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गुरुवार, 11 दिसंबर 2014
सोशल मीडिया पर हर कोई संपादक और प्रोड्यूसर
सोशल मीडिया को लेकर समाज में जबरदस्त ‘क्रेज’ है। खासकर युवा वर्ग इस माध्यम का बड़े स्वाभाविक ढंग से इस्तेमाल कर रहा है। मल्टीमीडिया मोबाइल चलन ने तो ‘सोशल मीडिया क्रांति’ को पंख ही लगा दिए हैं। शहर हो या गांव, यात्रा के दौरान या काम के बीच में, इसके छाए खुमार को आसानी से समझा जा सकता है। सोशल मीडिया ने समाज की व्यवस्थाओं को ज्यादा लोकतांत्रिक बनाया है। यह आम लोगों को आवाज दे रहा है और संवाद में उनकी भागीदारी को सुनिश्चित कर रहा है। यह नया माध्यम तमाम संभावनाओं से भरा हुआ, लेकिन इसके स्याह पहलू भी कम नहीं है।
सोशल मीडिया के रोल को लेकर अक्सर चर्चा होती रहती है। दंगे भड़काने में भी सोशल मीडिया की भूमिका को लेकर सवाल खड़े होते रहे हैं। मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश के सांप्रदायिक दंगे के लिए भी इसी माध्यम को जिम्मेदार ठहराया गया। फेसबुक पर अपलोड किए गए एक फर्जी विडियो ने दंगे को भड़काया। अलोचना करने वालों का कहना है कि सोशल मीडिया का सही इस्तेमाल किया जाए तो यह देवताओं के होठों पर श्लोकों के समान है, लेकिन यदि इसका गलत इस्तेमाल होता है तो यह बंदर के हाथ में माचिस होने की भूमिका अदा करता है, जो समाजों की दुनिया में आग लगा सकता है।
इन सब बातों के मद्देनजर, समय-समय पर कुछ ऐसे भी सुझाव आए हैं, जिसमें संवेदशील समय में खास अवधि के लिए इन माध्यमों पर निगरानी या पाबंदी की मांग उठती रही है। सोशल मीडिया के प्रयोगकर्ताओं ने भी स्वयं तथ्यहीन और भड़काऊ सामग्री डालकर इस प्रकार की मांगों को वैधता दी है। इस माध्यम मे सूचनओं के ‘फिल्टरेशन व सलेक्शन’ के लिए ‘गेटकीपर’ या संपादक जैसी कोई संस्था नहीं है। ‘लोकतांत्रिकता की अति’ कहकर भी इस माध्यम की अलोचना की जाती है। यहां आमतौर पर एक व्यक्ति की आजादी दूसरे की आजादी और अधिकारों का हनन करने लग जाती है। सोशल मीडिया पर संवादों का कफीला है। यहां सूचनाओं का विस्फोट है, लेकिन हकीकत यह है कि सूचनाएं समझ नहीं बढ़ाती हैं। मुख्य धारा के मुकाबले सोशल मीडिया को ज्यादा गैर जिम्मेदार बताया जाता है। इस माध्यम में अनुशासन नहीं है।
मीडिया विद्वान नोम चामस्की ने न्यू मीडिया को ‘सुपरफिशियल’ माध्यम कहा है। हालांकि, वह खुद ट्वीटर आदि पर विभिन्न गंभीर विषयों से संबंधित नियमित ‘कमेंट’ डालते रहते हैं। विकीलिक्स के माध्यम से दुनियाभर में तहलका मचाने वाले जुलियन अंसाजे ने तो सोशल मीडिया को आने वाली सभ्यताओं के लिए एक खतरनाक माध्यम बताया है। वह समाज को सोशल मीडिया के ‘कंपलशन’ से बचे रहने के लिए आगाह कर रहे हैं। मार्शल मैक्लुहान ने कार को ‘यांत्रिक दुल्हन’ रेडियो को ‘जनजातिय ढोल’, फोटो का ‘बिना दीवारों का वेश्यालय’ और टीवी को ‘इडियट बॉक्स’ व ‘डरपोक राक्षस’ कहा था। यदि माध्यमों को परिभाषित करने की उनकी शैली को आगे बढ़ाया जाए तो सोशल मीडिया जैसे नवीन माध्यम को ‘शरारती बच्चा’ कहना ठीक रहेगा। यह सही भी है, सोशल मीडिया नियंत्रण रहित, अगंभीर व अनुशासनहीन माध्यम है।
