे और अन्य वनस्पतियां, पशु-पक्षी तथा इंसान रूपी जीव-जंतु, यहां तक कि सूक्ष्मजीव आदि भी यहां जीवन के लिए अति आवश्यक हैं इन सब में ऊर्जा का स्रोत सूर्य की ऊष्मा ही है। कैसा अजब संयोग है कि सूर्य से यह दूरी मिलने के साथ-साथ पृथ्वी एक कोण पर झुकी हुई है, जिस कारण अलग-अलग ऋतुएं, मौसम, जलवायु यहां बने और जीवन में विविधता पैदा हुई। इस ग्रह पर प्रकृति को जीवन जुटाने में लाखों वर्ष लगे। धरती पर कई जटिल प्रणालियां पूरे सामंजस्य से लगातार कार्य करती रहती हैं, जिस कारण जीवन हर रंग-रूप में फल-फूल रहा है। पृथ्वी पर मौजूद जीवनदायी पानी के कारण ही यह ग्रह अंतरिक्ष से नीला दिखाई देता है। सूर्य और पृथ्वी के आपसी मेलजोल से ही इसके आसपास, हवाओं और विभिन्न गैसों का आवरण बना यानी वायुमंडल का निर्माण हुआ। इसी वायुमंडल की चादर ने सूर्य की हानिकारक किरणें जो जीवन को नुकसान पहुंचा सकती हैं, उन्हें पृथ्वी पर पहुंचने से रोके रखा है।

कितने आश्चर्य की बात है कि हजारों वर्षों से वायुमंडल की विभिन्न परतों में गैसों का स्तर एक ही बना हुआ है। जीवन की शुरूआत भले ही पानी में हुई परंतु इसी जीवन को बनाए रखने के लिए प्रकृति ने ऐसा पर्यावरण दिया कि हर कठिन परिस्थिति से निपटने में जीवन सक्षम हो सका है। पर्यावरण का मतलब होता है हमारे या किसी वस्तु के आसपास की परिस्थितियों या प्रभावों का जटिल मेल जिसमें वह वस्तु, व्यक्ति या जीवन स्थित है या विकसित होते हैं। इन परिस्थितियों द्वारा उनके जीवन या चरित्र में बदलाव आते हैं या तय होते हैं। पूरे विश्व में आजकल पर्यावरण शब्द का काफी उपयोग किया जा रहा है। कुछ लोग पर्यावरण का मतलब जंगल और पेड़ों तक ही सीमित रखते हैं, तो कुछ जल और वायु प्रदूषण से जुड़े पर्यावरण के पहलुओं को ही अपनाते हैं। आजकल लोग ग्लोबल वार्मिंग यानी भूमण्डलीय तापन मतलब गर्माती धरती और ओजोन के छेद तक पर्यावरण को सीमित कर देते हैं, तो कई परमाणु ऊर्जा एवं बड़े-बड़े बांधों का बहिष्कार कर सौर ऊर्जा और छोटे बांधों को अपनाने की बात कह कर अपना पर्यावरण के प्रति दायित्व पूरा समझ लेते हैं।

ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर पर्यावरण की वास्तविक परिभाषा है क्या? सर्वप्रथम तो हमें यह तय करना होगा कि हम किस वस्तु या प्राणी विशेष के पर्यावरण की व्याख्या कर रहे हैं। फिर पर्यावरण का अर्थ समझना आसान है। उदाहरण के लिए हमारे अपने पर्यावरण का अर्थ होगा, हमारे आसपास की हर वह वस्तु चाहे वह सजीव हो या निर्जीव जिसका हम पर या हमारे रहन-सहन पर या हमारे स्वास्थ्य पर एवं हमारे जीवन पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, निकट या दूर भविष्य में, कोई प्रभाव हो सकता है और साथ ही ऐसी हर वस्तु जिस पर हमारे कारण कोई प्रभाव पड़ सकता है। यानी पर्यावरण में हमारे आसपास की सभी घटनाओं जैसे मौसम, जलवायु आदि का समावेश होता है, जिन पर हमारा जीवन निर्भर करता है। यह सृजनात्मक प्रकृति जिसने हमें जीवन और जीवन के लिए आवश्यक वातावरण दिया है एक बहुत ही नाजुक संतुलन पर टिकी है। अगर हम वायुमंडल को ही लें, तो संपूर्ण वायुमंडल सबसे उपयुक्त गैसों के अनुपात से बना है जो जीवन के हर रूप, उसकी विविधता को संजोए रखने में सक्षम है।

वायुमंडल में 78.08 प्रतिशत नाइट्रोजन, 20.95 प्रतिशत ऑक्सीजन, 0.03 कार्बन डाइऑक्साइड तथा करीब 0.96 प्रतिशत अन्य गैसे हैं। गैसों का यह अनुपात सभी प्रकार के जीवों के पनपने के लिए उपयुक्त है। व्यापक तौर पर देखें तो ऑक्सीजन पृथ्वी पर उपस्थित जीवों के लिए अतिआवश्यक है। यह हमारे शरीर की कोशिकाओं को ऊर्जा प्रदान करती है। हम जो खाना खाते हैं, उसे पचाकर हमें ताकत मिलती है। यदि इसी ऑक्सीजन का अनुपात 21 प्रतिशत से ज्यादा हो जाए तो हमारे शरीर की कोशिकाओं में कई प्रकार के असंतुलन उत्पन्न हो जाएंगे जिससे बहुत सी विकृतियां आ जाएंगी। ऐसे में सारी क्रियाएं और अभिक्रियाएं गड़बड़ा जाएंगी। इसके साथ-साथ जीवन के लिए जरूरी वनस्पति तथा हाइड्रोकार्बन के अणुओं का भी नाश शुरू हो जाएगा यानी ऑक्सीजन के वर्तमान स्तर में थोड़ी-सी भी वृद्धि जीवन के लिए घातक सिद्ध हो सकती है। अब इसी ऑक्सीजन का प्रतिशत 20 से कम हो तो हमें सांस लेने में तकलीफ हो जाएगी। सारी चयापचयी गतिविधियां रुक जाएंगी और ऊर्जा न मिल पाने से जीवन का नामोनिशां मिट जाएगा।

इसी तरह 78.08 प्रतिशत नाइट्रोजन की मात्रा वायुमंडल में ऑक्सीजन के हानिकारक प्रभाव तथा जलाने की क्षमता पर सही रोक लगाने में सक्षम होती है। वायुमंडल में गैसों का यह मौजूदा स्तर, पेड़-पौधों में प्रकाश-संश्लेषण के लिए भी बिल्कुल ठीक है। प्रकृति का नाजुक संतुलन और संयोग यही है कि हर जीवन किसी न किसी रूप में जीवन की धारा के अविरल बहाव में मदद कर रहा है, जैसे वनस्पतियों के लिए आवश्यक कार्बन डाइऑक्साइड प्राणियों द्वारा छोड़ी जाती है और पौधे इस कार्बन डाइऑक्साइड को सूरज की रोशनी पानी की मौजूदगी में प्रकाश-संश्लेषण द्वारा अपने लिए ऊर्जा बनाने के काम में लाते हैं। इस दौरान कार्बन डाइऑक्साइड को अपने में समा कर ऑक्सीजन बाहर छोड़ते हैं। ऐसे ही और संतुलन एवं आपसी मेल-जोल के उदाहरण आगे दिए जाएंगे। अभी हम सृजनात्मक प्रकृति के अनूठे संयोग की बात करते हैं, जिसने जीवन के लिए जरूरी पर्यावरण संजोया।

