सोमवार, 9 अप्रैल 2012

ज्यादा पैदावार के लालच में अकाल !


वर्तमान में मानसून का अनियमित होना और वर्षा की मात्रा में स्पष्ट कमी, गंभीर समस्या के रूप में सामने है। यह समस्या पूरे देश के जन-जीवन को प्रभावित कर रही है। सिर्फ भारत में ही नहीं ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका, सोवियत यूनियन और चीन जैसे देशों में भी यह समस्या बढ़ी है।भारतीय उपमहाद्वीप का बहुत बड़ा हिस्सा उष्णकटिबंधीय है, जो 5 से 30 डिग्री अक्षांश के बीच पड़ता है। जहां वायु की ग्रहीय संचार पद्धति उतर-पूर्वी व्यापारिक हवाओं की है। यही कारण है कि सामान्यत सालों भर बहनेवाली समुद्री हवाओं के कारण इस उपमहाद्वीप के उत्तर-पूर्वी भाग में हल्की-फुल्की बारिश होती है। नतीजतन, इस इलाके में सवाना जैसे घास के मैदानों का विकास हुआ। जून में जब सूर्य ठीक सिर के ऊपर होता है, तो उत्तर के मैदानी इलाकों में गरमी का मौसम बहुत ज्यादा गर्म और शुष्क होता है।

बंगाल के डेल्टा और सिंध-राजस्थान एक ही अक्षांश पर स्थित हैं। जहां, एक ओर भारी बारिश और सतत आद्र्रता के कारण बंगाल का डेल्टा सदाबहार वनों से भरा पड़ा है और शुष्क गरमी में भी ठंडा रहता है, वहीं दूसरी ओर सूर्य जब ठीक सिर के ऊपर होता है, तो सिंध-राजस्थान का फैलाव सूखा और बलुआही होने के कारण भयंकर गर्म हो जाता है। परिणामस्वप मरुभूमि के ऊपरी वायुमंडल में गहन निम्न दाब के क्षेत्र का निर्माण होता है, जो वस्तुत वैक्यूम सदृश हो जाता है और तब नीचे से भारी मात्रा में वायु राशियां ऊपर मुख्य केंद्र की ओर खींच ली जाती है। चूंकि उत्तरी भाग तीन ओर से पहाड़ों से घिरा है, इसलिए नमीयुक्त समुद्री हवाएं सिर्फ दक्षिण दिशा से ही आती हैं। अन्य दिशाओं की निम्न हवाएं प्रविष्ट नहीं हो पातीं।मरुस्थल की भूमिकापृथ्वी के घूर्णन गति के कारण ये हवाएं सामान्यत दक्षिणी-पश्चिमी हो जाती हैं, जिन्हें मानसून कहा जाता है। इसलिए मानसून आम या सामान्य घटना नहीं है। वास्तव में यह ग्रहीय हवाओं को नियंत्रित करनेवाले नियमों का अपवाद है। इस उपमहाद्वीप का एक बड़ा भाग बजाय अर्ध शुष्क घास-भूमि रहने और आद्र्र परिस्थिति के कारण सौभाग्यवश अन्नों का भंडार बन गया है, जो मानसून प्रदत्त एक उपहार है। सशक्त मानसून के निर्माण के लिए मरुस्थल का होना निहायत जरी है। मरुस्थल जितना सूखा होगा, उतना ही गर्म होगा और तब निम्न दाब को क्षेत्र उतना ही गहन या सघन होगा, जिससे वह दक्षिण से आनेवाली आद्र हवाओं को उतनी ही तेजी से ग्रहण करेगा, जिससे मानसून से होनेवाली वर्षा उतनी ही अच्छी होगी।मरुस्थल के साथ सतत सिंचाई के जरिये छेड़छाड़ तथा इस भाग को सालों भर वनस्पति से ढंके रखने से, अंतत उत्तर भारत के विभिन्न भागों में तापमान और दबाव प्रणाली के विकास में कोई अंतर नहीं रह जायेगा। इससे न सिर्फ मरुस्थल बरबाद होंगे, बल्कि मानसून भी बरबाद हो जायेगा। हमारे इस अनियोजित व्यवहार से यह पूरा उपमहाद्वीप सवाना जैसे हालात में जा सकता है। पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश ओद सीमांत क्षेत्रों में सिंचाई का उपयोग इन्हें हानि नहीं पहुंचायेगा, बल्कि यह मरुस्थल को बनाये रखेगा। चूंकि पर्वत निर्मित छिछली बलुई परत, एल्युवियल मृदा (क्ले लोम) से आवृत्त रहती है, अत इस मरुस्थल में वर्षा और सिंचाई जल के धारण की असीम क्षमता होती है। सूखे मौसम में कैपिलरी एक्शन के माध्यम से आद्र्रता ऊपर की ओर जाती है। अत राजस्थान के मरुस्थल अब खर-पतवार, घास एवं लताओं द्वारा हरे-भरे हो गये हैं।भाखड़ा-नांगल नहर का, बिना सोचे-विचारे पश्चिमी राजस्थान के मरुभूमि तक विस्तार कर दिया गया। लगातार जुताई और सिंचाई के कारण जिन इलाकों में खेती की जाती है, वहां की मिट्टी चिकनी दोमट मिट्टी में तब्दील हो गयी हैं। आबादी का बढ़ता फैलाव काफी कुछ बदलाव लेकर आया है। मिट्टी में खाद और अन्य दूसरे तत्वों के मिलने के कारण यहां की मिट्टी के नमी धारण की क्षमता में वृद्धि हो गयी है।

कोई टिप्पणी नहीं: