देवोत्थान एकादशी लोकगीत व पौराणिक महत्व
उठो देव, जागो देव
देव उठेंगे कार्तिक मास,
कार्तिक मास,
नई है टोकरी नई है कपास, नई
है कपास
जारे मूसे दाव कटाए, दाव
कटाए
दाव कटाए जब जेबरी बटाए, जेबरी
बटाए
जेबरी बटाए जब खाट बुनाए,
खाट बुनाए
खाट बुनाए जब बामन देयो,
बामन देयो
बामन देयो गोरी गाय, गोरी
गाय
माय पूजे धीए खिलाए
वा को पुन्य अखंड जाए
भाभी पूजे नंदुल खिलाए
या को पुन्य महाफल होए
भुडभुडइया को आयो ताज
राज करें आशीष को बाप
भुडभुडइया को आयो ताज
राज करें अजीत को बाप
ओरे कोरे धरे चपेटा, धरे
चपेटा
गुलाबो राज करें तेरे ही बेटा,
तेरे ही बेटा
ओरे कोरे धरे मजीरा, धरे
मजीरा
ये हैं बहनो तुम्हारे ही बीरा,
तुम्हारे ही बीरा
उठे देव, जगे देव,
देव उठ गए कार्तिक मास
।।जय नारायण।।
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देवात्थान एकादशी का पौराणिक महत्व
देवोत्थान एकादशी - तुलसी विवाह
देवोत्थान एकादशी - तुलसी विवाह
कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी देवोत्थान, तुलसी विवाह एवं भीष्म पंचक एकादशी के रूप
में मनाई जाती है। दीपावली के बाद आने वाली कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को
देवोत्थान एकादशी, देवउठनी एकादशी, देवउठान एकादशी, देवउठनी ग्यारस अथवा प्रबोधिनी
एकादशी आदि नाम से भी जाना जाता है | कार्तिक मास के
शुक्ल पक्ष की एकादशी को तुलसी पूजन का उत्सव पूरे भारत वर्ष में मनाया जाता है।
कहा जाता है कि कार्तिक मास मे जो मनुष्य तुलसी का विवाह भगवान से करते हैं,
उनके पिछलों जन्मो के सब पाप नष्ट हो
जाते हैं।
शास्त्रों में वर्णित है कि आषाढ़ मास शुक्ल पक्ष की एकादशी देवशयनी एकादशी से
भगवान विष्णु चार मास तक पाताललोक में शयन करते हैं और कार्तिक मास शुक्ल पक्ष की
एकादशी को जागते हैं। संसार के पालनहार श्रीहरि विष्णु को समस्त मांगलिक
कार्यों में साक्षी माना जाता है। पर इनकी निद्रावस्था में हर शुभ कार्य बंद कर
दिया जाता है। इसलिए हिंदुओं के समस्त शुभ कार्य भगवान विष्णु के जाग्रत अवस्था
में संपन्न करने का विधान धर्मशास्त्रों में वर्णित है। भगवान विष्णु के जागने का
दिन है देवोत्थान एकादशी। इसी दिन से सभी शुभ कार्य, विवाह,
उपनयन आदि शुभ मुहूर्त देखकर प्रारंभ किए
जाते हैं।
आषाढ़ से कार्तिक तक के समय को चातुर्मास कहते हैं। इन चार महीनों में भगवान
विष्णु क्षीरसागर की अनंत शैय्या पर शयन करते हैं, इसलिए कृषि के अलावा विवाह आदि शुभ कार्य
इस समय तक बंद रहते हैं। धार्मिक दृष्टिकोण से ये चार
मास भगवान की निद्राकाल का माना जाता है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सूर्य के मिथुन
राशि में आने पर भगवान श्री हरि विष्णु शयन करते हैं और तुला राशि में सूर्य के जाने पर भगवान शयन कर उठते हैं। भगवान जब सोते हैं, तो चारों वर्ण की विवाह, यज्ञ आदि सभी क्रियाएं
संपादित नहीं होती। यज्ञोपवीतादि संस्कार, विवाह, दीक्षा ग्रहण, यज्ञ, नूतन गृह
प्रवेश, गोदान, प्रतिष्ठा एवं
जितने भी शुभ कर्म हैं, वे चातुर्मास में त्याज्य माने गए
हैं। आषाढ शुक्ल एकादशी को देव-शयन हो जाने के बाद से
प्रारम्भ हुए चातुर्मास का समापन तक शुक्ल एकादशी के दिन देवोत्थान-उत्सव होने पर
होता है। इस दिन वैष्णव ही नहीं, स्मार्त श्रद्धालु भी बडी आस्था के साथ व्रत करते हैं।
भगवान विष्णु के स्वरुप शालिग्राम और माता तुलसी के मिलन का पर्व तुलसी विवाह
हिन्दू पंचांग के अनुसार कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को मनाया जाता
है.
