सोमवार, 9 अप्रैल 2012

भारत में परिवारों की सुरक्षित पेयजल तक पहुंच


भारत के पास विश्व की समस्त भूमि का केवल 2.4 प्रतिशत भाग ही है जबकि विश्व की जनसंख्या का 16.7 प्रतिशत जनसंख्या भारत वर्ष में निवास करती है। जनसंख्या में वृद्धि होने के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधनों पर और भार बढ़ रहा है। जनसंख्या दबाव के कारण कृषि के लिए व्यक्ति को भूमि कम उपलब्ध होगी जिससे खाद्यान्न, पेयजल की उपलब्धता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है, लोग वांचित होते जा रहे हैं आईये देखें - भारत में परिवारों की सुरक्षित पेयजल तक पहुंच 






 भारत में परिवारों की सुरक्षित पेयजल तक पहुंच
           
No
राज्य/

केन्द्रशासित प्रदेशों
1981
1991
ग्रामीण
शहरी
संयुक्त
ग्रामीण
शहरी
संयुक्त









भारत
26.50
75.06
38.19
55.54
81.38
62.30








1
आंध्र प्रदेश 
15.12
63.27
25.89
48.98
73.82
55.08
2
अरुणाचल प्रदेश 
40.16
87.93
43.89
66.87
88.20
70.02
3
असम
-
-
-
43.28
64.07
45.86
4
बिहार 
33.77
65.36
37.64
56.55
73.39
58.76
5
दिल्ली 
62.26
94.91
92.97
91.01
96.24
95.78
6
गोवा 
8.57
52.31
22.50
30.54
61.71
43.41
7
गुजरात 
36.16
86.78
52.41
60.04
87.23
69.78
8
हरियाणा 
42.94
90.72
55.11
67.14
93.18
74.32
9
हिमाचल प्रदेश 
39.56
89.56
44.50
75.51
91.93
77.34
10
जम्मू और कश्मीर 
27.95
86.67
40.28
-
-
-
11
कर्नाटक 
17.63
74.40
33.87
67.31
81.38
71.68
12
केरल 
6.26
39.72
12.20
12.22
38.68
18.89
13
मध्य प्रदेश 
8.09
66.65
20.17
45.56
79.45
53.41
14
महाराष्ट्र 
18.34
85.56
42.49
54.02
90.50
68.49
15
मणिपुर 
12.91
38.71
19.54
33.72
52.10
38.72
16
मेघालय 
14.26
74.40
25.11
26.82
75.42
36.16
17
मिज़ोरम 
3.57
8.79
4.88
12.89
19.88
16.21
18
नागालैंड 
43.43
57.18
45.63
55.60
45.47
53.37
19
उड़ीसा 
9.47
51.33
14.58
35.32
62.83
39.07
20
पंजाब 
81.80
91.13
84.56
92.09
94.24
92.74
21
राजस्थान 
13.00
78.65
27.14
50.62
86.51
58.96
22
सिक्किम 
21.70
71.93
30.33
70.98
92.95
73.19
23
तमिलनाडु 
30.97
69.44
43.07
64.28
74.17
67.42
24
त्रिपुरा 
22.17
67.92
27.33
30.60
71.12
37.18
25
उत्तर प्रदेश 
25.31
73.23
33.77
56.62
85.78
62.24
26
. बंगाल 
65.78
79.78
69.95
80.26
86.23
81.98
27
अंडमानऔर निकोबार
36.25
91.95
51.64
59.43
90.91
67.87
28
चंडीगढ़ 
94.39
99.39
99.09
98.11
97.68
97.73
29
दादरा व नगर हवेली 
16.85
54.35
19.35
41.17
90.97
45.57
30
दमन और दीव 
46.42
67.04
54.48
55.87
86.76
71.42
31
लक्षद्वीप 
0.97
3.65
2.19
3.41
18.79
11.90
32
पांडिचेरी
76.88
84.18
80.59
92.86
86.05
88.75

आखिर क्यों उफन जाती हैं नदियां

मई-जून के महीनों में जब तीन-चौथाई देश पानी के लिए त्राहि -त्राहि कर रहा था, पूर्वोत्तर राज्यों में भी बाढ़ से तबाही का दौर शुरू हो चुका था। अभी बारिश के असली महीने सावन की शुरुआत है और लगभग आधा हरियाणा, पंजाब का बड़ा हिस्सा, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार का बड़ा हिस्सा नदियों के रौद्र रूप से पानी-पानी हो गया है।


हर बार ज्यों-ज्यों मानसून अपना रंग दिखाता है, वैसे ही देश के बड़े भाग में नदियां उफन कर तबाही मचाने लगती हैं। पिछले कुछ सालों के आंकड़ें देखें तो पायेंगे कि बारिश की मात्र भले ही कम हुई है, लेकिन बाढ़ से तबाह हुए इलाके में कई गुना बढ़ोतरी हुई है। कुछ दशकों पहले जिन इलाकों को बाढ़ से मुक्त क्षेत्र माना जाता था, अब वहां की नदियां भी उफनने लगी हैं और मौसम बीतते ही, उन इलाकों में एक बार फिर पानी का संकट छा जाता है। सूखे और मरुस्थल के लिए कुख्यात राजस्थान भी नदियों के गुस्से से अछूता नहीं रह पाता है।