पहले बताई गई गैसों की तरह कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर भी बिल्कुल उपयुक्त है। क्योंकि इस अनुपात में यह पृथ्वी की ऊष्मा को अंतरिक्ष में खो जाने से रोकती है यानी कार्बन डाइऑक्साइड जीवन के लिए उपयुक्त तापमान को बनाए रखती है। परन्तु यदि इसी कार्बन डाइऑक्साइड का प्रतिशत अधिक हो गया तो पूरे ग्रह के तापमान में भयानक बढ़ोतरी हो सकती है जो जीवन के लिए अनुकूल नहीं होगा। पृथ्वी पर मौजूद पेड़-पौधे इस कार्बन डाइऑक्साइड को निरंतर ऑक्सीजन में बदलते रहते हैं। यह मात्रा करीब 190 अरब टन ऑक्सीजन प्रतिदिन बैठती है। इसी तरह अन्य स्रोतों से पौधों के लिए आवश्यक कार्बन डाइऑक्साइड बनती रहती है। इन सभी गैसों का स्तर विभिन्न परस्पर जटिल प्रक्रियाओं के सहयोग से हमेशा स्थिर बना रहता है और जीवन सांसे लेता रहता है।

वायुमंडलीय गैसों के अलावा पृथ्वी का आकार भी जीवन के पनपने के लिए उपयुक्त है। यदि पृथ्वी का द्रव्यमान थोड़ा कम होता तो उसमें गुरुत्वाकर्षण भी अपर्याप्त रहता और इस कम खिंचावों के कारण पृथ्वी की चादर यानी पूरा वायुमंडल ही अंतरिक्ष में बिखर जाता और अगर यही द्रव्यमान कुछ ज्यादा हो जाता तो सारी गैसें पृथ्वी में ही समां जाती, जिससे जीवों की श्वसन प्रक्रिया प्रभावित होती। पृथ्वी पर अगर गुरुत्वाकर्षण ज्यादा होता तो वायुमंडल में अमोनिया और मिथेन की मात्रा अधिक होती। ये गैसें जीवन के लिए घातक हैं। ऐसे ही अगर गुरुत्व कम होता तो पृथ्वी पानी ज्यादा खो देती। पिछले 10 हजार वर्षों में असाधारण रूप से पृथ्वी पर पानी की मात्रा ज्यों की त्यों है यानी कुछ पानी बर्फ के रूप में जमा हुआ है, कुछ बादलों के रूप में तो काफी महासागरों में, फिर भी पानी की मात्रा में एक बूंद भी कमी नहीं आई है। भूमि पर बरसने वाला पानी पूरी पृथ्वी पर होने वाली वर्षा का 40 प्रतिशत होता है और हम सिर्फ 1 या 2 प्रतिशत पानी ही संरक्षित कर पाते हैं बाकी सारा पानी वापस समुद्र में बह जाता है।

हवा का तापमान और नमी के गुण भी कई कारकों से प्रभावित होते हैं। जैसे भूमि तथा सागरों का विस्तार, क्षेत्र की स्थलाकृति तथा सौर किरणों की तीव्रता में मौसम के अनुसार भिन्नता। ये सभी कारक लगातार आपसी मेल से हमारी धरती के मौसम को नया स्वरूप और विविधता प्रदान करते हैं। पृथ्वी के वायुमंडल में नाइट्रोजन और ऑक्सीजन के अलावा कई अन्य गैसें हैं जो पृथ्वी पर जीवन पनपाने लायक वातावरण बनाती हैं।
इसी तरह अगर पृथ्वी की परत ज्यादा मोटी होती तो वह वायुमंडल से ज्यादा ऑक्सीजन सोखती और जीवन फिर संकट में पड़ जाता। अगर यह परत ज्यादा पतली होती तो लगातार ज्वालामुखी फटते रहते और धरती की सतह पर भूगर्भीय गतिविधियां इतनी अधिक होतीं कि भूकम्प आदि के बीच में जीवन बचा पाना असंभव हो जाता। ऐसे ही महत्वपूर्ण और नाजुक संतुलन का उदाहरण है, वायुमंडल में ओजोन गैस का स्तर जिसे धरती की छतरी भी कहते हैं। अगर ओजोन की मात्रा वर्तमान के स्तर से ज्यादा होती तो धरती का तापमान बहुत कम होता और अगर कम हो तो धरती का तापमान बहुत ज्यादा हो जाएगा और पराबैंगनी किरणें भी धरती की सतह पर ज्यादा टकराती। हमारे द्वारा किए जा रहे पर्यावरण के नाश को समझने से पहले यह आवश्यक है कि पर्यावरण से संबंधित प्रकृति के विभिन्न पहलुओं को समझें, क्योंकि तभी हम पर्यावरणीय समस्याओं का सही हल ढूंढ पाएंगे।

पृथ्वी की सतह के ऊपर वायुमंडलीय गैसों का एक नाजुक संतुलन है और गैसों का यह संतुलन सूरज, पृथ्वी और ऋतुओं से प्रभावित होता है। वायुमंडल पृथ्वी की मौसम प्रणाली और जलवायु का एक जटिल घटक है। वायुमंडल अपनी विभिन्न परतों से गुजरती सौर किरणों में से हानिकारक ऊष्मा सोख लेता है। जो सौर किरणें धरती तक पहुंचती हैं, वे उसकी सतह से टकराकर वापस ऊपर की ओर आती हैं। इन किरणों में से आवश्यक ऊष्मा को वायुमंडल फिर अपने में समा लेता है और धरती के तापमान के जीवन के अनुकूल बनाए रखने में मदद करता है। वायुमंडल में मौजूद ऊष्मा का स्तर कई मौसमी कारकों को प्रभावित करता है, जिसमें वायु की गतिविधियां, हमारे द्वारा महसूस किया जाने वाला तापमान तथा वर्षा शामिल है। महासागरों से नमी का वाष्पन वायुमंडलीय जल-वाष्प पैदा करता है और अनुकूल परिस्थितियों में यही वायुमंडल मौजूद जल-वाष्प वर्षा, हिमपात, ओलावृष्टि तथा वर्षण के अन्य रूपों में वापस धरती की सतह पर पहुंच जाते हैं।

