सोशल मीडिया को लेकर
समाज में जबरदस्त ‘क्रेज’ है। खासकर युवा वर्ग इस माध्यम का बड़े स्वाभाविक ढंग से
इस्तेमाल कर रहा है। मल्टीमीडिया मोबाइल चलन ने तो ‘सोशल मीडिया क्रांति’ को पंख ही लगा दिए हैं। शहर
हो या गांव, यात्रा के दौरान या काम के बीच में, इसके छाए खुमार को आसानी से समझा
जा सकता है। सोशल मीडिया ने समाज की व्यवस्थाओं को ज्यादा लोकतांत्रिक बनाया है।
यह आम लोगों को आवाज दे रहा है और संवाद में उनकी भागीदारी को सुनिश्चित कर रहा
है। यह नया माध्यम तमाम संभावनाओं से भरा हुआ, लेकिन इसके स्याह पहलू भी कम नहीं
है।
सोशल मीडिया के रोल
को लेकर अक्सर चर्चा होती रहती है। दंगे भड़काने में भी सोशल मीडिया की भूमिका को
लेकर सवाल खड़े होते रहे हैं। मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश के सांप्रदायिक दंगे के लिए
भी इसी माध्यम को जिम्मेदार ठहराया गया। फेसबुक पर अपलोड किए गए एक फर्जी विडियो
ने दंगे को भड़काया। अलोचना करने वालों का कहना है कि सोशल मीडिया का सही इस्तेमाल
किया जाए तो यह देवताओं के होठों पर श्लोकों के समान है, लेकिन यदि इसका गलत
इस्तेमाल होता है तो यह बंदर के हाथ में माचिस होने की भूमिका अदा करता है, जो समाजों
की दुनिया में आग लगा सकता है।
इन सब बातों के
मद्देनजर, समय-समय पर कुछ ऐसे भी सुझाव आए हैं, जिसमें संवेदशील समय में खास अवधि
के लिए इन माध्यमों पर निगरानी या पाबंदी की मांग उठती रही है। सोशल मीडिया के प्रयोगकर्ताओं
ने भी स्वयं तथ्यहीन और भड़काऊ सामग्री डालकर इस प्रकार की मांगों को वैधता दी है।
इस माध्यम मे सूचनओं के ‘फिल्टरेशन व सलेक्शन’ के लिए ‘गेटकीपर’ या संपादक जैसी कोई संस्था नहीं है। ‘लोकतांत्रिकता की अति’ कहकर भी इस माध्यम की अलोचना
की जाती है। यहां आमतौर पर एक व्यक्ति की आजादी दूसरे की आजादी और अधिकारों का हनन
करने लग जाती है। सोशल मीडिया पर संवादों का कफीला है। यहां सूचनाओं का विस्फोट
है, लेकिन हकीकत यह है कि सूचनाएं समझ नहीं बढ़ाती हैं। मुख्य धारा के मुकाबले
सोशल मीडिया को ज्यादा गैर जिम्मेदार बताया जाता है। इस माध्यम में अनुशासन नहीं
है।
मीडिया विद्वान नोम
चामस्की ने न्यू मीडिया को ‘सुपरफिशियल’ माध्यम कहा है। हालांकि, वह खुद ट्वीटर आदि पर विभिन्न
गंभीर विषयों से संबंधित नियमित ‘कमेंट’ डालते रहते हैं। विकीलिक्स के माध्यम से दुनियाभर में तहलका
मचाने वाले जुलियन अंसाजे ने तो सोशल मीडिया
को आने वाली सभ्यताओं के लिए एक खतरनाक माध्यम बताया है। वह समाज को सोशल मीडिया
के ‘कंपलशन’ से बचे रहने के लिए आगाह कर रहे हैं। मार्शल मैक्लुहान ने कार को ‘यांत्रिक दुल्हन’ रेडियो को ‘जनजातिय ढोल’, फोटो का ‘बिना दीवारों का वेश्यालय’ और टीवी को ‘इडियट बॉक्स’ व ‘डरपोक राक्षस’ कहा था। यदि माध्यमों को
परिभाषित करने की उनकी शैली को आगे बढ़ाया जाए तो सोशल मीडिया जैसे नवीन माध्यम को
‘शरारती बच्चा’ कहना ठीक रहेगा। यह सही भी है, सोशल मीडिया नियंत्रण रहित,
अगंभीर व अनुशासनहीन माध्यम है।
वहीं, इसके समर्थकों का
कहना है कि यदि खरबूजा चाकू पर गिरता है तो चाकू को दोष नहीं दिया जा सकता है।
सोशल मीडिया प्रयोगकर्ता की गलती के लिए माध्यम को दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए। यह
सही है कि कई बार फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉग पर अफवाह व अश्लीलता देखने को मिल जाती
है। मुख्यधारा मीडिया
में जिस प्रकार के कंटेट होते हैं, कई बार वह भी अश्लील, भड़काऊ व तथ्यों से परे
होते हैं। क्या इसको आधार बनाकर टीवी, अखबारों पर पाबंदी लगाई जा सकती है? सोशल मीडिया तो इनसे कहीं
नया है। इस माध्यम की अभी शुरूआत है, धीरे-धीरे गंभीरता आएगी। जब मुख्यधारा मीडिया