देश के कुल बाढ़ प्रभावित क्षेत्र का 16 फीसदी बिहार में है। यहां कोसी, गंडक, बूढ़ी गंडक, बाधमती, कमला, महानंदा, गंगा आदि नदियां तबाही लाती हैं। इन नदियों पर तटबंध बनाने का काम केन्द्र सरकार से पर्याप्त सहायता नहीं मिलने के कारण अधूरा है। यहां बाढ़ का मुख्य कारण नेपाल में हिमालय से निकलने वाली नदियां हैं। ‘बिहार का शोक’ कहे जाने वाली कोसी के ऊपरी भाग पर कोई 70 किलोमीटर लंबाई का तटबंध नेपाल में है, लेकिन इसके रखरखाव और सुरक्षा पर सालाना खर्च होने वाला कोई 20 करोड़ रुपया बिहार सरकार को झेलना पड़ता है।

हालांकि तटबंध भी बाढ़ से निबटने में सफल रहे नहीं हैं। कोसी के तटबंधों के कारण उसके तट पर बसे 400 गांव डूब में आ गए हैं। कोसी की सहयोगी कमला-बलान नदी के तटबंध का तल सिल्ट (गाद) के भराव से ऊंचा हो जाने के कारण बाढ़ की तबाही अब पहले से भी अधिक होती है। फरक्का बराज की दोषपूर्ण संरचना के कारण भागलपुर, नौगछिया, कटिहार, मुंगेर, पूर्णिया, सहरसा आदि में बाढ़ग्रस्त क्षेत्र बढ़ता जा रहा है।

बगैर सोचे समझे नदी-नालों पर बंधान बनाने के कुप्रभावों का ताजातरीन उदाहरण मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में बहने वाली छोटी नदी ‘केन’ है। केन के अचानक रौद्र हो जाने के कारणों को खोजा तो पता चला कि यह सब तो छोटे-बड़े बांधों की कारिस्तानी है। सनद रहे केन नदी, बांदा जिले में चिल्ला घाट के पास यमुना में मिलती है। केन में बारिश का पानी बढ़ता है, फिर ‘स्टाप-डेमों’ के टूटने का जल-दबाव बढ़ता है। केन क्षमता से अधिक पानी ले कर यमुना की ओर लपलपाती है। वहां का जल स्तर इतना ऊंचा होता है कि केन के प्राकृतिक मिलन स्थल का स्तर नीचे रह जाता है। रौद्र यमुना, केन की जलनिधि को पीछे धकेलती है। इसी कशमकश में नदियों की सीमाएं गांवों-सड़कों-खेतों तक पहुंच जाती हैं।

वैसे शहरीकरण, वन विनाश और खनन तीन ऐसे प्रमुख कारण हैं, जो बाढ़ विभीषिका में उत्प्रेरक का कार्य कर रहे हैं। जब प्राकृतिक हरियाली उजाड़ कर कंक्रीट का जंगल सजाया जाता है तो जमीन की जल सोखने की क्षमता तो कम होती ही है, साथ ही सतही जल की बहाव क्षमता भी कई गुना बढ़ जाती है। फिर शहरीकरण के कूड़े ने समस्या को बढ़ाया है। यह कूड़ा नालों से होते हुए नदियों में पहुंचता है। फलस्वरूप नदी की जल ग्रहण क्षमता कम होती है। पंजाब और हरियाणा में बाढ़ का कारण जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में हो रहा जमीन का अनियंत्रित शहरीकरण ही है। इससे वहां भूस्खलन की घटनाएं बढ़ रही हैं और इसका मलबा भी नदियों में ही जाता है। पहाड़ों पर खनन से दोहरा नुकसान है। इससे वहां की हरियाली उजड़ती है और फिर खदानों से निकली धूल और मलबा नदी-नालों में अवरोध पैदा करता है। हिमालय से निकलने वाली नदियों के मामले में तो मामला और भी गंभीर हो जाता है।

मौजूदा हालात में बाढ़ महज एक प्राकृतिक प्रकोप नहीं, बल्कि मानवजन्य साधनों की त्रासदी है। कुछ लोग नदियों को जोड़ने में इसका निराकरण खोज रहे हैं। हकीकत में नदियों के प्राकृतिक बहाव, तरीकों, विभिन्न नदियों के ऊंचाई-स्तर में अंतर जैसे विषयों का हमारे यहां कभी निष्पक्ष अध्ययन ही नहीं किया गया। पानी को स्थानीय स्तर पर रोकना, नदियों को उथला होने से बचाना, बड़े बांध पर पाबंदी, नदियों के करीबी पहाड़ों पर खुदाई पर रोक और नदियों के प्राकृतिक मार्ग से छेड़छाड़ को रोकना कुछ ऐसे सामान्य प्रयोग हैं, जो कि बाढ़ सरीखी भीषण विभीषिका का मुंहतोड़ जवाब हो सकते हैं।