वहीं, इसके समर्थकों का कहना है कि यदि खरबूजा चाकू पर गिरता है तो चाकू को दोष नहीं दिया जा सकता है। सोशल मीडिया प्रयोगकर्ता की गलती के लिए माध्यम को दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए। यह सही है कि कई बार फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉग पर अफवाह व अश्लीलता देखने को मिल जाती है। मुख्यधारा मीडिया में जिस प्रकार के कंटेट होते हैं, कई बार वह भी अश्लील, भड़काऊ व तथ्यों से परे होते हैं। क्या इसको आधार बनाकर टीवी, अखबारों पर पाबंदी लगाई जा सकती है? सोशल मीडिया तो इनसे कहीं नया है। इस माध्यम की अभी शुरूआत है, धीरे-धीरे गंभीरता आएगी। जब मुख्यधारा मीडिया का राजनीतिकरण व व्यावसायीकरण हो गया हो। ‘क्रॉस पार्टनरशिप’ मीडिया संस्थानों के लिए सामान्य बात हो गई हो, ऐसे में सोशल मीडिया की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है।
सोशल मीडिया ‘फ्री फ्लो मीडियम’ है। इसका प्रयोग करने वाला प्रत्येक व्यक्ति ‘प्रोड्युसर’ भी है और ‘कंज्युमर’ भी। मुख्यधारा मीडिया और सोशल मीडिया में अंतरनिर्भरता भी देखने को मिलती है। किसी घटना से संबंधित कोई खबर मुख्यधारा मीडिया में आती है तो सोशल मीडिया में उसके प्रभाव को देखा जा सकता है। वहीं, यदि सोशल मीडिया में कोई ‘ट्रेंड’ चल है तो उसके प्रभाव को समाचार चैनलों में देखा जा सकता है। राजनेताओं या अभिनेताओं द्वारा फेसबुक, ट्विटर या ब्लॉग पर डाला गए भी पोस्ट भी कभी-कभी मुख्यधारा मीडिया के लिए बड़ी खबर बन जाते हैं।
चुनावों के दौरान भी सोशल मीडिया का मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए रणनीतिक इस्तेमाल होने लगा है। आम लोगों तक इसकी पहुंच और प्रभाव को देखते हुए, तमाम राजनीतिक पर्टियां और नेता करोड़ रुपये खर्च कर, इऩ्हीं माध्यमों के जरिए अपने आप को चमका रहे हैं। भारत का लोकसभा चुनाव-2014 तमाम राजनीतिक पार्टियों द्वारा सोशल मीडिया के जरिए भी लड़ा गया। विशेषज्ञों के मुताबिक इस चुनाव में सोशल मीडिया ने करीब 150 लोकसभा सीटों को खासकर प्रभावित किया।
टेलिकॉम रेगुलेटरी ऑथरिटी ऑफ इंडिया की रिपोर्ट-2013 के मुताबिक इंरनेट उपभोक्ताओं की संख्या के मामले में भारत दुनिया का तीसरे नंबर का देश है। इस मामले में चीन और अमेरिका ही भारत से आगे हैं। संभावना है कि 2014 के अंत तक भारत इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या के मामले में अमेरिका को पछाड़कर दूसरे नंबर पहुंच जाएगा। आंकड़ों के मुताबिक मार्च 2013 तक भारत में इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या 164.81 मिलियन थी, जिसमें करीब 30 फीसदी की दर से सालाना वृद्धि हो रही है। इन उपभोक्ताओं में 8 में से 7 लोग इंटरनेट का इस्तेमाल मोबाइल पर कर रहे हैं। आंकड़ों के मुताबिक चौकाने वाली बात यह कि शहर और गांव में मोबाइल पर इंटरनेट इस्तेमाल कर रहे लोगों की संख्या करीब बराबर है। इंटरनेट उपभोक्ताओं में अधिकांश लोग सोशल मीडिया का भी इस्तेमाल कर रहे हैं।
