सोमवार, 1 मई 2017

ASHISH KUMAR

-:समर्पण:-
प्रेम कब प्रतिभा के पंखों को उगा देता है
पता ही नहीं चलता।
यह कृति
समर्पित है करुणा की मूर्ति
मेरी दादी स्व. श्रीमती गुलाब कौर के चरणों में
जिनका स्नेह
इस सृजन की शक्ति बना।

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MEDIA CHARITRA- ASHISH KUMAR, मीडिया चरित्र - आशीष कुमार



मीडिया चरित्र




अध्याय  सूची
1.       कारोबारी ढांचा और पेंच में पत्रकारिता
2.       सत्ता के गलियारों में भटकती पत्रकारिता
3.       चुनावी चौपड़ में मोहरा बना मीडिया
4.       देसी मीडिया की चौपड़ में विदेशी मोहरे
5.       पेड न्यूज: गंदा है पर धंधा है
6.       मीडिया की डुगडुगी और बाबाओं का बाजार
7.       मीडिया और युद्ध का बाजार
8.       मीडिया ट्रायल: खुद ही मुद्दई, खुद ही मुंसिफ
9.       किसानों के सरोकार और मीडिया बाजार
10.   तेरे बाजार में लगती शिक्षा की बोली
11.   सास-बहू, सनी लियोनीऔर मीडिया
12.   मीडिया में दलित: अब बात हाशिये की
13.   वो क्यों गायब है
14.   हिंदी पत्रकार मीडिया के महादलित
15.   संस्कृति-साहित्य से तौबा!
16.   तकनीकी तामझाम में झोलाछाप पत्रकारिता
17.   पैसे की दुनिया में पर्यावरण की बात!
18.   सोशल मीडिया कितना सोशल


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मीडिया चरित्र media charitra - Ashish kumar

