गुरुवार, 1 नवंबर 2012

भाषा के साथ आत्मगौरव का सवाल


भाषा के साथ हमारा आत्मगौरव जुड़ा होता है। वह हमारे स्वाभिमान का प्रतीक होती है। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अक्सर देखा जाता है कि जर्मनी, फ्रांस, स्पेन और इटली के नेता संवाददाता सम्मेलन में पत्रकारों द्वारा अंग्रेजी में सवाल पूछे जाने के बावजूद अपनी भाषा में जवाब देते हैं। अभी हाल का ही वाकया है एक अंतरराष्ट्रीय मंच पर जर्मन की चांसलर से किसी पत्रकार ने अंग्रेजी में सवाल पूछा तो उन्होंने उसका जवाब जर्मन में दिया। जर्मनी की तरह स्पेन, फ्रांस, इटली  जैसे गैर अंग्रेजी भाषी देशों के नेताओं में निज भाषा में जवाब देने की मानसिकता के पीछे कहीं न कहीं उनका राष्ट्रीयवादी अहं छिपा रहता है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह कि इस मानसिकता को बनाने में मीडिया की भी अहम भूमिका रही है। चौकाने वाला तथ्य यह कि जर्मनी में कोई भी पापुलर नियमित समाचार पत्र अंग्रेजी में प्रकाशित नहीं होता है। टीवी चैनलों की भी यही हाल है।  सरकारी चैनल डॉयचे वेले के अंग्रेजी चैनल देश के हवाई अड्डों और फाइव स्टार होटलों में आपको शायद देखने में मिल जाएंगें, पर जर्मन केबल पर ऐसी सेवा उपलब्ध नहीं है।
स्पेन में १५५ दैनिक अखबार निकलते हैं। लेकिन इनमें से अंग्रेजी का एक भी अखबार नहीं, जो आम लोगों के बीच पापुलर हो। अलपाइस, अलमुंडो और एबीसी जैसे स्पेनी भाषा में प्रकाशित होने वाले प्रमुख समाचार पत्र हैं।  इनके वर्चस्व को तोड़ना किसी भी मल्टीनेशनल मीडिया कंपनी के बस की बात नहीं है। जर्मनी में करीब ३७० प्रमुख समाचार पत्र प्रकाशित होते हैं, लेकिन इनमें से एक भी अखबार अंग्रेजी में नहीं है। फ्रैंकफर्ट आल्गेमाइने का अंग्रेजी पुलआउट कभी-कभार फ्रैंकफर्ट के पाठकों का नसीब हो जाता है, लेकिन दी वेल्ट, फ्रैंकफर्ट रूंडशाऊ, दी त्साइड, बिल्ड जैसे अखबारों का पुलआउट है लेकिन सभी जर्मन भाषा में प्रकाशित होते हैं। देयर स्पीलगेल जैसी मैगजीन अपने विशेष टारगेट ग्रुप को ध्यान में रखकर साल-दो-साल में कोई विशेषांक अंग्रेजी में अलग से निकाल देती है। लेकिन जर्मन भाषा की  प्रमुख पत्रिक स्टर्न और फोकस का अंग्रेजी विशेषांक शायद ही किसी ने देखा हो।
भारत में भाषाई मीडिया में काम करना भले ही ग्लैमरस नहीं माना जाता हो लेकिन जर्मनी, फ्रांस, इटली, स्पेन, पौलेंड, तुर्की में इसे गौरव का प्रतीक माना जाता है। भारत में इसके पीछे सरकारी नीतिगत कारणों, अंग्रेजीदां मानसिकता, सैलरी सहित कई कारणों को गिनाया जा सकता है। लेकिन सत्यता यह कि इन सब के पीछे निज भाषा में आत्महीनता महसूस करना ही प्रमुख कारण है। जर्मन, फ्रांसीसी या स्पेन भाषा में काम करने वाले