सोमवार, 30 सितंबर 2013

अनंत क्षितिज

ANANT KSHITIJ
केले के सुखे पत्तों से मधुर संगीत निकल रहा था
जैसा आप चाहते हो वे उन्हीं धुन और शब्दों के साथ
हाथ लगाते ही बज उठते थे
कला और रचनात्मकता का एक नया रूप था
मन में विचार आया यह तो नई और अभिनव विधा है
उस मनोहरम स्थान के एक कोने पर
सुखे हुए तने के साथ वृक्ष खडा हुआ था
उसकी जडों और तनों के सहारे ही उस
कला और रचनात्मकता की धनी जगह
से बहार निकला जा सकता था
उस से परे हरी घास से भरा एक मैदान था
जो क्षितिज में दूर अनन्त तक फैला हुआ था
छत कंटीले तरों से घिरी हुई थी
वहां देशों का विभाजन था,
जमीनों का बंटबारा था
हर समय पहरा था
वहां की जिम्मेदारी संभाले व्यक्ति ने चुनौती दी
आप कभी यहां के कला और संगीत की
मनोरमता को पार करके बाहर नहीं जा सकते हो
मन ही मन संकल्प उठा
सुखे पत्तों से निकलते संगीत और कला से
मन उबने लगा
बाहर निकलने के रास्ते तलाशने लगा
एक दिन मौका देखकर सुखे तने पर चढकर
उसकी जटाओं के सहारे घास के मैदान में उतरकर
संकल्प के साथ भाग निकले
पहरेदारी में तैनात व्यक्ति ने
आवाज देकर रोकने की कोशिश की
कानों में आवाज आते ही
और तेजी से कदमों को चलाया
कला और संगीत के पास दोबारा नहीं जाना था
उस आभासी मनोरमता से निकलकर
मन कुछ और देखना चाहता था
दौडते-दौडते  मन में विचार आया 
वह पहरेदार मेरा पीछा क्यों नहीं कर रहा है
ऐसा लगा मानो वह निश्चित है कि
 मैं कितना भी दोडूं वहां से बाहर
नहीं निकल सकता हूं
थोडी देर दौडने के बाद
घास के मैदान का अंत दिखाई दिया
वह उंची दीवारों से घिरा हुआ था
लेकिन उसके बीच
बहुत ऊंचा लकडी का दरवाजा लगा हुआ था
जो दूसरी और से लोहे की सांकलों से बंद था
पहरेदार क्यों निश्चिंत था
 अब पता चला
साथ ही पता चला
घास का क्षितिज अनन्त नहीं है,
यह केवल आभासी था
मन में घबराहट हुई
साथ ही संकल्प और मजबूत हुआ
जब भागे हैं तो पार करके की रहेंगे
लकडी के दवराजों के ऊंचे-ऊंचे  दो पल्लों को
संकल्प की दृढता के साथ
तेजी से बाहर-भीतर खिंचना शुरू किया
लेकिन यह क्या बिना अधिक प्रयास के
वह लकडी का दरवाजा खुल गया
दरवाजा खुलते ही मन में
प्रसन्नता की लहर दौड गई
साथ ही विचार आया
पहरेदार की निश्चिंतता गलत थी
इन्हीं विचारों के साथ जैसे ही
खुशी के साथ सिर ऊपर उठाया
देखा वहां प्रकाश ही प्रकाश है
लेकिन पहले की तरह वहां भी एक दीवार थी
उसी आकार का लकडी का दरवाजा लगा हुआ था
फिर घबराहट हुई
फिर विचार आया शायद पहरेदार ही सही था
लेकिन प्रयास पूर्ण ईमानदारी के साथ जारी थे
लेकिन इधर-उधर देखने पर
पता चला यह तो दीवार को छोटा सा टुकडा है
जिसके दोनों किनारे पूरी तरह से खुले हुए है
तेजी से दौडकर किनारे पर पहुंच गए
किनारे से झांककर देखा
आगे मुक्ति का क्षितिज था
आत्मा खुशी से भर उठी
आज द्वैतता का अंत हुआ
एक बार फिर विचार आया
मैं सही था,
मेरे संकल्प सही थे
मेरी धारणा ठीक थी,
मेरे प्रयास ठीक थे
मेरा मार्ग ठीक था
क्योंकि आज सत्य मेरे सामने था
सबकुछ साफ दिखाई दे रहा था  
सामने अब कोई बाधा नहीं थी
मैं अपने लक्ष्य पर खडा था
लेकिन वह पहरेदार गलत साबित हुआ
मैं उसकी आभासी बेडियों से मुक्त हो चुका था
उसकी निश्चिंतता गलत साबित हुई
इन्हीं विचारों के साथ
 मैं मुक्ति क्षितिज को जीने लगा
वहां सुख का अनंत था
सुबह जैसी ताजगी थी
वर्फ को छुकर बहती हवा जैसी शीतलता थी
भोर मे छाई स्वर्णिम कांति थी 
ज्ञान का अथाह सगार था
मेरे हाथों में ढेरों उपहार थे
अब मैं अपने गांव पहुंच चुका था