मीडिया चरित्र - लेखक आशीष कुमार 
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मीडिया चरित्र 
प्रस्तुत पुस्तक पहला सवाल उस व्यवस्था पर उठाती है, जिसमें पत्रकारिता सांस लेती है, आकार लेती है, काम करती है। एक बार देश के एक जाने माने पत्रकार ने सवाल उठाया था कि आधुनिक मीडिया बाजार की पैदावार है और ऐसे में वह कैसे कोई भी ऐसी हरकतकर सकता है जो बाजार के लाभ के खिलाफ जाती हो। पर सवाल है उस ठेले वाले का जो पूरे दिन की मेहनत के बाद अपने आपको अखबार में कहीं खोज नहीं पाता। सवाल है उनका जिनकी चीख चैनलों की चीखपुकार के बीच  घुट कर रह जाती है। सवाल उस किसान का जिसकी आत्महत्या की खबरें भी राजनीतिक समाचारों की रेलमपेल में कहीं दब जाती हैं। सवाल है उस जज्बे का जिसे लेकर कमोबेश हर मीडियाकर्मी इस मिशन-प्रोफेशन में आया था। यही वो पैमाने हैं जिनसे मीडिया का मौजूदा सच तौला जा सकता है, जिसमें मीडिया चरित्र को आंका जा सकता है। उसके चरित्र पर लगे दागों को संवेदना के पानी से पोछा जा सकता है।
पुस्तक का दूसरा अध्याय सत्ता के गलियारों में भटकती पत्रकारिताउस अहम कारण की तलाश करता नजर आता है जिसके कारण मीडिया का दामन दागदार हो गया। पत्रकारिता के खिलाफ बरसों से एक इल्जाम चस्पा है, वह राजनीति के पीछे अतिमुग्ध है। क्यों नहीं सामाजिक मसलों को अखबारों में जगह मिल पाती। वास्तव में इसके पीछे एक अजीब सा ऐतिहासिक कारण है। आजादी से पहले इस देश में क्रांति का बिगुल बजाने वाले अधिकांश योद्धा कलम के सिपाही भी थे। ऐसे में पत्रकारिता से राजनीति का साथ चोली दामन का हो गया। आजादी के बाद राजनीति इतनी तेजी से बदली कि वह सामाजिक सरोकार खो बैठी पर पत्रकारिता अब भी उसी राजनीति को अपना अकेला खुदा मानती आयी। आज के बिगड़े हालात की वजह शायद यही है।
तीसरा अध्याय चुनावी चैपड़ में मोहरा बना मीडिया इस चर्चा में नये आयाम जोड़ता है। यह साफ करता है कि कैसे लोकतंत्र का महापर्व भ्रष्टाचार की गंगोत्री में तबदील हो जाता है। कैसे थैलीशाह चुनाव को नियंत्रित करते हैं और मीडिया इसका पर्दाफाश करने करने की बजाय खुद पार्टी में तबदील हो जाता है। राजनेताओं के आरोपों प्रत्यारोपों की डेली डायरी भरते-भरते चुनावी पत्रकारिता पूरी हो जाती है और जनता के हाथ ढाक के तीन पात भी नहीं लग पाते हैं।
अगला अध्याय उस आयातित खतरे के बारे में आगाह करता है जिसे विदेशी समाचार एजेंसियां कहा जाता है। सवाल उठना लाजिमी है कि अभी तक तो हम अपने विकास के लिए विदेशी निवेश का मुंह देख रहे थे। पर विदेशी समाचार एजेंसियां तो समाचार की बात करती हैं, जिनसे विचार गढ़े जाते हैं। बात विकाससे विचारपर कहां आ गयी। मीडिया आर्थिक विकास का मुद्दा है या विचार का। इस देश के चिंतक दुनिया बदलने की बात अपने विचारों के जरिए करते आए हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी विदेशी रणनीति कक्ष में कहीं कुछ ऐसा घट रहा है जो हमारे ही विचार बदल देने की साजिश रच रहा हो और मीडिया उसका मोहरा बन रहा हो।
पत्रकारिता के चरित्र में यह फॉरेन बॉडी उर्फ वायरस विदेश से ही आये हों ऐसा नहीं। महान स्थानीय साहसके साथ पेड न्यूज का धंधा भी पूरी तरह परवान पर है। पांचवें अध्याय पेड न्यूज: गंदा है पर धंधा है में इस बात को उभारा गया है कि कथ्य को तमाम तरह का मायावी आवरण उढ़ाया जा रहा है कि पाठक जान ही न पाए कि वह अखबार में खबर पढ़ रहा है या खबर की कबर यानी खालिस उर्दू में कब्र। बेचने वाले सिर्फ व्यवसायी हों ऐसा भी नहीं, धर्म की दुकान लगाए कथित बाबाजी भी इस दौड़ में शामिल हैं। विचार के विस्तार के लिए माध्यम का प्रयोग करने पर आपत्ति नहीं की जा सकती, लेकिन माध्यम यानी मीडिया के जरिए धर्म के बजाय स्वयं को ही महिमा मंडित करने की जुगत लड़ाना नितांत दूसरी ही बात है। छठे अध्याय ने इस समस्या को संवेदना के साथ देखा है। 
