सोमवार, 9 अप्रैल 2012

आखिर क्यों उफन जाती हैं नदियां

मई-जून के महीनों में जब तीन-चौथाई देश पानी के लिए त्राहि -त्राहि कर रहा था, पूर्वोत्तर राज्यों में भी बाढ़ से तबाही का दौर शुरू हो चुका था। अभी बारिश के असली महीने सावन की शुरुआत है और लगभग आधा हरियाणा, पंजाब का बड़ा हिस्सा, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार का बड़ा हिस्सा नदियों के रौद्र रूप से पानी-पानी हो गया है।


हर बार ज्यों-ज्यों मानसून अपना रंग दिखाता है, वैसे ही देश के बड़े भाग में नदियां उफन कर तबाही मचाने लगती हैं। पिछले कुछ सालों के आंकड़ें देखें तो पायेंगे कि बारिश की मात्र भले ही कम हुई है, लेकिन बाढ़ से तबाह हुए इलाके में कई गुना बढ़ोतरी हुई है। कुछ दशकों पहले जिन इलाकों को बाढ़ से मुक्त क्षेत्र माना जाता था, अब वहां की नदियां भी उफनने लगी हैं और मौसम बीतते ही, उन इलाकों में एक बार फिर पानी का संकट छा जाता है। सूखे और मरुस्थल के लिए कुख्यात राजस्थान भी नदियों के गुस्से से अछूता नहीं रह पाता है।

देश के कुल बाढ़ प्रभावित क्षेत्र का 16 फीसदी बिहार में है। यहां कोसी, गंडक, बूढ़ी गंडक, बाधमती, कमला, महानंदा, गंगा आदि नदियां तबाही लाती हैं। इन नदियों पर तटबंध बनाने का काम केन्द्र सरकार से पर्याप्त सहायता नहीं मिलने के कारण अधूरा है। यहां बाढ़ का मुख्य कारण नेपाल में हिमालय से निकलने वाली नदियां हैं। ‘बिहार का शोक’ कहे जाने वाली कोसी के ऊपरी भाग पर कोई 70 किलोमीटर लंबाई का तटबंध नेपाल में है, लेकिन इसके रखरखाव और सुरक्षा पर सालाना खर्च होने वाला कोई 20 करोड़ रुपया बिहार सरकार को झेलना पड़ता है।

हालांकि तटबंध भी बाढ़ से निबटने में सफल रहे नहीं हैं। कोसी के तटबंधों के कारण उसके तट पर बसे 400 गांव डूब में आ गए हैं। कोसी की सहयोगी कमला-बलान नदी के तटबंध का तल सिल्ट (गाद) के भराव से ऊंचा हो जाने के कारण बाढ़ की तबाही अब पहले से भी अधिक होती है। फरक्का बराज की दोषपूर्ण संरचना के कारण भागलपुर, नौगछिया, कटिहार, मुंगेर, पूर्णिया, सहरसा आदि में बाढ़ग्रस्त क्षेत्र बढ़ता जा रहा है।

बगैर सोचे समझे नदी-नालों पर बंधान बनाने के कुप्रभावों का ताजातरीन उदाहरण मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में बहने वाली छोटी नदी ‘केन’ है। केन के अचानक रौद्र हो जाने के कारणों को खोजा तो पता चला कि यह सब तो छोटे-बड़े बांधों की कारिस्तानी है। सनद रहे केन नदी, बांदा जिले में चिल्ला घाट के पास यमुना में मिलती है। केन में बारिश का पानी बढ़ता है, फिर ‘स्टाप-डेमों’ के टूटने का जल-दबाव बढ़ता है। केन क्षमता से अधिक पानी ले कर यमुना की ओर लपलपाती है। वहां का जल स्तर इतना ऊंचा होता है कि केन के प्राकृतिक मिलन स्थल का स्तर नीचे रह जाता है। रौद्र यमुना, केन की जलनिधि को पीछे धकेलती है। इसी कशमकश में नदियों की सीमाएं गांवों-सड़कों-खेतों तक पहुंच जाती हैं।

वैसे शहरीकरण, वन विनाश और खनन तीन ऐसे प्रमुख कारण हैं, जो बाढ़ विभीषिका में उत्प्रेरक का कार्य कर रहे हैं। जब प्राकृतिक हरियाली उजाड़ कर कंक्रीट का जंगल सजाया जाता है तो जमीन की जल सोखने की क्षमता तो कम होती ही है, साथ ही सतही जल की बहाव क्षमता भी कई गुना बढ़ जाती है। फिर शहरीकरण के कूड़े ने समस्या को बढ़ाया है। यह कूड़ा नालों से होते हुए नदियों में पहुंचता है। फलस्वरूप नदी की जल ग्रहण क्षमता कम होती है। पंजाब और हरियाणा में बाढ़ का कारण जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में हो रहा जमीन का अनियंत्रित शहरीकरण ही है। इससे वहां भूस्खलन की घटनाएं बढ़ रही हैं और इसका मलबा भी नदियों में ही जाता है। पहाड़ों पर खनन से दोहरा नुकसान है। इससे वहां की हरियाली उजड़ती है और फिर खदानों से निकली धूल और मलबा नदी-नालों में अवरोध पैदा करता है। हिमालय से निकलने वाली नदियों के मामले में तो मामला और भी गंभीर हो जाता है।

मौजूदा हालात में बाढ़ महज एक प्राकृतिक प्रकोप नहीं, बल्कि मानवजन्य साधनों की त्रासदी है। कुछ लोग नदियों को जोड़ने में इसका निराकरण खोज रहे हैं। हकीकत में नदियों के प्राकृतिक बहाव, तरीकों, विभिन्न नदियों के ऊंचाई-स्तर में अंतर जैसे विषयों का हमारे यहां कभी निष्पक्ष अध्ययन ही नहीं किया गया। पानी को स्थानीय स्तर पर रोकना, नदियों को उथला होने से बचाना, बड़े बांध पर पाबंदी, नदियों के करीबी पहाड़ों पर खुदाई पर रोक और नदियों के प्राकृतिक मार्ग से छेड़छाड़ को रोकना कुछ ऐसे सामान्य प्रयोग हैं, जो कि बाढ़ सरीखी भीषण विभीषिका का मुंहतोड़ जवाब हो सकते हैं।