हवा का तापमान और नमी के गुण भी कई कारकों से प्रभावित होते हैं। जैसे भूमि तथा सागरों का विस्तार, क्षेत्र की स्थलाकृति तथा सौर किरणों की तीव्रता में मौसम के अनुसार भिन्नता। ये सभी कारक लगातार आपसी मेल से हमारी धरती के मौसम को नया स्वरूप और विविधता प्रदान करते हैं। पृथ्वी के वायुमंडल में नाइट्रोजन और ऑक्सीजन के अलावा कई अन्य गैसें हैं जो पृथ्वी पर जीवन पनपाने लायक वातावरण बनाती हैं। जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, निऑन, हीलियम, मिथेन, क्रिपटॉन, नाइट्रस ऑक्साइड, हाइड्रोजन आदि। इनमें से किसी भी गैस का असंतुलन जीवन का संतुलन बिगाड़ सकता है। हमें पृथ्वी पर मंडरा रहे खतरों को समझने की जरूरत है। पृथ्वी को इन खतरों से बचाने की सर्वाधिक जिम्मेदारी इसके सर्वश्रेष्ठ प्राणी यानि मानव के कंधों पर ही है। इसलिए हमें अपनी भूमिका समझ कर पृथ्वी को जीवनमय बनाए रखने की दिशा में कदम उठाने होंगे। ग्लोबल वार्मिंग आज पूरी दुनिया के लिए एक गंभीर चुनौती बन गई है। सबसे अजीब बात यह है कि जो विकसित देश इस समस्या के लिए अधिक जिम्मेदार हैं वहीं विकासशील व अन्य देशों पर इस बात के लिए दबाव बना रहे हैं कि वो ऐसा विकास न करें जिससे धरती का तापमान बढ़े।

हालांकि वो खुद अपनी बात पर अमल नहीं करते लेकिन दूसरों देशों को शिक्षा देते हैं। बहरहाल बात चाहे जो हो विभिन्न देशों के आपसी विवाद में नुकसान केवल हमारी पृथ्वी का ही है। इसलिए पृथ्वी को जीवनमयी बनाए रखने के लिए हम सभी को एक होना होगा। सामूहिक प्रयासों के द्वारा ही हम धारणीय विकास करते हुए पृथ्वी को बचा सकते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि हम सभी अपने-अपने स्तर पर ऐसे कार्य करें जिससे प्राकृतिक संसाधनों का अधिकतम उपयोग किया जा सके। ऊर्जा के नवीकरणीय संसाधनों जैसे पवन ऊर्जा एवं सौर ऊर्जा का उपयोग करना होगा। साथ ही पानी और ऊर्जा की बर्बादी को रोक कर ऐसे अन्य प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करना होगा क्योंकि इन्हीं संसाधनों पर हमारा और हमारी भावी पीढ़ियों का भविष्य टिका है। ऐसे में पृथ्वी दिवस को केवल एक समारोह के रूप में लेने से हम इसके वास्तविक लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकते हैं बल्कि इस अवसर पर प्रत्येक व्यक्ति को प्राकृतिक संसाधनों का समझदारी से उपयोग करना सीखना होगा तभी यह धरती भविष्य में मानव की आवश्यकताओं को पूरा करती हुई जीवन के रूपों को संवारती रहेगी।

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

कानून से होता अन्याय



राजस्थान में वन अधिकार कानून की मनमानी व्याख्या कर अधिकारियों द्वारा आदिवासियों को भूमिहीन बनाने का सिलसिला निरंतर जारी है। विगत दिनों जयपुर में हुई जनसुनवाई में सरकारी अधिकारियों तक ने इस विसंगति को स्वीकार किया है। देखना है कि क्या भविष्य में स्थितियों में सुधार होगा

देश में आदिवासियों में उमड़ते असंतोष पर हाल के समय में चिंता तो बहुत व्यक्त की गई है, पर इस असंतोष के सबसे बड़े कारण को दूर करने के असरदार उपाय अभी तक नहीं उठाए गए हैं। इस असंतोष का प्रमुख कारण है आदिवासियों की जमीन का उनसे निरंतर छिनते जाना। यह एक ऐतिहासिक प्रक्रिया रही है, जो आज तक न केवल जारी है अपितु समय के साथ और भी जोर पकड़ रही है। आदिवासी वन भूमि हकदारी कानून 2006 के अंतर्गत ऐतिहासिक अन्याय दूर करने का प्रयास किया गया है, परंतु इस कानून का क्रियान्वयन भी ठीक तरह से नहीं हुआ। बहुत से सही दावे खारिज कर दिए गए व इस बारे में आदिवासियों या परंपरागत वनवासियों को निर्णय की सूचना तक नहीं दी गई। आदिवासियों के भूमि-अधिकारों के हनन पर ऐसे अनेक महत्वपूर्ण तथ्य 21 मार्च को राजस्थान की राजधानी जयपुर में आयोजित एक जन-सुनवाई में सामने आए। इस जन-सुनवाई का आयोजन राजस्थान आदिवासी अधिकार संगठन व जंगल जमीन जन आंदोलन ने किया था। अनेक भुक्तभोगी आदिवासियों व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बहुत से उदाहरण देते हुए यह स्पष्ट किया कि कानूनी प्रावधानों का उल्लंघन करते हुए आदिवासियों की जमीन बड़े पैमाने पर कैसे छिनी व वे अनेक स्थानों पर अपने ही घर में कैसे बेघर बनाए गए।

उदयपुर व सिरोही जिले में बने एक राजमार्ग में 1816 खातेदारों की जमीनें गई, जिनमें से 1473 आदिवासी हैं। इनमें से अनेक को आश्चर्यजनक हद तक कम मुआवजा दिया गया। लगभग 320 आदिवासी परिवारों को 1000 रुपए से कम मुआवजा मिला व 668 परिवारों को 5000 रुपए से कम मुआवजा मिला। रताराम गरासिया जैसे व्यक्तियों ने बहुत कम मुआवजा लेने से इंकार किया तो उन्हें अब तक मुआवजा ही नहीं मिला। माही व कदना जैसे अनेक बांधों से विस्थापित हुए हजारों परिवार आज तक दर-दर भटक रहे हैं। उनकी क्षति पूर्ति बहुत ही कम की गई। उन्हें 1000 रुपए प्रति बीघे से भी कम का मुआवजा दिया गया तथा ऐसे स्थानों पर बसने को मजबूर किया गया जहां खेती व आवास की स्थिति कानूनी तौर पर पूरी तरह सुरक्षित नहीं थी। वन-अधिकार कानून बनने पर उनके मामलों पर विशेष सहानुभूति से विचार करना जरूरी था लेकिन उन्हें आज तक न्याय नहीं मिला है। ऐसे अनेक परिवारों को ऐसी जगह बसने को कहा गया जहां पहले से आदिवासी रह रहे थे। इस तरह आदिवासियों में आपसी झगड़े की स्थिति उत्पन्न कर दी गई।