दुनिया को जब बाजार मान लिया जाता है, तो तमाम लोग सब कुछ बेचने में जुट जाते हैं, रिश्तों से लेकर राष्टप्रेम तक। अगला अध्याय बताता है कि ऐसे में युद्ध भी नहीं बचता। इस देश की संस्कृति रही है कि इसने युद्ध को हमेशा अंतिम विकल्प माना है। शांति के लिए कृष्ण ने पांच गांव की कीमत को सही ठहराया और जब युद्ध लड़ा तो धर्म-संस्कृति की रक्षा के लिए, लेकिन आज तो युद्ध इसलिए लड़ाए जा रहे हैं कि सैम साहिब के टैंक बिक जाएं। मीडिया भी जाने अनजाने हथियारों  की एक मंडी की तरह काम करने लगता है। जहाजों से बम फूल की तरह बरसते दिखाए जाते हैं। यह नहीं दिखाया जाता कि इस विध्वंसक हथियार ने कितने दुश्मन मारे और कितने मासूम सपने।
पर इस दुनिया में अपना दामन देखने की फिक्र किसको है। हर पल दौड़ते भागते मीडिया के लिए तो निहायत वाहियादसा काम है। अपने दामन पर नजर डालने की बजाए मीडिया कठघरे लगाता है। घटना के घटते ही खबर के बासी होने का डर उसपर हावी हो जाता है।  इसके चलते वह वह शक की सुई ही किसी पर नहीं घुमाता, बल्कि फरमान जारी कर देता है। अगला अध्याय मीडिया ट्रायल: खुद ही मुद्दई खुद ही मुंसिफ इस मसले की गहरे से पड़ताल करता है।
नवें अध्याय किसानों के सरोकार और मीडिया बाजारमें मीडिया के पटल से गायब खेती-किसानी से जुड़ी  देश की 70 फीसदी आबादी के सरोकारों की बात की गई है। वर्तमान विकास में मॉडल में मीडिया का
भी नगरीकरण हो गया है। मसले की गंभीरता से लेकर संख्या तक के आधार पर किसानों की आत्महत्या संभवतया आज देश का सबसे बड़ा मसला है, पर राजनीति इस मसले पर जबानी जमाखर्च के अलावा कुछ करने नहीं दे रही। मीडिया द्वारा किसानों की उपेक्षा किसानों की अर्थियों की संख्या बढ़ा रही है। और बार गर्ल की हत्या पर बलवा मचाने वाला मीडिया अब तक इस मसले को एजेंडा नहीं बना पा रहा।
अगले अध्याय में शिक्षा के मसले को महत्व देकर इस सच को बेनकाब किया गया है कि पत्रकारिता का पढ़े-लिखने से रिश्ता कुछ ज्यादा ही कमजोर हो रहा है। वास्तव में मीडिया का मॉर्डन तत्वज्ञान यह है कि एजुकेशन वह प्रोडक्ट है जो अर्थव्यवस्था की खस्ताहाली में भी फलती-फूलती रहती है, क्योंकि इस देश में अभिभावक अपनी सारी पूंजी का निवेश अपने बच्चों के लिए करने में जरा भी कोताही नहीं करता है। सो मीडिया का एजेंडा यह है कि किस तरह शिक्षा का ग्लैमराइजेशन किया जाए, जिससे कस्टमरविद्यार्थी दिव्य सुख की अनुभूति कर सकें। इस वक्त तो टॉप टेन गानों की तरह मीडिया टॉप टेन इंस्टीट्यूट खेल खिलाने में जुटा है। मीडिया में ज्ञान का विज्ञापन होता रहता तो भी गनीमत थी, अब तो विज्ञापन ही परम ज्ञान है। समस्या बस यह है कि वास्तविक ज्ञान टू मिनट नूडल्सबन नहीं पाता और बाजार से हारकर बस्ते की शरण लेने को मजबूर हो जाता है।
सास बहू, सनी लिओनी और मीडिया नामक अध्याय के जरिए कुछ तीखे सवाल उभरते हैं। सास-बहू के जरिए किचन पालिटिक्स की ग्लोबल मार्केंटिंग धड़ल्ले से की जा रही है, उससे भी बढ़कर यह सच कि कैसे एक चैनल बिग बास कार्यक्रम के जरिए एक पोर्न स्टार की जमीन तैयार करता है। बुद्धिजीवी भट्ट साहब उनका इस्तकबाल करने चैनल में पहुंचते हैं इस टिप के साथ कि तुमने जो भी किया उसका पछतावा मत करना। आलोचना-प्रत्यालोचना और फिर ग्लैमर का तड़का देकर एक पोर्न स्टार का बाजार मीडिया ने कैसे तैयार किया, यह शोध का विषय है।