पत्रकार अपने देश में काम करने वाले अंग्रेजी या अन्य भाषाई पत्रकारों के मुकाबले २५ फीसदी तक सैलरी अधिक पाते हैं। सरकार व मंत्रालयों में भी उसका रूतबा अन्यों से कहीं अधिक होता है। लेकिन भारत का भाषाई पत्रकार जिसकी अंग्रेजी में अच्छी पकड़ नहीं है सरकार के बडे़ महकमों की रिपोर्टिंग के बारे में सोच भी नहीं सकता है रूतबे की तो बात दूर। इन देशों में लाखों लोग बेरोजगार हैं लेकिन सरकार व सर्वेक्षण करने वाली संस्थाएं मानने को तैयार नहीं कि अंग्रेजी न जानने के कारण ऐसा हो रहा है। इन देशों के 90  प्रतिशत नागिरकों को इस बात का मलाल नहीं है कि वह अंग्रेजी के मामले में कोरे हैं। कुछ वर्ष पूर्व का मामला है फ्रांस के ल-पोहर नामक साप्ताहिक ने जब अपना अंग्रेजी संस्करण निकाला तो यह पूरे देश के लिए बड़ी खबर बन गया। यह पत्रिका फ्रांस के इटली शहर से प्रकाशित होती है, जहां 15 हजार ब्रिटिश मूल के नागरिक रहते हैं। फ्रांस के छह राष्ट्रीय टीवी चैनलों में से तीन फ्रांस-2, फ्रांस-3 और फ्रांस-5 सरकारी हैं। टीएफ-1 और एम-6 तथा मूवी चैनल कनाल प्राइवेट हैं, जिन पर विशुद्ध फ्रांसीसी भाषा के कार्यक्रम दिखाएं जाते हैं। फ्रांस में सर्वाधिक बिकने वाले अखबारों में  लमोंदे, ल फिगारो, लिबरेशन, परिसिअन, रेड्स, कुरियर इंटरनेशनल फ्रांसीसी भाषा के अखबार हैं। बिजनेस अखबारों में ल ट्रिब्यून, लेस इकोस और इंवेस्टिर का नाम शामिल हैं। 
यूरोप में देशी मीडिया इंडस्ट्री को देखकर चौकना लाजमी है कि दुनिया अंग्रेजी के सहारे नहीं चल रही है। इन देशों में बाजार में जो ब्रांडेड सामान मौजूद है उन पर भी देशी भाषा का जोर चलता है। सामान के रैपरों और पैकेजिंग पर शायद ही आपको अंग्रेजी भाषा देखने को मिले। इटली, पोलैंड, पुर्तगाल से लेकर तुर्की तक वहां का लोगों का भाषाई पत्रकारिता को जबरदस्त समर्थन है। यह उनके लिए गौरव व प्रतिष्ठा का विषय है। लेकिन जब हम इस मामले मे अपने देश की ओर नजर दौड़ाते हैं सबुछ उल्टा नजर आता है। अपनी भाषा बोलना आत्मग्लानि का विषय हो सकता है। 
भारत में अंग्रेजी को ही सब कुछ मान लिया गया है। इसे सरकार से लेकर स्कूलों तक रोजगार देने वाली भाषा के रूप में प्रचारित किया जा रहा। सार्वजनिक रूप से यदि आप अपनी भाषा को टूटी- फूटी बोलते हैं और अंग्रेजी को फर्राटेदार तो इसे आपके व्यक्तित्व की महानता के रूप में स्वीकार किया जाएगा। इन सबके पीछे बच्चों के अभिभावक से लेकर देश नीति निर्माताओं तक सभी जिम्मेदार है। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है सिविल सर्विसेज में अंग्रेजी का अनिवार्य कर देना। इस मानसिकता में सुधार लाने की जरूरत है, जिसके लिए नीति निर्माताओं, मीडिया, समाज सभी को मिलकर प्रयास करने होंगे।