 - आशीष कुमार 

मंगलवार, 30 जुलाई 2013

मेरा राष्ट्र महान



AKHAND BHARAT
सुना है मेरे देश का इतिहास बड़ा महान
सोने की चिड़िया था लोग थे बडे सुजान
घर-घर  पैदा  होते  थे कृष्ण और राम
नारियां  पूजी  जाती थी देवी के समान

     


      ना  वर्ग  भेद था, ना जाति असमान
     ना नर-नारी भेद, था अधिकार समान
     प्रजा  सेवा था  राजा का कर्म प्रधान
     सत्य और अहिंसा थे सबकी आन-बान  

तकनीक से  परिपूर्ण था  हमारा विज्ञान
आसमान में उड़ा करते थे पुष्पक विमान
ग्रह, नक्षत्र, ज्योतिष  का  था पूर्ण ज्ञान
सभी  साक्षर  थे  पूर्ण  वेद   ज्ञानवान

     अब  मेरे  राष्ट्र को  क्या  हो गया है
     वह प्राण, स्वाभिमान कहां खो गया है
     राजनीति से जन सेवा लोप हो गया है
     निज हित ही उद्देश्य प्रधान हो  गया है

धर्म   मार्गदर्शक  से  उद्योग हो  गया है
मौलानाओं   की कट्टरता श्रृंगार  हो  गया है
राजनेता, उद्य़ोगपति, मालामाल हो गया है
रोटी की जुगाड़ में आम चूर-चूर हो गया है

      अब बस, जो  होना  सो हो गया
      आत्मगौरव को पुन:  पाना  होगा
      उल्टे को उलटकर सीधा करना होगा
      भारत को विश्व का सिरमौर बनेगा
     
-    आशीष कुमार  

शनिवार, 27 जुलाई 2013

नरेन्द्र मोदी बनाम राहुल गांधी

Narendra Modi Vs Rahul Gandhi

आशीष कुमार
आरएसएस के कर्मठ कार्यकर्ताओं की टीम से निकले नरेंद्र मोदी राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं। वह राजनीति के अखाडे में विरोधियों को चित करना अच्छी तरह से जानते हैं। उनके शब्दों मे जीवन का संघर्ष और स्वयं द्वारा अनुभव की गई आम लोगों की पीड़ा साफ झलकती है। मोदी देश के संबंध में बड़ा सोचते हैं और पूरा करने के लिए इच्छाशक्ति का भी प्रदर्शन करते हैं वहीं राहुल गांधी अनुभवहीन व भ्रमित दिखाई देते हैं। राहुल गांधी संघर्षों से सदैव दूर रहे हैं। उन्होंने राजकुमारों जैसा काल्पनिक जीवन जीया है। उनके प्राणहीन भाषणों से साफ दिखाई भी देता है।  यही कारण है कि वह अभी तक देश के लोगों पर अपनी छाप छोड़ने में नाकामयाब रहे हैं और भविष्य में उम्मीद भी 
दिखाई नहीं देती है।