अगला अध्याय मीडिया में दलितों की मौजूदगी से सम्बन्धित है। इस मसले पर रॉबिन जैफ्री सहित तमाम विशेषज्ञ विचार व्यक्त कर चुके हैं। पर समस्या जस की तस है। वास्तव में मीडिया में दलितों का न होना मीडिया का ही नहीं लोकतंत्र का भी संकट है। यदि एक अहम वर्ग के समाचार या विचार सामने आ ही नहीं पा रहे है तो हमारे सामने समाज की तस्वीर कितनी अधूरी पेश हो रही है, यह विचार दिल में चुभता है। यह अध्याय उपेक्षित वर्ग को समर्पित है तो अगला देश के उपेक्षित क्षेत्र पूर्वोत्तर को। कितनी पीड़ाजनक होती होगी वह स्थिति, जब व्यक्ति को आप उसके नाक-नक्श के आधार पर विदेशी कह दें। पर मीडिया पूर्वोत्तर के दर्द को कितना समझता होगा, यह पड़ताल तो इस आत्मालोचना से की जा सकती है कि कितने मीडिया कर्मी मानचित्र में पूर्वोत्तर के हर राज्य को उसके नाम से पहचान सकते हैं।
अगले अध्याय में लेखक ने हिन्दी पत्रकार को मीडिया का महादलित माना है, जो बेहद कड़वा यथार्थ है। महादलितों की ही तरह हिन्दी पत्रकारिता के बिना किसी भी राजनेता की दुकान चल नहीं सकती लेकिन जब बात संसाधन, सम्मान या गरिमा देने की आती है तो अंग्रेजी पत्रकारिता हिन्दी की जगह हड़प लेती है। पर सच यह भी है कि महादलितों की तरह हिन्दी पत्रकारों को अपने गौरव का अहसास होने लगा है। वह अपना हक कैसे हासिल करते है, यह भविष्य के गर्भ में है।
आज अखबार या न्यूज चैनल समाचार या विचार प्रसार का माध्यम हीं नहीं बल्कि वे पूरा पैकेजहै। इस पैकेज में ब्रेकफास्ट से लेकर पत्नी को कैसे मोहित करें, तक पर मैटर परोसा जा रहा है। संस्कृति साहित्य से तौबाअध्याय स्पष्ट करता है कि कैसे इस पैकेज में संस्कृति और साहित्य का स्पेस कम होता जा रहा है? और कैसे वो अब आउट डेटेडहै। मीडिया को संभवतया यह समझना होगा कि साहित्य महज मनोरंजन नहीं है, उसके बिना आप मानव मन को कैसे जानेंगे, समाज को कैसे समझेंगे और तो और बिना इस टकसाल के नये शब्द नयी अभिव्यक्तियां कहां से पायेंगे? और अखबारों में जिस तरह संस्कृति सम्बन्धी जानकारी कम हो रही है, उस पैमाने से वह दिन दूर नहीं जब हिन्दुस्तानियों को अपनी तहजीब की जानकारी विदेशी पत्र पत्रिकाओं से मिलेगी।
तकनीकी तामझाम में झोलाछाप पत्रकारिता अध्याय एक आश्यर्च पैदा करता है। पत्रकारिता एक तरफ कला से किनारा कर रही है दूसरी तरफ वह विज्ञान से भी दूर भाग रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि पत्रकारिता ऐसा मीडियाकर पाठक-दर्शक पैदा कर रही है, जिसमें धार न हो, जज्बा न हो, वह सिर्फ उपभोक्ता हो, उपभोक्ता हो और उपभोक्ता हो। बाजारीकरण के दर्द का यह विस्तार अगले अध्याय पैसे की दुनिया में पर्यावरण की बात में भी उभरा है। दर्द की बात यह भी है कि मीडिया यह बात समझाना तो दूर खुद भी नहीं समझ पाया है कि पर्यावरण एक मुद्दा नहीं, इस धरती के जिन्दा रहने की एकमात्र गारंटी है।
आखिरी अध्याय सोशल मीडिया कितना सोशल में इस नव जनमाध्यम का इन्टलेक्चुअल ऑपरेशन करने का प्रयास किया गया है। यह बताता है कि बिना दायित्व के शक्ति का सिद्धांत किस तरह इस माध्यम को संचालित कर रहा है। पक्ष यह नहीं है कि सरकार इस माध्यम को प्रतिबंधित करे, तर्क यह है कि अगर यह माध्यम यूं ही गलत तथ्यों और दुर्भावनाओं से प्रदूषित होता रहा तो इसमें सांस लेना मुश्किल हो जाएगा। ऐसे में कुटिल राजनीति के लिए इसपर लगाम लगाना बेहद आसान हो जाएगा।
और अंत में....