                                                                 आशीष कुमार
                                                                 पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग
                                                                 देवसंस्कृति विश्वविद्यालय, शांतिकुंज, हरिद्वार(यूके)

बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

जिंदगी की कहानी


जिंदगी की कहानी
आसमान में उड़ते
पक्षी की तरह है!
पक्षी का पीछा करें,
तब भी आसमान में
पैरों के निशां नहीं मिलते,
पक्षी उड़ जाता है,
पीछे आकाश खाली रह जाता है,
जिंदगी में भी कहीं
कोई चिन्ह नहीं छुड़ते,
सब कुछ विस्मृत हो जाता है,
रह जाती हैं तो केवल यादें
जिंदगी तो
प्रमाण मांगती है
आज का!

आशीष कुमार 
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग 
देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार 

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

हर सरफरोश .........


हर सरफरोश दुनिया में
अपना नाम अमर करना
चाहता है,
और इसलिए हम
खुद से पूछते हैं कि
क्या हमारे कारनामे
सदियों तक कहे जाएंगे?
क्या यह दुनिया
हमारे जाने के बाद
हमारा नाम याद रखेगी?
पूछा जाएगा कि
कौन थे हम?
और किस जूनुन तक
अपने जज्बातों से
मोहब्बत करते थे,
अपने उद्देश्यों के लिए
कैसी कशिश थी!
जब वो
मेरी कहानियां सुनाएंगे
तो कहेंगे,
उसने कितने महान कारनामे किए,
मौसम की तरह
लोग आते जाते रहेंगे,
लेकिन यह नाम
कभी नहीं मरेगा!
वो कहेंगे
मैं उस जमाने में रहा
वो यह भी कहेंगे कि
वह महान युग था!

आशीष कुमार
प्रवक्ता 
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग 
देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार

रविवार, 2 सितंबर 2012

मीडिया में लाभ कमाने की ऐनकेन प्रकारेण तकनीक

मीडिया मे ऐनकेन प्रकारेण लाभ कमाने की तकनीक, विशेषकर इलैक्ट्रोनिक मीडिया में। संपादकों को ही चैनल का बिजनेस हेड भी बना दीजिए। संपादक को दो जिम्मेदारियां दीजिए, संपादन और अधिक से अधिक से लाभ कमाकर देना। अधिकांश राष्ट्रीय चैनलों में यही हो रहा है। आप तो जानते  ही हैं लाभ का रास्ता समझौतों से होकर गुजरता है, तो ऐसे में संपादक किन चीजों के साथ समझौता करेगा यह सब भी आसानी से समझा जा सकता हैं यानि समाचारों की निष्पक्षता के साथ। कहां तक बचेगा बेचारा। मालिक को अधिक से अधिक लाभ कमाकर जो देना है।

आशीष कुमार
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग
देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार
09411400108

शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

कोयले का सियासी हंगामा और पत्रकारिता का चरित्र

कोयले का सियासी हंगामा
कोयला ब्लॉक आबंटन में हुई अनियमिताओं को लेकर पेश की गई कैग की रिपोर्ट के बाद  सियासी गलियारों में तूफान आया हुआ है। पक्ष व विपक्ष इस घमासान के बीच 2014 के आम चुनावों को ध्यान में रखकर एक दूसरे पर आक्रमण करने में लगे हुए हैं। आरोपी नेतृत्व की अध्यक्षा भी जबरदस्त आक्रमकता के साथ काउंटर अटैक कर रही हैं। अपने पार्टी के लोगों से आक्रमकता के साथ मोर्चा संभालने का आह्वान कर रही हैं। विपक्ष को लोकतंत्र और संसद की गरिमा का भान कराया जा रहा है। संसद गतिरोध के लिए उसे कठघरे में खड़ा किया जा रहा है। वहीं, बीजेपी जैसे-तैसे मिले मुद्दे को पूरी तरह भूनाना चाहती है। सब औपचारिक नियम कायदों को ताक पर रखकर  2014 पर टकटकी लगाए कोई कसर नही छोड़ना नहीं चाहाते हैं।
लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि इन सबके बीच पत्रकारिता का राजनैतिक चरित्र भी स्पष्ट हो रहा है। पता चल रहा है किस अखबार का किस पार्टी की ओर झुकाव है। कौन अखबार का मालिक व संपादक किस पार्टी के फेवर में कैंपेनिंग कर रहे हैं। निष्पक्षता व पत्रकारिता के उसूलों की बारीक लाइन को किस प्रकार लांघा जा रहा है।
 आप अलग-अलग राष्ट्रीय मीडियां ग्रुपों के चार अखबार रख लीजिए और स्वस्थ समीक्षा कीजिए। दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। कोई आंख मूदकर आरोपियों के पाले में खड़ा नजर आएगा तो कोई विपक्ष के साथ कंधा मिलाए। कई समाचार माध्यम खुले तौर पर कैग की रिपोर्ट का समर्थन कर रहे है। वहीं,  कुछ माध्यम स्वयं घोषित विशेषज्ञ बन कैग की रिपोर्ट की जबरन कमियां निकाल रहे हैं। कोई भ्रष्टाचार के मुद्दे को गौण बना संसद संचालन के गतिरोध में किसी पार्टी को विलेन बनाने में लगा हुआ है। वहीं, दूसरा मीडिया समूह पक्षपाती मानसिकता से सने नजर आने वाले समूहों से टीवी पर खुली चर्चा करा रहा है। राष्ट्रीय हित को ताक पर पार्टियों की सत्ता की लिए खुली जंग में खुली हिस्सेदारी की जा रही है। बड़ी-ब़ड़ी बातें कर विद्वता झाड़ी जा रही है। लेकिन इन सबके बीज हैरान, परेशान, भ्रमित व चकराया हुआ नजर आ रहा है तो वह है पाठक, दर्शक व श्रोता।

हां, कुछ एक-दो राष्ट्रीय अखबार अपनी भूमिका निष्पक्ष तरीके से निभा रहे हैं। वे सभी इस साख संकट के दौर में प्रशंसा के पात्र हैं।

आशीष कुमार
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग
देवसंस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार
फोन – +919411400108

बुधवार, 29 अगस्त 2012

रेडियो जॉकियों द्वारा भाषा का चीरहरण

एफएम  का जाल, भाषायी बलात्कार
रेडियों जॉकियों ने हिंदी भाषा का कैसे दम निकाला है,, अश्लीललता का कैसा लेप चढाया जा रहा है। जरा देखिए - एक शो में उदघोषक साहब यानी जॉकी जनाब कुछ महिलाओं और बच्चों की प्रशंसा करते हुए कह रहे थे 'देखो इन्होंने अपराधियों की कैसे कह कर ली.' इन शब्दों के साथ वह उनकी पीठ थपथपा रहे है। दूसरा वाकया - एक सोनिया भाभी अपने श्रोताओं को ना जाने क्या क्या बांटती रहती है। तीसरा वाकया- सोच कभी भी आ सकती है। चौथा वाकया - कुछ किया तो डंडा हो जाएगा। पांचवा वाकया - एक लव गुरु रात में युवाओं का न जाने क्या क्या नुस्खे सिखाते रहते हैं। छठा वाकया - 'सोनिया भाभी की नीली है या लाल। नहीं नीली है मैने सुखाते वक्त देखा था।' इन रेडियों जॉकी में महिला उदघोषक भी शामिल रहती हैं, और कभी-कभी तो द्विअर्थी संवाद में दो कदम आगे। यदि आपके साथ परिवार का कोई मेंबर हैं और आपने गाडी में कोई एफएम चैनल टूयून कर लिया. जैसे ही आप इन रेडियो जॉकियों की अश्लील बकवास सुनेगें तो नैतिकता के नाते चैनल ही बदलना पडेगा। इनका कोई ऑफ कडक्ट नहीं है। शायद नियामक संस्थाएं भी चाय की चुस्की और पापडों के साथ इन संवादों के कुरकुरेपन का मजा ले रहे हैं।

आशीष कुमार
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग
देव संस्कति विश्वविद्यालय, हरिद्वार