सोशल मीडिया पर फर्जी खाते और ‘अनोनीमस’ सुरक्षा के लिए चुनौती हैं। प्रदेशों की सरकारें भी पुलिस विभाग में सोशल मीडिया सेल की स्थापना कर रही हैं, जिनका काम सोशल मीडिया पर जारी गतिविधियों की जांच-पड़ताल करना है। सरकार ने साइबर क्राइम को रोकने के लिए वर्ष 2000 सूचना प्रौद्योगिकी कानून बनाया, सोशल मीडिया भी इस कानून के अधीन आता है। इस कानून तहत वर्ष 2013 के अंत तक महज 7 मामलों में सजा हुई है। लेकिन, कई बार इस कानून के राजनीतिक दुरूपयोग के मामले भी सामने आए हैं। कंवल भारती और अंबकेश महापात्रा ऐसे ही चर्चित उदाहरण है। कंवल भारती पर सोशल मीडिया के जरिए सरकार के खिलाफ आवाज उठाने पर कार्रवाई की गई और पश्चिम बंगाल के एक विश्वविद्यालय में प्रोफेसर अंबकेश महापात्रा को सरकार के खिलाफ एक कार्टून को सोशल मीडिया पर पोस्ट करने के लिए गिरफ्तार किया गया। आए दिन ऐसा कोई न कोई मामला प्रकाश में आता रहता है, जिसे अभिव्यक्ति की आजादी के खिलाफ ही माना जाएगा।
सोशल मीडिया की उपयोगिता को लेकर विशेषज्ञों में भी अंतर्विरोध हैं। सही यही होगा कि सोशल का इस्तेमाल सामाजिक जिम्मेदारियों के लिए इसका इस्तेमाल किया जाए। तमाम खतरों व आशंकाओं के बावजूद इसकी उपयोगिता और फायदों को नकारा नहीं जा सकता है।
सोमवार, 3 दिसंबर 2012
जी न्यूज के बहाने पत्रकारिता का अंदरखाने
आशीष कुमार
पहले दो संपादकों की गिरफ्तारी
के पूरे प्रकरण पर गिरफ्तारी, गिरफ्तारी से पहले और उसके बाद के घटनाक्रमों का सिलसिलेवार
तरीके से जांच पड़ताल करते हैं ताकि कुछ मथकर ऊपर आ सके। दिल्ली पुलिस की क्राइम
ब्रांच ने जी न्यूज के संपादक व बिजनेस हेड़ सुधीर चौधरी और जी बिजनेस के संपादक व
बिजनेस हेड़ समीर अहलूवालिया को नवीन जिंदल प्रकरण में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया।
जिस रात दोनों को गिरफ्तार
किया गया जी न्यूज के सलाहकार संपादक पुण्य प्रसून वाजपेयी ने रात दस बजे के अपने
प्रोग्राम बड़ी खबर में इसे आपातकाल से जोड़ कर दिखाया। पुण्य प्रसून वाजपेयी अपनी
स्टाईल में दोनों हाथों की हथेलियों को रगड़ते हुए, जंजीरों में जकड़े मीडिया शब्द
के क्रोमा के आगे खड़े होकर बड़ी उर्जा व तर्कों के साथ इसे मीडिया पर सेंसरशिप व
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन के रूप में दिखा रहे थे। इस दौरान उन्होंने बहुत
से वर्जनों के बीच वरिष्ट पत्रकार कमर वाहिद नकबी और ब्रॉस्डकॉस्टिंग एडिटर
एसोसिएशन के अध्यक्ष एनके सिंह का वर्जन भी लिया। कमर वाहिद नकबी के बयानों को
अपने पक्ष में तोड़ मरोड़कर पेश किया गया।
जी न्यूज के बिजनेस सहित
सभी समाचार चैनलों पर इसे आपातकाल के दौरान की हालतों से जोड़कर दिखाया गया।
विभिन्न राष्ट्रीय पार्टियों के प्रवक्ता व मुख्य नेताओं के बयानों को अपने पक्ष
में दिखाया गया। टीवी के प्राइम टाइम में बहसों का दौर चला। जमकर फेसबुकबाजी हुई।
खांटी पत्रकारों को पत्रकारिता की समीक्षा करने का सुनहरा मौका मिला। सरकार को
मीडिया के मामले आक्रमक होने का मौका मिला। मौका दिया जी न्यूज के मालिक के व्यवसायिक