पद्मपुराण के पौराणिक कथानुसार राजा जालंधर की पत्नी वृंदा के श्राप से भगवान
विष्णु पत्थर बन गए, जिस कारणवश प्रभु को शालिग्राम भी कहा जाता है और भक्तगण इस
रूप में भी उनकी पूजा करते हैं.इसी श्राप से मुक्ति पाने के लिए भगवान विष्णु को
अपने शालिग्राम स्वरुप में तुलसी से विवाह करना पड़ा था और उसी समय से कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की एकादशी को तुलसी विवाह का उत्सव
मनाया जाता है।
पद्मपुराण के अनुसार कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की नवमी को तुलसी विवाह रचाया
जाता है. इस दिन भगवान विष्णु की प्रतिमा बनाकर उनका विवाह तुलसी जी से किया जाता
है. विवाह के बाद नवमी, दशमी तथा एकादशी
को व्रत रखा जाता है और द्वादशी तिथि को भोजन करने के विषय में लिखा गया है. कई
प्राचीन ग्रंथों के अनुसार शुक्ल पक्ष की नवमी को तुलसी की स्थापना की जाती है. कई श्रद्धालु कार्तिक माह की एकादशी को तुलसी विवाह करते हैं
और द्वादशी को व्रत अनुष्ठान करते हैं.
देवोत्थान एकादशी के दिन मनाया जाने वाला तुलसी विवाह विशुद्ध मांगलिक और आध्यात्मिक
प्रसंग है। दरअसल, तुलसी को विष्णु प्रिया भी कहते हैं। देवता जब जागते
हैं, तो सबसे पहली प्रार्थना हरिवल्लभा तुलसी की ही सुनते
हैं। इसीलिए तुलसी विवाह को देव जागरण के पवित्र
मुहूर्त के स्वागत का आयोजन माना जाता है। तुलसी विवाह का सीधा अर्थ है, तुलसी के माध्यम से भगवान का आहावान। कार्तिक, शुक्ल
पक्ष, एकादशी को तुलसी पूजन का
उत्सव मनाया जाता है। वैसे तो तुलसी विवाह के लिए कार्तिक, शुक्ल
पक्ष, नवमी की तिथि ठीक है, परन्तु कुछ
लोग एकादशी से पूर्णिमा तक तुलसी पूजन कर पाँचवें दिन तुलसी विवाह करते हैं। आयोजन बिल्कुल वैसा ही होता है, जैसे हिन्दू
रीति-रिवाज से सामान्य वर-वधु का विवाह किया जाता है।
देवप्रबोधिनी एकादशी के दिन मनाए जानेवाले इस मांगलिक प्रसंग के सुअवसर पर सनातन
धर्मावलम्बी घर की साफ़-सफाई करते हैं और रंगोली सजाते हैं. शाम के समय तुलसी चौरा
के पास गन्ने का भव्य मंडप बनाकर उसमें साक्षात् नारायण
स्वरुप शालिग्राम की मूर्ति रखते हैं और फिर विधि-विधानपूर्वक उनके विवाह को
संपन्न कराते हैं. मंडप, वर पूजा,
कन्यादान, हवन और फिर प्रीतिभोज, सब कुछ पारम्परिक रीति-रिवाजों के साथ निभाया जाता है। इस विवाह में
शालिग्राम वर और तुलसी कन्या की भूमिका में होती है। यह सारा आयोजन यजमान सपत्नीक मिलकर करते हैं। इस दिन तुलसी के पौधे को यानी लड़की को लाल
चुनरी-ओढ़नी ओढ़ाई जाती है। तुलसी विवाह में सोलह श्रृंगार के सभी सामान चढ़ावे के
लिए रखे जाते हैं। शालिग्राम
को दोनों हाथों में लेकर यजमान लड़के के रूप में यानी भगवान विष्णु के रूप में
और यजमान की पत्नी तुलसी के पौधे को दोनों हाथों में लेकर अग्नि के फेरे लेते हैं।
विवाह के पश्चात प्रीतिभोज का आयोजन किया जाता है। कार्तिक मास में स्नान करने वाले
स्त्रियाँ भी कार्तिक शुक्ल एकादशी को शालिग्राम और तुलसी का विवाह रचाती है।
समस्त विधि विधान पूर्वक गाजे बाजे के साथ एक सुन्दर मण्डप
के नीचे यह कार्य सम्पन्न होता है विवाह के स्त्रियाँ गीत तथा भजन गाती है ।