राहुल गांधी कभी भी सीधे मीडिया से मुखातिब नहीं होते हैं। मीडिया के बड़े-बड़े धुरंधर उनका वन-टू-वन इंटरव्यू लेने में आज तक कामयाब नहीं हो पाए हैं। बड़े मुद्दों पर जब देश राहुल से उनके विचार जानना चाहता है तो उन हालतों में भी उन्होंने अपने को देश के लोगों से अलग रखा। उत्तराखंड जैसी प्राकृतिक आपदाओं के संदर्भ में उन्होंने पीडित परिवारों के लिए सहानुभूति से भरे दो शब्द भी नहीं कहे। कारण स्पष्ट माना जा सकता है कि राहुल गांधी को अपनी योग्यता पर विश्वास नहीं है। उन्हें लगता है कि कहीं उनके किसी बयान पर बबंडर न खड़ा हो जाए।
कांग्रेस की परंपरा में भारतीय लोकतंत्र अप्रत्यक्ष राजशाही है। राहुल गांधी इसी परंपरा के तहत देश के प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। यदि देश में प्रधानमंत्री चुनने की प्रत्यक्ष प्रणाली लागू होती तो वह देश के शायद ही इस जन्म में प्रधानमंत्री बन पाते। मनमोहन सिंह की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। इसे विडंबना ही माना जाएगा।

चलते-चलते ..........

इस समय देश में राजनीति का एक नया चेहरा व चरित्र देखने को मिल रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की ओर से पीएम पद के पूर्ण संभावित उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष नियुक्त होने के बाद से तथाकथित सेक्युलरवादी मुखर हो उठे हैं। बोट बैंक की राजनीति में अपना अस्तित्व तलाशने वालों के हाथ मानो कोई जादुई मुद्दा हाथ लग गया हो। मुकाबले की वर्तमान तस्वीर में बीजेपी बनाम अन्य दिखाई दे रहा है। ऐसे हालतों में वोटों के धुव्रीकरण के डर से अल्पसंख्यककों के रहनुमाओं के भी होश फाख्ता हैं। वह अच्छी तरह जानते हैं कि यदि धार्मिक धुव्रीकरण हुआ तो उनके जातीय समीकरणों का खेल रठमठ हो जाएगा। तुष्टीकरण की राजनीति करने वाले न घर के रहेंगे न घाट के। यही कारण है कि बदले हालतों में किसी को 21 साल बाद .अयोध्या में कारसेवकों की हत्या पर पछातवा हो रहा है और कोई अपने को हिंदु साबित करने के लिए अपने घर में दसियों मंदिर होने व नियमित पूजा-पाठ करने के सबूत पेश  कर रहा है।

