भीषण गैर बराबरी आधारित
हमारे समाज में कुछ व्यक्तियों, परिवारों और समूहों का लगातार ताकतवर होते जाना
कोई संयोग नहीं है।.... संयोग तो इस बात का है कि कुछ एक बाधाओं के बावजूद हमारा
लोकतांत्रिक ढांचा कायम है।
आमतौर पर हम प्रत्येक वर्ष जून
के अंतिम सप्ताह में इमरजेंसी के काल को याद करने का कर्मकांड करते हैं, जिसने
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सहित जनहित को प्रभावित किया था। इस दौरान तमाम लोकतांत्रिक
संस्थाओं को गला मरोड़ा गया था.... इसमें मीडिया भी एक था। उस समय देश के एक बड़े
नेता ने बड़ी दिलचस्प टिप्पणी की थी... मीडिया से जब झुकने को कहा था तो वह घुटनों
के बल रेंगने लगा। मीडिया ने अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए ..... अपने हितों
की रक्षा के लिए अपनी आजादी और राष्ट्रहित से समझौता कर लिया।
मीडिया के प्राइवेटाइजेशन
के बाद अखबारों खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने अभूतपूर्व विस्तार किया है। ...... आज
देश में समाचार चैनलों और अखबारों का अंबार लगा हुआ है। इन अखबार और समाचार चैनलों
पर घोषित सेंसरशिप नहीं है, लेकिन सेल्फ सेंसरशिप का दायरा साफ दिखता है।
कई बार साफ दिखता है कि
मीडिया का एक बड़ा हिस्सा निजी हितों के लिए राष्ट्रहितों को दरकिरनार कर देता है।
खबरों को अपने व्यावसायिक एजेंडे के तहत चलाया जाता है।
हालांकि इस मसले पर कोई यह
भी कह सकता है कि हम मीडिया को बेवजह दोष दे रहे हैं। लेकिन वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स को देखकर आसानी से अनुमान
लगाया जा सकता है ..... 180 देशों की इस सूची में भारत का 136वां स्थान है।
क्या पूंजी और वर्चस्व की
शक्तियों के तिकड़म के चलते मीडिया ने जन माध्यमों की स्वतंत्रता, जनसरोकारों और
राष्ट्रहितों को नजरअंदाज कर दिया है। इन हालत में मीडिया का भविष्य क्या होगा? ...... पूंजीवादी मीडिया
और राजनीति की चुनौतियों के बीच राष्ट्रहित कैसे टिकेंगे? …
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