शहरीकरण के साथ विभिन्न शहरों के आस-पास की मंहगी होती आदिवासियों की जमीन पर भू-माफिया अपना कब्जा जमा रहे हैं। प्रतापगढ़ जैसे अनेक शहरों में आस-पास के अनेक किलोमीटर के इलाकों में यह प्रवृत्ति देखी जा सकती है। उद्योगों व बिजलीघरों के नाम पर भी आदिवासियों से जमीनें बहुत सस्ते में ली गई हैं। इसमें से जिस जमीन पर उद्योग नहीं लगे वह भी आदिवासियों को लौटाई तक नहीं गई। प्रायः विभिन्न परियोजनाओं के लिए जितनी जमीन की जरूरत होती है, उससे ज्यादा जमीन ले ली जाती है। बढ़ते खनन से भी आदिवासी बुरी तरह प्रभावित हैं। कई मामले ऐसे भी हैं, जहां सरकारी जरूरत बता कर जमीन ली गई पर बाद में इसे निजी कंपनी को बेच दिया गया।

यह एक क्रूर विडंबना है कि कानून में आदिवासियों के भूमि-अधिकारों की रक्षा की व्यवस्था के बावजूद आदिवासियों के हाथों से निरंतर भूमि छिनती जाए। यदि अनुसूचित जनजातीय क्षेत्रों के लिए बने वर्ष 1996 के विशेष पंचायत कानून (जिसे संक्षेप में पेसा कानून कहा जाता है) का ठीक से क्रियान्वयन होता तो इससे भी आदिवासी भूमि अधिकारों को बचाने में मदद मिल सकती थी। पर इस कानून का पालन राजस्थान सहित किसी भी राज्य में नहीं हो रहा है। इस कानून के नियम राज्य में बहुत देरी से वर्ष 2011 में तैयार किए गए व ये नियम भी कानून की मूल भावना के अनुरूप नहीं हैं।


जिस कानून से लोगों को बहुत उम्मीदें थीं, उससे यदि किसी की क्षति होती है व उसकी भूमि पहले से कम होती है तो इससे असंतोष और फैलेगा। कार्यकर्ताओं व गांववासियों के साथ जन-सुनवाई में मौजूद अधिकारियों ने भी कहा कि इस कानून के क्रियान्वयन में तुरंत सुधार होने चाहिए इसके साथ आदिवासियों की भूमि की रक्षा के लिए अन्य असरदार कदम उठाए जाने की जरूरत पर भी सहमति बनी।

इस तरह से वायदे कई बार किए गए कि वन्य जीव संरक्षण कानून में सुधार कर इस कानून के अंतर्गत होने वाले विस्थापन को न्यूनतम किया जाएगा। पर जन-सुनवाई में कार्यकर्ताओं व गांववासियों ने बताया कि कुंभलगढ़ राष्ट्रीय पार्क जैसी परियोजनाओं के कारण आदिवासियों व अन्य गांववासियों के सामने बड़े पैमाने पर विस्थापन का खतरा मंडरा रहा है। इस राष्ट्रीय पार्क के क्षेत्र में राजसमंद, उदयपुर व पाली जिले के 128 गांव आते हैं। जहां एक ओर कई परियोजनाओं से जमीन छिन रही है, वहां भूमिहीन परिवारों में भूमि-वितरण का कार्य बहुत कमजोर है। भूमि के कागज देना भर पर्याप्त नहीं है, जरूरत तो इस बात की है कि वास्तव में भूमि पर कब्जा मिले व जिन्हें भूमि आबंटित हुई है वे वास्तव में इस भूमि को जोत सकें।

वन अधिकार कानून 2006 से आदिवासियों व अन्य परंपरागत वनवासियों को बड़ी उम्मीदें थीं पर इस जन-सुनवाई में राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों के जो आंकड़े प्रस्तुत किए गए, उससे पता चलता है कि बड़े पैमाने पर दावे खारिज हुए हैं। जो दावे स्वीकृत हुए हैं, उनमें से अधिकांश को आंशिक स्वीकृति ही मिली है। उदाहरण के लिए कोई आदिवासी चार बीघा जमीन जोत रहा था व उसे एक बीघे की स्वीकृति मिल गई तो नई कानूनी व्यवस्था के अनुसार उसे तीन बीघा जमीन छोड़ना पड़ेगा। ऐसे अनेक मामलों की पैरवी करने वाले अधिवक्ता व कार्यकर्ता रमेश नंदवाना ने बताया कि ऐसे मामले जिनमें पूरी स्वीकृति मिली है के मात्र 10 प्रतिशत ही होने की संभावना है।

इसके अतिरिक्त सामूहिक भूमि के अधिकांश दावे अस्वीकृत हुए हैं। अन्य परंपरागत वनवासियों (जो आदिवासी के रूप में स्वीकृत नहीं हैं) के अधिकांश दावों को अस्वीकृत कर दिया गया है। इतना ही नहीं, जिन परिवारों के दावे खारिज हुए हैं उन्हें सामान्यतः इसकी जानकारी भी नहीं दी जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि वे समय पर अपील भी नहीं कर पाते हैं। जिस कानून से लोगों को बहुत उम्मीदें थीं, उससे यदि किसी की क्षति होती है व उसकी भूमि पहले से कम होती है तो इससे असंतोष और फैलेगा। कार्यकर्ताओं व गांववासियों के साथ जन-सुनवाई में मौजूद अधिकारियों ने भी कहा कि इस कानून के क्रियान्वयन में तुरंत सुधार होने चाहिए 

गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

नदियां जोड़ो, पर क्यों


नदी जोड़ो परियोजना के लिए ऐसे किसी भी प्रोजेक्ट की तुलना में कहीं ज्यादा जमीन की जरूरत होगी। तब क्या सुप्रीम कोर्ट यह मान लेगा कि उन इलाकों के किसानों के लिए जमीन का दर्जा मां के बजाय किसी और चीज का है? इन कानूनी और भावनात्मक पहलुओं को एक तरफ रख दें तो नदी जोड़ो परियोजना में सबसे बड़ी अड़चन पर्यावरण की ओर से पैदा होने वाली है।
एनडीए के शासनकाल में प्रस्तावित 'नदियां जोड़ो' परियोजना को कुछ ज्यादा ही गंभीरता से लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने न केवल मौजूदा सरकार को इसे अमल में उतारने का निर्देश दिया है, बल्कि अपनी तरफ से इस पर नजर रखने के लिए एक कमेटी भी गठित कर दी है। सरकार की भी बलिहारी है कि इसका कड़ा प्रतिवाद करना उसे जरूरी नहीं लगा। जिस समय इस परियोजना का प्रस्ताव आया था, हर तरफ इसकी काफी वाहवाही हुई थी। कागज पर इसका सम्मोहन आज भी कम नहीं हुआ है। लेकिन इसके दूसरे पहलुओं पर नजर डालने से स्पष्ट हो जाएगा कि यह जब तक कागजों पर रहे, तभी तक अच्छी है, क्योंकि इसके जमीन पर आते ही कई तरह की आफतें खड़ी हो जाएंगी। इस परियोजना में तो तीस से ज्यादा नदियों को जोड़ने की बात है।

पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और राजस्थान के बीच सतलुज-यमुना लिंक नहर की हैसियत इसके सामने कुछ भी नहीं है। इसके बावजूद पंजाब अपने हिस्से का एक लीटर पानी भी कहीं और जाने देने को राजी नहीं है और उसे इसके लिए बाध्य करने का कोई तरीका आज तक नहीं खोजा जा सका है। कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच ब्रिटिश काल से ही कायम कावेरी जल विवाद इतना पेचीदा हो चुका है कि मुल्लापेरियार बांध की ऊंचाई बढ़ाने या इसे नए सिरे से बनवाने के प्रस्ताव तक को दोनों राज्यों की सरकारें अपने-अपने अस्तित्व के लिए चुनौती मान रही हैं। ऐसे में नदी जोड़ो परियोजना कितने राज्यों के बीच किस-किस तरह के विवादों का विषय बनेगी और इसका नतीजा देश के लिए कैसा होगा, यह कोई भी सोच सकता है।

दूसरा पहलू इस परियोजना के लिए जमीनों के अधिग्रहण का है। नोएडा एक्सटेंशन के मामले में आए सुप्रीम कोर्ट के निर्देश में यह भावनात्मक वक्तव्य भी शामिल था कि जमीन किसानों की मां है। फिलहाल देश का कोई कोना ऐसा नहीं है जहां सड़क, रेल, बिजलीघर, खान, उद्योग या आवासीय कॉलोनियां बनाने के लिए किए गए भूमि अधिग्रहण के खिलाफ उग्र आंदोलन न चल रहे हों। नदी जोड़ो परियोजना के लिए ऐसे किसी भी प्रोजेक्ट की तुलना में कहीं ज्यादा जमीन की जरूरत होगी। तब क्या सुप्रीम कोर्ट यह मान लेगा कि उन इलाकों के किसानों के लिए जमीन का दर्जा मां के बजाय किसी और चीज का है?

नदियों को खत्म करने की पूरी तैयारीइन कानूनी और भावनात्मक पहलुओं को एक तरफ रख दें तो नदी जोड़ो परियोजना में सबसे बड़ी अड़चन पर्यावरण की ओर से पैदा होने वाली है। नदियां अपना स्वाभाविक ढाल पकड़ती हैं और उनके पानी की दिशा अगर नहरों के जरिये मोड़ दी जाती है तो कुछ साल बाद वे जमीन को दलदली और खारा बना कर अपना बदला निकालती हैं। हरित क्रांति के दौरान नहरों का मजा ले चुके कुछ राज्य फिलहाल इसकी सजा भुगत रहे हैं। ऐसे में कागज पर मोहक सिंचाई योजनाएं बनाने और उन पर अमल के लिए अदालती निर्देश का इंतजार करने से बेहतर यही होगा कि सरकारें बारिश का पानी जमा करने और ग्राउंड वाटर रीचार्ज जैसे उपायों पर अपना ध्यान केंद्रित करें।

बुधवार, 11 अप्रैल 2012

संकट में पानी


समुद तटीय इलाकों और सागरों पर पर्यावरण को विनाश करने वाली क्रियाओं के कारण महासागर भारी खतरे में है।

- महासागर एक गतिशील और जटिल व्यवस्था है जो जीवन के लिए अत्यन्त महत्तवपूर्ण है। महासागरों में मौजूद असीम सम्पदा समान रूप से वितरित नहीं है। उदाहरण के लिए, सर्वाधिक समुद्री जैव विविधता समुद्र तल पर पाई जाती है। महासागरों की उत्पादकता को निर्धारित करने वाली पर्यावरणीय परिस्थितियां समय और स्थान के अनुसार भिन्न-भिन्न हैं।

- सर्वाधिक महत्तवपूर्ण फिशिंग ग्राउंड समुद्र तट से 200 से भी कम मील क्षेत्र के भीतर महाद्वीपीय समतलों पर पाए जाते हैं। ये फिशिंग ग्राउंड भी असमान रूप से देखे गए हैं और अधिकांशत: स्थानीय हैं।

- 2004 में आधे से भी अधिक समुद्र लैंडिंग फिशिंग, समुद्र तट के 100 किमी. के भीतर पकड़ी गई है, जिसकी गहराई आमतौर पर 200 मी. है और यह विश्व के महासागरों का 7.5 फीसदी से भी कम दायरा कवर करता है।

- ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज ने महासागरों की उत्पादकता और स्थायित्व के लिए बहुत सी चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। उष्णकटिबन्धीय क्षेत्रों में उथले पानी में, तापमाप में, 3 डिग्री से 0 डिग्री तक की वृद्धि 2100 तक वार्षिक या द्विवार्षिक मूंगों का सफाया हो सकता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि 2080 तक विश्व में 80-100 फीसदी तक मूंगें खत्म हो जाएंगे।



जब वातावरण में कार्बन की मात्रा बढ़ जाती है तब कार्बन महासागरों में एकत्रित हो जाता है और एक प्राकृतिक रासायनिक प्रक्रिया के तहत उसका अम्लीकरण होने लगता है जिसका प्रभाव ठंडे पानी, मूगों और सीपियों पर पड़ता है।

- समुद्र तटों पर और जमीन में विकासात्मक क्रियाएं 2050 तक, आवासीय समुद्रतटों की क्रियाओं की अपेक्षा अधिक प्रभावित कर सकती है और पूरे समुद्र प्रदूषण के 80 फीसदी से भी अधिक खतरा पैदा कर सकती हैं।

- बढ़ता हुआ विकास, प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन सभी मृत समुद्री क्षेत्र (कम ऑक्सीजन वाले क्षेत्र) बढ़ा रहे हैं। बहुत से तो प्राथमिक फिशिंग ग्राउंड पर या उसके आसपास है, जो फिश स्टॉक को भी प्रभावित कर रहे हैं। ऐसे क्षेत्र 2013 में 149 से बढ़कर 2006 में 200 से भी अधिक हो गए हैं।

- आक्रामक प्रजातियां भी प्राथमिक फिशिंग ग्राउंड के लिए खतरा हैं। गिट्टी पोत (पानी, जो बन्दरगाहों और खाड़ी से, जहाजों द्वारा स्थिरता बनाए रखने के लिए ले जाया जाता है) भी आक्रामक प्रजातियों को लाने में महत्वपूर्ण तत्व हैं।

- महासागरों की देखभाल के लिए आंकड़ों और धन का अभाव, समुद्री पर्यावरण को और ज्यादा बदतर बना रहा है। देशों को समुद्रों पर जलवायु और गैर-जलवायुगत दवाबों को कम करने के लिए तत्काल उपाय करना चाहिए ताकि संसाधनों को बचाया जा सके। इसके लिए दुनिया भर में सामुद्रिक नीतियों में परिवर्तन की आवश्यकता है।

गायब होते ग्लेशियर


बढ़ते तापमान का भारतीय ग्लेशियरों पर बुरा असर पड़ रहा है और अगर ग्लेशियरों के पिघलने की यही रफ्तार रही तो हिमालय के ग्लेशियर 2035 तक गायब हो जाएंगे। अध्ययन में पाया गया है कि हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार बहुत तेज है। शोधकर्ताओं का कहना है कि कश्मीर में कोल्हाई ग्लेशियर पिछले साल 20 मीटर से अधिक पिघल गया है जबकि दूसरा छोटा ग्लेशियर पूरी तरह से लुप्त हो गया है। हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय भूभौतिकी अनुसंधान संस्थान के मुनीर अहमद का कहना है कि ग्लेशियरों के इस कदर तेजी से पिघलने की वजह ग्लोबल वार्मिंग के साथ-साथ ब्राउन क्लाउड है। 