हितों और उसके संपादकों व चैनल के प्रति पैसे बटोरने की हवस ने, शायद उनकी नीयत
में भी कुछ रहा होगा। कोई बेवजह सफेद कपड़े पहनकर कोयले की खदान में क्यों घुसेगा।
नेताओं को तो बोलने का मौका
मिलना चाहिए। जब मीडिया के साथ सांत्वना दिखाने और जी न्यूज के आंसू पोछने को मौका
मिला तो वह कहां चूकने वाले थे, उन्होंने भी बिना जाने-समझे इसे अधिकारों का हनन
और आपातकाल बता दिया। इस पूरे प्रकरण में छोटी सी गलती और मालिक के प्रति वफादारी
दिखाने के चक्कर में पत्रकारिता जगत के छात्रों के लिए आदर्श पुण्य प्रसून वाजपेयी
पर भी लोगों को उंगली उठाने का मौका मिल गया।
चलिए इसकी जड़ तक जाने के
लिए सुधीर चौधरी की कुंडली और नवीन मामले की भी पड़ताल कर लेते हैं। लाइव इंडिया
से जी न्यूज पहुंचे सुधीर चौधरी मल रूप हरियाणा के हिसार के रहने वाले हैं। उनके
व्यवहार में हरियाणवी ठसक व रिस्क लेने की प्रवृत्ति भी दिखाई देती है। पत्रकारिता
जगत में उनकी कार्यशैली को लेकर पहले भी उंगली उठती रहीं हैं। नवीन जिंदल प्रकरण
का मुद्दा इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के संपादकों की स्वतंत्र संस्था बीईए में उठने पर
सुधीर चौधरी का जवाब था कि वह एक संपादक के साथ चैनल के बिजनेस हेड़ भी हैं, जिसके
नाते वह नवीन जिंदल से 100 करोड़ का विज्ञापन मांगने गए थे। यह तो यू ट्यूब पर
सबके लिए उपलब्ध वीडियो को देखकर कोई आम आदमी बता सकता है कि विज्ञापन मांगा जा
रहा है या और कुछ भी हो रहा है। बचाव में तरह-तरह के तर्क देने की कोशिश की गई।
कहीं कुछ मछलियां हीं पूरे तलाब को गंदा तो नहीं कर रहीं। लेकिन यह सच है कि यह मछलियां
कुछ जरुर हैं लेकिन बहुत बड़ी-बड़ी हैं।
जी न्यूज के कर्मचारियों का
दबी जुबान से मानते हैं कि सुधीर चौधरी के जी न्यूज में आने की भी एक कहानी है। जी
न्यूज के मालिक सुभाष चंद्रा को हरियाणा में रियल एस्टेट के करोबार को फैलाने में राजनीतिक
कारणों से अड़चनों का सामना करना पड़ रहा था। कहा जाता है कि जी न्यूज के संपादक
एनके सिंह की हुड्डा के साथ ट्यूनिंग सही नहीं थी, जिसके कारण वह सुभाष चंद्रा की
व्यवसायिक अड़चनों का दूर नहीं कर पा रहे थे। ऐसे में सुधीर चौधरी को मौका मिला।
मुख्यमंत्री दीक्षित से जुगाड़ लगाकर व हरियाणा में रियल एस्टेट करोबार में आ रहीं
दिक्कतों को दूर करने का भरोसा देकर सुधीर चौधरी जी न्यूज पहुंच गए। एके सिंह को
जी न्यूज छोड़ना पड़ा। वह लाइव इंडिया पहुंच गए। बाद की कहानी जगजाहिर है।
एक मछली ने मीडिया पर उंगली
उठाने का मौका दे दिया। वैसे यह मामला मीडिया की नैतिकता से जुड़ा हुआ था। सुधीर
चौधरी प्रकरण मीडिया सेंसरशिप का न होकर एक आपराधिक मामला था। संपादकों की
गिरफ्तारी पर मीडिया की त्वरित कार्रवाई और आपातकाल से तुलना करने के कारण उसने
खुद अपने पैरों पर कुल्हाडी चलाई। सच तो यह है कि मीडिया के नियामन से जुड़ी संस्थाएं
मीडियाकर्मियों या संस्थाओं के आपराधिक मामलों को नहीं देख सकतीं या देखती हैं।
यदि कोई मीडिया संस्था या मीडियाकर्मी अपराध करेगा तो उसको पुलिस और न्यायपालिका
ही डील करेगी। मीडिया कंटेंट और मीडियाकर्मियों के अपराधों को अलग करके देखना
होगा। मीडिया के नियामक संस्थाएं कंटेंट व उसकी आचार संहिता को लेकर ही कुछ सकती
हैं। मसलन, मीडिया में साफ छवि के लोग ही होने चाहिए ताकि आम आदमी का मीडिया पर
विश्वास बना रहे। यदि संपादक मर्सिडिज, बीएमडब्ल्यू, फोरचूनर से चलेंगे और फाइव
स्टार जीवन शैली अपनाएंगे तो उसका खर्च वहन करने के लिए ऐन केन प्रकारेण तो करना
पड़ेगा जो तलाब गंदा करने का कारक भी बन सकता है।
गुरुवार, 1 नवंबर 2012
भाषा के साथ आत्मगौरव का सवाल
भाषा के साथ हमारा आत्मगौरव
जुड़ा होता है। वह हमारे स्वाभिमान का प्रतीक होती है। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर
अक्सर देखा जाता है कि जर्मनी, फ्रांस, स्पेन और इटली के नेता संवाददाता सम्मेलन
में पत्रकारों द्वारा अंग्रेजी में सवाल पूछे जाने के बावजूद अपनी भाषा में जवाब
देते हैं। अभी हाल का ही वाकया है एक अंतरराष्ट्रीय मंच पर जर्मन की चांसलर से
किसी पत्रकार ने अंग्रेजी में सवाल पूछा तो उन्होंने उसका जवाब जर्मन में दिया। जर्मनी
की तरह स्पेन, फ्रांस, इटली जैसे गैर
अंग्रेजी भाषी देशों के नेताओं में निज भाषा में जवाब देने की मानसिकता के पीछे
कहीं न कहीं उनका राष्ट्रीयवादी अहं छिपा रहता है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह कि इस
मानसिकता को बनाने में मीडिया की भी अहम भूमिका रही है। चौकाने वाला तथ्य यह कि जर्मनी में कोई भी पापुलर नियमित समाचार पत्र अंग्रेजी में प्रकाशित नहीं होता
है। टीवी चैनलों की भी यही हाल है। सरकारी
चैनल डॉयचे वेले के अंग्रेजी चैनल देश के हवाई अड्डों और फाइव स्टार होटलों में
आपको शायद देखने में मिल जाएंगें, पर जर्मन केबल पर ऐसी सेवा उपलब्ध नहीं है।
स्पेन में १५५ दैनिक अखबार निकलते हैं। लेकिन इनमें से अंग्रेजी का एक भी
अखबार नहीं, जो आम लोगों के बीच पापुलर हो। अलपाइस, अलमुंडो और एबीसी जैसे स्पेनी
भाषा में प्रकाशित होने वाले प्रमुख समाचार पत्र हैं। इनके वर्चस्व को तोड़ना किसी भी मल्टीनेशनल
मीडिया कंपनी के बस की बात नहीं है। जर्मनी में करीब ३७० प्रमुख समाचार पत्र
प्रकाशित होते हैं, लेकिन इनमें से एक भी अखबार अंग्रेजी में नहीं है। फ्रैंकफर्ट
आल्गेमाइने का अंग्रेजी पुलआउट कभी-कभार फ्रैंकफर्ट के पाठकों का नसीब हो जाता है,
लेकिन दी वेल्ट, फ्रैंकफर्ट रूंडशाऊ, दी त्साइड, बिल्ड जैसे अखबारों का पुलआउट है
लेकिन सभी जर्मन भाषा में प्रकाशित होते हैं। देयर स्पीलगेल जैसी मैगजीन अपने
विशेष टारगेट ग्रुप को ध्यान में रखकर साल-दो-साल में कोई विशेषांक अंग्रेजी में अलग
से निकाल देती है। लेकिन जर्मन भाषा की प्रमुख पत्रिक स्टर्न और फोकस का अंग्रेजी
विशेषांक शायद ही किसी ने देखा हो।
भारत में भाषाई मीडिया में काम करना भले ही ग्लैमरस नहीं माना जाता हो लेकिन
जर्मनी, फ्रांस, इटली, स्पेन, पौलेंड, तुर्की में इसे गौरव का प्रतीक माना जाता
है। भारत में इसके पीछे सरकारी नीतिगत कारणों, अंग्रेजीदां मानसिकता, सैलरी सहित
कई कारणों को गिनाया जा सकता है। लेकिन सत्यता यह कि इन सब के पीछे निज भाषा में