क्यों बढ़ रहा है जल-संकट


पिछले कुछ सालों में मध्य प्रदेश समेत देश भर में पानी का संकट बढ़ा है। यह समस्या प्रकृति से ज्यादा मानव-निर्मित है। वर्षा की कमी के साथ, वनों की अवैध कटाई, पुराने तालाबों पर अतिक्रमण, गाद भरने से सरोवरों की भंडारण क्षमता में कमी, पानी की फिजूलखर्ची, नदी, जलाशयों का पानी औद्योगिक इकाईयों को देने व शहरों के प्रदूषित पानी को नदियों के प्रदूषण और भूजल को बेतहाशा दोहन से समस्या बढ़ रही है। इस संकट से न केवल खेतों की सिंचाई के लिए पानी की कमी आ रही है बल्कि पीने के पानी की समस्या भी बढ़ रही है। लेकिन इससे बेखबर हम भूजल को बेतहाशा उलीचे जा रहे हैं, जिसका पुनर्भरण नहीं हो रहा है। क्योंकि अब पहले जैसी बारिश भी नहीं हो रही है और जो जंगल पानी को स्पंज की तरह सोख कर रखते थे, वो भी अब कट चुके हैं। सवाल है कि आखिर पानी गया कहां? धरती पी गई या आसमान निगल गया? पानी की सबसे बड़ी जरूरत खेती के लिए होती है। जबसे हरित क्रांति के प्यासे बीज हमारे खेतों में आए हैं, तबसे पानी का ज्यादा दोहन बढ़ा है। कहीं नहरों से तो कहीं नलकूप के माध्यम से सिंचाई की जा रही है। लेकिन पहले परंपरागत देशी बीजों से बिना सींच (सिंचाई) की विविध फसलें हुआ करती थीं। अब उनकी जगह पर केवल ज्यादा पानी वाली एकल फसलें हो रही हैं।

जैव विविधता में मिट्टी के बाद पानी एक महत्वपूर्ण संसाधन है। इसे बचाने का प्रयास सुव्यवस्थित ढंग से किया जाना चाहिए। इसके बेतहाशा दोहन और शोषण से बचा जाना चाहिए। पानी से ही समस्त प्राणी-मनुष्य, पशु-पक्षी, सूक्ष्म जीव, जीव-जंतु सभी का जीवन है। इस पानी के संकट को बारीकी से समझने के लिए हम मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले पर एक निगाह डालने की कोशिश करेंगे। यह जिला सतपुड़ा एवं विन्ध्याचल पर्वत श्रेणियों के बीच नर्मदा नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है। इसे हम भौगोलिक रूप से दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। एक है मैदानी क्षेत्र, जो नर्मदा का कछार कहलाता है। यहां तवा बांध की नहरों से अधिकांश सिंचाई होती है और दूसरा है जंगल पट्टी, जो सतपुड़ा की तलहटी में फैली हुई है। यह पूरी पट्टी असिंचित है। तवा कमांड की नहरों की सिंचाई से पहले यहां का फसलचक्र भिन्न था। पहले यहां मोटे अनाज- जैसे ज्वार, मक्का, कोदो, कुटकी, समा, बाजरा, देशी धान, देशी गेहूं, तुअर, तिवड़ा, चना, मसूर, मूंग, उड़द, तिल, रजगिरा, अलसी आदि कई तरह की फसलें लगाई जाती थीं। पिपरिया की तुअर दाल बहुत प्रसिद्ध हुआ करती थी। लेकिन तवा कमांड क्षेत्र में इन विविध फसलों की जगह सोयाबीन (खरीफ) और गेहू (रबी) की एकल खेती ने ले ली।

जबकि जंगल पट्टी में परंपरागत खेती की उतेरा (मिश्रित फसल) पद्धति प्रचलन में हैं। जिसमें 6-7 प्रकार के अनाज मिलाकर एक साथ बोये जाते हैं। यह बिर्रा (गेहूं- चना मिश्रित) का एक संशोधित रूप है। ये फसलें बिना सींच (सिंचाई) या कम पानी में होती है। यानी केवल बारिश के पानी से फसलें होती हैं। लेकिन हाल के कुछ बरसों से किसानों की एक बड़ी समस्या है बारिश न होना। कम बारिश या अनियमित बारिश होना। पानी का सीधा संबंध फसलों से है। पानी न मिले तो सारी खेती चैपट। बारिश पर निर्भर किसान कम बारिश के चलते परेशान हैं। उनकी आजीविका संकट में है और जो कम पानी वाली फसलें कोदो, कुटकी, तुअर, ज्वार आदि लगाते थे, उनकी समस्याएं बढ़ गई हैं। यह समस्याएं मौसम बदलाव से जुड़ी हुई हैं।

भूजल कई सालों में एकत्र होता है, यही हमारा सुरक्षित जल भंडार है। फिर बिना बिजली के उसे ऊपर खींचना मुश्किल है। पूर्व से आसन्न बिजली का संकट साल दर साल बढ़ते जा रहा है। बिजली कटौती के कारण किसान फसलों में पानी नहीं दे पा रहे हैं। अगर गेहूं की फसल में अंतिम पानी नहीं मिला तो फसल का कम उत्पादन होता है। यह अलहदा बात है कि कमजोर और छोटे किसान भारी पूंजी लगाकर सिंचाई की इस सुविधा से वंचित हैं। कुछ समय पहले तक हर गांव में तालाब हुआ करते थे। कुएं, बावड़ी, नदी-नालों में बहुतायत पानी था। वर्षा जल को छोटे-छोटे बंधानों में एकत्र किया जाता था। जिससे सिंचाई, घरेलू निस्तार और मवेशियों को पानी मिल जाता था। किसान पहले बैलों से चलने वाली मोट से खेतों की सिंचाई करते थे। लेकिन अब तालाबों पर कब्जा हो गया है। कुएं और बावड़ी जैसे परंपरागत पानी के स्रोत खत्म हो गए हैं।

आजादी के ठीक बाद पहली पंचवर्षीय योजना के तहत इस जिले में भी एक छोटा डोकरीखेड़ा बांध बनाया गया था। यद्यपि मछवासा नदी को इससे जोड़ दिया गया है लेकिन फिर भी यह बांध अपनी क्षमता के अनुसार पूरा नहीं भर पाता। उसमें गाद भर गई है, पुराव हो गया है। अब इससे केवल किसानों को मुश्किल से रबी की फसल के लिए दो पानी ही मिल पाते हैं। वह भी बारिश हुई तो, अन्यथा नहीं। इसके बाद 1975 में तवा बांध बना। इससे तवा कमांड में नहरों से सिंचाई से फायदा तो हुआ। एक समय मिट्टी बचाओ आंदोलन से जुड़ी रही ग्राम सेवा समिति के एक अध्ययन के अनुसार यहां की काली मिट्टी वाली जमीन जो काफी उपजाऊ थी, वो दलदल में तब्दील होती जा रही है। या उन जमीनों में लवणीयता और क्षारीयता बढ़ती जा रही है। नए-नए खरपतवारों का आगमन हुआ है जिससे कृषि लागत में और वृद्धि हुई तथा उत्पादन भी प्रभावित होने लगा।