सोमवार, 3 दिसंबर 2012

जी न्यूज के बहाने पत्रकारिता का अंदरखाने


आशीष कुमार

हले दो संपादकों की गिरफ्तारी के पूरे प्रकरण पर गिरफ्तारी, गिरफ्तारी से पहले और उसके बाद के घटनाक्रमों का सिलसिलेवार तरीके से जांच पड़ताल करते हैं ताकि कुछ मथकर ऊपर आ सके। दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने जी न्यूज के संपादक व बिजनेस हेड़ सुधीर चौधरी और जी बिजनेस के संपादक व बिजनेस हेड़ समीर अहलूवालिया को नवीन जिंदल प्रकरण में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया।
जिस रात दोनों को गिरफ्तार किया गया जी न्यूज के सलाहकार संपादक पुण्य प्रसून वाजपेयी ने रात दस बजे के अपने प्रोग्राम बड़ी खबर में इसे आपातकाल से जोड़ कर दिखाया। पुण्य प्रसून वाजपेयी अपनी स्टाईल में दोनों हाथों की हथेलियों को रगड़ते हुए, जंजीरों में जकड़े मीडिया शब्द के क्रोमा के आगे खड़े होकर बड़ी उर्जा व तर्कों के साथ इसे मीडिया पर सेंसरशिप व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन के रूप में दिखा रहे थे। इस दौरान उन्होंने बहुत से वर्जनों के बीच वरिष्ट पत्रकार कमर वाहिद नकबी और ब्रॉस्डकॉस्टिंग एडिटर एसोसिएशन के अध्यक्ष एनके सिंह का वर्जन भी लिया। कमर वाहिद नकबी के बयानों को अपने पक्ष में तोड़ मरोड़कर पेश किया गया।
जी न्यूज के बिजनेस सहित सभी समाचार चैनलों पर इसे आपातकाल के दौरान की हालतों से जोड़कर दिखाया गया। विभिन्न राष्ट्रीय पार्टियों के प्रवक्ता व मुख्य नेताओं के बयानों को अपने पक्ष में दिखाया गया। टीवी के प्राइम टाइम में बहसों का दौर चला। जमकर फेसबुकबाजी हुई। खांटी पत्रकारों को पत्रकारिता की समीक्षा करने का सुनहरा मौका मिला। सरकार को मीडिया के मामले आक्रमक होने का मौका मिला। मौका दिया जी न्यूज के मालिक के व्यवसायिक हितों और उसके संपादकों व चैनल के प्रति पैसे बटोरने की हवस ने, शायद उनकी नीयत में भी कुछ रहा होगा। कोई बेवजह सफेद कपड़े पहनकर कोयले की खदान में क्यों घुसेगा।
नेताओं को तो बोलने का मौका मिलना चाहिए। जब मीडिया के साथ सांत्वना दिखाने और जी न्यूज के आंसू पोछने को मौका मिला तो वह कहां चूकने वाले थे, उन्होंने भी बिना जाने-समझे इसे अधिकारों का हनन और आपातकाल बता दिया। इस पूरे प्रकरण में छोटी सी गलती और मालिक के प्रति वफादारी दिखाने के चक्कर में पत्रकारिता जगत के छात्रों के लिए आदर्श पुण्य प्रसून वाजपेयी पर भी लोगों को उंगली उठाने का मौका मिल गया।
चलिए इसकी जड़ तक जाने के लिए सुधीर चौधरी की कुंडली और नवीन मामले की भी पड़ताल कर लेते हैं। लाइव इंडिया से जी न्यूज पहुंचे सुधीर चौधरी मल रूप हरियाणा के हिसार के रहने वाले हैं। उनके व्यवहार में हरियाणवी ठसक व रिस्क लेने की प्रवृत्ति भी दिखाई देती है। पत्रकारिता जगत में उनकी कार्यशैली को लेकर पहले भी उंगली उठती रहीं हैं। नवीन जिंदल प्रकरण का मुद्दा इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के संपादकों की स्वतंत्र संस्था बीईए में उठने पर सुधीर चौधरी का जवाब था कि वह एक संपादक के साथ चैनल के बिजनेस हेड़ भी हैं, जिसके नाते वह नवीन जिंदल से 100 करोड़ का विज्ञापन मांगने गए थे। यह तो यू ट्यूब पर सबके लिए उपलब्ध वीडियो को देखकर कोई आम आदमी बता सकता है कि विज्ञापन मांगा जा रहा है या और कुछ भी हो रहा है। बचाव में तरह-तरह के तर्क देने की कोशिश की गई। कहीं कुछ मछलियां हीं पूरे तलाब को गंदा तो नहीं कर रहीं। लेकिन यह सच है कि यह मछलियां कुछ जरुर हैं लेकिन बहुत बड़ी-बड़ी हैं।