पुस्तक में अठारह अध्याय हैं और महाभारत का युद्ध भी अठारह दिन लड़ा गया था। वह युद्ध जिसमें तीखे वाणों की वर्षा बाहर ही नहीं हो रही थी, हर पात्र के भीतर भी एक युद्ध लड़ा जा रहा था। मानिए या न मानिए, मीडिया का दुनिया का द्वंद भी एक महाभारत से कम नहीं। महाभारत के किसी भी मानवीय चरित्र को स्याह या सफेद नहीं कहा जा सकता था। आज पत्रकारिता के मूल्यों की शुभ्र आभा और कमजोरियों की कालिख भी कुछ ऐसी ही घुलमिल गयी है, जिसमे में संपादक से लेकर संवादसूत्र तक का आचरण सलेटीही कहा जा सकता है। अब इस स्लेट पर व्यवस्था परिवर्तन के अक्षर किस हद तक उभर पाते है? सवाल बस यही है।  

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अऩ्य 




ashish kumar




गुरुवार, 24 सितंबर 2015

Rare photos - Swami vivekanand

Swami Vivekananda in California, January, 1900. Swami Vivekananda in centre in this photo; on his right, Mrs. Bruce; behind him, Carrie Wyckoff; on his left, Alice Hansbrough. The other people are unknown.1

