शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

अज्ञात रिश्ता



वहां एक विशाल किला था
उसकी चारदीवारी लाल रंगी थीं
किले के दरवाजे
अंदर की ओर खुलते थे   
दरवाजे के बायीं ओर थे
कीचड़ से भरे दो तालाब
जिसमें कमल खिले हुए थे    
कुछ पथ्थर बिखरे हुए
कुछ कदम चलने पर
नीचे की ओर ढलान पर 
साफ पानी से भरा हुआ
एक बड़ा सा था तालाब
जिसके बीच था एक टापू
जहां बना था एक मंदिर
लोग उधर जा रहे थे
मैं और मेरा साथी
साथी मेरा अपरिचित
चेहरा अस्पष्ट व धुंधला
वह सफेद रंग की नाव लाया
आकार में बेहद छोटी
सवाल मन में आया
दो सवार कैसे जाएं
अगले ही कुछ पल बाद
नाव में सवार होकर  
हम मंदिर में थे
मंदिर में आरती हो रही थी   
हमने आरती की
अगले ही पल
हम दूसरी नाव में थे
नाव आकार में बड़ी थी
अगला हिस्सा निकला हुआ
सवार होकर आगे बढे
धाराओं पर तेजी से बढते हुए
महल के अंदर जा पहुंचे
महल सजा हुआ था
उसकी सुंदरता अद्वितीय थी
महल को घुमकर देखने लगे
वहां समारोह चल रहा था
काफी लोग इकट्ठे थे
राजा स्वागत कर रहा था
वह इधर-उधर घुम रहा था
उसके वस्त्र राजसी थे
गले में मोतियों की माला
पैरों में चमकती जूतियां
चाल में गर्वित उत्साह
होठों पर मुस्कराहट
लेकिन चेहरा कांतिहीन
अधेड़ उम्र, कुछ झुर्रियां
एक महिला आई
वह मेरी अपरिचित थी
उम्र राजा के सामान
अधेड़, बाल पके हुए
चेहरे पर लालिमा
आत्मविश्वास व चमक
हाथ पकड़कर वह मुझे 
राजा के पास ले गई
मैं थोड़ा हतप्रभ था
लेकिन पूर्णतय निडर
मेरा परिचय कराया
अपना रिश्तेदार बताया
खुद को राजा की बहन
मैं आश्यचर्यचकित था
गहराई से सोच रहा था
लेकिन कुछ याद आया
जैसे अनुभव किया हो
बड़ा अस्पष्ट व धुंधला सा
राजा से कोई संबंध था
लेकिन, क्या संबंध था?
उसके साथ क्या रिश्ता था?
रिश्ता महसूस हो रहा था
लेकिन बेहद अस्पष्ट
रिश्ते को शब्दों में
बयां करने की कोशिश की
लेकिन असफलात मिली
अनुभव अभिव्यक्ति से परे था
राजा रिश्ते को जानता है
लेकिन वह बता नहीं रहा
वह मेरे आने से खुश है
खुशी से चेहरा खिला हुआ
जैसे लंबे अर्से बाद मिले हों
वह मुझसे बाते करने लगा
बाते करने को उत्साहित
हालचाल जानने को लालायित
मेरे लिए मेहमानों से बेफ्रिक
राजा एक चौकी पर बैठ गया
मुझे अपने नजदीक बुलाकर
मखमली आसन पर बिठा लिया
मुझे छु-छुकर सवाल किए
मैंने सहजता से जवाब दिए
मुझे राजा के प्रश्न
और अपने जवाब याद नहीं
केवल अंतिम को छोड़कर
उसने पूछा तुम मुझे
महल से बाहर घुमाने ले जाओगे
वैसे वह घुमने जाता रहता था
लेकिन मेरे साथ जाना चाहता था
मैंने खुश होकर जवाब दिया
क्यों नहीं,
मैं अपना वाहन लेकर आऊंगा
मेरे साथ चलना
उसने उत्साह के साथ
हामी भर दी
उसकी खुशी को
आंखों में देखा जा सकता था    
वह किले के अंदर बने
सुंदर घास के मैदान में
मुझे घुमाने ले गया
घुमते हुए उसकी बातें जारी थीं
तभी मेरी उम्र की
एक युवा लड़की वहां आई
मैंने उसके चेहरे की तरफ देखा
उसके बाल खुले हुए थे
वह सुंदरता की प्रतिमा थी
बातों में उत्साह था
भाव भंगिमाओं में चपलता थी
उसने राजा को रोककर
अपनी बात कही
उसमें रौब और अधिकार था
मुझे दोबारा कुछ अनुभव हुआ
पूरी तरह स्पष्ट नहीं
शायद,
वह लड़की रिश्ते में मेरी बहन थी
दोनों मैं किसी मुद्दे को लेकर
बहस होने लगी
मैं दूर होता जा रहा था
उनकी आवाजें धीमें होती जा रहीं थीं
मेरी चाल धीमे थी
मन में विचारों का प्रवाह तेज
क्या मैं जान चुका हूं?
रिश्ते की पहेली को सुलझा चुका हूं
तो फिर वह राजा कौन था?
मैं राजा को नहीं पहचानता था
मैं उससे पहली बार मिला था
वह मुझझे मिलकर क्यों खुश था?
विचारों की थकान ने
मेरे कंधे झुका दिए थे
क्या मैं राजा को घुमा पाऊंगा?
मेरी थकान के साथ
मेरा उत्साह कम हो रहा था
अब मेरी आंखे खुल चुकी थीं
पलकों के पर्दे से सब गायब
यह क्या था ?
सब सवाल गायब थे
अब बस यथार्थ बाकी था
साथ ही भ्रम की स्मृति  