कार्तिक माह की देवोत्थान एकादशी से ही विवाह आदि से संबंधित सभी मंगल कार्य
आरम्भ हो जाते हैं. इसलिए इस एकादशी के दिन तुलसी विवाह रचाना उचित भी है. कई
स्थानों पर विष्णु जी की सोने की प्रतिमा बनाकर उनके साथ तुलसी का विवाह रचाने की
बात कही गई है. विवाह से पूर्व तीन दिन तक पूजा करने का विधान है. नवमी,दशमी व एकादशी को व्रत एवं पूजन कर अगले दिन
तुलसी का पौधा किसी ब्राह्मण को देना शुभ होता है। लेकिन लोग एकादशी से पूर्णिमा तक तुलसी पूजन करके पांचवे दिन
तुलसी का विवाह करते हैं। तुलसी विवाह की यही पद्धति बहुत प्रचलित है।
शास्त्रों में कहा गया है कि जिन दंपत्तियों के संतान नहीं होती,वे जीवन में
एक बार तुलसी का विवाह करके कन्यादान का पुण्य अवश्य प्राप्त करें।तुलसी विवाह
करने से कन्यादान के समान पुण्यफल की प्राप्ति होती है.
कार्तिक शुक्ल एकादशी पर तुलसी विवाह का विधिवत पूजन करने से भक्तों की सभी मनोकामनाएं
पूर्ण होती हैं।हिन्दुओं के संस्कार अनुसार तुलसी को देवी रुप में हर घर में पूजा
जाता है. इसकी नियमित पूजा से व्यक्ति को पापों से मुक्ति तथा पुण्य फल में वृद्धि
मिलती है. यह बहुत पवित्र मानी जाती है और सभी
पूजाओं में देवी तथा देवताओं को अर्पित की जाती है. सभी
कार्यों में तुलसी का पत्ता अनिवार्य माना गया है. प्रतिदिन तुलसी में जल देना तथा
उसकी पूजा करना अनिवार्य माना गया है. तुलसी घर-आँगन के वातावरण को सुखमय तथा स्वास्थ्यवर्धक बनाती है.तुलसी के पौधे को पवित्र और पूजनीय माना गया
है। तुलसी की नियमित पूजा से हमें सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।
तुलसी विवाह के सुअवसर पर व्रत रखने का बड़ा ही महत्व है. आस्थावान भक्तों के
अनुसार इस दिन श्रद्धा-भक्ति और विधिपूर्वक व्रत करने से व्रती के इस जन्म के
साथ-साथ पूर्वजन्म के भी सारे पाप मिट जाते हैं और उसे पुण्य की प्राप्ति
होती है.
तुलसी शालिग्राम विवाह कथा
प्राचीन काल में जालंधर नामक राक्षस ने चारों तरफ़ बड़ा उत्पात मचा रखा था। वह
बड़ा वीर तथा पराक्रमी था। उसकी वीरता का रहस्य था, उसकी पत्नी वृंदा का पतिव्रता धर्म। उसी के
प्रभाव से वह सर्वजंयी बना हुआ था। जालंधर के उपद्रवों से परेशान देवगण भगवान विष्णु के पास
गये तथा रक्षा की गुहार लगाई। उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु ने वृंदा का
पतिव्रता धर्म भंग करने का निश्चय किया। उधर, उसका पति जालंधर, जो देवताओं से युद्ध
कर रहा था, वृंदा का सतीत्व नष्ट होते ही मारा गया। जब वृंदा
को इस बात का पता लगा तो क्रोधित होकर उसने भगवान विष्णु को शाप दे दिया, 'जिस प्रकार तुमने छल से मुझे पति वियोग दिया है, उसी प्रकार तुम भी अपनी स्त्री का छलपूर्वक हरण होने पर स्त्री वियोग सहने
के लिए मृत्यु लोक में जन्म लोगे।' यह कहकर वृंदा अपने पति
के साथ सती हो गई। जिस जगह वह सती हुई वहाँ तुलसी का पौधा उत्पन्न हुआ।
एक अन्य प्रसंग के अनुसार वृंदा ने विष्णु जी को यह शाप दिया था कि तुमने मेरा
सतीत्व भंग किया है। अत: तुम पत्थर के बनोगे। विष्णु बोले, 'हे वृंदा!