दरअसल, ब्राउन क्लाउड प्रदूषण युक्त वाष्प की मोटी परत होती है और ये परत तीन किलोमीटर तक मोटी हो सकती है। इस परत का वातावरण पर विपरीत असर होता है और ये जलवायु परिवर्तन में अहम भूमिका निभाती है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम यानी यूएनईपी की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट की तलहटी में भी काले धूल के कण हैं और इनका घनत्व प्रदूषण वाले शहरों की तरह है। 

शोधकर्ताओं का कहना है कि क्योंकि काली-घनी सतह ज्यादा प्रकाश और ऊष्मा सोखती है, लिहाजा ग्लेशियरों के पिघलने की ये भी एक वजह हो सकती है। अगर ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार अंदाज़े के मुताबिक ही रही तो इसके गंभीर नतीजे होंगे। दक्षिण एशिया में ग्लेशियर गंगा, यमुना, सिंधु, ब्रह्मपुत्र जैसी अधिकांश नदियों का मुख्य स्रोत हैं। ग्लेशियर के अभाव में ये नदियां बारहमासी न रहकर बरसाती रह जाएंगी और कहने की ज़रूरत नहीं कि इससे लाखों, करोड़ों लोगों का जीवन सूखे और बाढ़ के बीच झूलता रहेगा। 

ग्लेशियरों के ख़तरे



नेपाल के एक युवा पर्वतारोही जलवायु परिवर्तन के भीषण परिणामों की तरफ़ लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए माउंट एवरेस्ट की यात्रा करेंगे। दावा स्टीवन शेरपा नाम के इस पर्वतारोही की उम्र महज 23 वर्ष है लेकिन वह इस उम्र में ही एवरेस्ट सहित दुनिया की कई उँची पर्वतमालाओं को लांघ चुके हैं। उन्होंने कहा कि जब उन्होंने हिमालय पर मौज़ूद ग्लैशियरों को पिघलते हुए देखा तो उनके मन में आया कि क्यों न आम लोगों का ध्यान पर्यावरण के मुद्दों की तरफ खींचा जाए। बेल्जियम और नेपाली मिश्रित मूल के स्टीवन शेरपा का कहना है कि वर्ष 2007 में जब वह पर्वतारोहण कर रहे थे तो खुमबु आईस फॉल के दौरान उन्हें एक डरावना अनुभव हुआ। दावा मानते हैं कि ग्लोवल वार्मिंग की वजह से ही उस दिन हिम नदी पिघली थी। 

वैज्ञानिकों का कहना है कि हिमालय पर मौजूद सैकड़ों ग्लेशियर जलवायु परिवर्तन की वजह से पिघल रहे हैं। ये ग्लेशियर पाकिस्तान से लेकर भूटान तक फैले हैं। इन पिघलते हुए ग्लेशियरों के कारण कुछ नई झील बन गई हैं जिनसे इन घाटियों में बाढ़ आने का ख़तरा बढ़ गया है। नेपाल स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटिग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट ने अनुमान व्यक्त किया है कि वर्ष 2050 तक इस तरह के सारे हिमनद पिघल जाँएंगे जिससे इस क्षेत्र में पहले बाढ़ और फिर अकाल आने का ख़तरा बढ़ रहा है। संस्था के मुताबिक हिमालय से निकलने वाली नदियों पर कुल मानवता का लगभग पाँचवां हिस्सा निर्भर है। 

विकसित देशों में प्रदूषण बढ़ा


जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी का कहना है कि औद्योगिक देशों में वर्ष 2000 से 2006 के बीच ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन 2।3 प्रतिशत बढ़ा है। कार्बन गैसों में सबसे यादा बढ़ोत्तरी पूर्व सोवियत संघ के देशों और कनाडा में हुई है। संयुक्त राष्ट्र के प्रवक्ता ने कहा है कि यदि ख़तरनाक जलवायु परिवर्तन को रोकना है तो देशों को ज्यादा तेजी से कार्रवाई करनी होगी। दुनिया भर के देश अगले महीने पोलैंड में जलवायु परिवर्तन पर चर्चा करने के लिए मिलने वाले हैं और प्रदूषण के जो नए ऑंकड़े आए हैं वो आशाजनक नहीं हैं। 

संयुक्त राष्ट्र ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि हालांकि वर्ष 2006 में दुनिया भर में कार्बन गैसों के उत्सर्जन में 0.01 प्रतिशत की गिरावट आई। लेकिन संयुक्त राष्ट्र सचिवालय का कहना है कि सांख्यिकी की दृष्टि से इस कमी का कोई महत्व नहीं है। रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2000 के बाद से कार्बन गैसों में बढ़ोत्तरी दिख रही है। हालांकि जिन देशों में कार्बन गैसों में बढ़ोत्तरी हुई है उन देशों ने गैसों में कटौती का आश्वासन दिया था। इस मामले में सबसे बड़ा दोषी देश कनाडा दिख रहा है। 

रिपोर्ट के अनुसार 1990 से अब तक वहाँ कार्बन गैसों में 21.3 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है जबकि इसमें छह प्रतिशत की कमी होनी चाहिए थी। हाल के समय में सबसे ज्यादा गैसों का उत्सर्जन पूर्वी एशियाई देशों में दर्ज किया गया है। वर्ष 2000 के बाद से यहाँ 7।4 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। ब्रिटेन उन चुनिंदा देशों में से है जो अपने कार्बन गैसों पर नियंत्रण रख पा रहा है। हालांकि ब्रिटेन सरकार को दी गई एक ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया है कि हवाई जहा और समुद्री पोतों के चलते वहाँ प्रदूषण बढ़ रहा है। इस रिपोर्ट के अनुसार वहाँ आयात की जा रही सामग्री में मौजूद कार्बन के कारण भी इसमें बढ़ोत्तरी हुई है। 

वनों से बढ़ता पृथ्वी का तापमान!