 वर्ष 2003-04 में 3931, वर्ष 2004-05 में 3943, वर्ष 2005-06 में 3972 वर्ष 2006-07 में 4853 और वर्ष 2007-08 में 4894 नलकूपों का खनन हुआ। यह सिलसिला जारी है। विज्ञान और पर्यावरण केन्द्र व गांधी शांति प्रतिष्ठान की एक रिपोर्ट बताती है कि देश की भूमिगत जल संपदा प्रतिवर्ष होने वाली वर्षा से दस गुना ज्यादा है लेकिन सन् 70 से हर वर्ष करीब एक लाख 70 हजार ट्यूबवेल लगते जाने से कई इलाकों में जलस्तर घटता जा रहा है। ठीक इस जिले में भी यही हो रहा है। कुछ समय पहले तक गांव में कच्चे घर होते थे। घर के आगे पीछे काफी जगह होती थी। खेती-किसानी के काम में घरों में ज्यादा जगह लगती है। घर के आगे आंगन और घर के पीछे बाड़ी होती थी। बाड़ी में हरी सब्जियां लगाई जाती थीं। पेड़-पौधे लगे होते थे। इस सबसे बारिश का पानी नीचे जज्ब होता था और धरती का पेट भरता था। यानी भूजल ऊपर आता था। आज गांव में भी पक्के मकान बन गए हैं। घरों के पीछे बाड़ी भी नहीं है। 

इसलिए बारिश का पानी बेकार बह जाता है। इस कारण न तो उसे हम निस्तार के उपयोग में ला पा रहे हैं और न वह पानी धरती में समा रहा है। यानी हम धरती से पानी ले तो रहे हैं, लेकिन उसे दे नहीं रहे हैं। इस कारण भूजल का पुनर्भरण नहीं हो रहा है। नतीजतन, टाइम बम की तरह हर साल भूजल नीचे चला जा रहा है। पानी का एकमात्र स्रोत है वर्षा। जिला गजेटियर 1979 के अनुसार जिले की सामान्य वर्षा 1294.5 मि.मी. है। पर जो वर्षा होती है उसकी अवधि सीमित है। मानसून के 3-4 माह। जिसका करीब आधा प्रतिशत पानी वाष्पीकृत होकर उड़ जाता है और बाकी बचे आधे पानी में से खेतों की सिंचाई, भूजल का पुनर्भरण और नदी-नालों का पेट भरता है। अब हमें इसी पानी को सहेजना होगा। खेत का पानी खेत में और गांव का पानी गांव में रोकना होगा। बारिश का पानी तालाब या छोटे बंधानों के माध्यम से गांव में ही रोका जा सकता है।

यह कैसे होगा? यह सरल तरीका है। जैसे भी हो, जहां भी संभव हो, बारिश के पानी को वहीं रोककर कमजोर वर्ग के लोगों के खेत तक पहुंचाना चाहिए। जहां पानी गिरता है, उसे सरपट न बह जाने दें। स्पीड ब्रेकर जैसी पार बांधकर, उसकी चाल को कम करके धीमी गति से जाने दें। इसके कुछ तरीके हो सकते हैं। खेत का पानी खेत में रहे इसके लिए मेढ़बंदी की जा सकती है। गांव का पानी गांव में रहे इसके लिए तालाब और छोटे बंधान बनाए जा सकते हैं। चेकडैम बनाए जा सकते हैं। या जो टूट-फूट गए हैं उनकी मरम्मत की जा सकती है। वृक्षारोपण किया जा सकता है। शहरों में वॉटर हार्वेस्टिंग के माध्यम से पानी को एकत्र कर भूजल को ऊपर लाया जा सकता है। इसके माध्यम से कुओं व नलकूप को पुनजीर्वित किया जा सकता है। नदी-नालों में बोरी-बंधान बनाए जा सकते हैं। सूखी नदियों को गहरा किया जा सकता है। 

इसके साथ सबसे जरूरी है खेती में हमें फसलचक्र बदलना होगा। कम पानी या बिना सींच के परंपरागत देशी बीजों की खेती करनी होगी और ऐसी कई देशी बीजों को लोग भूले नहीं है, वे कुछ समय पहले तक इन्हीं बीजों से खेती कर रहे थे। देशी बीज और हल-बैल, गोबर खाद की ओर मुड़कर मिट्टी-पानी का संरक्षण करना होगा। यानी समन्वित प्रयास से ही हम पानी जैसे बहुमूल्य संसाधन का संरक्षण व संवर्धन कर सकते हैं। इस संदर्भ में हमें महात्मा गांधी की सीख याद रखनी चाहिए, उन्होंने कहा था कि प्रकृति मनुष्य की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकती है, परंतु लालच की नहीं। 

यह रिपोर्ट इंक्लूसिव मीडिया फैलोशिप के अध्ययन का हिस्सा है

जल संकट का समाधान कैसे?


बीते दिनों ऊर्जा एवं संसाधन संस्थान (टेरी) एवं जल संसाधन मंत्रालय द्वारा दिल्ली स्थित इंडिया हैबिटेट सेन्टर में आयोजित भारतीय जल गोष्ठी के उद्घाटन भाषण में उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने जल संसाधनों में व्यापक सुधार की जरूरत बतायी, उन्होंने कहा कि बढ़ती जनसंख्या और जलवायु परिवर्तन के चलते जल प्रबंधन के क्षेत्र में नई चुनौतियां सामने हैं, जिनका मुकाबला प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए। पानी की समस्या समूचे विश्व की है लेकिन हमारे यहां जिस तरह इसकी बर्बादी होती है, उसे देखते हुए यदि इस पर समय रहते अंकुश न लगाया गया तो बहुत देर हो जाएगी। वैज्ञानिकों की चेतावनी है कि 2025 तक दुनिया के दो तिहाई देशों में पानी की किल्लत हो जाएगी। एशिया में यह समस्या कहीं अधिक विकराल होगी और भारत में 2020 तक पानी की भारी किल्लत की आशंका है, जिसका अर्थव्यवस्था की रफ्तार पर असर पड़ेगा।