यह तुम्हारे सतीत्व का ही फल है कि तुम तुलसी बनकर मेरे
साथ ही रहोगी। जो मनुष्य तुम्हारे साथ मेरा विवाह करेगा, वह
परम धाम को प्राप्त होगा।' बिना तुलसी दल के शालिग्राम या
विष्णु जी की पूजा अधूरी मानी जाती है। शालिग्राम और तुलसी का विवाह भगवान विष्णु और महालक्ष्मी के विवाह का प्रतीकात्मक विवाह है।
कथा विस्तार से....
एक लड़की थी जिसका नाम वृंदा था राक्षस कुल में उसका जन्म हुआ था बचपन से ही
भगवान विष्णु जी की भक्त थी.बड़े ही प्रेम से भगवान की सेवा,पूजा किया करती
थी.जब वे बड़ी हुई तो उनका विवाह राक्षस कुल में दानव
राज जलंधर से हो गया,जलंधर समुद्र से उत्पन्न हुआ था.वृंदा
बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी सदा अपने पति की सेवा किया करती थी.
एक बार देवताओ और दानवों में युद्ध हुआ जब जलंधर युद्ध पर जाने लगे तो वृंदा
ने कहा - स्वामी आप युद्ध पर जा रहे है आप जब तक युद्ध में रहेगे में पूजा
में बैठकर आपकी जीत के लिये अनुष्ठान करुगी,और जब तक
आप वापस नहीं आ जाते में अपना संकल्प नही छोडूगी, जलंधर तो
युद्ध में चले गये,और वृंदा व्रत का संकल्प लेकर पूजा में
बैठ गयी,उनके व्रत के प्रभाव से देवता भी जलंधर को ना जीत सके सारे देवता जब हारने लगे तो भगवान विष्णु जी के पास गये.
सबने भगवान से प्रार्थना की तो भगवान कहने लगे कि वृंदा मेरी परम भक्त
है में उसके साथ छल नहीं कर सकता पर देवता बोले - भगवान दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं
है अब आप ही हमारी मदद कर सकते है.
भगवान ने जलंधर का ही रूप रखा और वृंदा के महल में पँहुच गये जैसे ही वृंदा ने
अपने पति को देखा,वे तुरंत पूजा मे से उठ गई और उनके चरणों को छू लिए,जैसे ही उनका संकल्प टूटा,युद्ध में देवताओ ने जलंधर को मार दिया और उसका सिर काटकर अलग कर दिया,उनका सिर वृंदा के महल में गिरा जब वृंदा ने देखा कि मेरे पति का सिर तो
कटा पडा है तो फिर ये जो मेरे सामने खड़े है ये कौन है? उन्होंने पूँछा आप कौन हो जिसका स्पर्श मैने किया,तब
भगवान अपने रूप में आ गये पर वे कुछ ना बोल सके,वृंदा सारी
बात समझ गई,उन्होंने भगवान को श्राप दे दिया आप पत्थर के हो
जाओ,भगवान तुंरत पत्थर के हो गये
सबी देवता हाहाकार करने लगे लक्ष्मी जी रोने लगे और प्राथना करने लगे यब वृंदा जी
ने भगवान को वापस वैसा ही कर दिया और अपने पति का सिर लेकर वे सती हो गयी.