वैज्ञानिकों का कहना है कि पेड़ भी जलवायु परिवर्तन के लिए ज़िम्मेदार हैं ऐसे में जब बर्फीले इलाकों में पेड़ लगाने से पृथ्वी के तापमान में और वृध्दि हो सकती है क्योंकि पेड़ गरमी को परावर्तित नहीं होने देते। अमरीकी शोधकर्ताओं का मानना है कि बर्फीले इलाकों में पेड़ों के काटे जाने से पृथ्वी के बढ़ते तापमान को रोकने की कोशिशों में मदद मिल सकती है। यह शोध नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस में प्रकाशित हुआ है और इसमें पर्यावरण की इस जटिलता को उजागर किया गया है। अभी तक यह माना जाता रहा है कि पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से दुनिया के तापमान में वृध्दि हो रही है। 

दरअसल पेड़ों की पत्तियां कार्बन डाइऑक्साइड जैसी ग्रीन हाउस गैसों को वातावरण से हटा देती हैं। लेकिन शोधकर्ताओं का कहना है कि रूस, यूरोप और कनाडा के बर्फीले इलाकों के पेड़ों की पत्तियां बर्फ को ढक लेती हैं जिससे वह इसे परावर्तित नहीं कर पाती हैं। इससे पृथ्वी पर सूरज की रोशनी का अधिक अवशोषण होता है। हालांकि वैज्ञानिकों ने इससे बचने के लिए पेड़ों को काटे जाने को नहीं कहा है। 

उल्लेखनीय है कि हाल में जलवायु परिवर्तन पर जारी एक अहम रिपोर्ट में कहा गया है कि इसकी वजह से करोड़ों लोगों को पानी नहीं मिलेगा, फसलें चौपट हो जाएँगीं और बीमारियाँ फैलेंगी। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के परिणाम पूरी दुनिया में दिखाई देने लगे हैं। रिपोर्ट में एक धुँधले भविष्य की तस्वीर दिखाई गई है। इसके अनुसार भविष्य में पानी की किल्लत होगी। साथ ही बाढ़ एक सामान्य समस्या होगी, बीमारियाँ तेज़ी से बढ़ेंगी। इसके अनुसार फसलों में लगातार कमी आएगी और लाखों लोग भूखे रहेंगे। इसमें कहा गया है कि दोनों ध्रुव, अमेरीका, एशिया और प्रशांत महासागर के छोटे द्वीप इसके निशाने पर होंगे। 

उत्सर्जन में कटौती पर मतभेद


जलवायु परिवर्तन पर बाली सम्मेलन के अंतिम दिन ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के लिए लक्ष्य तय करने पर फिर गहरे मतभेद उभर आए हैं। अमेरिका किसी तरह के लक्ष्य निर्धारण के पक्ष में नहीं है जबकि यूरोपीय संघ ने चेतावनी दी है कि लक्ष्य तय करने में नाकामी हाथ लगी तो वो अगले महीने जलवायु परिवर्तन पर अमेरिका की अगुआई में होने वाले सम्मेलन का बहिष्कार करेंगे। अमेरिका का मत है कि अलग-अलग देशों को ख़ुद ही प्रदूषण फैलानी वाली गैसों के उत्सर्जन में कटौती का लक्ष्य तय करने की छूट मिलनी चाहिए। 

इंडोनेशिया यूरोपीय देशों और अमरीका के बीच किसी तरह का समझौता कराने की कोशिश कर रहा है। उसकी कोशिश है कि स्पष्ट लक्ष्य निर्धारण को समझौते के अंतिम मसौदे से निकाल दिया जाए, जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की संस्था आईपीसीसी के साथ नोबल पुरस्कार प्राप्त करने वाले अल गोर ने सम्मेलन में हिस्सा ले रहे सदस्यों से हार नहीं मानने की अपील की। अधिकारियों का कहना है कि कई मुद्दों पर सहमति बन चुकी है। मतभेद औद्योगिक देशों में प्रदूषण के विषय पर है। 

मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

गंगा एक कारपोरेट एजेंडा



गंगा की अविरलता-निर्मलता विश्व बैंक के धन से नहीं, जन-जन की धुन से आएगी। गंगा संरक्षण की नीति, कानून बनाने तथा उन्हें अमली जामा पहनाने से आएगी। जानते हुए भी क्यों हमारी सरकारें ऐसा नहीं कर रहीं। ऐसा न करने को लेकर राज्य व केंद्र की सरकारों में गजब की सहमति है। क्यों? पनबिजली परियोजनाओं में जांघिया-बनियान बनाने से लेकर साइकिल बनाने वालों तक का पैसा लगा है। क्योंकि गंगा, अब राजनैतिक नहीं, एक कार्पोरेट एजेंडा है।
बिस्मिल्लाह खां ने कहा, ‘गंगा और संगीत एक-दूसरे के पूरक हैं।’ है कोई, जो गंगा का उसका बिसरा संगीत लौटा दे? है कोई, जो गंगोत्री ग्लेशियर का खो गया गौमुखा स्वरूप वापस ले आए? गंगा के मायके में उसका अल्हड़पन, मैदान में उसका यौवन और ससुराल में उसकी गरिमा देखना कौन नहीं चाहता? कौन नहीं चाहता कि मृत्यु पूर्व दो बूंद पीने की लालसा वाला प्रवाह लौट आए? गंगा फिर से सुरसरि बन जाए? मैं उस देश का वासी हूं,जिस देश में गंगा बहती है’- इस गीत को गाने का गौरव भला कौन हिंदुस्तानी नहीं चाहेगा? लेकिन यह हो नहीं सकता। जिस तरह बिस्मिल्लाह की शहनाई लौटाने की गारंटी कोई नहीं दे सकता, गंगा की अविरलता और निर्मलता की गारंटी देना भी अब किसी सरकार के वश की बात नहीं है। इसलिए नहीं कि यह नामुमकिन है; इसलिए कि अब पानी एक ग्लोबल सर्विस इंडस्ट्री है और भारतीय जलनीति कहती है-वाटर इज कमोडिटी। जल वस्तु है तो फिर गंगा मां कैसे हो सकती है? गंगा रही होगी कभी स्वर्ग में ले जाने वाली धारा, साझी संस्कृति, अस्मिता और समृद्धि की प्रतीक, भारतीय पानी- पर्यावरण की नियंता, मां वगैरह। ये शब्द अब पुराने पड़ चुके। गंगा, अब सिर्फ बिजली पैदा करने और पानी सेवा उद्योग का कच्चा माल है। मैला ढोने वाली मालगाड़ी है। कॉमन कमोडिटी मात्र! 

हम पानी के वैश्विक कारोबारियों के चंगुल में


जो दुनिया चलाते हैं, उन्हें पानी से ज्यादा पानी की सेवा देने में रुचि है। पानी की सेवा में सबसे बड़ी मेवा है। सेवा दो, मेवा कमाओ। इसी कमाई के बूते तो वे दुनिया की प्रथम सौ कंपनियों में स्थान रखती हैं। आरडब्ल्यूई ग्रुप, स्वेज, विवन्डी, एनरॉन आदि। विवन्डी विश्व में पानी की सबसे बड़ी सेवादाता है। स्वेज 120 देशों की सेवा करती है तो भला भारत को कैसे छोड़ दे? लेकिन जब तक भारत में गंगा जैसा सर्वश्रेष्ठ प्रवाह घटेगा नहीं, गुणवत्ता मरेगी नहीं, आप शुद्ध पानी की सेवा के लिए किसी को क्यों आमंत्रित करेंगे? सो प्रवाह घटाना है, गुणवत्ता मारनी है। फिर सेवा लेने के लिए पैसा न हो तो कर्ज देने के लिए वे हैं न; विश्व बैंक, यूरोपियन कमीशन और एडीबी। शर्तों में बांधने डब्ल्यूटीओ और गैट्स। उनका अनुमान नहीं, बिजनेस टारगेट है कि 2015 तक दुनिया जल और उसकी स्वच्छता के लिए 180 बिलियन डॉलर खर्च करे। 2025 तक हर तीन में से दो आदमी स्वच्छ जल की कमी महसूस करे। 2050 तक दुनिया की 70 प्रतिशत आबादी पानी का संकट झेले। 