-    आशीष कुमार
  
 






सोमवार, 30 सितंबर 2013

अनंत क्षितिज

ANANT KSHITIJ
केले के सुखे पत्तों से मधुर संगीत निकल रहा था
जैसा आप चाहते हो वे उन्हीं धुन और शब्दों के साथ
हाथ लगाते ही बज उठते थे
कला और रचनात्मकता का एक नया रूप था
मन में विचार आया यह तो नई और अभिनव विधा है
उस मनोहरम स्थान के एक कोने पर
सुखे हुए तने के साथ वृक्ष खडा हुआ था
उसकी जडों और तनों के सहारे ही उस
कला और रचनात्मकता की धनी जगह
से बहार निकला जा सकता था
उस से परे हरी घास से भरा एक मैदान था
जो क्षितिज में दूर अनन्त तक फैला हुआ था
छत कंटीले तरों से घिरी हुई थी
वहां देशों का विभाजन था,
जमीनों का बंटबारा था
हर समय पहरा था
वहां की जिम्मेदारी संभाले व्यक्ति ने चुनौती दी
आप कभी यहां के कला और संगीत की
मनोरमता को पार करके बाहर नहीं जा सकते हो
मन ही मन संकल्प उठा
सुखे पत्तों से निकलते संगीत और कला से
मन उबने लगा
बाहर निकलने के रास्ते तलाशने लगा
एक दिन मौका देखकर सुखे तने पर चढकर
उसकी जटाओं के सहारे घास के मैदान में उतरकर
संकल्प के साथ भाग निकले
पहरेदारी में तैनात व्यक्ति ने
आवाज देकर रोकने की कोशिश की
कानों में आवाज आते ही
और तेजी से कदमों को चलाया
कला और संगीत के पास दोबारा नहीं जाना था
उस आभासी मनोरमता से निकलकर
मन कुछ और देखना चाहता था
दौडते-दौडते  मन में विचार आया 
वह पहरेदार मेरा पीछा क्यों नहीं कर रहा है
ऐसा लगा मानो वह निश्चित है कि
 मैं कितना भी दोडूं वहां से बाहर
नहीं निकल सकता हूं
थोडी देर दौडने के बाद
घास के मैदान का अंत दिखाई दिया
वह उंची दीवारों से घिरा हुआ था
लेकिन उसके बीच
बहुत ऊंचा लकडी का दरवाजा लगा हुआ था
जो दूसरी और से लोहे की सांकलों से बंद था
पहरेदार क्यों निश्चिंत था
 अब पता चला
साथ ही पता चला
घास का क्षितिज अनन्त नहीं है,
यह केवल आभासी था
मन में घबराहट हुई
साथ ही संकल्प और मजबूत हुआ
जब भागे हैं तो पार करके की रहेंगे
लकडी के दवराजों के ऊंचे-ऊंचे  दो पल्लों को
संकल्प की दृढता के साथ
तेजी से बाहर-भीतर खिंचना शुरू किया
लेकिन यह क्या बिना अधिक प्रयास के
वह लकडी का दरवाजा खुल गया
दरवाजा खुलते ही मन में
प्रसन्नता की लहर दौड गई
साथ ही विचार आया
पहरेदार की निश्चिंतता गलत थी
इन्हीं विचारों के साथ जैसे ही
खुशी के साथ सिर ऊपर उठाया
देखा वहां प्रकाश ही प्रकाश है
लेकिन पहले की तरह वहां भी एक दीवार थी
उसी आकार का लकडी का दरवाजा लगा हुआ था
फिर घबराहट हुई
फिर विचार आया शायद पहरेदार ही सही था
लेकिन प्रयास पूर्ण ईमानदारी के साथ जारी थे
लेकिन इधर-उधर देखने पर
पता चला यह तो दीवार को छोटा सा टुकडा है
जिसके दोनों किनारे पूरी तरह से खुले हुए है
तेजी से दौडकर किनारे पर पहुंच गए
किनारे से झांककर देखा
आगे मुक्ति का क्षितिज था
आत्मा खुशी से भर उठी
आज द्वैतता का अंत हुआ
एक बार फिर विचार आया
मैं सही था,
मेरे संकल्प सही थे
मेरी धारणा ठीक थी,
मेरे प्रयास ठीक थे
मेरा मार्ग ठीक था
क्योंकि आज सत्य मेरे सामने था
सबकुछ साफ दिखाई दे रहा था  
सामने अब कोई बाधा नहीं थी
मैं अपने लक्ष्य पर खडा था
लेकिन वह पहरेदार गलत साबित हुआ
मैं उसकी आभासी बेडियों से मुक्त हो चुका था
उसकी निश्चिंतता गलत साबित हुई
इन्हीं विचारों के साथ
 मैं मुक्ति क्षितिज को जीने लगा
वहां सुख का अनंत था
सुबह जैसी ताजगी थी
वर्फ को छुकर बहती हवा जैसी शीतलता थी
भोर मे छाई स्वर्णिम कांति थी 
ज्ञान का अथाह सगार था
मेरे हाथों में ढेरों उपहार थे
अब मैं अपने गांव पहुंच चुका था

 - आशीष कुमार