उनकी राख से एक पौधा निकला तब भगवान विष्णु जी ने कहा आज से इनका नाम तुलसी है,और मेरा एक
रूप इस पत्थर के रूप में रहेगा जिसे शालिग्राम के नाम से तुलसी जी के साथ ही पूजा
जायेगा और में बिना तुलसी जी के भोग स्वीकार नहीं करुगा.तब
से तुलसी जी कि पूजा सभी करने लगे.और तुलसी जी का विवाह शालिग्राम जी के साथ
कार्तिक मास में किया जाता है.देवउठनी एकादशी के दिन इसे
तुलसी विवाह के रूप में मनाया जाता है|
कथा - २
ऐसा माना जाता है कि देवप्रबोधिनी एकादशी पर भगवान विष्णु चार माह की नींद के
बाद जागते हैं। धार्मिक दृष्टिकोण से प्रचलित है कि जब विष्णु भगवान ने शंखासुर
नामक राक्षस को मारा था और उस विशेष परिश्रम के कारण उस दिन सो गए थे, उसके बाद वह कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागे थे, इसलिए
इस दिन उनकी पूजा का विशेष विधान है।इस संबंध में एक कथा प्रचलित है कि शंखासुर बहुत पराक्रमी दैत्य था इस वजह से लंबे समय तक भगवान विष्णु का युद्ध
उससे चलता रहा। अंतत: घमासन युद्ध के बाद भाद्रपद मास की शुक्ल एकादशी को भगवान
विष्णु ने दैत्य शंखासुर को मारा था। इस युद्ध से भगवान विष्णु बहुत अधिक थक गए। तब वे थकावट दूर करने के लिए क्षीरसागर लौटकर सो गए। वे वहां चार महिनों तक सोते
रहे और कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को जागे। तब सभी देवी-देवताओं द्वारा भगवान
विष्णु का पूजन किया गया। इसी वजह से कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की इस एकादशी को देवप्रबोधिनी
एकादशी कहा जाता है। इस दिन व्रत-उपवास करने का विधान है।
कथा - ३
एक बार भगवान विष्णु से उनकी प्रिया लक्ष्मी जी ने आग्रह के भाव में कहा- हे
भगवान, अब आप दिन रात जागते हैं। लेकिन, एक बार
सोते हैं,तो फिर लाखों-करोड़ों वर्षों के लिए सो जाते हैं।
तथा उस समय समस्त चराचर का नाश भी कर डालते हैं। इसलिए आप नियम से विश्राम किया
कीजिए। आपके ऐसा करने से मुझे भी कुछ समय आराम का मिलेगा। लक्ष्मी जी की बात भगवान को उचित लगी। उन्होंने कहा, तुम ठीक
कहती हो। मेरे जागने से सभी देवों और खासकर तुम्हें कष्ट होता है। तुम्हें मेरी
सेवा से वक्त नहीं मिलता। इसलिए आज से मैं हर वर्ष चार मास वर्षा ऋतु में शयन किया करुंगा। मेरी यह निद्रा अल्पनिद्रा और प्रलयकालीन
महानिद्रा कहलाएगी।यह मेरी अल्पनिद्रा मेरे भक्तों के लिए परम मंगलकारी रहेगी। इस
दौरान जो भी भक्त मेरे शयन की भावना कर मेरी सेवा करेंगे, मैं उनके घर तुम्हारे समेत निवास करुंगा।
तुलसी विवाह व्रत कथा
प्राचीन ग्रंथों में तुलसी विवाह व्रत की अनेक कथाएं दी हुई हैं. उन कथाओं में
से एक कथा निम्न है. इस कथा के अनुसार एक कुटुम्ब में ननद तथा भाभी साथ रहती थी.
ननद का विवाह अभी नहीं हुआ था. वह तुलसी के पौधे की बहुत सेवा करती थी. लेकिन उसकी भाभी को यह सब बिलकुल
भी पसन्द नहीं था. जब कभी उसकी भाभी को अत्यधिक क्रोध आता तब वह उसे ताना देते हुए
कहती कि जब तुम्हारा विवाह होगा तो मैं तुलसी ही बारातियों को खाने को दूंगी और तुम्हारे
दहेज में भी तुलसी ही दूंगी.