तिब्बत के पठार पर मौजूद हिमालयी ग्लेशियर समूचे एशिया में 1.5 अरब से अधिक लोगों को मीठा जल मुहैया कराता है। इससे नौ नदियों में पानी की आपूर्ति होती है, जिनमें गंगा और ब्राह्मपुत्र शामिल हैं। इनसे अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल और बांग्लादेश को पानी मिलता है। लेकिन जलवायु परिवर्तन व 'ब्लैक कार्बन' जैसे प्रदूषक तत्वों ने हिमालय के कई ग्लेशियरों की बर्फ की मात्रा घटा दी है। माना जा रहा है कि कुछ तो इस सदी के अंत ही तक खत्म हो जाएंगे। लेकिन उससे पहले तेजी से गलते ग्लेशियर समुद्र का जलस्तर बढ़ा देंगे, जिससे तटीय इलाकों के डूबने का खतरा होगा। पानी की उपलब्धता के मामले में राजधानी दिल्ली में ही जहां लोग एक ओर अमोनियायुक्त गंदा पानी पीने को मजबूर हैं, वहीं दूसरी ओर रोजाना पानी के पाइपों से इतना पानी बर्बाद हो रहा है जिससे 40 लाख लोगों की प्यास बुझ सकती है। पानी की बर्बादी का यह खमियाजा निकट भविष्य में भुगतना पड़ेगा।

बीते दिनों ओट्टावा में कनेडियन वाटर नेटवर्क (सीडब्लूएन) द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय बैठक में वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि ग्लोबल वार्मिंग और जनसंख्या बढ़ोतरी के चलते आने वाले 20 सालों में पानी की मांग उसकी आपूर्ति से 40 फीसद ज्यादा होगी। यानी 10 में से चार लोग पानी के लिए तरस जाएंगे। पानी की लगातार कमी के कारण कृषि, उद्योग और तमाम समुदायों पर सकंट मंडराने लगा है, इसे देखते हुए पानी के बारे में नए सिरे से सोचना बेहद आवश्यक है। अगले दो दशकों में दुनिया की एक तिहाई आबादी को अपनी मूल जरूरतों को पूरा करने के लिए जरूरी जल का सिर्फ आधा हिस्सा ही मिल पाएगा। कृषि क्षेत्र, जिस पर जल की कुल आपूर्ति का 71 फीसदी खर्च होता है, सबसे बुरी तरह प्रभावित होगा। इससे दुनियाभर के खाद्य उत्पादन पर असर पड़ जाएगा।

ऐसे में हाल ही में घोषित राष्ट्रीय जल अभियान की सफलता की उम्मीद करना बेमानी है। यह तभी संभव है जब हर व्यक्ति पानी का महत्व समझे। इस दिशा में कार्यरत मंत्रालयों और विभागों को एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराने के बजाय समन्वित तरीके से समस्या के समाधान हेतु प्रयास करने चाहिए। यदि हम कुछ संसाधनों को समय रहते विकसित करने में कामयाब हो जाएं तो काफी मात्रा में पानी की बचत हो सकती है। उदाहरण के तौर पर यदि औद्योगिक संयंत्रों में अतिरिक्त प्रयास कर लिए जायें तो तकरीबन बीस से पच्चीस फीसद तक पानी की बर्बादी रोकी जा सकती है। बाहरी देशों में फैक्ट्रियों से निकलने वाले गंदे पानी का खेती में इस्तेमाल किया जाता है लेकिन विडम्बना यह है कि हमारे यहां औद्योगिक क्षेत्रों में ही सबसे ज्यादा पानी की बर्बादी होती है। जरूरत है इस पर प्राथमिकता के आधार पर ध्यान दिया जाये और एक व्यापक नीति बनाई जाये जिससे उचित प्रबंधन के जरिए पानी की बर्बादी पर अंकुश लग सके।

courtesy 
purpose education

नदियों का बढ़ता निरादर


इसे अपनी संस्कृति की विशेषता कहें या परंपरा, हमारे यहां मेले नदियों के तट पर, उनके संगम पर या धर्म स्थानों पर लगते हैं और जहां तक कुंभ का सवाल है, वह तो नदियों के तट पर ही लगते हैं। आस्था के वशीभूत लाखों-करोड़ों लोग आकर उन नदियों में स्नान कर पुण्य अर्जित कर खुद को धन्य समझते हैं, लेकिन विडंबना यह है कि वे उस नदी के जीवन के बारे में कभी भी नहीं सोचते। देश की नदियों के बारे में केंद्रीय प्रदूषण नियत्रंण बोर्ड ने जो पिछले दिनों खुलासा किया है, वह उन संस्कारवान, आस्थावान और संस्कृति के प्रतिनिधि उन भारतीयों के लिए शर्म की बात है, जो नदियों को मां मानते हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अपने अध्ययन में कहा है कि देशभर के 900 से अधिक शहरों और कस्बों का 70 फीसदी गंदा पानी पेयजल की प्रमुख स्रोत नदियों में बिना शोधन के ही छोड़ दिया जाता है।

वर्ष 2008 तक के उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक, ये शहर और कस्बे 38,254 एमएलडी (मिलियन लीटर प्रतिदिन) गंदा पानी छोड़ते हैं, जबकि ऎसे पानी के शोधन की क्षमता महज 11,787 एमएलडी ही है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का कथन बिलकुल सही है। नदियों को प्रदूषित करने में दिनों दिन बढ़ते उद्योगों ने भी प्रमुख भूमिका निभाई है। इसमें दो राय नहीं है कि देश के सामने आज नदियों के अस्तित्व का संकट मुंह बाए खड़ा है। कारण आज देश की 70 फीसदी नदियां प्रदूषित हैं और मरने के कगार पर हैं। इनमें गुजरात की अमलाखेड़ी, साबरमती और खारी, हरियाणा की मारकंडा, उत्तर प्रदेश की काली और हिंडन, आंध्र की मुंसी, दिल्ली में यमुना और महाराष्ट्र की भीमा नदियां सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं। यह उस देश में हो रहा है, जहां आदिकाल से नदियां मानव के लिए जीवनदायिनी रही हैं। 