जी न्यूज के कर्मचारियों का दबी जुबान से मानते हैं कि सुधीर चौधरी के जी न्यूज में आने की भी एक कहानी है। जी न्यूज के मालिक सुभाष चंद्रा को हरियाणा में रियल एस्टेट के करोबार को फैलाने में राजनीतिक कारणों से अड़चनों का सामना करना पड़ रहा था। कहा जाता है कि जी न्यूज के संपादक एनके सिंह की हुड्डा के साथ ट्यूनिंग सही नहीं थी, जिसके कारण वह सुभाष चंद्रा की व्यवसायिक अड़चनों का दूर नहीं कर पा रहे थे। ऐसे में सुधीर चौधरी को मौका मिला। मुख्यमंत्री दीक्षित से जुगाड़ लगाकर व हरियाणा में रियल एस्टेट करोबार में आ रहीं दिक्कतों को दूर करने का भरोसा देकर सुधीर चौधरी जी न्यूज पहुंच गए। एके सिंह को जी न्यूज छोड़ना पड़ा। वह लाइव इंडिया पहुंच गए। बाद की कहानी जगजाहिर है।
एक मछली ने मीडिया पर उंगली उठाने का मौका दे दिया। वैसे यह मामला मीडिया की नैतिकता से जुड़ा हुआ था। सुधीर चौधरी प्रकरण मीडिया सेंसरशिप का न होकर एक आपराधिक मामला था। संपादकों की गिरफ्तारी पर मीडिया की त्वरित कार्रवाई और आपातकाल से तुलना करने के कारण उसने खुद अपने पैरों पर कुल्हाडी चलाई। सच तो यह है कि मीडिया के नियामन से जुड़ी संस्थाएं मीडियाकर्मियों या संस्थाओं के आपराधिक मामलों को नहीं देख सकतीं या देखती हैं। यदि कोई मीडिया संस्था या मीडियाकर्मी अपराध करेगा तो उसको पुलिस और न्यायपालिका ही डील करेगी। मीडिया कंटेंट और मीडियाकर्मियों के अपराधों को अलग करके देखना होगा। मीडिया के नियामक संस्थाएं कंटेंट व उसकी आचार संहिता को लेकर ही कुछ सकती हैं। मसलन, मीडिया में साफ छवि के लोग ही होने चाहिए ताकि आम आदमी का मीडिया पर विश्वास बना रहे। यदि संपादक मर्सिडिज, बीएमडब्ल्यू, फोरचूनर से चलेंगे और फाइव स्टार जीवन शैली अपनाएंगे तो उसका खर्च वहन करने के लिए ऐन केन प्रकारेण तो करना पड़ेगा जो तलाब गंदा करने का कारक भी बन सकता है।  

नौकरशाही के फंदे में सपा सरकार

अखिलेश यादव व मुलायम सिंह यादव

आशीष चौधरी  
मुलायम के दिशानिर्देशों और अखिलेश के नेतृत्व में चल रही उत्तर प्रदेश करकार भी अफसरशाही के चंगुल में नजर आ रही है। इस व्यवस्था के पीछे सरकार और उसके लोगों के व्यक्तिगत स्वार्थ भी हो सकते हैं जो अफसरशाही और राजनीति के सांठगांठ से पूरे किए जाते हैं। सभी जानते है मायावती सरकार में अफसरशाही सरकार के दिशा निर्देशों पर वर्ग विशेष के लिए काम कर रही थी, जिसके कारण आम जनता ने उसे नकार दिया और सपा सरकार को मौका दिया। लेकिन सत्ता में आने के बाद सपा सरकार भी उसी ढर्रे पर चलती नजर आ रही है, जिसका खमियाजा उसे आगामी चुनावों में भुगतना पड़ सकता है।