कुछ समय बीत जाने पर ननद का विवाह पक्का हुआ. विवाह के दिन भाभी ने अपनी कथनी
अनुसार बारातियों के सामने तुलसी का गमला फोड़ दिया और खाने के लिए कहा. तुलसी की
कृपा से वह फूटा हुआ गमला अनेकों स्वादिष्ट पकवानों में बदल गया. भाभी ने गहनों के नाम पर तुलसी
की मंजरी से बने गहने पहना दिए. वह सब भी सुन्दर सोने - जवाहरात में बदल गए. भाभी
ने वस्त्रों के स्थान पर तुलसी का जनेऊ रख दिया. वह रेशमी तथा सुन्दर वस्त्रों में बदल गया.
ननद की ससुराल में उसके दहेज की बहुत प्रशंसा की गई. यह बात भाभी के कानों तक
भी पहुंची. उसे बहुत आश्चर्य हुआ. उसे अब तुलसी माता की पूजा का महत्व समझ आया.
भाभी की एक लड़की थी. वह अपनी लड़की से कहने लगी कि तुम भी तुलसी की सेवा किया करो. तुम्हें भी बुआ
की तरह फल मिलेगा. वह जबर्दस्ती अपनी लड़की से सेवा करने को कहती लेकिन लड़की का
मन तुलसी सेवा में नहीं लगता था.लड़की के बडी़ होने पर उसके विवाह का समय आता है. तब भाभी सोचती है कि जैसा व्यवहार
मैने अपनी ननद के साथ किया था वैसा ही मैं अपनी लड़की के साथ भी करती हूं तो यह भी
गहनों से लद जाएगी और बारातियों को खाने में पकवान मिलेंगें. ससुराल में इसे भी बहुत इज्जत
मिलेगी. यह सोचकर वह बारातियों के सामने तुलसी का गमला फोड़ देती है. लेकिन इस बार
गमले की मिट्टी, मिट्टी ही रहती है. मंजरी तथा पत्ते भी अपने रुप में ही रहते
हैं. जनेऊ भी अपना रुप नहीम बदलता है. सभी लोगों तथा बारातियों द्वारा भाभी की
बुराई की जाती है. लड़की के ससुराल वाले भी लड़की की बुराई करते हैं.
भाभी कभी ननद को नहीं बुलाती थी. भाई ने सोचा मैं बहन से मिलकर आता हूँ. उसने
अपनी पत्नी से कहा और कुछ उपहार बहन के पास ले जाने की बात कही. भाभी ने थैले में
ज्वार भरकर कहा कि और कुछ नहीं है तुम यही ले जाओ. वह दुखी मन से बहन के पास चल दिया. वह सोचता
रहा कि कोई भाई अपने बहन के घर जुवार कैसे ले जा सकता है. यह सोचकर वह एक गौशला के
पास रुका और जुवार का थैला गाय के सामने पलट दिया. तभी गाय पालने वाले ने कहा कि आप गाय के
सामने हीरे-मोती तथा सोना क्यों डाल रहे हो. भाई ने सारी बात उसे बताई और धन लेकर
खुशी से अपनी बहन के घर की ओर चल दिया. दोनों बहन-भाई एक-दूसरे को देखकर अत्यंत प्रसन्न होते
हैं.
तुलसी विवाह की पूजन विधि
भगवान विष्णु को चार मास की योग-निद्रा से जगाने के लिए घण्टा ,शंख,मृदंग आदि वाद्यों की मांगलिक ध्वनि के बीचये श्लोक पढकर जगाते हैं-
उत्तिष्ठोत्तिष्ठगोविन्द त्यजनिद्रांजगत्पते।
त्वयिसुप्तेजगन्नाथ जगत् सुप्तमिदंभवेत्॥
उत्तिष्ठोत्तिष्ठवाराह
दंष्ट्रोद्धृतवसुन्धरे।
हिरण्याक्षप्राणघातिन्त्रैलोक्येमङ्गलम्कुरु॥
संस्कृत बोलने में असमर्थ सामान्य लोग-उठो देवा, बैठो देवा कहकर श्रीनारायण को उठाएं। श्रीहरिको जगाने के पश्चात् तुलसी विवाह के लिए तुलसी के पौधे का गमले को गेरु
आदि से सजाकर उसके चारों ओर ईख (गन्ने) का मंडप बनाकर उसके ऊपर ओढऩी या सुहाग की
प्रतीक चुनरी ओढ़ाते हैं। गमले को साड़ी में लपेटकर तुलसी को चूड़ी पहनाकर उनका
श्रंगार करते हैं। तत्पश्चात तुलसी के पौधे को अर्ध्य दे कर शुद्ध घी का
दीया जलाना चाहिए. धूप, सिंदूर, चंदन
लगाना चाहिए.