का राजनीतिकरण व व्यावसायीकरण हो गया हो। ‘क्रॉस पार्टनरशिप’ मीडिया संस्थानों के लिए
सामान्य बात हो गई हो, ऐसे में सोशल मीडिया की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है।
सोशल मीडिया ‘फ्री फ्लो मीडियम’ है। इसका प्रयोग करने वाला
प्रत्येक व्यक्ति ‘प्रोड्युसर’ भी है और ‘कंज्युमर’ भी। मुख्यधारा मीडिया और
सोशल मीडिया में अंतरनिर्भरता भी देखने को मिलती है। किसी घटना से संबंधित कोई खबर
मुख्यधारा मीडिया में आती है तो सोशल मीडिया में उसके प्रभाव को देखा जा सकता है।
वहीं, यदि सोशल मीडिया में कोई ‘ट्रेंड’ चल है तो उसके प्रभाव को समाचार चैनलों में देखा जा सकता
है। राजनेताओं या अभिनेताओं द्वारा फेसबुक, ट्विटर या ब्लॉग पर डाला गए भी पोस्ट
भी कभी-कभी मुख्यधारा मीडिया के लिए बड़ी खबर बन जाते हैं।
चुनावों के दौरान भी
सोशल मीडिया का मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए रणनीतिक इस्तेमाल होने लगा है।
आम लोगों तक इसकी पहुंच और प्रभाव को देखते हुए, तमाम राजनीतिक पर्टियां और नेता करोड़
रुपये खर्च कर, इऩ्हीं माध्यमों के जरिए अपने आप को चमका रहे हैं। भारत का लोकसभा चुनाव-2014
तमाम राजनीतिक पार्टियों द्वारा सोशल मीडिया के जरिए भी लड़ा गया। विशेषज्ञों के
मुताबिक इस चुनाव में सोशल मीडिया ने करीब 150 लोकसभा सीटों को खासकर प्रभावित
किया।
टेलिकॉम रेगुलेटरी
ऑथरिटी ऑफ इंडिया की रिपोर्ट-2013 के मुताबिक इंरनेट उपभोक्ताओं की संख्या के
मामले में भारत दुनिया का तीसरे नंबर का देश है। इस मामले में चीन और अमेरिका ही
भारत से आगे हैं। संभावना है कि 2014 के अंत तक भारत इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या
के मामले में अमेरिका को पछाड़कर दूसरे नंबर पहुंच जाएगा। आंकड़ों के मुताबिक मार्च
2013 तक भारत में इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या 164.81 मिलियन थी, जिसमें करीब 30 फीसदी
की दर से सालाना वृद्धि हो रही है। इन उपभोक्ताओं में 8 में से 7 लोग इंटरनेट का
इस्तेमाल मोबाइल पर कर रहे हैं। आंकड़ों के मुताबिक चौकाने वाली बात यह कि शहर और
गांव में मोबाइल पर इंटरनेट इस्तेमाल कर रहे लोगों की संख्या करीब बराबर है।
इंटरनेट उपभोक्ताओं में अधिकांश लोग सोशल मीडिया का भी इस्तेमाल कर रहे हैं।
सोशल मीडिया पर
फर्जी खाते और ‘अनोनीमस’ सुरक्षा के लिए चुनौती हैं। प्रदेशों
की सरकारें भी पुलिस विभाग में सोशल मीडिया सेल की स्थापना कर रही हैं, जिनका काम
सोशल मीडिया पर जारी गतिविधियों की जांच-पड़ताल करना है। सरकार ने साइबर क्राइम को
रोकने के लिए वर्ष 2000 सूचना प्रौद्योगिकी कानून बनाया, सोशल मीडिया भी इस कानून
के अधीन आता है। इस कानून तहत वर्ष 2013 के अंत तक महज 7 मामलों में सजा हुई है।
लेकिन, कई बार इस कानून के राजनीतिक दुरूपयोग
के मामले भी सामने आए हैं। कंवल भारती और अंबकेश महापात्रा ऐसे ही चर्चित
उदाहरण है। कंवल भारती पर सोशल मीडिया के जरिए सरकार के खिलाफ आवाज उठाने पर
कार्रवाई की गई और पश्चिम बंगाल के एक विश्वविद्यालय में प्रोफेसर अंबकेश
महापात्रा को सरकार के खिलाफ एक कार्टून को सोशल मीडिया पर पोस्ट करने के लिए
गिरफ्तार किया गया। आए दिन ऐसा कोई न कोई मामला प्रकाश में आता रहता है, जिसे
अभिव्यक्ति की आजादी के खिलाफ ही माना जाएगा।
सोशल मीडिया की उपयोगिता
को लेकर विशेषज्ञों में भी अंतर्विरोध हैं। सही यही होगा कि सोशल का इस्तेमाल
सामाजिक जिम्मेदारियों के लिए इसका इस्तेमाल किया जाए। तमाम खतरों व आशंकाओं के
बावजूद इसकी उपयोगिता और फायदों को नकारा नहीं जा सकता है।
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