उनकी देवी की तरह पूजा की जाती है और उन्हें यथासंभव शुद्ध रखने की मान्यता व परंपरा है। समाज में इनके प्रति सदैव सम्मान का भाव रहा है। एक संस्कारवान भारतीय के मन-मानस में नदी मां के समान है। उस स्थिति में मां से स्नेह पाने की आशा और देना संतान का परम कर्तव्य हो जाता है। फिर नदी मात्र एक जलस्त्रोत नहीं, वह तो आस्था की केंद्र भी है। विश्व की महान संस्कृतियों-सभ्यताओं का जन्म भी न केवल नदियों के किनारे हुआ, बल्कि वे वहां पनपी भी हैं। 

वेदकाल के हमारे ऋषियों ने पर्यावरण संतुलन के सूत्रों के दृष्टिगत नदियों, पहाड़ों, जंगलों व पशु-पक्षियों सहित पूरे संसार की और देखने की सहअस्तित्व की विशिष्ट अवधारणा को विकसित किया है। उन्होंने पाषाण में भी जीवन देखने का जो मंत्र दिया, उसके कारण देश में प्रकृति को समझने व उससे व्यवहार करने की परंपराएं जन्मीं। यह भी सच है कि कुछेक दशक पहले तक उनका पालन भी हुआ, लेकिन पिछले 40-50 बरसों में अनियंत्रित विकास और औद्योगीकरण के कारण प्रकृति के तरल स्नेह को संसाधन के रूप में देखा जाने लगा, श्रद्धा-भावना का लोप हुआ और उपभोग की वृत्ति बढ़ती चली गई। चूंकि नदी से जंगल, पहाड़, किनारे, वन्य जीव, पक्षी और जन जीवन गहरे तक जुड़े हैं, इसलिए जब नदी पर संकट आया, तब उससे जुड़े सभी सजीव-निर्जीव प्रभावित हुए बिना न रहे और उनके अस्तित्व पर संकट मंडराने लगा। असल में जैसे-जैसे सभ्यता का विस्तार हुआ, प्रदूषण ने नदियों के अस्तित्व को ही संकट में डाल दिया। 

लिहाजा, कहीं नदियां गर्मी का मौसम आते-आते दम तोड़ देती हैं, कहीं सूख जाती हैं, कहीं वह नाले का रूप धारण कर लेती हैं और यदि कहीं उनमें जल रहता भी है तो वह इतनी प्रदूषित हैं कि वह पीने लायक भी नहीं रहता है। देखा जाए तो प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने में भी हमने कोताही नहीं बरती। वह चाहे नदी जल हो या भूजल, जंगल हो या पहाड़, सभी का दोहन करने में कीर्तिमान बनाया है। हमने दोहन तो भरपूर किया, उनसे लिया तो बेहिसाब, लेकिन यह भूल गए कि कुछ वापस देने का दायित्व हमारा भी है। नदियों से लेते समय यह भूल गए कि यदि जिस दिन इन्होंने देना बंद कर दिया, उस दिन क्या होगा? आज देश की सभी नदियां वह चाहे गंगा, यमुना, नर्मदा, ताप्ती हो, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी हो, ब्रह्मपुत्र, सतलुज, रावी, व्यास, झेलम या चिनाब हो या फिर कोई अन्य या इनकी सहायक नदियां। ये हैं तो पुण्य सलिला, लेकिन इनमें से एक भी ऎसी नहीं है, जो प्रदूषित न हो। 

असल में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का खामियाजा सबसे ज्यादा नदियों को ही भुगतना पड़ा है। सर्वाधिक पूज्य धार्मिक नदियों गंगा-यमुना को लें, उनको हमने इस सीमा तक प्रदूषित कर डाला है कि दोनों को प्रदूषण मुक्त करने के लिए अब तक करीब 15 अरब रूपये खर्च किए जा चुके हैं, फिर भी उनकी हालत 20 साल पहले से ज्यादा बदतर है। मोक्षदायिनी राष्ट्रीय नदी गंगा को मानवीय स्वार्थ ने इतना प्रदूषित कर डाला है कि कन्नौज, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी और पटना सहित कई एक जगहों पर गंगाजल आचमन लायक भी नहीं रहा है। यदि धार्मिक भावना के वशीभूत उसमें डुबकी लगा ली तो त्वचा रोग के शिकार हुए बिना नहीं रहेंगे।कानपुर से आगे का जल पित्ताशय के कैंसर और आंत्रशोध जैसी भयंकर बीमारियों का सबब बन गया है। यही नहीं, कभी खराब न होने वाला गंगाजल का खास लक्षण-गुण भी अब खत्म होता जा रहा है। गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के प्रो. बी.डी. जोशी के निर्देशन में हुए शोध से यह प्रमाणित हो गया है। 

दिल्ली के 56 फीसदी लोगों की जीवनदायिनी, उनकी प्यास बुझाने वाली यमुना आज खुद अपने ही जीवन के लिए जूझ रही है। जिन्हें वह जीवन दे रही है, अपनी गंदगी, मलमूत्र, उद्योगों का कचरा, तमाम जहरीला रसायन व धार्मिक अनुष्ठान के कचरे का तोहफा देकर वही उसका जीवन लेने पर तुले हैं। असल में अपने 1376 किमी लंबे रास्ते में मिलने वाली कुल गंदगी का अकेले दो फीसदी यानी 22 किमी के रास्ते में मिलने वाली 79 फीसदी दिल्ली की गंदगी ही यमुना को जहरीला बनाने के लिए काफी है। यमुना की सफाई को लेकर भी कई परियोजनाएं बन चुकी हैं और यमुना को टेम्स बनाने का नारा भी लगाया जा रहा है, लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात रहे हैं। देश की प्रदूषित हो चुकी नदियों को साफ करने का अभियान पिछले लगभग 20 साल से चल रहा है। 

इसकी शुरूआत राजीव गांधी की पहल पर गंगा सफाई अभियान से हुई थी। अरबों रूपये खर्च हो चुके हैं, लेकिन असलियत है कि अब भी शहरों और कस्बों का 70 फीसदी गंदा पानी बिना शोधित किए हुए ही इन नदियों में गिराया जा रहा है। नर्मदा को लें, अमरकंटक से शुरू होकर विंध्य और सतपुड़ा की पहाडियों से गुजरकर अरब सागर में मिलने तक कुल 1,289 किलोमीटर की यात्रा में इसका अथाह दोहन हुआ है। 1980 के बाद शुरू हुई इसकी बदहाली के गंभीर परिणाम सामने आए। यही दुर्दशा बैतूल जिले के मुलताई से निकलकर सूरत तक जाने वाली और आखिर में अरब सागर में मिलने वाली सूर्य पुत्री ताप्ती की हुई, जो आज दम तोड़ने के कगार पर है। तमसा नदी बहुत पहले विलुप्त हो गई थी। बेतवा की कई सहायक नदियों की छोटी-बड़ी जल धाराएं भी सूख गई हैं। 