मंगलवार, 15 सितंबर 2015

टीवी दर्शन







कहानी -


राजेन्द्र सिंह पेशे से तो डॉक्टर हैं लेकिन टेलीविजन के बड़े शौकीन हैं। शाम को क्लीनिक से आऩे के तुरंत बाद रिमोट लेकर टीवी के सामने अड़ जाते हैं। पहले ताश की पत्तों की तरह सभी चैनलों का फेंटा लगाते हैं और उसके बाद किसी एक चैनल पर जाकर रूक जाते हैं जहां महिलाएं षड़यंत्र रच रही हों। टीवी पर चल रहे महिलाओं के झगड़ों को वह बड़े चाव से देखते हैं।
नाटकों के चक्कर में वे अक्सर क्लीनिक से आकर कपड़े व जूता उतारना भी भूल जाते हैं। टीवी पर पहले आधा-एक घंटे की शिफ्ट लगाते हैं उसके बाद ही टीवी को बिना छोड़े ही जूते उतारने और कपड़े बदलने का कार्यक्रम हो पाता है। तेजी से भागकर बाथरूम में मुंह-हाथ धो आते हैं और टीवी पर आंखें गढ़ाए हुए ही खाना लाने के लिए तेज आवाज में हुकुम दे देते हैं। घर की कोई महिला नाक-मुंह सिकोड़ते हुए टीवी के सामने से उठकर खाना ले आती है। भोजन का समापन भी टीवी के आगे ही होता है। उठना न पड़े इसलिए हाथ भी कटोरी में धो लिए जाते हैं। हाथ पोछने के लिए तौलिया भी वहीं आ जाता है। 
एकता कपूर व उन्हीं जैसे अन्यों द्वारा रचित सारे नाटकों में उन्हें आधुनिक महिला क्रांति की आवाज दिखाई देती है। उन्हें टीवी के घरेलू झगड़ों में महिला अधिकारबोध और अस्तित्व मुखरता मालूम पड़ती है। वह कहते हैं  कि इक्कीसवीं सदी नारी सदी है। लेकिन बाहर जो भी हालात हों लेकिन उनके इस नजरिए का लाभ घर की सभी महिलाओं को मिल रहा है, जिसके साहरे बेरोकटोक दिन में छह से सात घंटे विचित्र नाटकों को देखते हुए टीवी के सामने गुजार देती हैं। नैतिक समर्थन के साथ बाकी दिन उनपर चर्चा में गुजर जाता है।
घर में एक ही टीवी होने और डॉ. राजेन्द्र सिंह की खास पसंद व नजरिए के कारण अन्य पुरुष दर्शकों को परेशानी का सामना करना पड़ता है। वह न तो समाचार सुन सकते हैं और न ही क्रिकेट मैच देख सकते हैं। इस कारण राजेन्द्र सिंह का लड़का भी खासा परेशान रहता है। कभी समाचार या खेल का चैनल लगाने को कहा जाता है तो राजेन्द्र सिंह की लड़कियों की मुखमुद्रा एकदम बदल जाती है, जैसे किसी से उनके अधिकारक्षेत्र में अनिभिज्ञतापूर्वक सेंध लगाने की कोशिश की हो। यदि किसी ने दुबारा से चैनल बदले के लिए कह दिया तो उसकी तो खैर नही, कर्कशता से भरी हुई दो-तीन बातें सुननी ही पड़ेंगी।
एकदिन मौका देखकर मैंने राजेन्द्र सिंह से पूछा, कोई काम की चीज क्यों नहीं देखते हो, तमाम अच्छे चैनल मौजूद हैं... समाचार.. आस्था कुछ चलाओ।’’
क्या देखें.. सब पर वही बकवास आती है... तमाम बाबा अपनी दुकान चला रहे हैं… पूरे दिन पालथी मारे टीवी  पर बैठे रहते हैं… सभी अपने को आत्मज्ञानी बता रहे हैं... आत्मज्ञान को बतासों की तरह बांट रहे हैं ... कोई आत्मज्ञानी नहीं है... गुरु-घंटाल सब मजे ले रहे हैं... आत्मज्ञानी होते तो टीवी पर प्रचार करने की क्या जरूरत होती ...... सालाना करोड़ों का टर्नओवर है इनका.... सब ठग हैं।''  डॉक्टर साहब ने बस यूंहेिं  मेरे एक छोटे से सवाल के जवाब में टीवी के बाबाओं पर हमला ही बोल डाला। प्रश्नवाचक मुखमुद्रा लिए उन्होंने मेरी ओर देखा, लेकिन मैंने न मुख से न मुद्रा से कोई प्रतिक्रिया दी।
टीवी सिस्टम पर हमला जारी रखते हुए आगे बोले अब इन समाचार चैनल वालों को ही ले लीजिए .... टीआरपी के चक्कर में पगलाए हुए रहते हैं .... हर खबर में सनसनी चाहिए ... मानवीय संवेदनाओं से इऩका कोई लेनादेना नहीं है... यदि कोई आदमी मर रहा हो तो उससे भी पूछ लेंगे, तुम्हें कैसा महसूस हो रहा है? …. ये सारे पैसे कमाने के लिए टीवी चैनल चला रहे हैं.. इन्हें समाज की इतनी ही चिंता होती तो ये शोषित-वंचितों के बारें में नहीं दिखाते....  जैसे हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और होते हैं ... ऐसे ही इन टीवी चैनलों के लिए सिद्दांत केवल बात करने की चीज है .... अमल में लाने की नहीं।‘’