       2014 में होने वाले लोक चुनावों के लिए अभी से बिसातसजने लगी है। वैसे तो लोकसभा चुनाव में करीब डेढ़ वर्ष का समय बाकी है लेकिन केन्द्र की राजनीति जिस तरह पल-पल करवट बदल रही रही है, उससे इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि आम चुनाव की डुगडुगी कभी भी बज सकती है। दिल्ली की गद्दी के लिए विभिन्न राज्यों से रास्ते  तलाशे जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में तो आजकल कुछ ज्यादा ही सरगमी दिखाई दे रही है। राज्य में कम से कम तीन ऐसे नेता हैं जो 2014 में प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार माने जा रहे हैं या फिर अपने आप को समझ रहे हैं। इसमें कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी का नाम सबसे ऊपर है तो सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव और बसपा सुप्रीमों मायावती राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है को अपनी उम्मीद का आधार बनाए हुए हैं।
भाजपा और कांग्रेस दिल्ली में बैठकर 2014 को लेकर रणनीति बनाने में जुटे हुए हैं। लेकिन मुलायम सिहं यादव व मायावती यूपी में ही अपनी जड़े तलाश रहे हैं। दोनों ही दलों के नेताओं द्वारा प्रदेश की जनता को अपने फेवर में करने के लिए तमाम उपायों को अजमाया जा रहा है। हकीकत में दोनों ही पार्टियों के पास जातीय कार्ड खेलने व जनता को बरगलाने के अलावा कोई खास मुद्दा नहीं है। दोनों ही पार्टियों के पास विकास के नाम पर केवल कोरी बाते होती हैं, धरातल पर कोई ठोस योजना नहीं है, न ही दोनो पार्टियों ने सत्ता में आने के बाद प्रदेश के विकास लिए कोई विशेष इच्छाशक्ति दिखाई है। दोनों ही 2014 के आम चुनाव भी उसी आधार पर लड़ने जा रहे हैं जिसके कारण समजावादी पार्टी को 2007 के विधान सभा चुनाव में बसपा को 2012 के विधान सभा चुनाव में शिकस्त खानी पड़ी थी।
बहुजन समाज पार्टी विधान सभा चुनाव में बुरी तरह से हारने के बाद भी आम चुनाव सर्वजन हिताय,सर्वजन सुखायको आधार बना कर लड़ेगी। वहीं, समाजवादी पार्टी 2007 की तरह तमाम तरह की लोकलुभावन योजना तैयार कर प्रदेश के खजाने को पानी की तरह बहाएगी। सपा अपने पिछले शासनकाल की तरह से इस बार भी किसानों का कर्ज माफी, कन्या विद्याधन, बेरोजगारी भत्ते जैसी तमाम योजनाओं के सहारे जीत का सपना सजोए हुए है लेकिन वह यह बात भूल गई है कि इन सब योजनाओं पर तत्कालीन सपा राज का गुंडाराज-जंगलराज भारी पड़ा था। बसपा ने सपा के गुंडाराज को खूब भुनाया। बसपा ने सपा सरकार के गुंडाराज के खिलाफ नारा बुलंद कर सत्ता पर काबिज हुई थी लेकिन बसपा सरकार का जादू उसकी सुप्रीमों द्वारा जनता के साथ संवादहीनता और नित नए भ्रष्टाचार के मामलों के खुलासे के बाद खत्म हो गया। ऐसे हालत में कांग्रेस और भाजपा दोनों ही प्रदेश में बेहतर विकल्प के रूप में खुद को पेश करने में नाकामयाब रहीं। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव जनता की नब्ज को टटोलते हुए अपने युवा बेटे को आगे कर एक नया पैतरा आजमाया। मुलायम सिंह यादव जानते थे कि प्रदेश की जनता के मन में अभी भी बरकरार है कि सपा सरकार की वापसी होने पर गुंडाराज व जंगलराज की वापसी हो सकती है ऐसे में जनता ने युवा चेहरे अखिलेश पर विश्वास दिलाया। अखिलेश यादव ने भी अपनी लगभग सभी सभाओं में बस एक ही बात दोहराई कि अबकी सपा को मौका मिला तो कानून व्यवस्था से किसी को खिलवाड़ नहीं करने दिया जाएगा। लेकिन यह विश्वास अखिलेश के सत्ता संभालते ही तार-तार होने में कुछ दिन भी नहीं लगे। महिलाओं से छेड़छाड़, बलात्कार, लूटपाट और हत्याओं की घटनाओं के अलावा भी तमाम तरह के अपराधों की बाढ़ आ गई।
प्रदेश में जगह-जगह सपा नेता और मंत्री हनक दिखाने से बाज नहीं नजर आ रहे हैं। पद के रौब की आड़ में तमाम मर्यादाओं का उल्लंघन किया जा रहा है। राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त नवरलाल गोयल ने लखनऊ में जो किया वह जगजाहिर है। उन्होंने एक हिंदी दैनिक के फोटोग्राफर को मारा पीटा और बंधक बनाया। यह अलग बात है कि मामले में हो-हल्ला होने पर उन्हें अपने मंत्री पद से हाथ धोना पड़ा। गोंडा में सीएमओ को बंधक बनाया गया। बदायूं में तेल माफियाओं ने वहां के जिला पूर्ति अधिकारी को जिंदा जलाने कीस कोशिश की । इन सारी घटनाओं से अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकार से नजदीकी रखने वाले इन असामाजिक तत्वों के हौसले कितने बुलंद हैं।
प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव  सरकार चलाने में अनुभवहीन हैं। हर राजनीतिक व प्रशासनिक मामलों में उन्हें अपने पिता से सलाह लेनी पड़ती है। इसी अनुभवहीनता का परिणाम है कि अखिलेश ने कई बचकानी घोषणोएं कीं। घोषणायों पर मीडिया और राजनीतिक वर्ग में सवाल उठाने पर उन्हें तत्काल वापस लेना पड़ा।  विधायक निधि से विधायकों का गाड़ी खरीदने की घोषणा करने का मामला भी एक था। सरकार की अनुभवहीनता का फायदा उठा कर नौकरशाही बेलगाम होकर काम कर रही है। बसपा राज में जिन नौकरशाहों के कारण मायावती की किरकिरी हुई थी, वह समाजावादी शासन में भी अपनी जड़े मजबूती के साथ जमाए हुए हैं। नेता से लेकर नौकरशाह तक एक-दूसरे की काट करने और नीचा दिखाने में जुटे हैं।
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के चारो और उनके सहयोगियों द्वारा ही मुश्किलें खड़ी की जा रही हैं। उनके एक नहीं तमाम मंत्री और खासकर पंचम तल यानि मुख्यमंत्री सचिवालय पर बैठे नौकरशाह परेशानी का कारण बने हैं। सार्वजनिक मंचों से भी उनसे अपनी योजना द्वारा बुलवाया जाता है। लोहिया दिवस पर भी लखनऊ में यही नजारा देखने को मिला। सरकार अखिलेश यादव चला है अत: कामयाबी व नाकामयाबी के लिए भी वह नैतिक रूप से जिम्मेदार हैं। मुख्यमंत्री ने कई ऐसे भ्रष्ट नौकरशाहों को मलाईदार पदों पर बैठा दिया है जिनकी जगह जेल न सही तो कम से कम उन्हें जिम्मदार पदों से दूर रखा जाना चाहिए। यह तो वही बता सकते हैं कि यह सब किसी कहने पर या स्वयं कर रहे हैं, उनके या पार्टी के क्या स्वार्थ निहित हैं। जबकि ऐसे नौकरशाहों की मलाईदार पदों पर नियुक्ति से हाईकोर्ट भी खुश नहीं है। हाईकोर्ट आईएएस अधिकारी राकेश बहादुर और संजीव शरण की तैनाती पर आपत्ति जताई। कहा तो यहां तक जा रहा है कि पार्टी के कद्दावार नेता के दबाव के कारण अखिलेश यादव अपनी पसंद का मुख्य सचिव तक नहीं नियुक्त कर पाए।