आज नदियां मलमूत्र विसर्जन का माध्यम बनकर रह गई हैं। ग्लोबल वार्मिग का खतरा बढ़ रहा है और नदी क्षेत्र पर अतिक्रमण बढ़ता जा रहा है और जल संकट और गहराएगा ही। ऎसी स्थिति में हमारे नीति-नियंता नदियों के पुनर्जीवन की उचित रणनीति क्यों नहीं बना सके, जल के बड़े पैमाने पर दोहन के बावजूद उसके रिचार्ज की व्यवस्था क्यों नहीं कर सके, वर्षा के पानी को बेकार बह जाने देने से क्यों नहीं रोक पाए और अतिवृष्टि के बावजूद जल संकट क्यों बना रहता है, यह समझ से परे है। वैज्ञानिक बार-बार चेतावनी दे रहे हैं कि यदि जल संकट दूर करने के शीघ्र ठोस कदम नहीं उठाए गए तो बहुत देर हो जाएगी और मानव अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।

मानसून का पूर्वानुमान


कैसे किया जाता है?


मानसून की अवधि 1 जून से 30 सितंबर यानी चार महीने की होती है। हालांकि इससे संबंधित भविष्यवाणी 16 अप्रैल से 25 मई के बीच कर दी जाती है। मानसून की भविष्यवाणी के लिए भारतीय मानसून विभाग कुल 16 तथ्यों का अध्ययन करता है। 16 तथ्यों को चार भागों में बांटा गया है और सारे तथ्यों को मिलाकर मानसून के पूर्वानुमान निकाले जाते हैं। पूर्वानुमान निकालते समय तापमान, हवा, दबाव और बर्फबारी जैसे कारकों का ध्यान रखा जाता है। 

समूचे भारत के विभिन्न भागों के तापमान का अलग- अलग अध्ययन किया जाता है। मार्च में उत्तर भारत का न्यूनतम तापमान और पूर्वी समुद्री तट का न्यूनतम तापमान, मई में मध्य भारत का न्यूनतम तापमान और जनवरी से अप्रैल तक उत्तरी गोलार्ध की सतह का तापमान नोट किया जाता है। तापमान के अलावा हवा का भी अध्ययन किया जाता है। वातावरण में अलग-अलग महीनों में छह किलोमीटर और 20 किलोमीटर ऊपर बहने वाली हवा के रुख को नोट किया जाता है। इसके साथ ही वायुमंडलीय दबाव भी मानसून की भविष्यवाणी में अहम भूमिका निभाता है। वसंत ऋतु में दक्षिणी भाग का दबाव और समुद्री सतह का दबाव जबकि जनवरी से मई तक हिंद महासागर विषुवतीय दबाव को मापा जाता है। इसके बाद बर्फबारी का अध्ययन किया जाता है। जनवरी से मार्च तक हिमालय के खास भागों में बर्फ का स्तर, क्षेत्र और दिसंबर में यूरेशियन भाग में बर्फबारी मानसून की भविष्यवाणी में अहम किरदार निभाती है। सारे तथ्यों के अध्ययन के लिए आंकड़े उपग्रह द्वारा एकत्र किए जाते हैं। इन सारे तथ्यों की जांच पड़ताल में थोड़ी सी असावधानी या मौसम में किन्हीं प्राकृतिक कारणों से बदलाव का असर मानसून की भविष्यवाणी पर पड़ता है। 

इसका उदाहरण 2004 मानसून की भविष्यवाणी का पूरी तरह सही न होना है। इसका कारण प्रशांत महासागर के मध्य विषुवतीय क्षेत्र में समुद्री तापमान का जून महीने के अंत में बढ़ जाना रहा। 

एल-नीनो के हाथ में है बरसात की बागडोर 

मानसून का समय तो पूर्वानुमान द्वारा जाना जा सकता है लेकिन मानसून कब अच्छा आएगा और कब नहीं ये हम नहीं जान सकते। इसका सबसे अच्छा जरिया है एल नीनो। एल नीनो की गतिविधियों को ध्यान में रखकर वैज्ञानिक ये पता लगा सकते हैं। सच कहें तो गहरे समुद्र में घटने वाली एक हलचल यानी `एल नीनो´ ही किसी मानसून का भविष्य तय करती है। एल-नीनो कहीं प्रकृति का उपहार बनकर आती है तो कहीं यह विनाश का सबब बनती है। ... 

ज्यादा पैदावार के लालच में अकाल !


वर्तमान में मानसून का अनियमित होना और वर्षा की मात्रा में स्पष्ट कमी, गंभीर समस्या के रूप में सामने है। यह समस्या पूरे देश के जन-जीवन को प्रभावित कर रही है। सिर्फ भारत में ही नहीं ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका, सोवियत यूनियन और चीन जैसे देशों में भी यह समस्या बढ़ी है।भारतीय उपमहाद्वीप का बहुत बड़ा हिस्सा उष्णकटिबंधीय है, जो 5 से 30 डिग्री अक्षांश के बीच पड़ता है। जहां वायु की ग्रहीय संचार पद्धति उतर-पूर्वी व्यापारिक हवाओं की है। यही कारण है कि सामान्यत सालों भर बहनेवाली समुद्री हवाओं के कारण इस उपमहाद्वीप के उत्तर-पूर्वी भाग में हल्की-फुल्की बारिश होती है। नतीजतन, इस इलाके में सवाना जैसे घास के मैदानों का विकास हुआ। जून में जब सूर्य ठीक सिर के ऊपर होता है, तो उत्तर के मैदानी इलाकों में गरमी का मौसम बहुत ज्यादा गर्म और शुष्क होता है।