लेकिन यह भी सच है कि टीवी चैनलों की वजह से ही अन्ना के आंदोलन को बड़ी सफलता मिली थी मैं डॉक्टर साहब की बात को बीच में काटते हुए बोला।
सच्चाई यह नहीं है ... अन्ना आंदोलन की सफलता के पीछे केवल मीडिया का हाथ नहीं था .... अऩ्ना के व्यक्तित्व और कर्म के प्रति ईमानदारी ने आंदोलन को खड़ा किया... अन्ना की वाणी के ओज के सामने सभी नेता पस्त थे .... जब कर्म में प्राण ही नहीं होंगे तो मीडिया क्या कर लेगा... असलियत में मीडिया घटित घटना का दिखाता है.. घटना को रचता नहीं है राजेन्द्र जी का अब बाबाओं के बाद अब टीवी समाचार चैनलों पर हमला जारी था।
मैंने फिर कहा थोड़ी ही सही लेकिन मीडिया की आंदोलन में महत्वपूर्ण रही .. मीडिया की वजह से ही आंदोलन दिल्ली के जंतर-मंतर से निकलकर देश के गांव-गांव, शहर-शहर पहुंचा था
राजेेन्द्र सिंह के चेहरे की रंगत लाल हो चुकी थी, शायद मीडिया के प्रति गुस्सा इसका कारण था या फिर मीडिया के समर्थन में मेरा बोलना।
वह आगे बोले वह और दौर था जब मीडिया आंदोलनों में भागीदारी निभाता था ... आजादी के आंदोलनों में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी... महात्मा गांधी ने खुद कई समाचार पत्रों का संपादन व संचालन किया था... उनके इंडियन ओपियन और हरिजन जैसे अखबारों ने लोगों में आजादी की लड़ाई के प्रति प्रेरणा जगाने का काम किया था... इसी उद्देश्य से रानाडे, तिलक, गोखले ने अपने अखबार निकाले थे .. अंग्रेजी हुकूमत की तमाम बंदिशों और प्रतिबंधों के बावजूद समाचार पत्र निकाले जाते थे .... उस समय पत्रकारिता एक मिशन थी, एक जुनून थी... एक राष्ट्र सेवा का काम था
अब मीडिया में क्या बदलाव आ गए हैं  मैंने जिज्ञासापूर्वक पूछा और साथ ही कहा पुरानी न देखी चीजें सभी को सुहाती हैं, हकीकत का पता तो बरत के ही चलता है
ऐसा नहीं है उन्होंने कहा मैंने अपने दौर में भी पत्रकारिता को राष्ट्रहित में काम करते देखा है... सन पीच्चतर में इंदिरा गांधी ने राजनीतिक लाभ के लिए इमजेंसी लगा दी थी.... मीडिया को सेंसर कर दिया था...उस दौर में मीडिया ने लोकतंत्र की रक्षा करने के लिए .... अभिव्यक्ति की आजादी के लिए अपनी आवाज बुलंद रखी थी, जिसके लिए हजारों पत्रकार  और लेखक खुशी-खुशी जेल गए थे... वह भी मिशन पत्रकारिता थी ... पत्रकारों के पास जुनून था, मिशन था ... उद्देश्य था।
 ‘’अब समाचार चैनल जनहित में आंदोलनों को खड़ा करना तो दूर, उनकी साख खराब करने में ज्यादा विश्वास रखते हैं... सभी समाचार चैनलों और अखबारों को उद्योगपति और नेता चला रहे हैं.. ऐसे में कैसे उम्मीद की जा सकती है कि मीडिया के जरिए सत्यमेव जयते होगा... इसलिए हम तो सत्यमेव जयते से ही काम चला लेते हैं  राजेन्द्र सिंह ने चेहरे पर मुस्कराहट लाते हुए बदलकर टीवी पर समाचार चैनल लगा दिया।
वहां समाचर चैनल पर एक स्पॉनसर्ड कार्यक्रम आ रहा था, जिसमें बाबा अपने समागम में एक भक्त को बता रहे थे कि आपने हरी मिर्च की चटनी कब खाई थी। लाल रंग की कमीज कब पहनी थी। कल कितने समोसे खाए थे। चार बतासे कम चढ़ाने की वजह से ही देवी की आप पर कृपा नहीं हो रही है। मंदिर में अगली बार जाए तो पीली टोपी लगा कर जाना। बाबा की हर बात के साथ हॉल जयकारों से भर जाता था। बाबा दरबार की जय।
राजेन्द्र सिहं को टीवी पर हमला बोलने के लिए रखा-रखाया एक और मुद्दा मिल गया इस बाबा को देख लीजिए... टीवी पर ही ढोंग की दुकान चला रहा है.... लाल-हरी चटनी में ही अध्यात्म के रहस्य की व्याख्या कर रहा है .... इन बाबाओं को पतंजलि कहीं से देख रहे होंगे तो खून के आंसू रो रहे होंगे ... वह सोचते होंगे, इन्होंने मेरे योग को क्या बना दिया ... वह कहते होंगे मैंने तो कहा था ... योग: अथानुशासनम् .... अनुशासन से ही योग की शुरूआत होती है, लेकिन यहां तो हरी मिर्च से ही योग की टोपी पहनायी जा रही है।‘’