यह तभी होगा जब भूजल गिरे। इसके लिए गांवों को कस्बा, कस्बों को शहर और शहरों को महानगर बनाओ। बंद पाइप और बंद बोतल पानी की खपत बढ़ाओ। सिर्फ जल संचयन! जल संचयन! चिल्लाओ। करो मत। जरूरत पड़े तो ट्यूबवेल, बोरवेल और समर्सिबल से धकाधक पानी खींचते जाओ। फिर पानी की कमी होने लगे तो जलनियंत्रक प्राधिकरण बनाओ। हमें बुलाओ। पीपीपी चलाओ। बूट अपनाओ। पानी की कीमतें बढ़ाओ। याद रखो! पानी खींचने वाली कोक, पेप्सी और व्हिस्की पीने के लिए है। पानी लड़ने और मरने के लिए। एक दिन भूजल खाली हो ही जाएगा और आप लड़ने भी लगोगे।

भारत के 70 फीसद भूजल भंडार खाली


1990 के 230 लाख की तुलना में आज भारत में 630 लाख कस्बे हैं। भारत में आपके 70 प्रतिशत भूजल भंडार खाली हो चुके हैं और आप पानी के लिए लड़ने भी लगे हो और पानी की बीमारियों से बीमार होकर मरने भी। स्वच्छ पानी के बाजार का जो लक्ष्य हमने 2015 के लिए रखा था, आपने तो उसे 2012 में ही हासिल करा दिया। अब भारत की नदियों को मरना चाहिए। नदियां मरेंगी, तभी धरती सूखेगी, तभी खेती मरेगी। लोग मलीन बस्तियों को पलायन करेंगे। खाद्य सुरक्षा घटेगी। कीमतें बढ़ेंगी। खाद्य सुरक्षा कानून बनाना पड़ेगा। खाद्य आयात बढ़ेगा। जीडीपी का ढोल फूटेगा। साथ ही तुम्हारा भी। तुम हमें सिक्योरिटी मनी दे देना। हम तुम्हें फूड, वाटर.. जो-जो कहोगे, सब की सिक्योरिटी दे देंगे। इसके लिए नदी-जोड़ करो। नदियों से जलापूर्ति बढ़ाओ। बिजली बनाने के नाम पर पानी रोको। नदियों के किनारे एक्सप्रेस-वे बनाओ। 

इंडस्ट्रीज को पानी की कमी का आंकड़ा दिखाओ। नदियों में अधिक पानी का फर्जी आंकड़ा दिखाकर उनके किनारे-किनारे इंडस्ट्रीयल कॉरीडोर बनाओ। टाउनशिप बनाओ। उनका कचरा नदियों में बहाओ। ‘दो बूंद जिंदगी की’ से आगे बढ़कर यूनीसेफ, विश्व स्वास्थ्य संगठन की राय को और बड़ा बाजार दिलाओ। एक दिन तुम असल में अपाहिज हो जाओगे। आबादी खुद ब खुद घट जाएगी। न गरीब रहेगा, न गरीबी। तुम भी हमारी तरह विकसित कहलाओगे। आज भारत में यही सब हो रहा है। यदि इसके पीछे कोई इशारा न होता, तो क्या गांव धंसते रहते, धाराएं सूखती रहतीं, विस्फोटों से पहाड़ हिलते रहते, जीवों का पर्यावास छिनता रहता और सरकारें पनबिजली परियोजनाओं को मंजूरी देती रहतीं? भूकंप में विनाश का आंकलन की बिना पर इंदिराजी द्वारा रोके जाने और सरकारी समिति द्वारा रद्द कर दिए जाने के बावजूद टिहरी परियोजना को आखिर मंजूरी क्यों दे दी गई? 

मनाही के बावजूद जारी क्यों हैं पनबिजली परियोजनाएं



अलकनंदा और भागीरथी पर प्रस्तावित यदि 53 बिजली परियोजनाएं बन गई तो दोनों नदियां सूख जाएंगी’-कैग की इस चेतावनी के बावजूद क्या हम परियोजनाएं रोक रहे हैं? तय मानक टरबाइन में नदी का 75 प्रतिशत पानी डालने की इजाजत देते हैं। उत्तराखंड की ऊर्जा नीति 90 प्रतिशत की इजाजत देती है। इस पर कैग की आपत्ति के बावजूद क्या ऊर्जा नीति बदली? परियोजनाओं के लिए और नदी के लिए हमें कर्ज देने वाले संगठनों के सदस्य देश अपने यहां बड़े और मंझोले बांधों को तोड़ रहे हैं और हमें बनाने के लिए कर्ज दे रहे हैं। क्यों? हमें मालूम है कि मलशोधन का वर्तमान तंत्र फेल है। फिर भी, हम उसी में पैसा क्यों लगा रहे हैं? मालूम है कि उद्योग नदियों में जहर बहा रहे हैं। फिर भी उन्हें नदियों से दूर भगाते क्यों नहीं? प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड प्रदूषण नियंत्रित करने के बजाय सिर्फ ‘प्रदूषण नियंत्रण में है’ के प्रमाणपत्र ही क्यों बांट रहे हैं? नदियों को तटबंधों में बांधने की भूल कोसी-दामोदर में हम झेल रहे हैं। फिर भी एक्सप्रेसवे नामक तटबंध क्यों बना रहे हैं? दिल्ली-मुंबई कॉरीडोर में आने वाली नदियों में अधिक पानी का गलत आंकलन आगे बढ़ा रहे हैं। क्यों? 

हमें मालूम है कि राज्यों पर जवाबदेही टालने के बजाय केंद्र को एक जिम्मेदार भूमिका निभानी होगी। गंगा की अविरलता-निर्मलता विश्व बैंक के धन से नहीं, जन-जन की धुन से आएगी। गंगा संरक्षण की नीति, कानून बनाने तथा उन्हें अमली जामा पहनाने से आएगी। जानते हुए भी क्यों हमारी सरकारें ऐसा नहीं कर रहीं। ऐसा न करने को लेकर राज्य व केंद्र की सरकारों में गजब की सहमति है। क्यों? इन सभी क्यों का जवाब एक ही है; क्योंकि गंगा में गंगा नहर और शारदा सहायक के रास्ते विश्व बैंक का निवेश है। एक्सप्रेस वे की परिकल्पना में उसका भी हाथ है। सोनिया विहार संयंत्र के माध्यम से दिल्ली वालों के पानी के बिल का पैसा स्वेज को कमाई करा रहा है। पनबिजली परियोजनाओं में जांघिया-बनियान बनाने से लेकर साइकिल बनाने वालों तक का पैसा लगा है। क्योंकि गंगा, अब राजनैतिक नहीं, एक कार्पोरेट एजेंडा है।
गंगा नदी पर बनते बांध परियोजनाएं