बंगाल के डेल्टा और सिंध-राजस्थान एक ही अक्षांश पर स्थित हैं। जहां, एक ओर भारी बारिश और सतत आद्र्रता के कारण बंगाल का डेल्टा सदाबहार वनों से भरा पड़ा है और शुष्क गरमी में भी ठंडा रहता है, वहीं दूसरी ओर सूर्य जब ठीक सिर के ऊपर होता है, तो सिंध-राजस्थान का फैलाव सूखा और बलुआही होने के कारण भयंकर गर्म हो जाता है। परिणामस्वप मरुभूमि के ऊपरी वायुमंडल में गहन निम्न दाब के क्षेत्र का निर्माण होता है, जो वस्तुत वैक्यूम सदृश हो जाता है और तब नीचे से भारी मात्रा में वायु राशियां ऊपर मुख्य केंद्र की ओर खींच ली जाती है। चूंकि उत्तरी भाग तीन ओर से पहाड़ों से घिरा है, इसलिए नमीयुक्त समुद्री हवाएं सिर्फ दक्षिण दिशा से ही आती हैं। अन्य दिशाओं की निम्न हवाएं प्रविष्ट नहीं हो पातीं।मरुस्थल की भूमिकापृथ्वी के घूर्णन गति के कारण ये हवाएं सामान्यत दक्षिणी-पश्चिमी हो जाती हैं, जिन्हें मानसून कहा जाता है। इसलिए मानसून आम या सामान्य घटना नहीं है। वास्तव में यह ग्रहीय हवाओं को नियंत्रित करनेवाले नियमों का अपवाद है। इस उपमहाद्वीप का एक बड़ा भाग बजाय अर्ध शुष्क घास-भूमि रहने और आद्र्र परिस्थिति के कारण सौभाग्यवश अन्नों का भंडार बन गया है, जो मानसून प्रदत्त एक उपहार है। सशक्त मानसून के निर्माण के लिए मरुस्थल का होना निहायत जरी है। मरुस्थल जितना सूखा होगा, उतना ही गर्म होगा और तब निम्न दाब को क्षेत्र उतना ही गहन या सघन होगा, जिससे वह दक्षिण से आनेवाली आद्र हवाओं को उतनी ही तेजी से ग्रहण करेगा, जिससे मानसून से होनेवाली वर्षा उतनी ही अच्छी होगी।मरुस्थल के साथ सतत सिंचाई के जरिये छेड़छाड़ तथा इस भाग को सालों भर वनस्पति से ढंके रखने से, अंतत उत्तर भारत के विभिन्न भागों में तापमान और दबाव प्रणाली के विकास में कोई अंतर नहीं रह जायेगा। इससे न सिर्फ मरुस्थल बरबाद होंगे, बल्कि मानसून भी बरबाद हो जायेगा। हमारे इस अनियोजित व्यवहार से यह पूरा उपमहाद्वीप सवाना जैसे हालात में जा सकता है। पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश ओद सीमांत क्षेत्रों में सिंचाई का उपयोग इन्हें हानि नहीं पहुंचायेगा, बल्कि यह मरुस्थल को बनाये रखेगा। चूंकि पर्वत निर्मित छिछली बलुई परत, एल्युवियल मृदा (क्ले लोम) से आवृत्त रहती है, अत इस मरुस्थल में वर्षा और सिंचाई जल के धारण की असीम क्षमता होती है। सूखे मौसम में कैपिलरी एक्शन के माध्यम से आद्र्रता ऊपर की ओर जाती है। अत राजस्थान के मरुस्थल अब खर-पतवार, घास एवं लताओं द्वारा हरे-भरे हो गये हैं।भाखड़ा-नांगल नहर का, बिना सोचे-विचारे पश्चिमी राजस्थान के मरुभूमि तक विस्तार कर दिया गया। लगातार जुताई और सिंचाई के कारण जिन इलाकों में खेती की जाती है, वहां की मिट्टी चिकनी दोमट मिट्टी में तब्दील हो गयी हैं। आबादी का बढ़ता फैलाव काफी कुछ बदलाव लेकर आया है। मिट्टी में खाद और अन्य दूसरे तत्वों के मिलने के कारण यहां की मिट्टी के नमी धारण की क्षमता में वृद्धि हो गयी है।

खेत को खाती खाद


कृषि अब पर्यावरण असंतुलन की मार भी झेल रही है। रासायनिक उर्वरकों के बेइंतिहा इस्तेमाल से खेत बंजर हो रहे हैं और सिंचाई के पानी की कमी हो चली है। साठ के दशक में हरित क्रांति की शुरुआत के साथ ही देश में रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशक दवाओं, संकर बीजों आदि के इस्तेमाल में भी क्रांति आयी थी। केंद्रीय रासायनिक और उर्वरक मंत्रालय के रिकॉर्ड के मुताबिक सन् 1950-51 में भारतीय किसान मात्र सात लाख टन रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल करते थे जो अब बढ़कर 240 लाख टन हो गया है। इससे पैदावार में तो खूब इजाफा हुआ, लेकिन खेत, खेती और पर्यावरण चौपट होते चले गये। करीब साल भर पहले इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रीकल्चर, विश्व भारती, पश्चिम बंगाल के कृषि वैज्ञानिक डॉ बीसी राय, प्रोफेसर जीएन चट्टोपाध्याय और इंग्लैंड के कृषि वैज्ञानिक डॉ आर टिराडो ने रासायनिक उर्वरकों के दुष्प्रभावों पर एक देश व्यापी अनुसंधान किया था। इसके अनुसार, रासायनिक खादों के बेइंतिहा इस्तेमाल के कारण मिट्टी क्षारीय हो रही है, जिसके कारण पैदावर में लगातार कमी आ रही है।

स्थिति यह है कि आज 54 प्रतिशत उपजाऊ जमीन की मिट्टी अनुर्वर हो चुकी है। रिपोर्ट में कहा गया था कि यूरिया और डीएपी जैसे खादों के असंतुलित इस्तेमाल के कारण मिट्टी में मौजूद प्राकृतिक तत्व खत्म हो रहे हैं, जबकि मिट्टी के कण पानी को संग्रह नहीं कर पाते। सत्तर पन्ने की इस रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने कहा था कि अगर रासायनिक खादों का इस्तेमाल इसी तरह होता रहा तो आने वाले समय में देश की उपजाऊ जमीन का बड़ा हिस्सा बंजर भूमि में तब्दील हो जायेगा। हाल के वर्षों में क्षेत्रीय स्तर पर भी कुछ कृषि विश्वविद्यालय ने इस पर शोध किया है और लगभग हर शोध में यह बात दोहरायी गयी है। इसके बावजूद सरकार हर साल खादों पर हजारों करोड़ रुपए की सब्सिडी देती है। सिंचाई व्यवस्था का अभाव नया नहीं है। आज भी लगभग 74 प्रतिशत खेती मानसून के रहमो-करम पर निर्भर है। लेकिन हाल के वर्षों में यह बात सामने आयी है कि फसलों को सींचने के लिए पानी ही उपलब्ध नहीं है। 