आत्महीनता महसूस करना ही प्रमुख कारण है। जर्मन, फ्रांसीसी या स्पेन भाषा में काम
करने वाले पत्रकार अपने देश में काम करने वाले अंग्रेजी या अन्य भाषाई पत्रकारों
के मुकाबले २५ फीसदी तक सैलरी अधिक पाते हैं। सरकार व मंत्रालयों में भी उसका
रूतबा अन्यों से कहीं अधिक होता है। लेकिन भारत का भाषाई पत्रकार जिसकी अंग्रेजी
में अच्छी पकड़ नहीं है सरकार के बडे़ महकमों की रिपोर्टिंग के बारे में सोच भी
नहीं सकता है रूतबे की तो बात दूर। इन देशों में लाखों लोग बेरोजगार हैं लेकिन
सरकार व सर्वेक्षण करने वाली संस्थाएं मानने को तैयार नहीं कि अंग्रेजी न जानने के
कारण ऐसा हो रहा है। इन देशों के 90 प्रतिशत नागिरकों को इस बात का मलाल नहीं है कि
वह अंग्रेजी के मामले में कोरे हैं। कुछ वर्ष पूर्व का मामला है फ्रांस के ल-पोहर
नामक साप्ताहिक ने जब अपना अंग्रेजी संस्करण निकाला तो यह पूरे देश के लिए बड़ी
खबर बन गया। यह पत्रिका फ्रांस के इटली शहर से प्रकाशित होती है, जहां 15 हजार ब्रिटिश मूल के नागरिक रहते हैं। फ्रांस के छह राष्ट्रीय टीवी चैनलों
में से तीन फ्रांस-2, फ्रांस-3 और फ्रांस-5 सरकारी हैं। टीएफ-1 और एम-6 तथा मूवी चैनल कनाल
प्राइवेट हैं, जिन पर विशुद्ध फ्रांसीसी भाषा के कार्यक्रम दिखाएं जाते हैं। फ्रांस
में सर्वाधिक बिकने वाले अखबारों में
लमोंदे, ल फिगारो, लिबरेशन, परिसिअन, रेड्स, कुरियर इंटरनेशनल फ्रांसीसी
भाषा के अखबार हैं। बिजनेस अखबारों में ल ट्रिब्यून, लेस इकोस और इंवेस्टिर का नाम
शामिल हैं।
यूरोप में देशी मीडिया इंडस्ट्री को
देखकर चौकना लाजमी है कि दुनिया अंग्रेजी के सहारे नहीं चल रही है। इन देशों में
बाजार में जो ब्रांडेड सामान मौजूद है उन पर भी देशी भाषा का जोर चलता है। सामान
के रैपरों और पैकेजिंग पर शायद ही आपको अंग्रेजी भाषा देखने को मिले। इटली,
पोलैंड, पुर्तगाल से लेकर तुर्की तक वहां का लोगों का भाषाई पत्रकारिता को जबरदस्त
समर्थन है। यह उनके लिए गौरव व प्रतिष्ठा का विषय है। लेकिन जब हम इस मामले मे
अपने देश की ओर नजर दौड़ाते हैं सबुछ उल्टा नजर आता है। अपनी भाषा बोलना
आत्मग्लानि का विषय हो सकता है।
भारत में अंग्रेजी को
ही सब कुछ मान लिया गया है। इसे सरकार से लेकर स्कूलों तक रोजगार देने वाली भाषा
के रूप में प्रचारित किया जा रहा। सार्वजनिक रूप से यदि आप अपनी भाषा को टूटी-
फूटी बोलते हैं और अंग्रेजी को फर्राटेदार तो इसे आपके व्यक्तित्व की महानता के
रूप में स्वीकार किया जाएगा। इन सबके पीछे बच्चों के अभिभावक से लेकर देश नीति
निर्माताओं तक सभी जिम्मेदार है। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है सिविल सर्विसेज में
अंग्रेजी का अनिवार्य कर देना। इस मानसिकता में सुधार लाने की जरूरत है, जिसके लिए
नीति निर्माताओं, मीडिया, समाज सभी को मिलकर प्रयास करने होंगे।
आशीष कुमार
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग
देवसंस्कृति विश्वविद्यालय,
शांतिकुंज, हरिद्वार(यूके)
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