राजेन्द्र जी बोले  इससे ज्यादा मुझे इन्हें देखने और मानने वालों पर तरस आता है, क्या उऩके अंदर औसत तर्क शक्ति भी नहीं है? .. सबके सब स्वार्थ में अंधे हो गए हैं ... कैसे भी मिले, कहीं से मिले, बस मिलना चाहिए.. भ्रष्टाचार के पीछे भी यही सोच जिम्मेदार है।‘’
इसमें समाचार चैनलों क्या दोष हैमैंने राजेन्द्र सिंह से कहा
क्यों दोष नहीं हैवह तेजी से बोलेसमाचार चैनल जनसंचार की संस्थाएं हैं ... समाज पर इनका गहरा प्रभाव है.. यदि यह समाचार चैनल पर दिखाए जा रहा है तो इसका मनोवैज्ञानिक रूप से दर्शकों पर ज्यादा गहरा प्रभाव होगा... यदि यही नाटकों के चैनलों पर आ रहा आता तो कम प्रभावी होता ... समाचार चैनलों के मठाधीशों को इस बारे में सोचना चाहिए ... वैसे तो वे सब समाजविज्ञानी बनते हैं, लेकिन पैसे कमाने की बात आती है तो सब चलता है... दर्शकों के सामने कूड़ा-करकट सब परोस दिया जाता है
टीवी विषय पर इतना सबकुछ सुनने के बाद मैंने राजेन्द्र सिंह से मजाकिया लहजे में कहा आप महिलाओं वाले नाटक क्यों देखते हैं, उनमें कौन सा ज्ञान टपकता है... उनमें महिलाएं हर समय लड़ाई-झगड़ा करती रहती हैं.. किसी भी एपिसोड में शांति-खुशहाली नहीं दिखाई नहीं देती.. बस मूर्खतापूर्ण षड्यंत्रबाजी... सनी लियोनी के बारे में राय दीजिए।
हंसते हुए वह बोले क्या बताऊं मैं तुझे.... मुझे यह सब तो मजबूरी में देखना पड़ता है .... तेरी आंटी और ये लड़कियां मुझे और कुछ देखने ही नहीं देती हैं, इसलिए मैंने भी इन नाटकों में नारी अधिकार और नारी शक्ति के प्रतीक ढूंढ लिए हैं .... इन नाटकों में पुरुष तो केवल कहानी को चलाने का एक पात्र मात्र होता है, उसका तो पूरी कहानी में बदलते एंगिलों के साथ चेहरे के भाव परिवर्तनों को ही दिखाया जाता है... इऩ नाटको में पुरुष बेचारा है... स्त्री, स्त्री की मारी है... सब घटाघोप है।
''इतना बकवास है तो यह देखकर समय बर्बाद ही क्यों करते होडिस्कवरी, नेशनल जियोग्राफिक, एनिमल प्लेनेट, हिस्ट्री जैसे चैनल हैं, उऩ्हें देख लिया करो .. अच्छी जानकारी देते हैं।'' मैंने कुछ और नई बातें सामने आऩे की उम्मीद के साथ कहा। साथ ही मैं सोच रहा था कि राजेन्द्र सिंह मेरी इस राय पर सहमति जरूर जताएंगें। लेकिन उनका जवाब इसके विपरीत आया
डिस्कवरी, हिस्टरी चैनल वालों का भी हिडन एजेंटा रहता है.. अपने देश की सरकारों के प्रोपेगेंडा के तहत काम करते हैं.. अपने देश की टेक्नोलॉजी और साइंस को ऐसे पेश करते हैं, जैसे दूसरे देशों से वह सदियों आगे हैं ... युद्द व हथियारों के प्रचार का माध्यम बनाया जाता है ... ताकि दूसरे देश के लोगों को ... खासकर युवाओं को प्रभावित किया जा सके कि हमारा देश हथियार, तकनीक और विज्ञान में सबसे आगे है... इन चैनलों के माध्यम से शेष दुनिया पर मनोवैज्ञानिक बढ़त बनाने की कोशिश की जाती है... अपने को महान, शेष को पिछड़ा जताया जाता है ... क्या करें, इसे अपना दुर्भाग्य ही कहेंगे कि अपने देश के पास इस प्रकार की मनोवैज्ञानिक बढ़त बनाने के साधन नहीं है... सूचना युग में इनका बड़ा महत्व है .. हमारी सरकारों को इस बारे में सोचना चाहिएइसी बात के साथ राजेन्द्र सिंह के चेहरे पर पीड़ा झलक आई।
अंत में मैंने कहा कोई बात नहीं टीवी देखते रहिए, समय ही तो काटना है
हर महीने दो सौ दस रुपये का रिचार्ज करवाना पड़ता है, चाहे एक घंटे देखो या चौबीस घंटे। चाहे डिस्कवरी पर शेरों की लड़ाई देखो या महिलाओं की, ज्यादा अंतर नहीं” राजेन्द्र जी ने इसी मजाक के साथ अपनी बात समाप्त की । मैं सोचने लगा क्लीनिक से आने के बाद अगंभीर से दिखने वाले व्यक्तित्व के पीछे भावनानाएं व संवेदनशीलता भी है। राष्ट्र के प्रति एक सोच व नजरिया, लेकिन साथ ही परिवारिक माहौल व समय की कठिन परिस्थितियां, जिनके सामने अधिकांश को समझौता करना पड़ता है, जहां समझदारी और सिद्दांत भी मजबूरी में मौन बने रहते हैं।

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आशीष कुमार