अखिलेश ने 1984 बैच के आईएएस अधिकारी संजय अग्रवाल को अपना प्रमुख सचिव बनाए जाने की घोषणा भी कर दी थी, लेकिन कुछ घंटों के भीतर ही उन्हें अपना आदेश बदलना पड़ गया। उनकी जगह 1980 बैच के आईएएस अधिकारी राकेश गर्ग ने ले ली जो आज तक अपने पद पर विराजमान हैं। कहा जाता है कि संजय अग्रवाल की अनदेखी सीएम को पंचम तल पर तैनात एक आईएएस सचिव स्तर अधिकारी के कारण करनी पड़ी थी जो पिछली मुलायम सरकार में भी काफी ताकतवर जानी जाती थीं। कई नौकरशाह और पुलिस अधिकारी तो सरकारी अधिकारी कम नेता ज्यादा लगते हैं।
प्रदेश में जो अपराध की घटनाएं बढ़ रही हैं उसके पीछे अधिकारियों की नेता वाली मानसिकता भी कम जिम्मेदार नहीं है। नेताओं के सहारे राजनीति करने में माहिर कई बड़े अधिकारियों ने किसी न किसी बड़ें नेता को अपना आका बना रखा है। इसके जरिए नेताजी को अपनी नेतागिरि चमकाने में आसानी रहती है वहीं अधिकरी को निर्भय के साथ भ्रष्टाचार को अंजाम देने का रास्ता साफ हो जाता है। सपा राज में एक इंस्पेक्टर की भी इतनी हैसियत रखता है कि वह एसपी तक से भिड़ने का साहस कर बैठता है। हापुड़ में यह नजारा पिछले दिनों देखने को मिला। हापुड़ के एसपी ने एक पुलिस निरीक्षक को इस बात कि लिए फटकार लगाई कि वह अपने इलाके में अपराध नियंत्रित नहीं कर पा रहा है, इस पर निरीक्षक उनके भिड़ गया और जब एसपी ने उसे सस्पेंड कर दिया तो उसने अपने आकाओं के माध्यम से ऐसा दबाव बनाया कि एसपी साहब हो 12 घंटे के भीतर उसकी बहाली करनी पड़ी। समाजवादी पार्टी की मजबूत पकड़ वाले इलाकों आगरा, एटा, इटावा, मैनपुरी के पुलिस अधीक्षक इस बात की मिसाल हैं। उन पर अक्सर ही समाजवादी पार्टी के लिए काम करने का आरोप लगता रहता है। मायावती सरकार में कई पुलिस अधीक्षक और जिलाधिकारियों पर पार्टी का एजेंट बनने का आरोप लगा था। प्रदेश विधान चुनाव के दौरान चुनाव आयोग ने भी ऐसे आधिकारी ब्लैक लिस्ट जारी कर कड़ी आपत्ति दर्ज कराई थी। जिसमें मेरठ समेत कई जिलों के पुलिस उप महानिरीक्षक व जिलाधिकारी शामिल थे। इन सारी वजहों से आम लोगों में सरकार नुमाइंदों पर वर्ग विशेष के लिए काम करने का ठप्पा लगा था। सपा सरकार भी उसी मार्ग पर चल रही। इसे अखिलेश की अनुभवहीनता ही कहा जाएगा कि प्रशासन को लेकर उठ तमाम गंभीर सवालों के बावजूद कोई कारगर पहल होती नजर नहीं आ रही है। यदि सब कुछ ऐसा ही चलता रहा तो प्रशासनिक स्तर हो रही इन खामियों के कारण 2014 के आम चुनावों में भारी खमियाजा उठना पड़ सकता है। इन्हीं कारणों से मुलायम सिंह यादव के तीसरे मोर्चे की संभावनाओं और केन्द्र राजनीति में धाक जमाने के सपने पर भी तुषारपात हो सकता है। 

इंडिया टाइम्स पत्रिका के नवंबर अंक में प्रकाशित 

आशीष कुमार
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