जल कुप्रबंधन और बोरिंग द्वारा सिंचाई करने की बेलगाम संस्कृति ने भू-जल को सोख लिया है। आलम यह है कि अगर किसी साल मानसून कमजोर रहा या देर से आया तो देश का एक चौथाई हिस्सा पानी के लिए तरसने लगता है। लगभग तमाम क्षेत्रों में भू-जल नीचे जा रहा है, लेकिन दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात और उड़ीसा में स्थिति नाजुक हो चुकी है। साल भर पहले अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने उपग्रहीय चित्रों के आधार पर भारत के भू-जल का एक नक्शा तैयार किया था। इसमें बताया गया था कि अत्यधिक दोहन के कारण दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में हर साल भू-जल औसतन चार सेंटीमीटर नीचे जा रहा है। शोध के प्रमुख डॉ रॉडेल ने तब कहा था, "अगर समुचित उपाय नहीं हुए तो इन इलाकों की खेती चरमरा जायेगी।' गौरतलब है कि भू-जल जमीन में नमी बनाये रखता है और इसके नीचे जाने से मिट्टी के जरूरी उर्वरा-तत्व खत्म होने लगते हैं। 

दो दशक पहले तक देश की कृषि पर्यावरण अंसतुलन की मार से बची हुई थी, लेकिन अब जंगलों की अंधाधुंध कटाई, पानी और हवा के प्रदूषित हो जाने के कारण खेती को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। नदियों के लगातार प्रदूषित होते चले जाने के कारण मिट्टी खराब हो रही है। कुछ समय पहले अमेरिका की कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक जैरॉड वेल्श के नेतृत्व में कृषि वैज्ञानिकों के एक दल ने फिलिपींस की मशहूर चावल अनुसंधान संस्था- आइआरआरआई और संयुक्त राष्ट्र के फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गनाइजेशन (एफएओ) के साथ मिलकर एशिया प्रशांत में धान की पैदावार पर अनुसंधान किया था। इसके मुताबिक, "पिछले 25 वर्षों में भारत में धान की पैदावार 10 से 18 फीसद की दर से घटी है। 



 हाल के वर्षों से संकर (हाइब्रिड) और जीएम (जेनेटिकली मोडिफाइड) बीजों का अंधाधुंध इस्तेमाल हो रहा है। इससे पैदावार में तो वृद्धि हुई, लेकिन किसान फसलों की परंपरागत नस्ल से दूर होते जा रहे हैं। बीज भंडारण की परंपरा टूट रही है। मुद्दे पर कोई आधिकारिक अध्ययन नहीं हुआ है, लेकिन ऐसा माना जाता है कि धान, गेहूं, मक्का की सैंकड़ों देसी नस्लें विलुप्त हो चुकी हैं। कभी उत्तर बिहार के गांवों में धान की दर्जनों प्रजातियों की खेती होती थी, लेकिन अब वे खोजने से भी नहीं मिलती हैं। 

समाधान है प्राकृतिक खेती


पारिस्थितिकी और पर्यावरण के लिहाज से भारतीय कृषि की स्थिति कैसी है?
कृषि पूरी तरह से पर्यावरण से जुड़ा उपक्रम है। पर्यावरण की छोटी-छोटी बात भी कृषि को प्रभावित करती है, लेकिन अपने देश में पानी, मिट्टी से लेकर बीज तक संक्रमित हो गये हैं। दोषपूर्ण नीतियां कृषि के भविष्य को अंधकारमय करती जा रही हैं। रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल से पहले मिट्टी खराब हुई फिर पैदावार घटी, अब हम जो अन्न उपजा रहे हैं, वह भी संक्रमित है। जमीन अतिक्रमित हो रही है, पानी घट रहा और प्रदूषित हो रहा है। जंगल खत्म हो रहे हैं। कृषि संकटों के मकड़जाल में फंस चुकी है।

रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के मुख्य दुष्प्रभाव क्या हैं?
रासायनिक उर्वरकों के अनियंत्रित इस्तेमाल से जमीन बीमार हो जाती है। उसकी प्रकृति बिगड़ जाती है। उसे ज्यादा पानी की जरूरत होती है। कीटनाशकों के बेइंतिहा इस्तेमाल से जमीन में रहने वाले जीव मरते हैं। अब वे कीट नहीं दिखाई देते, जो किसान के दोस्त हुआ करते थे। 

सिंचाई के मोर्चे पर कृषि को आप कहां पाते हैं?
शुरू में सरकार ने कृत्रिम सिंचाई के लिए खूब हाथ-पैर मारे, लेकिन अब सुस्त हो गयी है। दरअसल, खेती प्राकृतिक मिजाज से होनी चाहिए और इसके लिए पानी की व्यवस्था भी स्वाभाविक रूप से हो। जो कहते हैं कि हम गंगा को महाराष्ट्र पहुंचा देंगे और नदियों को बांधकर सिंचाई कर लेंगे, वे गलत हैं। आज तो स्थिति यह है कि हमारे पास फसल को देने के लिए शुद्ध पानी नहीं है। प्रदूषित पानी इंसान ही नहीं, फसलों को भी अस्वस्थ कर देता है। हम न घर के हैं और न घाट के।

संकर बीजों के बढ़ते इस्तेमाल से कृषि पर कैसा प्रभाव पड़ रहा है?
खेती से किसानों को खदेड़ देने की साजिश है यह सब। बहुराष्ट्रीय कंपनियां बीज बाजार पर कब्जा करना चाहती हैं। ज्यादा पैदावार के लोभ में किसान बीजों की परंपरागत नस्ल खोते जा रहे हैं। एक समय ऐसा आयेगा, जब किसान बीज खरीदने की स्थिति में नहीं होंगे। जलवायु परिवर्तन, सरकार की दोषपूर्ण और असहयोगपूर्ण नीति, बाजार के षड़यंत्र के कारण किसान लाचार होते चले जायेंगे। ऐसा भी हो सकता है कि किसानों की देसी फसलों को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बताकर बाजार से बाहर कर दिया जाये। 

समाधान क्या है?
प्राकृतिक खेती। सरकार की नीति से लेकर फसलों की बुआई तक में इसका ध्यान रखा जाना चाहिए। कृषि का संकट सिर्फ किसानों का नहीं है, बल्कि इससे हर आदमी का सीधा वास्ता है। सबको इस पर विचार करना चाहिए।


courtesy