श्री गणेश सहित सभी देवी-देवताओं का विधिवत पूजन करें तथा
श्री तुलसी एवं शालिग्रामजी का षोडशोपचारविधि से पूजा करें। पूजन के करते समय
तुलसी मंत्र (तुलस्यै नम:) का जप करें। फिर अनेक प्रकार के फलों के साथ नैवेद्य (भोग) निवेदित
करें। तथा पुष्प अर्पित करने चाहिए.
इसके बाद एक नारियल दक्षिणा के साथ टीका के रूप में रखें। भगवान शालिग्राम की
मूर्ति का सिंहासन हाथ में लेकर तुलसीजी की सात परिक्रमा कराएं। जैसे विवाह
में जो सभी रीति-रिवाज होते हैं उसी तरह तुलसी विवाह के सभी कार्य किए जाते हैं।
विवाह से संबंधित मंगल गीत भी गाए जाते हैं।आरती के पश्चात विवाहोत्सव पूर्ण किया
जाता है।
तुलसी पूजा करने के कई विधान दिए गए हैं. उनमें से एक तुलसी नामाष्टक का पाठ
करने का विधान दिया गया है. तुलसी जी को कई नामों से पुकारा जाता है. इनके आठ नाम
मुख्य हैं - वृंदावनी, वृंदा, विश्व
पूजिता, विश्व पावनी, पुष्पसारा,
नन्दिनी, कृष्ण जीवनी और तुलसी. जो व्यक्ति तुलसी नामाष्टक का नियमित पाठ करता है उसे अश्वमेघ यज्ञ के समान पुण्य फल मिलता है. इस नामाष्टक का पाठ पूरे
विधान से करना चाहिए. विशेष रुप से कार्तिक माह में इस पाठ को अवश्य ही करना
चाहिए.
नामाष्टक पाठ |
वृन्दा वृन्दावनी विश्वपूजिता विश्वपावनी.
पुष्पसारा नन्दनीच तुलसी कृष्ण जीवनी.
एतभामांष्टक चैव स्तोत्रं नामर्थं संयुतम.
य: पठेत तां च सम्पूज सौsश्रमेघ फलंलमेता..
संभव हो तो उपवास रखें अन्यथा केवल एक समय फलाहार ग्रहण करें। इस एकादशी
में रातभर जागकर हरि नाम-संकीर्तन करने से भगवान विष्णु अत्यन्त प्रसन्न होते हैं। किसी-किसी प्रांत में इस दिन ईख के खेतों में जाकर सिंदूर, अक्षत आदि
से ईख की पूजा करते हैं और उसके बाद इस दिन पहले-पहल ईख चूसते हैं। इस दिन भगवान का
कीर्तन करना चाहिए, साथ ही शंख,
घड़ियाल या थाली बजाकर इस प्रकार भगवान को जगाना चाहिए,
महिमा
पद्मपुराणके उत्तरखण्डमें वर्णित एकादशी-माहात्म्य के अनुसार श्री हरि-प्रबोधिनी
(देवोत्थान) एकादशी का व्रत करने से एक हजार अश्वमेध यज्ञ तथा सौ राजसूय यज्ञों का
फल मिलता है। इस परमपुण्यप्रदाएकादशी के विधिवत व्रत से सब पाप भस्म हो जाते हैं तथा व्रती मरणोपरान्त
बैकुण्ठ जाता है। इस एकादशी के दिन भक्त श्रद्धा के साथ जो कुछ भी जप-तप, स्नान-दान,
होम करते हैं,वह सब अक्षय फलदायक हो जाता है। देवोत्थान एकादशी के दिन व्रतोत्सवकरना प्रत्येक
सनातनधर्मी का आध्यात्मिक कर्तव्य है। इस व्रत को करने वाला दिव्य फल प्राप्त
करता है।
आशीष कुमार
+919411400108
ashish.contacts@rediffmail.com
4 टिप्पणियां:
आशिष तुम्ही मला हि माहिती लिहुन खुप मदत केली. धन्यवाद
Bahut bahut dhanyavad for all story s
Jai hoo
Dev uthani gyaras ke bare mein batane ke liye aapka bahut bahut dhanyvad
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